15-04-2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,बात वर्ष 2010 की है।
गर्मियों के दिन थे। मैं काफी परेशान था। अपनी छोटी बहन की शादी किए 1 साल
से भी ज्यादा समय हो चुका था लेकिन अभी तक मेरी अपनी शादी का कहीं अता-पता
नहीं था। अगुआ-वरतुहार (वर की तलाश में भटकनेवाले लड़कीवाले) आते और चले
जाते। किसी की लड़की की तस्वीर हमें पसंद नहीं आती तो कोई हमारी बेरोजगारी
देखकर खिसक लेता। तभी पिताजी ने सुझाव दिया कि कहीं नौकरी क्यों नहीं कर
लेते।
मित्रों,तभी मेरे एक अभिन्न मित्र मीता ने बताया कि इस समय
मुजफ्फरपुर में प्रभात खबर की यूनिट खुलने जा रही है। सीधे प्रधान संपादक
हरिवंश जी बात करिए,काम हो जाएगा। मैं बात की तो मुझे यह जानकर सुखद
आश्चर्य हुआ कि वे मुझे जानते हैं और मेरी
ब्रज की दुनिया
के प्रशंसक भी हैं। उन्होंने मुझे राँची मिलने के लिए बुलाया। रातभर ट्रेन
की सीट पर बैठे जागते-सोते हम सावन की रिमझिम फुहारों का आनंद लेते
सहरसा-हटिया ट्रेन से राँची पहुँचे। रूकना मेरे मित्र धर्मेन्द्र कुमार
सिंह के यहाँ रातु रोड में था। फ्रेश होकर हम प्रभात खबर कार्यालय के लिए
रवाना हुए। वहाँ हमारा टेस्ट लिया गया जो मुझे बुरा भी लगा। फिर एचआर विभाग
में पूछा गया कि कितना वेतन चाहिए। मैंने बताया दस हजार कम-से-कम। एचआर
प्रधान ने कहा कि पिछले एक साल से आपकी आमदनी शून्य रुपया है तो फिर आपको
हम इतना क्यों दें? मैंने छूटते ही कहा आपकी मर्जी। फिलहाल तो मुझे भूख लगी
हुई है कोई होटल बताईए। उन्होंने झटपट प्रभात खबर के कैंटिन में फोन किया
और कहा कि एक व्यक्ति को भेज रहा हूँ खाना खिला देना। मैंने टोंका जनाब जरा
गौर से देखिए हम एक नहीं दो हैं और दूसरे ने भी सुबह से कुछ खाया नहीं है।
उन्होंने कृपापूर्वक फिर से फोन किया। जब हम खाना खाने के बाद हरिवंश जी
से मिलने गए तो उन्होंने कहा कि कुछ दिन बाद हम फोन करके आपको सूचना देंगे।
रास्ते में धर्मेन्द्र ने बताया कि प्रभात खबर कई बार नौकरी के लिए ईच्छुक
उम्मीदवारों को यात्रा-भत्ता भी देता है। मैंने कहा नहीं दिया तो नहीं
दिया हमें तो नौकरी चाहिए।
मित्रों,कई दिनों तक जब फोन नहीं आया तो
मैंने फिर से हरिवंशजी को फोन मिलाया तब उन्होंने एक नंबर दिया और बात करने
को कहा। वह नंबर किसी मोहन सिंह का था जिनको अखबार लांच करने के लिए
मुजफ्फरपुर भेजा गया था। नौकरी शुरू हुई। तब प्रभात खबर कार्यालय जूरन
छपरा,रोड नं.1 मुजफ्फरपुर में था। कार्यालय क्या था कबाड़खाना था। कार्यालय
में पर्याप्त संख्या में कुर्सियाँ तक नहीं थीं। लोग कंप्यूटर पाने के लिए
अपनी बारी का इंतजार करते रहते। वहाँ कई पुराने मित्र भी कार्यरत मिले और
कई नए मित्र बने भी। हम घंटों फर्श पर पालती मारकर कंप्यूटर और कुर्सी के
खाली होने का इंतजार करते। तब अखबार की छपाई शुरू नहीं हुई थी,प्रशिक्षण चल
रहा था।
मित्रों,कार्यालय में न तो शुद्ध पेयजल था और न ही शौचालय
में बल्ब। गंदा पानी पीने के चलते मेरा स्वास्थ्य लगातार गिरने लगा। फिर भी
मैंने दो महीनों तक जमकर काम किया। इस बीच अगस्त या सितंबर में अखबार की
छपाई भी शुरू हो गई। पहले दिन मुजफ्फरपुर पर विशेष परिशिष्ट प्रकाशित हुआ
जो पूरी तरह से सिर्फ और सिर्फ मेरे द्वारा संपादित था।
मित्रों,तक
कार्यलय में न तो किसी की हाजिरी ही बनती थी और न ही किसी को वेतन ही मिलता
था। वहाँ के एचआर हेड से बात करता तो वो कहते कि आपके कागजात राँची भेज
दिए गए हैं अभी वहाँ से कोई उत्तर नहीं आया है। सहकर्मियों ने बताया कि
उनके कागजात के तो 6 महीने से उत्तर नहीं आए हैं। अब मुझे नौकरी करते दो
महीने से ज्यादा हो चुके थे मगर वेतन का कहीं अता-पता नहीं था। नौकरी थी भी
और नहीं भी। न कहीँ कोई नियुक्ति-पत्र और न ही कोई अन्य प्रूफ। कार्यालय
का गंदा पानी पीने से मेरी तबियत भी बिगड़ती चली गई और अंत में मैंने
निराशा और खींज में नौकरी छोड़ दी।
मित्रों,मुझे लगा कि
पटना,हिन्दुस्तान की तरह प्रभात खबर भी खुद ही पहल करके मेरे दो महीने का
वेतन दे देगा। इससे पहले जब मैंने पटना,हिन्दुस्तान की नौकरी छोड़ी थी तब
हिन्दुस्तानवालों ने कई महीने बाद फोन करके बुलाकर मुझे मेरा बकाया दे दिया
था। मगर यहाँ तो देखते-देखते तीन साल हो गए। न उन्होंने सुध ली न मैंने
मांगे। फिर अगस्त,2013 में मुझे पैसों की सख्त जरुरत आन पड़ी। मैंने
हरिवंशजी को फोन मिलाया तो पहली बार में तो वे चेन्नई में थे। दो-तीन दिन
फिर से फोन मिलाया और अपनी व्यथा सुनाई। मैंने उनको याद दिलाया कि मैंने दो
महीने तक मुजफ्फरपुर,प्रभात खबर में काम किया था जिसका मुझे पैसा नहीं
मिला और उल्टे घर से ही नुकसान उठाना पड़ा। उन्होंने मुझे पहचान तो लिया
मगर इस मामले में कुछ भी कर सकने में अपनी असमर्थता जताई। तब मैंने कहा कि
मुझे पटना,प्रभात खबर में नौकरी ही दे दीजिए। उन्होंने सीट खाली नहीं होने
की मजबूरी जताते हुए फोन काट दिया।
मित्रों,मैं हतप्रभ था कि हरिवंश
जी भी ऐसा कर सकते हैं? महान समाजवादी,चिंतक,पत्रकार हरिवंश एक मजदूर का
पैसा रख लेंगे? मगर यही सच था और आज भी यही सच है। वे आज भी मेरे कर्जदार
हैं। दरअसल ये लोग छद्म समाजवादी हैं। चिथड़ा ओढ़कर ये लोग न सिर्फ मलाई
चाभते हैं बल्कि अपने ही संस्थान के श्रमिकों का खून भी पीते हैं। ये लोग
मुक्तिबोध के शब्दों में रक्तपायी वर्ग से नाभिनालबद्ध,नपुंसक
भोग-शिरा-जालों में उलझे लोग हैं। फिलहाल वे जदयू की तरफ से राज्य सभा
सदस्य हैं अपनी सत्ता की चाटुकारिता कर सकने की अद्धुत क्षमता के बल पर।
उम्मीद करता हूँ कि वे संसद में मजदूरों के पक्ष में लंबे-लंबे
विद्वतापूर्ण भाषण देंगे और समाजवादी होने के अपने कर्त्त्वयों की इतिश्री
कर लेंगे। धरातल पर पहले की तरह ही उनके अपने संस्थान में श्रमिकों का शोषण
अनवरत जारी रहेगा,फिल्मी महाजन की तरह उनके पैसे पचाते रहेंगे और
परिणामस्वरूप प्राप्त अधिशेष के बल पर उनकी चल-अचल सम्पत्ति में अभूतपूर्व
अभिवृद्धि होती रहेगी। अंत में उनकी लंबी आयु की कामना करता हूँ जिससे
आनेवाले समय में देश में समाजवाद दिन दूनी और रात चौगुनी प्रगति कर सके।
(
हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)