मित्रों,मैंने यूपीए की सरकार के समय अपने ब्लॉग brajkiduniya.blogspot.com पर लिखा था कि रजिया को बेशक विशेष सुविधा दीजिए लेकिन राधा को उससे वंचित भी नहीं रखिए। लेकिन देखा जा रहा है कि सत्ता में आने के ढाई साल बाद भी नई सरकार ने पुरानी सरकार की उन विभेदपूर्ण व तुष्टीकारक नीतियों को ही जारी रखा है जिसके चलते हिंदू अपने ही देश में,बहुसंख्यक होते हुए भी द्वितीयक स्तर के नागरिक बना दिए गए हैं। जब कथित हिंदुत्त्ववादी केंद्र सरकार का ऐसा हाल है तो जिन प्रदेशों में समाजवादी या साम्यवादी पार्टियों या विचारधाराहीन कांग्रेस पार्टी की सरकार है उनके हालात का तो कहना ही क्या। आज भी यकीनन यकीन नहीं होता कि भारत एक हिंदूबहुल देश है।
मित्रों,बात सरकारों तक ही सीमित होती तो फिर भी गनीमत थी। देखा तो यह भी जा रहा है कि न्यायपालिका भी सिर्फ हिंदुओं के रीति-रिवाजों और हिंदुओं के मामलों में ही टांग अड़ाने में मजा आ रहा है। अब दही-हांडी की ऊँचाई और उसमें भाग लेनेवालों की उम्र तक भी सुप्रीम कोर्ट तय करने लगा है और यह गलत भी नहीं है। लेकिन जैसे ही मुसलमानों का मामला आता है सुप्रीम कोर्ट कोना पकड़ लेता है। कुछ ही दिनों बाद धर्म के नाम पर बकरीद पर हजारों बेजुबान-निर्दोष जानवरों का गला रेत दिया जाएगा लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसमें कतई हस्तक्षेप नहीं करेगा।
मित्रों,ऐसे माहौल में यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि भारत की करोड़ों मुस्लिम महिलाओं को तलाक और बहुविवाह के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से न्याय मिल पाता है या नहीं। गेंद 1986 के शाहबानो मामले के बाद एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट के पाले में है। सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कुरानाधारित इस कुतर्क को मानेगा कि पुरूष ज्यादा बुद्धिमान होते हैं और बहुविवाह को रोकने से पत्नियों की हत्या को बढ़ावा मिलेगा। देश के बाँकी संप्रदाय के लोग तो एक ही विवाह कर रहे हैं और फिर भी अपनी पत्नियों की हत्या नहीं कर रहे हैं तो फिर मुसलमानों में ही यह हत्या करने की पागलपनवाली बीमारी फैलने का भय क्यों है?
मित्रों,कुछ ऐसा ही तर्क यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने भी आज से ढाई हजार साल पहले दिया था कि चूँकि महिलाओं के मुँह में कम दाँत होते हैं इसलिए वे पुरुषों से कमतर होती हैं। लेकिन आज का पश्चिमी समाज तो इसे सही नहीं मानता। चर्च सदियों तक अड़ा रहा कि सूर्य और बाँकी के ग्रह-तारे धरती की परिक्रमा करते हैं क्योंकि बाईबिल में यही लिखा है लेकिन बाद में चर्च ने अपना मत बदल लिया क्योंकि पश्चिम में चर्च की रूढ़िवादिता के खिलाफ लंबे समय तक धर्मसुधार आंदोलन चला जिससे ऐसा नहीं करने पर उसकी अपनी प्रासंगिकता ही खतरे में पड़ जाने का खतरा था।
मित्रों,दुर्भाग्यवश हम देखते हैं कि ऐसा कोई सुधार आंदोलन अब तक मुस्लिम समाज में नहीं चला है। आंदोलन चला भी है तो बहावी आंदोलन जिसने कट्टरता और रूढ़िवादिता को बढ़ाया ही है घटाया नहीं है। सवाल उठता है कि अगर कुरान कहता है कि धरती चपटी है तो क्या मुसलमान अपने बच्चों को वैसे स्कूलों में नहीं पढ़ाएंगे जिनमें यह पढ़ाया जाता है कि धरती गोल है? ऐसे में अगर मुस्लिम समाज अपने रीति-रिवाजों और मान्यताओं में समयानुकूल बदलाव नहीं करता है और महिलाओं को पशुओं से भी घटिया जानवर मानते हुए 1400 साल पुरानी किताब कुरान का हवाला देकर उनके मानवाधिकारों का लगातार हनन करता रहता है तो सवाल उठता है कि न्याय और धर्म की भूमि भारत क्या उसे चुपचाप ऐसा करने देगा? मुस्लिम महिलाओं के उद्धार और उनके गरिमामय जीवन को सुनिश्चित करने की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट बखूबी कर सकता है। मगर वो ऐसा करेगा क्या? और क्या अपने समुचित उत्तर द्वारा केंद्र सरकार ऐसा करने में उसकी सहायता करेगी?
मित्रों,बात सरकारों तक ही सीमित होती तो फिर भी गनीमत थी। देखा तो यह भी जा रहा है कि न्यायपालिका भी सिर्फ हिंदुओं के रीति-रिवाजों और हिंदुओं के मामलों में ही टांग अड़ाने में मजा आ रहा है। अब दही-हांडी की ऊँचाई और उसमें भाग लेनेवालों की उम्र तक भी सुप्रीम कोर्ट तय करने लगा है और यह गलत भी नहीं है। लेकिन जैसे ही मुसलमानों का मामला आता है सुप्रीम कोर्ट कोना पकड़ लेता है। कुछ ही दिनों बाद धर्म के नाम पर बकरीद पर हजारों बेजुबान-निर्दोष जानवरों का गला रेत दिया जाएगा लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसमें कतई हस्तक्षेप नहीं करेगा।
मित्रों,ऐसे माहौल में यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि भारत की करोड़ों मुस्लिम महिलाओं को तलाक और बहुविवाह के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से न्याय मिल पाता है या नहीं। गेंद 1986 के शाहबानो मामले के बाद एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट के पाले में है। सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कुरानाधारित इस कुतर्क को मानेगा कि पुरूष ज्यादा बुद्धिमान होते हैं और बहुविवाह को रोकने से पत्नियों की हत्या को बढ़ावा मिलेगा। देश के बाँकी संप्रदाय के लोग तो एक ही विवाह कर रहे हैं और फिर भी अपनी पत्नियों की हत्या नहीं कर रहे हैं तो फिर मुसलमानों में ही यह हत्या करने की पागलपनवाली बीमारी फैलने का भय क्यों है?
मित्रों,कुछ ऐसा ही तर्क यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने भी आज से ढाई हजार साल पहले दिया था कि चूँकि महिलाओं के मुँह में कम दाँत होते हैं इसलिए वे पुरुषों से कमतर होती हैं। लेकिन आज का पश्चिमी समाज तो इसे सही नहीं मानता। चर्च सदियों तक अड़ा रहा कि सूर्य और बाँकी के ग्रह-तारे धरती की परिक्रमा करते हैं क्योंकि बाईबिल में यही लिखा है लेकिन बाद में चर्च ने अपना मत बदल लिया क्योंकि पश्चिम में चर्च की रूढ़िवादिता के खिलाफ लंबे समय तक धर्मसुधार आंदोलन चला जिससे ऐसा नहीं करने पर उसकी अपनी प्रासंगिकता ही खतरे में पड़ जाने का खतरा था।
मित्रों,दुर्भाग्यवश हम देखते हैं कि ऐसा कोई सुधार आंदोलन अब तक मुस्लिम समाज में नहीं चला है। आंदोलन चला भी है तो बहावी आंदोलन जिसने कट्टरता और रूढ़िवादिता को बढ़ाया ही है घटाया नहीं है। सवाल उठता है कि अगर कुरान कहता है कि धरती चपटी है तो क्या मुसलमान अपने बच्चों को वैसे स्कूलों में नहीं पढ़ाएंगे जिनमें यह पढ़ाया जाता है कि धरती गोल है? ऐसे में अगर मुस्लिम समाज अपने रीति-रिवाजों और मान्यताओं में समयानुकूल बदलाव नहीं करता है और महिलाओं को पशुओं से भी घटिया जानवर मानते हुए 1400 साल पुरानी किताब कुरान का हवाला देकर उनके मानवाधिकारों का लगातार हनन करता रहता है तो सवाल उठता है कि न्याय और धर्म की भूमि भारत क्या उसे चुपचाप ऐसा करने देगा? मुस्लिम महिलाओं के उद्धार और उनके गरिमामय जीवन को सुनिश्चित करने की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट बखूबी कर सकता है। मगर वो ऐसा करेगा क्या? और क्या अपने समुचित उत्तर द्वारा केंद्र सरकार ऐसा करने में उसकी सहायता करेगी?
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