हमें तो लूट लिया मिल के कांग्रेस वालों ने
मित्रों,वर्ष
2004 में जब कांग्रेस की मनमोहिनी सरकार सत्ता में आई थी तो आपको याद होगा
(क्योंकि जनता की याद्दाश्त कतई कमजोर नहीं होती है) कि तय हुआ था कि हर
100-200 दिनों पर प्रधानमंत्री मंत्रियों की कक्षा लगाएंगे और उनको बताएंगे
कि मंत्री के काम में कहाँ कमी रह गई। इतना ही नहीं यह तय हुआ था कि
मंत्रियों के कामकाज का मूल्यांकन कर उनको अंक भी दिए जाएंगे। परन्तु
मंत्रियों की कक्षाएं तो कभी ली ही नहीं गई अंक जरूर दे दिए गए और सबको
एकसिरे से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण घोषित कर दिया गया। शुरू में जब तक
सरकार साम्यवादी वैशाखी का उपयोग कर रही थी तब तक उसका कामकाज अगर अच्छा
नहीं था तो बुरा भी नहीं था। हालाँकि तभी मनमोहन सिंह ने यह प्रदर्शित करना
शुरू कर दिया था कि वे मजबूत नहीं मजबूर प्रधानमंत्री हैं और इस तरह निरीह
सलाहकार की तरह बोलना शुरू कर दिया था जैसे वे भारत के नहीं अन्यत्र के
प्रधानमंत्री हैं।
मित्रों,फिर जब एक बार सरकार साम्यवादी शिकंजे से आजाद हुई तो कप्तान कम
स्वघोषित रेफरी मनमोहन ने अपने खिलाड़ियों (मंत्रियों) को खुलकर फाउल खेलने
की पूरी और बुरी छूट दे दी। फिर तो मंत्री जनता के (अपने ही) पाले में
जमकर गोल करने लगे। कई बार तो राजा जैसे खिलाड़ियों ने खेल के नियम भी बदल
डाले। किसी ने विश्व रिकार्ड बनाते हुए 1 लाख 75 हजार करोड़ गोल किए तो
किसी ने 10-20 बीस हजार करोड़। राजनीतिक मर्यादा और नैतिकता की ऐसी की तैसी
ही नहीं की गई बार-बार उनकी माँ-बहन को भी एक किया गया। वो कहते हैं न कि
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,कहाँ तो चिराग मयस्सर नहीं शहर के
लिए। इस बीच बार-बार रह-रहकर यह अफवाह भी उड़ती या उड़ाई जाती रही कि वली
अहद राहुल बाबा अब माबदौलत बने कि तब बने। उनके लिए यह काम था भी बड़ा
आसान। उतना ही आसान जैसे कि हमारे लिए सुबह-सुबह टहलना या ब्रश करना होता
है। लेकिन अफवाहें तो अफवाहें ही होती हैं सो न तो राहुल बाबा को
प्रधानमंत्री बनना था और न ही वे बने।
मित्रों,आजकल जब राहुल बाबा को पार्टी में कथित प्रोन्नति दे दी गई है और
उनको कांग्रेस की तरफ से अगले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का
स्वाभाविक उम्मीदवार बताया जा रहा है तब भी वे प्रधानमंत्री बनने को लेकर न
केवल घोर उदासीनता बरत रहे हैं बल्कि प्रदर्शित भी कर रहे हैं। उनके किसी
चमचे ने जहाँ उनकी ठकुरसोहाती की रौ में उनको प्रधानमंत्री बनाने की मांग
रखी नहीं कि सिरिमान (श्रीमान) इस तरह भड़क उठते हैं जैसे वर्णांध सांढ़
लाल कपड़े को देखकर। जिस पद पर चंद दिनों के लिए भी बैठने के लिए या जिस
कुर्सी पर बैठकर सिर्फ फोटो खिंचवाने के लिए भारत के सारे राजनेता व्याकुल
रहते हैं वही कुर्सी राहुल बाबा को काँटों की सेज नजर आती है। ऐसा क्यों
है,क्या रहस्य है इसमें? क्या राहुल गांधी मनमोहन सिंह के कुराज में जनता
के दुःखों-कष्टों के प्रति तनिक भी संवेदनशील नहीं हैं? अगर हैं तो क्यों
वे खुद प्रधानमंत्री नहीं बन रहे और अगर नहीं हैं तो इसके पीछे क्या-क्या
कारण हो सकते हैं? जैसे कि नपुंसक वर विवा���� के नाम से ही हड़कता है
राहुल गांधी का रोम-रोम क्यों प्रधानमंत्री बनने की बात सुनकर ही सिहरने
लगता है? क्या वे डरते हैं कि अगर वे प्रधानमंत्री बने तो बाप और दादी की
ही तरह उनकी भी हत्या हो जाएगी? तो फिर वे राजनीति में आए ही क्यों? अगर वे
यह समझते हैं कि वे और उनके बनाना गणतंत्र के मैंगो जीजाश्री सत्ता में न
आकर भी सत्ता का निर्बाध आनंद अनंत काल तक लेते रहेंगे और केंद्रीय
मंत्रियों की तरह मलाई चाभते रहेंगे,भूमि और अन्य घोटाला करते रहेंगे और
फिर भी बोतलबंद पानी पी-पीकर सत्ता को जहर कहकर गालियाँ देते रहेंगे तो वे
भारी मुगालते में हैं। ऐसा गुड़ खाए और गुलगुले से परहेज सिर्फ तभी तक हो
पाएगा जब तक जनता उनकी पार्टी की सरकार को उसके लूटराज से उबकर सत्ता से
हटाती नहीं है। अगर राहुल बाबा में योग्यता है तो उनको देश की बागडोर सीधे
अपने हाथों में ले लेनी चाहिए और अगर उनमें योग्यता नहीं है तो देश की जनता
से हाथ जोड़कर माफी मांग लेनी चाहिए जनता अन्य विकल्पों पर खुद ही विचार
कर लेगी। राहुल जब अभी सुबह के नाश्ते से पहले या डिनर के बाद कभी भी
प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो फिर उनको आगामी लोकसभा चुनावों में
प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना क्या हास्यास्पद नहीं है? दुर्भाग्यवश
राहुल बाबा न तो यह कर रहे हैं और न ही वह। वे तो बस अभी भी न जाने क्यों
राजनीति के टेढ़े आंगन में नाचने के बदले पौआ-पौआ चलना सीख रहे
हैं,गुड्डे-गुड़ियों (छोटे-मोटे घोटालों) से खेलने और खेलते ही रहने की जिद
कर रहे हैं। इस बीच सत्ता चाहे उनके लिए भले ही जहर न हो जनता के लिए उनकी
पार्टी का सत्ता में होना जरूर प्राणघातक साबित हो रहा है।
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