16 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,बात जून,2013 की है। तब
हमलोग प्रोफेसर कॉलोनी के प्रोफेसर सत्येंद्र पांडे के यहाँ किरायेदार थे
और काफी परेशान थे। मकान के शौचालय की दशा काफी खराब थी और हर बार शौच जाने
के बाद कपड़ा लगे डंडे से शौचालय के पैन को हूरना पड़ता था। बराबर डंडे का
कपड़ा भीतर में ही खुल जाता जिसको फिर अपने हाथ से निकालना पड़ता। उस पर
जब जी में आए तब पांडेजी उस भीषण गर्मी में हमारे डेरे की बिजली काट देते
थे। तभी मेरे गांव के एक पंडित जी बस्कित मिश्र की बेटी की शादी हुई। श्री
मिश्र तब आरएन कॉलेज के मैदान के दक्षिणी छोर पर रहा करते थे। श्री मिश्र
के मामाजी और उनका लड़का भी शादी में आया हुआ था जो उन दिनों पास में ही घर
बनवा रहा था। मिश्र जी के मामाजी मेरे पिताजी के काफी पुराने मित्र थे और
पहले महनार,अंचल कार्यालय में बड़ा बाबू हुआ करते थे जो कि बिहार में काफी
मलाईदार पद माना जाता है। मामाजी ने पिताजी से हाल पूछा तो स्वाभाविक रूप
से पिताजी ने तत्कालीन मकान मालिक के अत्याचारों का वर्णन किया। तभी मामाजी
ने अपने बेटे से कहा कि जब तुम्हारा घर बन जाए तब प्रोफेसर साहेब यानि
मेरे पिताजी को ही किरायेदार बनाना।
मित्रों,हमें तो अकस्मात् ऐसा लगा जैसे कि किसी कई दिन से भूखे-प्यासे व्यक्ति को छप्पन भोग या गंगा का पानी मिल गया हो। इस बीच मामाजी का देहान्त हो गया लेकिन जब हम अक्तूबर में उनके बेटे से मिलने गए तो उन्होंने कहा कि उनको अपने मृतक पिता का कथन भलीभाँति याद है इसलिए वे हमलोगों को ही किराया पर फ्लैट देंगे। इस बीच उन्होंने घर का काम पूरा करने के लिए दो महीने का भाड़ा 7000 रु. अग्रिम के रूप में मांगा जो हमने दे भी दिया मगर इस ताकिद के साथ कि हम पहले दो महीने में इस राशि का समायोजन कर लेंगे। फिर हम 1 फरवरी,2013 को उनके यहाँ रहने के लिए बैंक मेन कॉलोनी में आ गये। पहली बार उनकी पत्नी के दर्शन हुए। वो रात का खाना लेकर हमारे पास आईं। चाय भी पिलाई। माँ से तो वो जब भी मिलती तो यही कहतीं कि अब आप ही मेरी सास हैं और गले से लिपट जातीं। बच्चे जब भी देखते कि पिताजी भारी झोला लिए आ रहे हैं तो दौड़कर झोला ले लेते और हमारे घर दे जाते। हम आश्चर्यचकित थे कि कोई मकानमालिक ऐसा कैसे हो सकता है?
मित्रों,इसी बीच हमने दो महीने के अग्रिम को सधा लिया और तभी से उनलोगों के व्यवहार में भी बदलाव आने लगा। मुझे इस बात का भी शक हुआ कि उनका लगाया बिजली का मीटर ज्यादा तेज भाग रहा है इसलिए हमने मामाजी के बेटे श्रीमोहन मिश्र की सहमति से बाजार से बिजली का मीटर खरीदकर लगा दिया। जब तक मैं हाजीपुर में था उनलोगों ने कुछ भी नहीं कहा लेकिन जैसे ही मैं वेबसाईट संबंधी कार्यों के लिए दिल्ली के लिए रवाना हुआ जैसा कि मुझे बाद में पता चला कि उनकी पत्नी ने आसमान को सिर पर उठा लिया। मेरी समझ में यह नहीं आया कि उनका मीटर अगर सही था तो मेरा मीटर गलत कैसे हो सकता था? क्या इसलिए क्योंकि वे मकान मालकिन थीं और हम किरायेदार?
मित्रों,इसी बीच मैं अपनी पत्नी और बेटे को डेरे में ले आया और मेरी माँ की आत्मघाती मूर्खता के चलते मेरा घर कुरूक्षेत्र का मैदान बन गया। मेरी माँ दिन-रात मकान-मालकिन के पास ही बैठी रहती और बार-बार उसको पंचायत करने के लिए बुलाती। इस बीच स्वाभाविक तौर पर हमारे घर में पानी का खर्च काफी बढ़ गया था जिससे मकान-मालकिन खुश नहीं थीं। अब तक हम यह अच्छी तरह से समझ चुके थे कि हमारे मकान-मालिक श्रीमोहन झा की उनके घर में कुछ भी नहीं चलती बल्कि जो भी चलती है उनकी पत्नी की ही चलती है। मेरी माँ अपने घर में होनेवाले विवादों की विस्तृत रिपोर्ट रोजाना मकान मालकिन को सुनातीं और कहतीं कि उनकी बहू बहुत देर तक स्नान करती है।
मित्रों,इसी बीच एक दिन हम अपने बेटे को चापाकल के ताजा पानी से नहाने के लिए चापाकल पर ले जा रहे थे कि हमने देखा कि पानी का मोटर चल रहा है। जब मोटर को बंद कर ग्रिल में ताला लगा दिया गया तब हमने चापाकल चलाकर अपने बेटे को स्नान करवाया। मगर जब हम उसको लेकर छत पर गए तो पाया कि मेरी मकान-मालकिन इस बात को लेकर हल्ला कर रही हैं कि हमने मोटर चलने के दौरान ही तथाकथित रूप से चापाकल चलाया जिससे कि मोटर जल भी सकता था। मेरी माँ उसका ही साथ दे रही थीं और पिताजी चुपचाप थे जबकि वे दोनों ही जानते थे कि मैं मजाक में भी झूठ नहीं बोलता। मैंने प्रतिवाद किया और कहा कि मैंने मोटर बंद होने के बाद ही चापाकल चलाया था मगर वे अपनी ही बात पर अड़ी रहीं। मैंने कहा भी कि मकान मालकिन होने के कारण मैं आपके झूठ को सच नहीं मान लूंगा क्योंकि झूठ झूठ होता है चाहे उसको बोलनेवाला बॉस हो या मकान-मालकिन।
मित्रों,उसी दिन से डेरे में जल-संकट उत्पन्न कर दिया गया और कहा गया कि दिनभर में सिर्फ एक बार ही टंकी को भरा जाएगा। कुछ दिनों तक जल-संकट झेलने और चापाकल पर कपड़े धोने के बाद मैंने पत्नी और बच्चे को मायके भेज दिया। मैं करता भी क्या जबकि खुद मेरी माँ ही नहीं चाहती थीं कि हमलोग एकसाथ रहें। पत्नी के जाते ही कुछ ही दिनों में घर भूत का डेरा बन गया। इसी बीच मकान-मालकिन को शिकायत रहने लगी कि हम घर में पोंछा नहीं लगाते। मैंने जब कहा कि अगर आप पर्याप्त मात्रा में पानी देने का वादा करें तो मैं फिर से पत्नी को ले आऊंगा तो वे मौन साध गईं। इस बीच उनका बड़ा बेटा सौरभ हमसे हमारे दोनों बेंच मांग कर ले गया और हमने सीधेपन में दे दिया। अब तक हमने एक मोटरसाईकिल भी ले ली थी और मुझे लग रहा था कि उनको हमारा मोटरसाईकिल खरीदना पसंद नहीं आया था। आखिर कोई किरायेदार मकान-मालिक से ज्यादा अच्छी जिंदगी कैसे जी सकता था? इस बीच एक दिन मेरी माताजी नल को खुला छोड़कर घर में ताला लगाकर घूमने चली गईं। बाद में जब मोटर चला तो नल से पानी बहने लगा। उस दिन मैं ससुराल में था। आने के बाद पता चला कि उस रात मकान-मालकिन ने मेरे माँ-पिताजी को काफी खरी-खोटी सुनाई। दोनों हाथ जोड़कर बार-बार माफी मांगते रहे लेकिन वे सुनने को तैयार ही नहीं थीं। अब तक मकान-मालकिन का खुलकर समर्थन करनेवाले माँ-पिताजी समझ चुके थे कि मकान-मालकिन जैसी दिखती हैं वैसी हैं नहीं बल्कि विषकुंभंपयोमुखम् हैं।
मित्रों,सितंबर में उन्होंने यह कहकर दो महीने का एडवांस मांगा कि हमने ऐसा वादा किया था जबकि हमने कभी ऐसा वादा नहीं किया था। पिताजी ने शांति बनाए रखने के लिए एक महीने का एडवांस दे भी दिया कि तभी से हमें डेरा खाली करने के लिए तंग किया जाने लगा। मैं समझ गया कि अब हमारे दोनों बेंचों को तुरूप से पत्तों की तरह इस्तेमाल किया जाएगा क्योंकि हमारी मकान-मालकिन इस बीच हमारे बगल के फ्लैट में रहनेवाली एक महिला का एक महीने का किराया पचा चुकी थीं। फिर एक दिन हमसे चाबी खो जाने के नाम पर बाहर के ग्रिल की चाबी ले ली गई और कहा गया कि हमारी माताजी यानि उनकी पूर्व मित्र उनके खिलाफ मुहल्ले में प्रचार करती हैं। जवाब में मैंने बस इतना ही कहा कि मैं औरतों के झमेले में नहीं पड़ता। इस बीच एक दिन देर शाम को पिताजी अपना टॉर्च किसी दुकान पर छोड़ आए। तब तक मैं अपनी मोटरसाईकिल गैरेज में रख चुका था। मैंने गैरेज खुलवाकर फिर से मोटरसाईकिल निकाली और टॉर्च लाने चला गया। मगर यह क्या जब मैं लौटकर आया तो मकान-मालकिन मेरी गाड़ी को गैरेज में रखने को तैयार ही नहीं हुई। फिर दो महीने तक मुझे अपनी गाड़ी को मुहल्ले के मित्रों के यहाँ रखना पड़ा।
मित्रों,इस बीच हमने डेरा ढूंढ़ लिया और डेरा बदलने से एक सप्ताह पहले से बेंच के लिए तकादा करना शुरू कर दिया मगर कोई असर ही नहीं हो रहा था। बाद में बेंच दिया गया मगर तब जब मेरा पूरा सामान ढोया जा चुका था जिसके कारण मुझे बेंचों को अपने सिर पर उठाकर लाना पड़ा। अंत में जब मैं डेरा खाली करने के बाद घर को साफ कर रहा था तब श्रीमोहन झा आकर मुझसे बेवजह की बक-झक करने लगे। उनका कहना था कि उनके पास बहुत पैसा है। जब मैं उनपर काफी नाराज हो गया तब उनकी पत्नी ने आकर बीच-बचाव किया।
मित्रों,आज जब मैं अपने गांव के पड़ोसी बस्कित मिश्र के मामाजी के बेटे के मकान से निकल चुका हूँ या निकाला जा चुका हूँ तब मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि मामाजी ने हमें उस मकान में रहने की दावत क्यों दी थी? क्या वे यह बताना चाहते थे कि मकान-मालिक और किरायेदार के बीच सिर्फ एक ही रिश्ता होता है और वह रिश्ता होता है मकान-मालिक और किरायेदार का? या फिर यह अहसास दिलाना चाह रहे थे कि आज के जमाने में सच्चाई,ईमानदारी और अच्छाई की कोई कीमत नहीं है जो भी कीमत है वो पैसे की है? या फिर अपने बेटे और उसके परिवार को बताना चाह रहे थे कि कैसे एक बेटे को अपने बूढ़े माता-पिता की देखभाल करनी चाहिए या फिर किस तरह से एक परिवार सच्चाई के मार्ग पर चलकर इस घनघोर कलियुग में भी जी रहा है?
मित्रों,खैर मामाजी हमें क्या बताना चाहते थे यह राज तो उनके साथ ही चला गया मगर हम भी कुछ कहना चाहते हैं और कहना चाहते हैं अपनी राज्य और केंद्र की सरकारों से। हम कहना चाहते हैं कि भारत में ऐसे करोड़ो लोग हैं जो मजबूरी में किराया के मकान में रहते हैं और दिन-रात मकान-मालिकों के जुल्म को सहते हैं। क्या उनका कोई मानवाधिकार नहीं होता? मकान-मालिक जब जी चाहे तब मकान खाली करने का फरमान सुना देता है और किरायेदारों को खाली करना भी पड़ता है। इस तंगदिली के जमाने में किराये के मकान में रहना जेल में रहने के बराबर है। मकान-मालिक किरायेदारों को अपने बंधुआ मजदूर से ज्यादा कुछ भी नहीं समझते और मकान-मालिक ईज ऑलवेज राईट की नीति पर अमल करते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि राज्यों व केंद्र की सरकारें कब तक करोड़ों लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन को नजरंदाज करती रहेंगी? क्या दिन-रात अपनी सरकार को गरीबों की सरकार बतानेवाले हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी कभी गरीब और लाचार करोड़ों किरायेदारों पर नजरे ईनायत करेंगे और उनके अधिकारों की रक्षा से संबंधित कानून बनाएंगे,उनको बंधुआ मजदूरी से आजाद करवाएंगे?
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
मित्रों,हमें तो अकस्मात् ऐसा लगा जैसे कि किसी कई दिन से भूखे-प्यासे व्यक्ति को छप्पन भोग या गंगा का पानी मिल गया हो। इस बीच मामाजी का देहान्त हो गया लेकिन जब हम अक्तूबर में उनके बेटे से मिलने गए तो उन्होंने कहा कि उनको अपने मृतक पिता का कथन भलीभाँति याद है इसलिए वे हमलोगों को ही किराया पर फ्लैट देंगे। इस बीच उन्होंने घर का काम पूरा करने के लिए दो महीने का भाड़ा 7000 रु. अग्रिम के रूप में मांगा जो हमने दे भी दिया मगर इस ताकिद के साथ कि हम पहले दो महीने में इस राशि का समायोजन कर लेंगे। फिर हम 1 फरवरी,2013 को उनके यहाँ रहने के लिए बैंक मेन कॉलोनी में आ गये। पहली बार उनकी पत्नी के दर्शन हुए। वो रात का खाना लेकर हमारे पास आईं। चाय भी पिलाई। माँ से तो वो जब भी मिलती तो यही कहतीं कि अब आप ही मेरी सास हैं और गले से लिपट जातीं। बच्चे जब भी देखते कि पिताजी भारी झोला लिए आ रहे हैं तो दौड़कर झोला ले लेते और हमारे घर दे जाते। हम आश्चर्यचकित थे कि कोई मकानमालिक ऐसा कैसे हो सकता है?
मित्रों,इसी बीच हमने दो महीने के अग्रिम को सधा लिया और तभी से उनलोगों के व्यवहार में भी बदलाव आने लगा। मुझे इस बात का भी शक हुआ कि उनका लगाया बिजली का मीटर ज्यादा तेज भाग रहा है इसलिए हमने मामाजी के बेटे श्रीमोहन मिश्र की सहमति से बाजार से बिजली का मीटर खरीदकर लगा दिया। जब तक मैं हाजीपुर में था उनलोगों ने कुछ भी नहीं कहा लेकिन जैसे ही मैं वेबसाईट संबंधी कार्यों के लिए दिल्ली के लिए रवाना हुआ जैसा कि मुझे बाद में पता चला कि उनकी पत्नी ने आसमान को सिर पर उठा लिया। मेरी समझ में यह नहीं आया कि उनका मीटर अगर सही था तो मेरा मीटर गलत कैसे हो सकता था? क्या इसलिए क्योंकि वे मकान मालकिन थीं और हम किरायेदार?
मित्रों,इसी बीच मैं अपनी पत्नी और बेटे को डेरे में ले आया और मेरी माँ की आत्मघाती मूर्खता के चलते मेरा घर कुरूक्षेत्र का मैदान बन गया। मेरी माँ दिन-रात मकान-मालकिन के पास ही बैठी रहती और बार-बार उसको पंचायत करने के लिए बुलाती। इस बीच स्वाभाविक तौर पर हमारे घर में पानी का खर्च काफी बढ़ गया था जिससे मकान-मालकिन खुश नहीं थीं। अब तक हम यह अच्छी तरह से समझ चुके थे कि हमारे मकान-मालिक श्रीमोहन झा की उनके घर में कुछ भी नहीं चलती बल्कि जो भी चलती है उनकी पत्नी की ही चलती है। मेरी माँ अपने घर में होनेवाले विवादों की विस्तृत रिपोर्ट रोजाना मकान मालकिन को सुनातीं और कहतीं कि उनकी बहू बहुत देर तक स्नान करती है।
मित्रों,इसी बीच एक दिन हम अपने बेटे को चापाकल के ताजा पानी से नहाने के लिए चापाकल पर ले जा रहे थे कि हमने देखा कि पानी का मोटर चल रहा है। जब मोटर को बंद कर ग्रिल में ताला लगा दिया गया तब हमने चापाकल चलाकर अपने बेटे को स्नान करवाया। मगर जब हम उसको लेकर छत पर गए तो पाया कि मेरी मकान-मालकिन इस बात को लेकर हल्ला कर रही हैं कि हमने मोटर चलने के दौरान ही तथाकथित रूप से चापाकल चलाया जिससे कि मोटर जल भी सकता था। मेरी माँ उसका ही साथ दे रही थीं और पिताजी चुपचाप थे जबकि वे दोनों ही जानते थे कि मैं मजाक में भी झूठ नहीं बोलता। मैंने प्रतिवाद किया और कहा कि मैंने मोटर बंद होने के बाद ही चापाकल चलाया था मगर वे अपनी ही बात पर अड़ी रहीं। मैंने कहा भी कि मकान मालकिन होने के कारण मैं आपके झूठ को सच नहीं मान लूंगा क्योंकि झूठ झूठ होता है चाहे उसको बोलनेवाला बॉस हो या मकान-मालकिन।
मित्रों,उसी दिन से डेरे में जल-संकट उत्पन्न कर दिया गया और कहा गया कि दिनभर में सिर्फ एक बार ही टंकी को भरा जाएगा। कुछ दिनों तक जल-संकट झेलने और चापाकल पर कपड़े धोने के बाद मैंने पत्नी और बच्चे को मायके भेज दिया। मैं करता भी क्या जबकि खुद मेरी माँ ही नहीं चाहती थीं कि हमलोग एकसाथ रहें। पत्नी के जाते ही कुछ ही दिनों में घर भूत का डेरा बन गया। इसी बीच मकान-मालकिन को शिकायत रहने लगी कि हम घर में पोंछा नहीं लगाते। मैंने जब कहा कि अगर आप पर्याप्त मात्रा में पानी देने का वादा करें तो मैं फिर से पत्नी को ले आऊंगा तो वे मौन साध गईं। इस बीच उनका बड़ा बेटा सौरभ हमसे हमारे दोनों बेंच मांग कर ले गया और हमने सीधेपन में दे दिया। अब तक हमने एक मोटरसाईकिल भी ले ली थी और मुझे लग रहा था कि उनको हमारा मोटरसाईकिल खरीदना पसंद नहीं आया था। आखिर कोई किरायेदार मकान-मालिक से ज्यादा अच्छी जिंदगी कैसे जी सकता था? इस बीच एक दिन मेरी माताजी नल को खुला छोड़कर घर में ताला लगाकर घूमने चली गईं। बाद में जब मोटर चला तो नल से पानी बहने लगा। उस दिन मैं ससुराल में था। आने के बाद पता चला कि उस रात मकान-मालकिन ने मेरे माँ-पिताजी को काफी खरी-खोटी सुनाई। दोनों हाथ जोड़कर बार-बार माफी मांगते रहे लेकिन वे सुनने को तैयार ही नहीं थीं। अब तक मकान-मालकिन का खुलकर समर्थन करनेवाले माँ-पिताजी समझ चुके थे कि मकान-मालकिन जैसी दिखती हैं वैसी हैं नहीं बल्कि विषकुंभंपयोमुखम् हैं।
मित्रों,सितंबर में उन्होंने यह कहकर दो महीने का एडवांस मांगा कि हमने ऐसा वादा किया था जबकि हमने कभी ऐसा वादा नहीं किया था। पिताजी ने शांति बनाए रखने के लिए एक महीने का एडवांस दे भी दिया कि तभी से हमें डेरा खाली करने के लिए तंग किया जाने लगा। मैं समझ गया कि अब हमारे दोनों बेंचों को तुरूप से पत्तों की तरह इस्तेमाल किया जाएगा क्योंकि हमारी मकान-मालकिन इस बीच हमारे बगल के फ्लैट में रहनेवाली एक महिला का एक महीने का किराया पचा चुकी थीं। फिर एक दिन हमसे चाबी खो जाने के नाम पर बाहर के ग्रिल की चाबी ले ली गई और कहा गया कि हमारी माताजी यानि उनकी पूर्व मित्र उनके खिलाफ मुहल्ले में प्रचार करती हैं। जवाब में मैंने बस इतना ही कहा कि मैं औरतों के झमेले में नहीं पड़ता। इस बीच एक दिन देर शाम को पिताजी अपना टॉर्च किसी दुकान पर छोड़ आए। तब तक मैं अपनी मोटरसाईकिल गैरेज में रख चुका था। मैंने गैरेज खुलवाकर फिर से मोटरसाईकिल निकाली और टॉर्च लाने चला गया। मगर यह क्या जब मैं लौटकर आया तो मकान-मालकिन मेरी गाड़ी को गैरेज में रखने को तैयार ही नहीं हुई। फिर दो महीने तक मुझे अपनी गाड़ी को मुहल्ले के मित्रों के यहाँ रखना पड़ा।
मित्रों,इस बीच हमने डेरा ढूंढ़ लिया और डेरा बदलने से एक सप्ताह पहले से बेंच के लिए तकादा करना शुरू कर दिया मगर कोई असर ही नहीं हो रहा था। बाद में बेंच दिया गया मगर तब जब मेरा पूरा सामान ढोया जा चुका था जिसके कारण मुझे बेंचों को अपने सिर पर उठाकर लाना पड़ा। अंत में जब मैं डेरा खाली करने के बाद घर को साफ कर रहा था तब श्रीमोहन झा आकर मुझसे बेवजह की बक-झक करने लगे। उनका कहना था कि उनके पास बहुत पैसा है। जब मैं उनपर काफी नाराज हो गया तब उनकी पत्नी ने आकर बीच-बचाव किया।
मित्रों,आज जब मैं अपने गांव के पड़ोसी बस्कित मिश्र के मामाजी के बेटे के मकान से निकल चुका हूँ या निकाला जा चुका हूँ तब मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि मामाजी ने हमें उस मकान में रहने की दावत क्यों दी थी? क्या वे यह बताना चाहते थे कि मकान-मालिक और किरायेदार के बीच सिर्फ एक ही रिश्ता होता है और वह रिश्ता होता है मकान-मालिक और किरायेदार का? या फिर यह अहसास दिलाना चाह रहे थे कि आज के जमाने में सच्चाई,ईमानदारी और अच्छाई की कोई कीमत नहीं है जो भी कीमत है वो पैसे की है? या फिर अपने बेटे और उसके परिवार को बताना चाह रहे थे कि कैसे एक बेटे को अपने बूढ़े माता-पिता की देखभाल करनी चाहिए या फिर किस तरह से एक परिवार सच्चाई के मार्ग पर चलकर इस घनघोर कलियुग में भी जी रहा है?
मित्रों,खैर मामाजी हमें क्या बताना चाहते थे यह राज तो उनके साथ ही चला गया मगर हम भी कुछ कहना चाहते हैं और कहना चाहते हैं अपनी राज्य और केंद्र की सरकारों से। हम कहना चाहते हैं कि भारत में ऐसे करोड़ो लोग हैं जो मजबूरी में किराया के मकान में रहते हैं और दिन-रात मकान-मालिकों के जुल्म को सहते हैं। क्या उनका कोई मानवाधिकार नहीं होता? मकान-मालिक जब जी चाहे तब मकान खाली करने का फरमान सुना देता है और किरायेदारों को खाली करना भी पड़ता है। इस तंगदिली के जमाने में किराये के मकान में रहना जेल में रहने के बराबर है। मकान-मालिक किरायेदारों को अपने बंधुआ मजदूर से ज्यादा कुछ भी नहीं समझते और मकान-मालिक ईज ऑलवेज राईट की नीति पर अमल करते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि राज्यों व केंद्र की सरकारें कब तक करोड़ों लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन को नजरंदाज करती रहेंगी? क्या दिन-रात अपनी सरकार को गरीबों की सरकार बतानेवाले हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी कभी गरीब और लाचार करोड़ों किरायेदारों पर नजरे ईनायत करेंगे और उनके अधिकारों की रक्षा से संबंधित कानून बनाएंगे,उनको बंधुआ मजदूरी से आजाद करवाएंगे?
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें