शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

वर्तमान समय में जेपी की प्रासंगिकता


मित्रों,कल लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती थी और आज डॉ. राममनोहर लोहिया की पुण्यतिथि है। इस अवसर पर पूरे भारत ने उन दोनों को शिद्दत के साथ याद किया। जहाँ जेपी का नाम सामने आते ही हमलोगों को 1974 के आंदोलन का स्वतः स्मरण हो आता है वहीं लोहिया का नाम कानों में पड़ते ही एक ऐसे दूरदर्शी का अक्स आँखों में उभर आता है जिसने आजादी के तत्काल बाद ही भारतीय लोकतंत्र की खामियों को समझ लिया था। जहाँ लोहिया महान विचारक थे वहीं जेपी महान् कर्मयोगी। वास्तव में जेपी एक व्यक्ति नहीं आंदोलन थे। एक ऐसा आंदोलन जो सबकुछ बदल देना चाहता था। समाज,राजनीति और व्यवस्था सबकुछ। निरंकुश सत्ता ने तब 21 महीनों के लिए पूरे देश को एक विशाल जेलखाने में बदल दिया था। न तो जुल्मी ने ही हार मानी थे और न तो जेपी के अनुयायी दिवानों ने ही। एक तरफ एक बूढ़ा और बीमार व्यक्ति और दूसरी ओर अपार बलशाली केंद्र और राज्यों की कांग्रेसी सरकारें। उद्दाम नाजीवादी कांग्रेसी तूफान के सामने जलते हुए एक नन्हें से दिये के समान थे जेपी। फिर आया सन् 1977 का चुनाव और चमत्कार हो गया। तूफान हार गया था और दीपक जीत गया था।
                मित्रों,जनता पार्टी की सत्ता के कुछ ही महीनों में जेपी की समझ में यह आ चुका था कि वे अपने चेलों द्वारा ही ठगे गए हैं। जेपी जीतकर भी हार गए थे और भीतर तक टूट भी गए थे। सत्ता और कुर्सी के लिए जेपी की पार्टी जनता पार्टी में लठ्ठमलठ्ठा होने लगा जिससे सबसे ज्यादा घायल हुई थी खुद जेपी की अंतरात्मा। कुछ समय बाद ही जनता पार्टी के कथित समाजवादी और छद्मधर्मनिरपेक्षतावादियों ने आरएसएस को आतंकी संगठन घोषित कर स्यापा करना शुरू कर दिया। तब तक जेपी अपने धूर्त समाजवादी-धर्मनिरपेक्षतावादी चेलों की करतूतों और लोमड़ीपने को भलीभाँति समझ चुके थे इसलिए वे आरएसएस के समर्थन में चट्टान की तरह खड़े हो गए और सिंहनाद करते हुए कहा कि अगर आरएसएस आतंकी संगठन है तो वे भी आतंकी हैं। जेपी समझ चुके थे कि उनसे जनता पार्टी के गठन में गंभीर गलती हुई है लेकिन उनके पास भूल-सुधार करने के लिए पर्याप्त समय नहीं था और 8 अक्तूबर,1979 को उनका देहान्त हो गया। दुर्भाग्यवश तब केंद्र में कथित समाजवादी चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस समर्थित सरकार सत्ता में आ चुकी थी और जनता पार्टी की सरकार का पतन हो चुका था। संपूर्ण क्रांति का नारा महज नारा बनकर रह गया।
                                      मित्रों,फिर भी जेपी के एक सिद्धान्त के प्रति उनके चेलों की आस्था कमोबेश 1989 तक बनी रही। बीजेपी के उभार के बाद जेपी और लोहिया के गैरकांग्रेसवाद के नारे का स्थान गैरभाजपावाद ने ले लिया। आज लोहिया-जेपी के चेलों का इतना अधिक नैतिक पतन हो चुका है कि वे उसी इंदिरा की बहू की पालकी ढोने में लगे हैं जिसको कि जेपी और लोहिया ने कभी सिरे से नकार दिया था। आज वे भ्रष्टाचार के पंक में आकंठ डूबे हुए हैं और आज सोनिया की कांग्रेस भी इंदिरा की कांग्रेस के मुकाबले करोड़ गुना ज्यादा पतित है। आज की कांग्रेस ने चुनाव आयोग और सीएजी जैसी संवैधानिक व प्रतिष्ठित संस्थाओं को भी चहेते अफसरों के माध्यम से अपना गुलाम बना लिया है। बाबा रामदेव उपदेश दें तो चुनाव आयोग का डंडा और जब बुखारी या देवबंद फतवा जारी करे तो अंधा-बहरा आयोग अंधा-बहरा बन जाता है? सोनिया कांग्रेस ने न केवल जनता बल्कि अपराधियों को भी संप्रदायों में बाँट दिया है और तदनुसार उनके साथ अलग-अलग तरह का व्यवहार किया जा रहा है। क्या यही अनुच्छेद 14 में वर्णित समानता का अधिकार है?
                  मित्रों, आज जेपी-लोहिया के चेलों का न कोई सिद्धांत है और न ही कोई मूल्य सिर्फ सत्ता और पैसे के पीछे अंधी दौड़ में वे दौड़े चले जा रहे हैं। जेपी ने तो कभी न तो सत्ता चाही और न ही पैसा लेकिन उनके चेले उनके जीते-जी ही पथभ्रष्ट हो गए? भ्रष्टाचार करने और बचाव के लिए धर्मनिरपेक्षता का बुर्का पहन लेने में जेपी-लोहिया के चेलों ने चिर भ्रष्ट और तानाशाह कांग्रेस को भी मात दे दी है। संपूर्ण क्रांति अर्थात् व्यवस्था-परिवर्तन तो उनकी प्राथमिकता सूची में कभी था ही नहीं। न जेपी के जीते-जी और न ही मरने के बाद। जनता आपस में जातीयता,सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयता के मुद्दे पर आपस में कट-मर रही है और ये लोग प्रशासन को निर्देश दे रहे हैं कि जो हो रहा है उसे होने दो। दंगे सरकार खुद करती-करवाती है और पकड़कर जेलों में ठूंस देती है विपक्षी नेताओं को। कांग्रेस और जेपी-लोहिया के इन चेलों में कोई सांस्कृतिक और चारित्रिक अंतर रह ही नहीं गया है। कांग्रेस तो आजादी के बाद से ही फूट डालो और शासन करो की नीति पर चलती रही है परन्तु जेपी-लोहिया के चेलों का भी अब सत्ता-सुख पाने का यही मूलमंत्र बन गया है।
                         मित्रों,इस प्रकार हम पाते हैं कि जेपी और लोहिया आज पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक हो चले हैं। आज अगर वे जीवित होते तो यकीनन सिर्फ बातें नहीं कर रहे होते। कोरे सिद्धांत बघारना तो जेपी के स्वभाव में ही नहीं था इसलिए वे आज फिर से आंदोलन खड़ा कर रहे होते। इस बार जेपी इस पुनीत कार्य में अकेले नहीं होते बल्कि लोहिया भी उनके हमकदम होते कांग्रेस के खिलाफ और उससे भी कहीं ज्यादा अपने उन बगुला भगत चेलों के विरूद्ध जिन्होंने उनके आदर्शों को कालांतर में तिलाजलि दे दी और आज उसी कांग्रेस की देशलूटक और देशबेचक संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं जिसके खिलाफ कभी उन्होंने आवाज उठाई थी। आज अगर जेपी जीवित होते तो निश्चित रूप से ताल ठोंककर कह रहे होते कि अगर नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक और मुलायम-सोनिया-नीतीश धर्मनिरपेक्ष हैं तो मैं भी सांप्रदायिक हूँ।

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