मित्रों,पता नहीं नोबेल का शांति पुरस्कार देने का आधार क्या है? मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि सन् 1901 ईं. से लेकर अबतक इसे प्राप्त करनेवालों की सूची में अराफात जैसे कई खुराफातियों के नाम हैं जिनका नाम इस सूची में कतई नहीं होना चाहिए। वर्ष 2014 में शांति का नोबेल सम्मान प्राप्त करनेवाली मलाला युसुफजई को ही लें। दुनिया में हर साल सैंकड़ों-हजारों लोगों पर आतंकी गोलियाँ चलाते हैं और उनमें से ज्यादातर इतने भाग्यशाली नहीं होते कि जीवित बच जाएँ। तो क्या उनमें से सबको नोबेल पुरस्कार दे दिया जाना चाहिए? इनमें से कई एक तो हमारी बिरादरी के यानि पत्रकार भी होते हैं लेकिन किसी पत्रकार को नोबेल नहीं मिलता।
मित्रों,मैं शुरू से ही नहीं मानता कि मलाला युसुफजई सिर्फ इस कारण से नोबेल की हकदार हो गई क्योंकि उसके ऊपर जेहादी आतंकवादियों ने गोलियाँ चलाईँ। हमें पुरस्कार देने के समय प्राप्तकर्ता की सोंच और विचारधारा की भी विस्तार से विवेचना करनी चाहिए। मैं समझता हूँ कि नोबेल चयन समिति से मलाला के मामले में यही गलती हुई है।
मित्रों,कल जिस तरह से मलाला ने कश्मीर में जेहादी आतंकवाद का खुलकर समर्थन किया है उससे साफ पता चलता है कि उसकी सोंच निहायत संकीर्ण और सांप्रदायिक है। मलाला इस्लाम से बाहर जाकर सोंच ही नहीं सकती है। वह सर्वधर्मसमभाव में भी विश्वास नहीं रखतीं। वरना क्या कारण है कि उसको कश्मीरी मुसलमानों द्वारा कश्मीरी पंडितों को दिए गए अनगिनत घाव नजर नहीं आए। वास्विकता तो यह है पिछले 2 दशक से कश्मीर में क्षेत्रीयताधारित अलगाववाद चल ही नहीं रहा है बल्कि धर्माधारित आतंकवाद चल रहा है। शायद मलाला को यह दिख नहीं रहा या फिर वो देखना ही नहीं चाहती क्योंकि उसको लगता है कि इस्लाम के नाम पर जो होता है हमेशा सही होता है। फिर सवाल यह भी उठता है कि अगर कश्मीर में इस्लाम के नाम पर हिंसा सही है तो उसी इस्लाम के नाम पर मलाला पर जिन लोगों ने गोलियाँ चलाईं वो कैसे गलत थे? क्या कश्मीरी मुसलमानों का इस्लाम तालिबान के इस्लाम से अलग है?
मित्रों,माना कि कश्मीर में कई हफ्तों से स्कूल बंद हैं लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या एक खूंखार आतंकी की मौत के बाद और उसके कई साल पहले से सेना-पुलिस पर पत्थर फेंकनेवाले लोग शांति के पुजारी हैं? क्या मलाला के लिए कश्मीर में बसे मुसलमान ही सिर्फ मानव हैं? क्या कश्मीरी पंडितों और सेना-पुलिस के जवानों का कोई मानवाधिकार नहीं है? क्या कश्मीरी पंडितों के परिवारों की स्त्रियों के साथ सामूहिक बलात्कार मानवाधिकार का सम्मान करना है? जिन बच्चों को स्कूल जाना चाहिए क्या उनका चंद पैसों के लालच में आकर पत्थरबाजी करना किसी भी दृष्टि से सही है? कोई पत्थर फेंकेगा तो बदले में वो फूल की उम्मीद कैसे कर सकता है?
मित्रों,आश्चर्य की बात है खुद मलाला के देश में पीओके और बलुचिस्तान में सरकारी अमले द्वारा मानवाधिकारों का घनघोर उल्लंघन हो रहा है लेकिन मलाला को दिख नहीं रहा। इसका मतलब तो यही लगाना चाहिए कि मलाला मानती है कि जो मानवाधिकार-उल्लंघन पाकिस्तान की सरकार के समर्थन से हो या सीधे-सीधे पाकिस्तान की सरकार द्वारा हो वो सही है फिर चाहे वो बलुचिस्तान में हो,पीओके में हो या फिर जम्मू-कश्मीर में हो?
मित्रों,मैं मानता हूँ कि ऐसा बचकाना और बेवकूफाना बयान देकर मलाला ने साबित कर दिया है कि नोबेल सम्मान बच्चों को देने की चीज नहीं है। साथ ही उसने उसको दिए गए महान सम्मान को अपमानित किया है। मेरा मानना है कि शांति पुरस्कार ऐसे लोगों को दिया जाना चाहिए जो तू वसुधैव कुटुंबकम् में विश्वास रखते हों,सर्वधर्मसमभाव में यकीन रखते हों,मानवमात्र ही नहीं सभी जीवों के प्रति दयालु हों,सबका साथ सबका विकास चाहते हों ऐसे लोगों को नहीं जिनकी आँखों पर सांप्रदायिकता या क्षेत्रीयता का संकीर्ण चश्मा चढ़ा हो। आज निश्चित रूप से नोबेल सम्मान खुद पर शर्मिंदा हो रहा होगा और अल्फ्रेड नोबेल की आत्मा चित्कार कर रही होगी।
मित्रों,मैं शुरू से ही नहीं मानता कि मलाला युसुफजई सिर्फ इस कारण से नोबेल की हकदार हो गई क्योंकि उसके ऊपर जेहादी आतंकवादियों ने गोलियाँ चलाईँ। हमें पुरस्कार देने के समय प्राप्तकर्ता की सोंच और विचारधारा की भी विस्तार से विवेचना करनी चाहिए। मैं समझता हूँ कि नोबेल चयन समिति से मलाला के मामले में यही गलती हुई है।
मित्रों,कल जिस तरह से मलाला ने कश्मीर में जेहादी आतंकवाद का खुलकर समर्थन किया है उससे साफ पता चलता है कि उसकी सोंच निहायत संकीर्ण और सांप्रदायिक है। मलाला इस्लाम से बाहर जाकर सोंच ही नहीं सकती है। वह सर्वधर्मसमभाव में भी विश्वास नहीं रखतीं। वरना क्या कारण है कि उसको कश्मीरी मुसलमानों द्वारा कश्मीरी पंडितों को दिए गए अनगिनत घाव नजर नहीं आए। वास्विकता तो यह है पिछले 2 दशक से कश्मीर में क्षेत्रीयताधारित अलगाववाद चल ही नहीं रहा है बल्कि धर्माधारित आतंकवाद चल रहा है। शायद मलाला को यह दिख नहीं रहा या फिर वो देखना ही नहीं चाहती क्योंकि उसको लगता है कि इस्लाम के नाम पर जो होता है हमेशा सही होता है। फिर सवाल यह भी उठता है कि अगर कश्मीर में इस्लाम के नाम पर हिंसा सही है तो उसी इस्लाम के नाम पर मलाला पर जिन लोगों ने गोलियाँ चलाईं वो कैसे गलत थे? क्या कश्मीरी मुसलमानों का इस्लाम तालिबान के इस्लाम से अलग है?
मित्रों,माना कि कश्मीर में कई हफ्तों से स्कूल बंद हैं लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या एक खूंखार आतंकी की मौत के बाद और उसके कई साल पहले से सेना-पुलिस पर पत्थर फेंकनेवाले लोग शांति के पुजारी हैं? क्या मलाला के लिए कश्मीर में बसे मुसलमान ही सिर्फ मानव हैं? क्या कश्मीरी पंडितों और सेना-पुलिस के जवानों का कोई मानवाधिकार नहीं है? क्या कश्मीरी पंडितों के परिवारों की स्त्रियों के साथ सामूहिक बलात्कार मानवाधिकार का सम्मान करना है? जिन बच्चों को स्कूल जाना चाहिए क्या उनका चंद पैसों के लालच में आकर पत्थरबाजी करना किसी भी दृष्टि से सही है? कोई पत्थर फेंकेगा तो बदले में वो फूल की उम्मीद कैसे कर सकता है?
मित्रों,आश्चर्य की बात है खुद मलाला के देश में पीओके और बलुचिस्तान में सरकारी अमले द्वारा मानवाधिकारों का घनघोर उल्लंघन हो रहा है लेकिन मलाला को दिख नहीं रहा। इसका मतलब तो यही लगाना चाहिए कि मलाला मानती है कि जो मानवाधिकार-उल्लंघन पाकिस्तान की सरकार के समर्थन से हो या सीधे-सीधे पाकिस्तान की सरकार द्वारा हो वो सही है फिर चाहे वो बलुचिस्तान में हो,पीओके में हो या फिर जम्मू-कश्मीर में हो?
मित्रों,मैं मानता हूँ कि ऐसा बचकाना और बेवकूफाना बयान देकर मलाला ने साबित कर दिया है कि नोबेल सम्मान बच्चों को देने की चीज नहीं है। साथ ही उसने उसको दिए गए महान सम्मान को अपमानित किया है। मेरा मानना है कि शांति पुरस्कार ऐसे लोगों को दिया जाना चाहिए जो तू वसुधैव कुटुंबकम् में विश्वास रखते हों,सर्वधर्मसमभाव में यकीन रखते हों,मानवमात्र ही नहीं सभी जीवों के प्रति दयालु हों,सबका साथ सबका विकास चाहते हों ऐसे लोगों को नहीं जिनकी आँखों पर सांप्रदायिकता या क्षेत्रीयता का संकीर्ण चश्मा चढ़ा हो। आज निश्चित रूप से नोबेल सम्मान खुद पर शर्मिंदा हो रहा होगा और अल्फ्रेड नोबेल की आत्मा चित्कार कर रही होगी।
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