मित्रों,मेरे लिए वह क्षण घोर आश्चर्य का पल था जब मुझे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन की ओर से आयोजित होनेवाली राईटर्स मीट में भाग लेने के लिए बुलाया गया। मुझे उम्मीद थी कि मीट में भाग लेने के लिए मुझ जैसे अति गरीब को जो अपनी जेब से किसी तरह से इंटरनेट का खर्च उठाकर पिछले 9 सालों से देशहित में लेखन कर रहा है दोनों तरफ का टिकट उपलब्ध कराया जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। फिर भी चूँकि मुझ जैसे अकिंचन को पहली बार इस तरह कार्यक्रम में भाग लेने के लिए बुलाया गया था इसलिए अपने पास से पैसे लगाकर मैंने भाग लेने का फैसला किया।
मित्रों,चूँकि संघीय सरकार ने दो साल पूरे किए थे इसलिए मुझे उम्मीद थी कि जो भी वक्ता आनेवाले हैं वे सरकार की दो सालों की उपलब्धियों का बखान करेंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। ज्यादातर वक्ताओं का जोर इस बात पर था कि केंद्र सरकार के हाथ बंधे हुए हैं और शिक्षा,भूमि,पुलिस,स्वास्थ्य जैसी जनकल्याण से जुड़ी सारी चीजें संविधान-निर्माताओं ने राज्य सरकारों के हवाले कर दिया है। लगभग सारे वक्ता ले-देकर जन-धन योजना और डीबीटीएल का ही जिक्र कर रहे थे।
मित्रों,हमने भी भारत का संविधान पढ़ा है,साथ ही भारत का इतिहास भी पढ़ा है और हम पहले से ही जानते हैं कि 1919 के अधिनियम के अनुसार भारत में द्वैध-शासन लागू किया गया था। संविधान-निर्माताओं ने सातवीं अनुसूची में जनकल्याण से संबद्ध लगभग सारे विषयों को फिर से राज्य-सरकार के जिम्मे कर दिया। बाद में जब 1993 में स्थानीय स्वशासन लागू किया गया तब लोककल्याण से संबद्ध कई कामों को स्थानीय निकायों के हवाले कर दिया गया। सवाल उठता है कि जिन राज्यों में भाजपा का सीधा या गठबंधन के अंतर्गत शासन है क्या वहाँ सचमुच में रामराज्य आ गया है? सवाल यह भी उठता है कि क्या केंद्र सरकार राज्य-सूची के विषयों में कोई संशोधन कर ही नहीं सकती है या फिर राज्य-सूची से संबद्ध विषयों पर कोई कानून बना ही नहीं सकती है? सवाल उठता है कि केजरीवाल की तरह रोना रोकर केंद्र सरकार के नीति-नियंताओं को क्या हासिल हो जानेवाला है? आखिर जनता ने उनको रोने के लिए नहीं बल्कि आंसू पोछने के लिए वोट दिया है। नीयत साफ हो,विश्वास में दृढ़ता हो,नीतियों के बारे में स्पष्टता हो तो ऐसी कौन-सी उपलब्धि है जो यह सरकार हासिल नहीं कर सकती?
मित्रों,विवेक ओबेराय जो महान अर्थशास्त्री हैं और नीति आयोग के सदस्य भी हैं का कहना था कि विधि-निर्माण समय बर्बाद करनेवाली प्रक्रिया है। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि विकल्प क्या है? जबकि भारत में विधि का शासन है तो विधि तो बनानी ही पड़ेगी और कोई उपाय है भी तो नहीं। आखिर कब तक अध्यादेश जारी करके काम चलाया जाएगा? संसद के समवेत होने के 6 सप्ताह के भीतर अध्यादेश को संसद से पारित तो करवाना पड़ेगा ही। इस संबंध में श्री ओबेराय ने भू-अर्जन अधिनियम,2013 का विस्तार से जिक्र भी किया। श्री ओबेराय के अनुसार सरकार के पास सीमित राजकोषीय स्रोत हैं इसलिए जनाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए निजीकरण के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है।
मित्रों,राज्यसभा सदस्य और भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री विनय सहस्रबुद्धे का जोर सुशासन की स्थापना पर रहा। उनका मानना था कि सिर्फ कागजों पर शिक्षा,स्वास्थ्य,सूचना आदि का अधिकार दे देने से जनता को कोई लाभ मिलनेवाला नहीं है। उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि क्या जनता को जब मुस्कुराने का अधिकार दिया जाएगा तभी वे हँसेंगे? फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री ने समस्या-प्रधान फिल्मों के निर्माण पर जोर दिया। साथ ही मीडिया से छोटे शहरों के गायब होने पर चिंता जताई। उनका मानना था कि अगर भारत को फिर से विश्वगुरू बनाना है कि इसे दुनिया का इनोवेशन हब बनाना होगा। उनका कहना था कि विविधता में एकता का नारा अच्छा तो है लेकिन विविधता से देश के समक्ष कठिनाई भी पैदा होती है।
मित्रों,भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बेलाग तरीके से साफ-साफ कहा कि विचारधारा के बिना राजनीति करना असंभव है। ऐसा होने पर राजनीति की हालत वही होगी जो प्राण के बिना शरीर की होती है। उनका कहना था कि भारत में इस समय चार वैचारिक खेमे हैं-कांग्रेस,जनसंघ,कम्युनिस्ट और समाजवादी। इसी प्रकार भारत में तीन तरह की विचारधाराएँ प्रचलन में हैं-धर्मनिरपेक्ष समाजवादी,राष्ट्रवादी और साम्यवादी। इसमें से समाजवादी विचारधारा अब परिवारवाद में बदल गई है। कांग्रेस की विचारधारा में उसकी स्थापना के समय से ही मिट्टी की सुगंध और भारतीयता का अभाव है। उनका कहना था कि कांग्रेस की सोंच नवनिर्माण की थी। यहाँ तक कि उनलोगों ने संस्कृति के नवनिर्माण की दिशा में भी प्रयास किया। जबकि पूर्ववर्ती जनसंघ और वर्तमान की भाजपा नवनिर्माण में नहीं पुनर्निर्माण में यकीन रखती है। भाजपा एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसने देशहित में आंदोलन किए व्यक्ति-विशेष के महिमामंडन के लिए कोई आंदोलन नहीं किया। उन्होंने कहा कि मोदी या मोदी सरकार देश में परिवर्तन नहीं ला सकती विचारधारा ही परिवर्तन ला सकती है। श्री शाह ने कहा कि केंद्र सरकार पहली बार सजीव जीडीपी के लिए प्रयास कर रही है। हर 15 दिन पर प्रधानमंत्री सरकार के कामकाज की कठोर समीक्षा करते हैं। उन्होंने बताया कि भारत सरकार चाहती है कि 2025 तक भारत की सेना दुनिया की सबसे आधुनिक सेना हो और 21वीं सदी भारत की सदी कहलाये।
मित्रों,वरिष्ठ पत्रकार और भारत सरकार में मंत्री एमजे अकबर ने अपने भाषण में रोटी की समानता पर जोर दिया। उनका कहना था कि भूख की न तो कोई जाति होती है और न ही कोई धर्म ही होता है। उन्होंने कहा कि इस्लाम सांप्रदायिक भाईचारे की बात करता है राष्ट्रवाद की बात नहीं करता। उन्होंने जोर देकर कहा कि जबसे भारत है तबसे भारत में समानता का अधिकार स्वतःस्फूर्त तरीके से प्रचलन में है। उन्होंने कहा कि तकनीक ने आज समय के अर्थ को बदल दिया है। श्री अकबर ने इतिहास के पन्नों को पलटते हुए बताया कि यद्यपि लार्ड कार्नवालिस अमेरिकी संग्राम में हार गया था फिर भी उसको प्रोन्नति देकर भारत भेज दिया गया वो भी यह कहकर कि अमेरिका से मुट्ठीभर कर प्राप्त कर लेने से ब्रिटेन को कुछ ज्यादा हासिल नहीं होनेवाला है जबकि जो भी देश या जाति भारत पर राज करेगी उसका पूरी दुनिया पर शासन होगा। राजीव श्रीनिवासन ने कहा कि चीन एक विकसित राष्ट्र तो है लेकिन आधुनिक राष्ट्र नहीं है क्योंकि वहाँ लोकतंत्र नहीं है। संविधान में सिद्धांतों का वर्णन हो सकता है नीतियों का नहीं। श्री श्रीनिवासन ने यह भी कहा कि दुनिया में तीन तरह की धर्मनिरपेक्षता प्रचलन में है-1.फ्रांस की,2.कम्युनिस्टों की और 3.भारत की। इनमें से सिर्फ भारत की धर्मनिरपेक्षता ही सर्वधर्मसमभाव और सहअस्तित्व की बात करती है। उनका यह भी कहना था कि इस्लाम में धर्मनिरपेक्षता के लिए कोई स्थान नहीं है।
मित्रों,राष्ट्रवादी दलित चिंतक अरविंद नीलकंठन ने उदाहरण देकर अंबेदकर को हिंदू राष्ट्रवादी साबित करने की सफल कोशिश की। उन्होंने बताया कि अंबेदकर की नजर में आर्य जाति नहीं था बल्कि श्रेष्ठता का प्रतीक था। उन्होंने बताया कि अंबेदकर की चिंता भारत में हिंदुओं की रक्षा करने की थी। अंबेदकर मुसलमानों या मुसलमानों की बहुलतावाले किसी भी इलाके को भारत में रखना नहीं चाहते थे क्योंकि वे समझते थे कि इससे भविष्य में हिंदुओं और भारत की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। उन्होंने यह भी बताया कि पंचशील समझौते के समय अंबेदकर ने नेहरू को पत्र लिखा था कि चीन धर्मविरोधी राज्य है इसलिए उसके मन में पंचशील के प्रति आदर हो ही नहीं सकता। श्री अंबेदकर ने समान सिविल संहिता को लागू करने का जमकर समर्थन किया था और स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत को अनिवार्य तौर पर एक हिंदू राज्य होना चाहिए। अंबेदकर का साफ तौर पर कहना था कि हिंदू से बौद्ध बनना घर के एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने के समान है वहीं हिंदू से मुसलमान या इसाई बनने की तुलना एक घर से दूसरे घर में जाने से की जा सकती है। श्री नीलकंठन ने कहा कि स्वामी विवेकानंद और अंबेदकर के विचार एक जैसे हैं। अंबेदकर का साफ तौर पर मानना था कि अल्पसंख्यक समुदाय का निर्णय संप्रदाय के आधार पर नहीं बल्कि सामाजिक रूप से वंचित होने के आधार पर होना चाहिए। कश्मीर के बारे में अंबेदकर ने कहा कि कश्मीर में अपने लोगों की रक्षा की जानी चाहिए। यहाँ अपने लोगों से उनका मतलब हिंदुओं और सिक्खों से था।
मित्रों,अमेरिका से पधारे प्रो. जुलुरी ने क्या कहा यह अंग्रेजी में हाथ तंग होने के चलते मैं समझ ही नहीं पाया। महान लेखक व सांसद स्वप्न दासगुप्ता ने अमर्त्य सेन के इस कथन से कि अकबर भारत का पहला सम्राट था जिसने अल्पसंख्यकों के अधिकारों को मान्यता दी से असहमति जताई और कहा कि प्राचीन युग से ही भारत में अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक जैसी कोई समस्या रही ही नहीं है। बल्कि हमारे यहाँ तो सर्वे भवंतु सुखिनः और तु वसुधैव कुटुंबकम जीवन-पद्धित के हिस्सा रहे हैं। साथ ही हमें यह समझना चाहिए कि हिंदू हमेशा भारत में बहुसंख्यक थे और आज भी बहुसंख्यक हैं। उनका कहना था कि संविधान ही सबकुछ नहीं हो सकता बल्कि भारतीयता संविधान से भी ऊपर है। भारत का संविधान भले ही 26 जनवरी,1950 को लागू हुआ लेकिन भारत की या भारत में प्रजातंत्र की शुरुआत किसी 26 जनवरी या 15 अगस्त से नहीं हुई। बल्कि बहुलवाद और प्रजातंत्र भारत की संस्कृति में समाहित है। मीट के अंतिम वक्ता आरएसएस के सर कार्यवाह कृष्ण गोपाल ने आरएसएस और राष्ट्रवाद की विचारधारा के योगदान और महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि किस प्रकार से आरएसएस के सदस्यों में से कईयों ने देशहित में परिवार तक नहीं बनाया और उनका तर्पण करनेवाला भी कोई नहीं है।
मित्रों,हालाँकि सम्मेलन में भारत-सरकार की उपलब्धियों पर कम ही चर्चा हुई फिर भी मैं यह नहीं कह सकता कि इससे मुझे कोई लाभ नहीं हुआ। मैंने कई नए मुहावरों को सीखा,कई नए तर्कों से वाकिफ हुआ,कई नए विचारों से सन्नद्ध हुआ। फिर भोजन-नाश्ता और चाय का भी उत्तम प्रबंध किया गया था। एक और बात जिसने मुझे खासा परेशान किया वह थी मीट में अमित शाह और कृष्ण गोपाल जी को छोड़कर सारे वक्ताओं ने अंग्रेजी में अपना व्याख्यान दिया। राष्ट्रवादी संगठन होने के चलते कम-से-कम संघ परिवार से जुड़ी संस्था से तो हिंदी की उपेक्षा की उम्मीद नहीं ही की जानी चाहिए।
मित्रों,चूँकि संघीय सरकार ने दो साल पूरे किए थे इसलिए मुझे उम्मीद थी कि जो भी वक्ता आनेवाले हैं वे सरकार की दो सालों की उपलब्धियों का बखान करेंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। ज्यादातर वक्ताओं का जोर इस बात पर था कि केंद्र सरकार के हाथ बंधे हुए हैं और शिक्षा,भूमि,पुलिस,स्वास्थ्य जैसी जनकल्याण से जुड़ी सारी चीजें संविधान-निर्माताओं ने राज्य सरकारों के हवाले कर दिया है। लगभग सारे वक्ता ले-देकर जन-धन योजना और डीबीटीएल का ही जिक्र कर रहे थे।
मित्रों,हमने भी भारत का संविधान पढ़ा है,साथ ही भारत का इतिहास भी पढ़ा है और हम पहले से ही जानते हैं कि 1919 के अधिनियम के अनुसार भारत में द्वैध-शासन लागू किया गया था। संविधान-निर्माताओं ने सातवीं अनुसूची में जनकल्याण से संबद्ध लगभग सारे विषयों को फिर से राज्य-सरकार के जिम्मे कर दिया। बाद में जब 1993 में स्थानीय स्वशासन लागू किया गया तब लोककल्याण से संबद्ध कई कामों को स्थानीय निकायों के हवाले कर दिया गया। सवाल उठता है कि जिन राज्यों में भाजपा का सीधा या गठबंधन के अंतर्गत शासन है क्या वहाँ सचमुच में रामराज्य आ गया है? सवाल यह भी उठता है कि क्या केंद्र सरकार राज्य-सूची के विषयों में कोई संशोधन कर ही नहीं सकती है या फिर राज्य-सूची से संबद्ध विषयों पर कोई कानून बना ही नहीं सकती है? सवाल उठता है कि केजरीवाल की तरह रोना रोकर केंद्र सरकार के नीति-नियंताओं को क्या हासिल हो जानेवाला है? आखिर जनता ने उनको रोने के लिए नहीं बल्कि आंसू पोछने के लिए वोट दिया है। नीयत साफ हो,विश्वास में दृढ़ता हो,नीतियों के बारे में स्पष्टता हो तो ऐसी कौन-सी उपलब्धि है जो यह सरकार हासिल नहीं कर सकती?
मित्रों,विवेक ओबेराय जो महान अर्थशास्त्री हैं और नीति आयोग के सदस्य भी हैं का कहना था कि विधि-निर्माण समय बर्बाद करनेवाली प्रक्रिया है। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि विकल्प क्या है? जबकि भारत में विधि का शासन है तो विधि तो बनानी ही पड़ेगी और कोई उपाय है भी तो नहीं। आखिर कब तक अध्यादेश जारी करके काम चलाया जाएगा? संसद के समवेत होने के 6 सप्ताह के भीतर अध्यादेश को संसद से पारित तो करवाना पड़ेगा ही। इस संबंध में श्री ओबेराय ने भू-अर्जन अधिनियम,2013 का विस्तार से जिक्र भी किया। श्री ओबेराय के अनुसार सरकार के पास सीमित राजकोषीय स्रोत हैं इसलिए जनाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए निजीकरण के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है।
मित्रों,राज्यसभा सदस्य और भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री विनय सहस्रबुद्धे का जोर सुशासन की स्थापना पर रहा। उनका मानना था कि सिर्फ कागजों पर शिक्षा,स्वास्थ्य,सूचना आदि का अधिकार दे देने से जनता को कोई लाभ मिलनेवाला नहीं है। उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि क्या जनता को जब मुस्कुराने का अधिकार दिया जाएगा तभी वे हँसेंगे? फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री ने समस्या-प्रधान फिल्मों के निर्माण पर जोर दिया। साथ ही मीडिया से छोटे शहरों के गायब होने पर चिंता जताई। उनका मानना था कि अगर भारत को फिर से विश्वगुरू बनाना है कि इसे दुनिया का इनोवेशन हब बनाना होगा। उनका कहना था कि विविधता में एकता का नारा अच्छा तो है लेकिन विविधता से देश के समक्ष कठिनाई भी पैदा होती है।
मित्रों,भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बेलाग तरीके से साफ-साफ कहा कि विचारधारा के बिना राजनीति करना असंभव है। ऐसा होने पर राजनीति की हालत वही होगी जो प्राण के बिना शरीर की होती है। उनका कहना था कि भारत में इस समय चार वैचारिक खेमे हैं-कांग्रेस,जनसंघ,कम्युनिस्ट और समाजवादी। इसी प्रकार भारत में तीन तरह की विचारधाराएँ प्रचलन में हैं-धर्मनिरपेक्ष समाजवादी,राष्ट्रवादी और साम्यवादी। इसमें से समाजवादी विचारधारा अब परिवारवाद में बदल गई है। कांग्रेस की विचारधारा में उसकी स्थापना के समय से ही मिट्टी की सुगंध और भारतीयता का अभाव है। उनका कहना था कि कांग्रेस की सोंच नवनिर्माण की थी। यहाँ तक कि उनलोगों ने संस्कृति के नवनिर्माण की दिशा में भी प्रयास किया। जबकि पूर्ववर्ती जनसंघ और वर्तमान की भाजपा नवनिर्माण में नहीं पुनर्निर्माण में यकीन रखती है। भाजपा एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसने देशहित में आंदोलन किए व्यक्ति-विशेष के महिमामंडन के लिए कोई आंदोलन नहीं किया। उन्होंने कहा कि मोदी या मोदी सरकार देश में परिवर्तन नहीं ला सकती विचारधारा ही परिवर्तन ला सकती है। श्री शाह ने कहा कि केंद्र सरकार पहली बार सजीव जीडीपी के लिए प्रयास कर रही है। हर 15 दिन पर प्रधानमंत्री सरकार के कामकाज की कठोर समीक्षा करते हैं। उन्होंने बताया कि भारत सरकार चाहती है कि 2025 तक भारत की सेना दुनिया की सबसे आधुनिक सेना हो और 21वीं सदी भारत की सदी कहलाये।
मित्रों,वरिष्ठ पत्रकार और भारत सरकार में मंत्री एमजे अकबर ने अपने भाषण में रोटी की समानता पर जोर दिया। उनका कहना था कि भूख की न तो कोई जाति होती है और न ही कोई धर्म ही होता है। उन्होंने कहा कि इस्लाम सांप्रदायिक भाईचारे की बात करता है राष्ट्रवाद की बात नहीं करता। उन्होंने जोर देकर कहा कि जबसे भारत है तबसे भारत में समानता का अधिकार स्वतःस्फूर्त तरीके से प्रचलन में है। उन्होंने कहा कि तकनीक ने आज समय के अर्थ को बदल दिया है। श्री अकबर ने इतिहास के पन्नों को पलटते हुए बताया कि यद्यपि लार्ड कार्नवालिस अमेरिकी संग्राम में हार गया था फिर भी उसको प्रोन्नति देकर भारत भेज दिया गया वो भी यह कहकर कि अमेरिका से मुट्ठीभर कर प्राप्त कर लेने से ब्रिटेन को कुछ ज्यादा हासिल नहीं होनेवाला है जबकि जो भी देश या जाति भारत पर राज करेगी उसका पूरी दुनिया पर शासन होगा। राजीव श्रीनिवासन ने कहा कि चीन एक विकसित राष्ट्र तो है लेकिन आधुनिक राष्ट्र नहीं है क्योंकि वहाँ लोकतंत्र नहीं है। संविधान में सिद्धांतों का वर्णन हो सकता है नीतियों का नहीं। श्री श्रीनिवासन ने यह भी कहा कि दुनिया में तीन तरह की धर्मनिरपेक्षता प्रचलन में है-1.फ्रांस की,2.कम्युनिस्टों की और 3.भारत की। इनमें से सिर्फ भारत की धर्मनिरपेक्षता ही सर्वधर्मसमभाव और सहअस्तित्व की बात करती है। उनका यह भी कहना था कि इस्लाम में धर्मनिरपेक्षता के लिए कोई स्थान नहीं है।
मित्रों,राष्ट्रवादी दलित चिंतक अरविंद नीलकंठन ने उदाहरण देकर अंबेदकर को हिंदू राष्ट्रवादी साबित करने की सफल कोशिश की। उन्होंने बताया कि अंबेदकर की नजर में आर्य जाति नहीं था बल्कि श्रेष्ठता का प्रतीक था। उन्होंने बताया कि अंबेदकर की चिंता भारत में हिंदुओं की रक्षा करने की थी। अंबेदकर मुसलमानों या मुसलमानों की बहुलतावाले किसी भी इलाके को भारत में रखना नहीं चाहते थे क्योंकि वे समझते थे कि इससे भविष्य में हिंदुओं और भारत की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। उन्होंने यह भी बताया कि पंचशील समझौते के समय अंबेदकर ने नेहरू को पत्र लिखा था कि चीन धर्मविरोधी राज्य है इसलिए उसके मन में पंचशील के प्रति आदर हो ही नहीं सकता। श्री अंबेदकर ने समान सिविल संहिता को लागू करने का जमकर समर्थन किया था और स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत को अनिवार्य तौर पर एक हिंदू राज्य होना चाहिए। अंबेदकर का साफ तौर पर कहना था कि हिंदू से बौद्ध बनना घर के एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने के समान है वहीं हिंदू से मुसलमान या इसाई बनने की तुलना एक घर से दूसरे घर में जाने से की जा सकती है। श्री नीलकंठन ने कहा कि स्वामी विवेकानंद और अंबेदकर के विचार एक जैसे हैं। अंबेदकर का साफ तौर पर मानना था कि अल्पसंख्यक समुदाय का निर्णय संप्रदाय के आधार पर नहीं बल्कि सामाजिक रूप से वंचित होने के आधार पर होना चाहिए। कश्मीर के बारे में अंबेदकर ने कहा कि कश्मीर में अपने लोगों की रक्षा की जानी चाहिए। यहाँ अपने लोगों से उनका मतलब हिंदुओं और सिक्खों से था।
मित्रों,अमेरिका से पधारे प्रो. जुलुरी ने क्या कहा यह अंग्रेजी में हाथ तंग होने के चलते मैं समझ ही नहीं पाया। महान लेखक व सांसद स्वप्न दासगुप्ता ने अमर्त्य सेन के इस कथन से कि अकबर भारत का पहला सम्राट था जिसने अल्पसंख्यकों के अधिकारों को मान्यता दी से असहमति जताई और कहा कि प्राचीन युग से ही भारत में अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक जैसी कोई समस्या रही ही नहीं है। बल्कि हमारे यहाँ तो सर्वे भवंतु सुखिनः और तु वसुधैव कुटुंबकम जीवन-पद्धित के हिस्सा रहे हैं। साथ ही हमें यह समझना चाहिए कि हिंदू हमेशा भारत में बहुसंख्यक थे और आज भी बहुसंख्यक हैं। उनका कहना था कि संविधान ही सबकुछ नहीं हो सकता बल्कि भारतीयता संविधान से भी ऊपर है। भारत का संविधान भले ही 26 जनवरी,1950 को लागू हुआ लेकिन भारत की या भारत में प्रजातंत्र की शुरुआत किसी 26 जनवरी या 15 अगस्त से नहीं हुई। बल्कि बहुलवाद और प्रजातंत्र भारत की संस्कृति में समाहित है। मीट के अंतिम वक्ता आरएसएस के सर कार्यवाह कृष्ण गोपाल ने आरएसएस और राष्ट्रवाद की विचारधारा के योगदान और महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि किस प्रकार से आरएसएस के सदस्यों में से कईयों ने देशहित में परिवार तक नहीं बनाया और उनका तर्पण करनेवाला भी कोई नहीं है।
मित्रों,हालाँकि सम्मेलन में भारत-सरकार की उपलब्धियों पर कम ही चर्चा हुई फिर भी मैं यह नहीं कह सकता कि इससे मुझे कोई लाभ नहीं हुआ। मैंने कई नए मुहावरों को सीखा,कई नए तर्कों से वाकिफ हुआ,कई नए विचारों से सन्नद्ध हुआ। फिर भोजन-नाश्ता और चाय का भी उत्तम प्रबंध किया गया था। एक और बात जिसने मुझे खासा परेशान किया वह थी मीट में अमित शाह और कृष्ण गोपाल जी को छोड़कर सारे वक्ताओं ने अंग्रेजी में अपना व्याख्यान दिया। राष्ट्रवादी संगठन होने के चलते कम-से-कम संघ परिवार से जुड़ी संस्था से तो हिंदी की उपेक्षा की उम्मीद नहीं ही की जानी चाहिए।
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