पत्रकारों पर कब नजरे इनायत करेंगे काटजू?
मित्रों,पिछले दो दशकों में भारत का ऐसा कोई भी सेक्टर नहीं है जो तथाकथित उदारीकरण और वास्तविक पूंजीवादी लूट के कारण प्रभावित नहीं हुआ हो। पत्रकारिता भी कोई अपवाद नहीं है। आज बहुसंख्य पत्रकारों की हालत बंधुआ मजदूरों से भी बदतर है। उनको वेतन नहीं मिलता अनुदान मिलता है। उनको सादे कागज पर हस्ताक्षर करवाकर श्रमजीवी पत्रकार की निर्धारित परिभाषा से भी बाहर कर दिया गया है और न तो उनके काम के घंटे ही निश्चित हैं। उनका पूरा परिवार आमिर खान के विज्ञापन के ताबड़तोड़ प्रसारित किए जाने के बाबजूद कुपोषित है और अभावों की दुनिया में जी रहा है,चाक जिगर के सी रहा है। जहाँ पिछले दस सालों में ही वस्तुओं और सेवाओं के दामों में दोगुने से भी ज्यादा की वृद्धि हो चुकी है अधिसंख्य पत्रकारों का अनुदान यथावत है।
मित्रों,भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना 1966 में इसलिए की गई थी कि प्रेस की स्वतंत्रता प्रत्येक स्थिति में अक्षुण्ण बनी रहे और पत्रकारों के आचरण पर निगाह रखी जा सके। लेकिन दुर्भाग्यवश हम पाते हैं कि भारतीय प्रेस परिषद के वर्तमान अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू वही सारे काम कर रहे हैं जो उनको परिषद के अध्यक्ष के तौर पर नहीं करना होता है। किसी पूर्व न्यायाधीश को इसलिए परिषद का अध्यक्ष नहीं बनाया जाता कि वो अपने निहित स्वार्थ को साधने लगे और निष्पक्षता का परित्याग कर दे। बल्कि किसी भी वर्तमान या पूर्व न्यायाधीश से यह उम्मीद की जाती है वह किसी भी प्रकार के पक्षपात से दूर रहेगा। काटजू साहब फरमाते हैं कि बिहार,पश्चिम बंगाल जैसे गैर यूपीए राज्यों में राज्य सरकारों ने सरकारी विज्ञापनों का धौंस दिखाकर या लालच देकर समाचार-पत्रों को बंधक बना लिया है। मैं उनसे पूछता हूँ कि समाचार-पत्र-प्रबंधन धौंस या लालच में आता ही क्यों है? काटजू साहब अगर दर्पण चेहरे को गंदा बता रहा है तो आपको क्या करना चाहिए,उसे तोड़ देना चाहिए या अपने चेहरे को साफ करना चाहिए? क्या मैं आपसे पूछ सकता हूँ कि आपने अब तक लालच या दबाव में आ जानेवाले समाचार-पत्रों के विरूद्ध क्या कदम उठाए हैं? क्या आपने कभी यह जानने की कोशिश की है कि इन समाचार-पत्रों में श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम,1955 का कहाँ तक पालन किया जा रहा है? क्या आपने यह पता लगाया है कि कितने समाचार-पत्रों ने मजीठिया वेतनमान को लागू किया और कितने ने नहीं और क्यों? क्या आपने यह मालूम किया है कि जबकि मीडिया हाऊसों के मुनाफे में हर साल अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है पत्रकारों का वेतन क्यों जस-का-तस है? आखिर आप मीडिया हाऊसों के प्रति इतने कृपालु क्यों बने हुए हैं और उनकी काली करतूतों के प्रति आपने आँखें बंद क्यों कर रखी हैं?
मित्रों,आश्चर्य है कि काटजू साहब को दूर की घटनाएँ या गड़बड़ियाँ तो दिख जाती हैं लेकिन खुद उनके चिराग तले कितना घना अंधेरा है नहीं दिख रहा। शायद श्रीमान् की दूर दृष्टि सही है और निकट दृष्टि कमजोर है। अगर पत्रकार कुपोषित हैं,शोषित हैं,दलित हैं और भूखे हैं तो काटजू साहब कैसे बनी रहेगी खबरों की गुणवत्ता और कैसे और कब तक उनकी कलम आजाद रह पाएगी? अगर आप पत्रकारों की दयनीय स्थिति पर भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष के रूप में कुछ नहीं कहना चाहते तो बतौर सामान्य नागरिक ही कुछ कह देते जैसा कि अभी आपने नरेंद्र मोदी के लिए कहा है। काटजू साहब भारतीय प्रेस परिषद के अधिकार क्षेत्र के बाहर की चीजों पर आप बाद में भी ध्यान दे सकते हैं पहले आप अपने घर प्रिंट मीडिया में जमी गंदगी को तो छुड़ाईए। अगर आप ऐसा कर सके तो आपको लाखों मीडियाकर्मी सपरिवार दुआएँ देंगे। उनका जीवन बदल जाएगा,सँवर जाएगा। मी लॉर्ड आप ऐसा आप कर सकते हैं,जरूर कर सकते हैं क्योंकि यह आपके अधिकार-क्षेत्र में आता है।
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