19 नवंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,भारत त्योहारों और मेलों
का देश है। यहाँ रोजाना कोई न कोई-न-कोई पर्व-त्योहार होता है और रोज
कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी हिस्से में मेला लगता है मगर सोनपुर के हरिहर
क्षेत्र मेले की तो साहब बात ही कुछ और है। हाँ भई यह मेला उसी हरिहरनाथ के
पूजन के सिलसिले में लगता है जिसके गीत हर साल बिहार और पूर्वांचल के
कोने-कोने में होली में गाए जाते हैं-बाबा हरिहरनाथ,बाबा हरिहरनाथ सोनपुर
में रंग लूटे,होरी राम हो हो हो,बाबा हरिहरनाथ बाबा हरिहरनाथ.....।
मित्रों,कोई नहीं कह सकता कि यह विश्वप्रसिद्ध मेला कितने सालों से लग रहा है। पहले बिहार के लोग सालभर इस मेले का इंतजार करते। कार्तिक पूर्णिमा के दिन बैलगाड़ी जुतती और लोग दाल-चावल बर्तन लेकर मेले में आते। गंगा-नारायणी के पवित्र संगम पर गंगा-स्नान करते और मेला घूमते। तब यहाँ कई वर्ग किलोमीटर में हाथी,घोड़े,गाय,बैल,बकरी और भैंसों के बाजार लगते। लोग जानवरों को बेचते और खरीदते। रात में किसी पेड़ के नीचे दरी बिछाकर या बैलगाड़ी पर ही सो जाते। लौटने लगते तो ग्रामीण सामुदायिक व व्यक्तिगत उपयोग के लिए दरी,कंबल,बर्तन,चादर,साड़ियाँ-कपड़े,खिलौने,मिठाई आदि लेकर लौटते। गांव में बच्चों को भी अपने पिता-चाचा-दादा-मामा के मेले से लौटने का बेसब्री से इंतजार रहता। अगर किसी बच्चे को मेले में स्वयं जाने का अवसर मिल जाता तो समझिए कि उसकी तो लौटरी ही लग गई। फिर वो कई महीनों तक अपने ग्रामीण मित्रों को मेले की कहानियाँ सुनाता रहता।
मित्रों,बदलते जमाने के साथ दुनिया बदली है,लोग बदले हैं सो सोनपुर मेला भी बदला है। अब ज्यादातर लोग मोटरसाईकिल से आते हैं। स्टैंडवाले को 5 के बदले 15 रुपया देकर गाड़ी खड़ी करते हैं और घूम-फिरकर घर चल देते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सुबह की ट्रेन से आते हैं और शाम की ट्रेन से वापस लौट जाते हैं। अभी भी मेले के लिए पूरे एक महीने तक ट्रेन मेले में रूकती है। जानवर के नाम पर अब दस-बीस घोड़ों और कुछ दर्जन गाय-भैसों,कुछेक बैलों के अलावा और कुछ होता नहीं होता। अब गांव में भी ज्यादातर लोगों ने गाय-बैलों को पालना छोड़ दिया है क्योंकि अब खेती बैलों से नहीं मशीनों से होती है नहीं तो एक जमाना वह था जब 1856 में बाबू कुंवर सिंह ने इसी मेले से अपनी सेना के लिए एकसाथ 5000 घोड़े खरीदे थे। फिर भी मेले में भीड़ कम नहीं होती। बिहार सरकार की प्रदर्शनियाँ हर साल की तरह इस साल भी लगी हैं लेकिन देखने से लगता है कि जैसे पिछले साल से कोई बदलाव नहीं किया गया है। वहीं जानकारियाँ,वहीं तस्वीरें।
मित्रों,लोगों की भगवान के प्रति आस्था में कमी आई है जिसके चलते जहाँ मेले में अपार भीड़ होती है वहीं बाबा हरिहरनाथ के मंदिर में इक्के-दुक्के लोग ही दिखते हैं। मेले में हर मजहब के लोग देखे जा सकते है। हिन्दू,मुसलमान और कुछेक विदेशी सैलानी भी। मेला घूमते-घूमते अगर थक गए हों तो बिहार सरकार के जन संपर्क विभाग के पंडाल में आ जाईए। सैंकड़ों कुर्सियाँ लगी हुई हैं और लगातार लोकगीतों का गायन चलता रहता है जिस पर नर्तक-नर्तकियाँ नृत्य भी करते रहते हैं। मेले में ही मुझे एक मित्र से कई साल बाद भेंट भी हो गई। जनाब कभी माखनलाल के नोएडा परिसर में हमारे साथ पढ़ते थे और आजकल बिहार पुलिस में सब इंस्पेक्टर हैं। नाम है-रंजय कुमार। पहले तो जनाब ने पहचाना ही नहीं लेकिन बाद में जब मैंने अपना प्रेस कार्ड दिया तब पहचान लिया।
मित्रों,कुछ लोगों का मानना है कि एक दिन यह मेला समाप्त हो जाएगा लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता और ऐसा होना भी नहीं चाहिए। सोनपुर मेला हमारी शान है हमारी आन है। एक स्थान पर यहाँ मनोरंजन के जितने साधन हैं,जितने खिलौने,खाद्य-सामग्री और रोजाना उपयोग में आनेवाली चीजें बिक रहीं हैं शायद दुनियाँ में ऐसा नजारा कहीं और शायद ही देखने को मिले। पिछले कई सालों से कुछ कमी प्रशासन की तरफ से भी रही है। किसी समय सोनपुर के काली घाट और हाजीपुर के कोनहारा घाट के बीच नावों का लचका पुल बनता था जो अब नहीं बनाया जाता। अगर बनता तो मेले की शोभा में चार चांद लग जाते। कल मेरी भी ईच्छा हो रही थी कि मैं पैदल ही इस पार से उस पार कोनहारा घाट चला जाऊँ लेकिन ऐसा हो न सका। एक और कमी मुझे शिद्दत से महसूस हुई और वह है शौचालय की कमी। कहने को तो प्रशासन ने बँसवारी में टाट से घेर कर शौचालय बनवा दिए हैं लेकिन वे इतने गंदे हैं कि कोई उनमें नहीं जाता और लोग यत्र-तत्र मल-त्याग करते रहते हैं जिससे घोड़ा बाजार की तरफ तो जाना भी मुश्किल हो जाता है। हमने कई महिलाओं को खुले में ही शौच करते देखा और हम नहीं समझते कि यह सब देखकर देश-विदेश से आनेवाले सैलानियों के मन में बिहार की कोई अच्छी छवि बनेगी।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
मित्रों,कोई नहीं कह सकता कि यह विश्वप्रसिद्ध मेला कितने सालों से लग रहा है। पहले बिहार के लोग सालभर इस मेले का इंतजार करते। कार्तिक पूर्णिमा के दिन बैलगाड़ी जुतती और लोग दाल-चावल बर्तन लेकर मेले में आते। गंगा-नारायणी के पवित्र संगम पर गंगा-स्नान करते और मेला घूमते। तब यहाँ कई वर्ग किलोमीटर में हाथी,घोड़े,गाय,बैल,बकरी और भैंसों के बाजार लगते। लोग जानवरों को बेचते और खरीदते। रात में किसी पेड़ के नीचे दरी बिछाकर या बैलगाड़ी पर ही सो जाते। लौटने लगते तो ग्रामीण सामुदायिक व व्यक्तिगत उपयोग के लिए दरी,कंबल,बर्तन,चादर,साड़ियाँ-कपड़े,खिलौने,मिठाई आदि लेकर लौटते। गांव में बच्चों को भी अपने पिता-चाचा-दादा-मामा के मेले से लौटने का बेसब्री से इंतजार रहता। अगर किसी बच्चे को मेले में स्वयं जाने का अवसर मिल जाता तो समझिए कि उसकी तो लौटरी ही लग गई। फिर वो कई महीनों तक अपने ग्रामीण मित्रों को मेले की कहानियाँ सुनाता रहता।
मित्रों,बदलते जमाने के साथ दुनिया बदली है,लोग बदले हैं सो सोनपुर मेला भी बदला है। अब ज्यादातर लोग मोटरसाईकिल से आते हैं। स्टैंडवाले को 5 के बदले 15 रुपया देकर गाड़ी खड़ी करते हैं और घूम-फिरकर घर चल देते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सुबह की ट्रेन से आते हैं और शाम की ट्रेन से वापस लौट जाते हैं। अभी भी मेले के लिए पूरे एक महीने तक ट्रेन मेले में रूकती है। जानवर के नाम पर अब दस-बीस घोड़ों और कुछ दर्जन गाय-भैसों,कुछेक बैलों के अलावा और कुछ होता नहीं होता। अब गांव में भी ज्यादातर लोगों ने गाय-बैलों को पालना छोड़ दिया है क्योंकि अब खेती बैलों से नहीं मशीनों से होती है नहीं तो एक जमाना वह था जब 1856 में बाबू कुंवर सिंह ने इसी मेले से अपनी सेना के लिए एकसाथ 5000 घोड़े खरीदे थे। फिर भी मेले में भीड़ कम नहीं होती। बिहार सरकार की प्रदर्शनियाँ हर साल की तरह इस साल भी लगी हैं लेकिन देखने से लगता है कि जैसे पिछले साल से कोई बदलाव नहीं किया गया है। वहीं जानकारियाँ,वहीं तस्वीरें।
मित्रों,लोगों की भगवान के प्रति आस्था में कमी आई है जिसके चलते जहाँ मेले में अपार भीड़ होती है वहीं बाबा हरिहरनाथ के मंदिर में इक्के-दुक्के लोग ही दिखते हैं। मेले में हर मजहब के लोग देखे जा सकते है। हिन्दू,मुसलमान और कुछेक विदेशी सैलानी भी। मेला घूमते-घूमते अगर थक गए हों तो बिहार सरकार के जन संपर्क विभाग के पंडाल में आ जाईए। सैंकड़ों कुर्सियाँ लगी हुई हैं और लगातार लोकगीतों का गायन चलता रहता है जिस पर नर्तक-नर्तकियाँ नृत्य भी करते रहते हैं। मेले में ही मुझे एक मित्र से कई साल बाद भेंट भी हो गई। जनाब कभी माखनलाल के नोएडा परिसर में हमारे साथ पढ़ते थे और आजकल बिहार पुलिस में सब इंस्पेक्टर हैं। नाम है-रंजय कुमार। पहले तो जनाब ने पहचाना ही नहीं लेकिन बाद में जब मैंने अपना प्रेस कार्ड दिया तब पहचान लिया।
मित्रों,कुछ लोगों का मानना है कि एक दिन यह मेला समाप्त हो जाएगा लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता और ऐसा होना भी नहीं चाहिए। सोनपुर मेला हमारी शान है हमारी आन है। एक स्थान पर यहाँ मनोरंजन के जितने साधन हैं,जितने खिलौने,खाद्य-सामग्री और रोजाना उपयोग में आनेवाली चीजें बिक रहीं हैं शायद दुनियाँ में ऐसा नजारा कहीं और शायद ही देखने को मिले। पिछले कई सालों से कुछ कमी प्रशासन की तरफ से भी रही है। किसी समय सोनपुर के काली घाट और हाजीपुर के कोनहारा घाट के बीच नावों का लचका पुल बनता था जो अब नहीं बनाया जाता। अगर बनता तो मेले की शोभा में चार चांद लग जाते। कल मेरी भी ईच्छा हो रही थी कि मैं पैदल ही इस पार से उस पार कोनहारा घाट चला जाऊँ लेकिन ऐसा हो न सका। एक और कमी मुझे शिद्दत से महसूस हुई और वह है शौचालय की कमी। कहने को तो प्रशासन ने बँसवारी में टाट से घेर कर शौचालय बनवा दिए हैं लेकिन वे इतने गंदे हैं कि कोई उनमें नहीं जाता और लोग यत्र-तत्र मल-त्याग करते रहते हैं जिससे घोड़ा बाजार की तरफ तो जाना भी मुश्किल हो जाता है। हमने कई महिलाओं को खुले में ही शौच करते देखा और हम नहीं समझते कि यह सब देखकर देश-विदेश से आनेवाले सैलानियों के मन में बिहार की कोई अच्छी छवि बनेगी।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें