07-04-2014,ब्रजकिशोर सिंह,हाजीपुर। मित्रों,लाल किले के प्राचीर से
अपने पहले संबोधन में भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था
कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है। भारत में
अल्पसंख्यकों में सबसे ज्यादा जनसंख्या मुसलमानों की है फिर सिख,जैन,इसाई
और पारसी आते हैं लेकिन मुसलमानों को छोड़कर बाँकी समुदायों की हालत
हिन्दुओं से भी अच्छी है। मतलब कि भारत में अल्पसंख्यकों के लिए जो भी
इंतजाम सरकार करती है तो वह वास्तव में मुसलमानों के लिए ही करती है।
मित्रों,बाद में सरकार ने मुसलमानों को पहला अधिकार दिया भी। 15 सूत्री कार्यक्रम बनाया जिससे सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों को ही लाभ हुआ कदाचित एकाध सिख,इसाई या पारसी ने भी लाभ उठाया हो। अगर रजिया या अहमद को पढ़ाई के लिए सस्ते ऋण या विशेष छात्रवृत्ति दी जाती है तो इससे बहुसंख्यकों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए लेकिन यह पहला अधिकार वास्तव में सिर्फ पहला अधिकार ही नहीं रहा बल्कि केंद्र सरकार और उ.प्र. और कर्नाटक जैसी कई राज्य सरकारों ने इसे सिर्फ अल्पसंख्यकों का अधिकार ही बना दिया। वरना क्या कारण है कि रजिया को सुविधा मिले और गरीब हिन्दू की बेटी राधा को साधनों के अभाव में पढ़ाई बीच में ही छोड़कर घर बैठना पड़े? कोई भी कार्यक्रम कैसे सिर्फ एक समुदाय विशेष के लिए ही बनाया जा सकता है? क्या ऐसा करना एक नए तरह के भेदभाव को जन्म नहीं देता है? आजादी से पहले अंग्रेजों ने अपने काम आनेवाले होटलों और स्वीमिंग पुलों में लिखवा दिया था कि डॉग्स एंड इंडियन्स आर नॉट एलाउड और अब बिना बोर्ड लगाए ही केंद्र सरकार योजनाओं के लाभ से वंचित कर बहुसंख्यक हिन्दुओं के साथ डॉग्स एंड हिन्दुज आर नॉट एलाउड जैसा व्यवहार कर रही है।
मित्रों,इतना ही नहीं बाद में जब उ.प्र. के मुजफ्फरनगर में दंगे हुए तो वहाँ की वर्तमान राज्य सरकार ने कहा कि हम तो सिर्फ मुसलमानों को ही दंगा पीड़ित मानते हैं इसलिए हम तो सिर्फ उनको ही मुआवजा देंगे। पीड़ितों के दर्द और आँसुओं को भी अल्पसंख्यकवाद की छद्म धर्मनिरपेक्षता की सियासत ने संप्रदायों में बाँट दिया। बाद में इससे भी एक कदम आगे बढ़कर केंद्र सरकार ने संसद में सांप्रदायिकता विरोधी बिल पेश कर दिया जिसमें इस तरह के प्रावधान रखे गए कि अगर देश में कहीं भी दंगे होते हैं तो चाहे दंगों की शुरुआत कोई भी करे जिम्मेदारी सिर्फ बहुसंख्यकों पर आएगी। वाह,नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का भी सरेआम खून कर दिया गया। जबकि सच्चाई तो यह है कि देश के प्रत्येक हिस्से में साम्प्रदायिक दंगों की शुरुआत हमेशा मुसलमान ही करते हैं।
मित्रों,भारत में नौकरियों में आरक्षण देने का उद्देश्य क्या है? यही न कि जो सदियों से पिछड़े हैं उनको बराबरी में आने का अवसर दिया जाए लेकिन वर्तमान केंद्र सरकार के लिए इसका बस इतना ही मतलब है कि बाँटो और राज करो। तभी तो उसने देश के सबसे समृद्ध समुदायों में से एक जैनों को आरक्षण का लाभ दे दिया जिनको वास्तव में इसकी जरुरत थी ही नहीं। फिर गरीब सवर्ण मुसलमानों को भी आरक्षण देने की कोशिश की गई केंद्र सरकार और कई राज्य सरकारों के द्वारा भी। क्या गरीब सवर्ण हिन्दुओं ने कोई जघन्य अपराध किया है जो आज तक उनको इस सुविधा से वंचित रखा गया है और वही सुविधा गरीब सवर्ण मुसलमानों को दे दी गई। हालाँकि कोर्ट ने सरकार को ऐसा करने नहीं दिया। बाद में मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद जब केंद्र सरकार ने देखा कि प्रशासनिक भेदभाव से जाट मतदाता नाराज हो गए हैं तो जाटों को बिना जरूरी कानूनी प्रक्रिया को पूरा किए ही,राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग से सिफारिश लिए बिना ही आरक्षण दे दिया। क्या भारत के संविधान में आरक्षण का प्रावधान गंदी सियासत का हथियार बनाने के लिए किया गया था? कई सवर्ण हिन्दू जातियों की आर्थिक स्थिति जाटों से ज्यादा खराब है फिर उनको आरक्षण क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? कुछ लोग कह सकते हैं कि आरक्षण का आधार तो सामाजिक पिछड़ापन है तो फिर जैनों,गरीब सवर्ण मुसलमानों और जाटों को कैसे आरक्षण दे दिया गया?
मित्रों,हमारे देश की छद्म धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ जिसे धर्मनिरपेक्षता कहती हैं वह वास्तव में धर्मनिरपेक्षता है ही नहीं। वह वास्तव में अल्पसंख्यकवाद है और वोट बैंक की गंदी राजनीति है। इन पार्टियों ने सत्ता प्राप्ति के लिए कुछ हिन्दू जातियों और पूरे मुस्लिम समुदाय को अपने साथ रखकर एक समीकरण बनाया है और उसके अनुपालन को ही ये लोग धर्मनिरपेक्षता कहते हैं। यह आरक्षण भी उसी नीति का एक भाग मात्र है। वास्तव में इन पार्टियों को न तो देशहित से कोई मतलब है और न ही प्रदेशहित से कोई लेना-देना। इनके पास न तो देश-प्रदेश के विकास के लिए कोई योजना है और न ही कोई ईच्छा। कहाँ तो राजग की केंद्र सरकार ने 2020 तक भारत को विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में लाने का लक्ष्य रखा था और कहाँ तो यूपीए की वर्तमान केंद्र सरकार ने भारत की विकास दर को फिर से हिन्दू विकास दर से भी नीचे ला दिया। जिस अब्दुल्ला बुखारी पर दर्जनों आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं,जिस व्यक्ति को जेल में होना चाहिए यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी उसी बुखारी से अनुनय-विनय करके मुसलमानों से अपने पक्ष में मतदान करने की अपील जारी करवाती हैं। क्या इसको धर्मनिरपेक्षता का नाम दिया जाना चाहिए?
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
मित्रों,बाद में सरकार ने मुसलमानों को पहला अधिकार दिया भी। 15 सूत्री कार्यक्रम बनाया जिससे सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों को ही लाभ हुआ कदाचित एकाध सिख,इसाई या पारसी ने भी लाभ उठाया हो। अगर रजिया या अहमद को पढ़ाई के लिए सस्ते ऋण या विशेष छात्रवृत्ति दी जाती है तो इससे बहुसंख्यकों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए लेकिन यह पहला अधिकार वास्तव में सिर्फ पहला अधिकार ही नहीं रहा बल्कि केंद्र सरकार और उ.प्र. और कर्नाटक जैसी कई राज्य सरकारों ने इसे सिर्फ अल्पसंख्यकों का अधिकार ही बना दिया। वरना क्या कारण है कि रजिया को सुविधा मिले और गरीब हिन्दू की बेटी राधा को साधनों के अभाव में पढ़ाई बीच में ही छोड़कर घर बैठना पड़े? कोई भी कार्यक्रम कैसे सिर्फ एक समुदाय विशेष के लिए ही बनाया जा सकता है? क्या ऐसा करना एक नए तरह के भेदभाव को जन्म नहीं देता है? आजादी से पहले अंग्रेजों ने अपने काम आनेवाले होटलों और स्वीमिंग पुलों में लिखवा दिया था कि डॉग्स एंड इंडियन्स आर नॉट एलाउड और अब बिना बोर्ड लगाए ही केंद्र सरकार योजनाओं के लाभ से वंचित कर बहुसंख्यक हिन्दुओं के साथ डॉग्स एंड हिन्दुज आर नॉट एलाउड जैसा व्यवहार कर रही है।
मित्रों,इतना ही नहीं बाद में जब उ.प्र. के मुजफ्फरनगर में दंगे हुए तो वहाँ की वर्तमान राज्य सरकार ने कहा कि हम तो सिर्फ मुसलमानों को ही दंगा पीड़ित मानते हैं इसलिए हम तो सिर्फ उनको ही मुआवजा देंगे। पीड़ितों के दर्द और आँसुओं को भी अल्पसंख्यकवाद की छद्म धर्मनिरपेक्षता की सियासत ने संप्रदायों में बाँट दिया। बाद में इससे भी एक कदम आगे बढ़कर केंद्र सरकार ने संसद में सांप्रदायिकता विरोधी बिल पेश कर दिया जिसमें इस तरह के प्रावधान रखे गए कि अगर देश में कहीं भी दंगे होते हैं तो चाहे दंगों की शुरुआत कोई भी करे जिम्मेदारी सिर्फ बहुसंख्यकों पर आएगी। वाह,नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का भी सरेआम खून कर दिया गया। जबकि सच्चाई तो यह है कि देश के प्रत्येक हिस्से में साम्प्रदायिक दंगों की शुरुआत हमेशा मुसलमान ही करते हैं।
मित्रों,भारत में नौकरियों में आरक्षण देने का उद्देश्य क्या है? यही न कि जो सदियों से पिछड़े हैं उनको बराबरी में आने का अवसर दिया जाए लेकिन वर्तमान केंद्र सरकार के लिए इसका बस इतना ही मतलब है कि बाँटो और राज करो। तभी तो उसने देश के सबसे समृद्ध समुदायों में से एक जैनों को आरक्षण का लाभ दे दिया जिनको वास्तव में इसकी जरुरत थी ही नहीं। फिर गरीब सवर्ण मुसलमानों को भी आरक्षण देने की कोशिश की गई केंद्र सरकार और कई राज्य सरकारों के द्वारा भी। क्या गरीब सवर्ण हिन्दुओं ने कोई जघन्य अपराध किया है जो आज तक उनको इस सुविधा से वंचित रखा गया है और वही सुविधा गरीब सवर्ण मुसलमानों को दे दी गई। हालाँकि कोर्ट ने सरकार को ऐसा करने नहीं दिया। बाद में मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद जब केंद्र सरकार ने देखा कि प्रशासनिक भेदभाव से जाट मतदाता नाराज हो गए हैं तो जाटों को बिना जरूरी कानूनी प्रक्रिया को पूरा किए ही,राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग से सिफारिश लिए बिना ही आरक्षण दे दिया। क्या भारत के संविधान में आरक्षण का प्रावधान गंदी सियासत का हथियार बनाने के लिए किया गया था? कई सवर्ण हिन्दू जातियों की आर्थिक स्थिति जाटों से ज्यादा खराब है फिर उनको आरक्षण क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? कुछ लोग कह सकते हैं कि आरक्षण का आधार तो सामाजिक पिछड़ापन है तो फिर जैनों,गरीब सवर्ण मुसलमानों और जाटों को कैसे आरक्षण दे दिया गया?
मित्रों,हमारे देश की छद्म धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ जिसे धर्मनिरपेक्षता कहती हैं वह वास्तव में धर्मनिरपेक्षता है ही नहीं। वह वास्तव में अल्पसंख्यकवाद है और वोट बैंक की गंदी राजनीति है। इन पार्टियों ने सत्ता प्राप्ति के लिए कुछ हिन्दू जातियों और पूरे मुस्लिम समुदाय को अपने साथ रखकर एक समीकरण बनाया है और उसके अनुपालन को ही ये लोग धर्मनिरपेक्षता कहते हैं। यह आरक्षण भी उसी नीति का एक भाग मात्र है। वास्तव में इन पार्टियों को न तो देशहित से कोई मतलब है और न ही प्रदेशहित से कोई लेना-देना। इनके पास न तो देश-प्रदेश के विकास के लिए कोई योजना है और न ही कोई ईच्छा। कहाँ तो राजग की केंद्र सरकार ने 2020 तक भारत को विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में लाने का लक्ष्य रखा था और कहाँ तो यूपीए की वर्तमान केंद्र सरकार ने भारत की विकास दर को फिर से हिन्दू विकास दर से भी नीचे ला दिया। जिस अब्दुल्ला बुखारी पर दर्जनों आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं,जिस व्यक्ति को जेल में होना चाहिए यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी उसी बुखारी से अनुनय-विनय करके मुसलमानों से अपने पक्ष में मतदान करने की अपील जारी करवाती हैं। क्या इसको धर्मनिरपेक्षता का नाम दिया जाना चाहिए?
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें