मित्रों, हमारा देश भी बड़ा विचित्र है. यहाँ जो जितना सीधा दीखता है वो उतना ही टेढ़ा होता है. कितनी बड़ी विडंबना है कि जो व्यक्ति यह कहकर राजनीति में आया कि वो राजनीति को साफ़-सुथरी करने आया है वह खुद राजनीति की सबसे बड़ी गंदगी बन गया, जो पार्टी यह कहती थी कि वो जाति की राजनीति नहीं करती बल्कि हिंदुत्व की राजनीति करती है उसने इन्सान तो इन्सान भगवान तक को गन्दी और घृणित जातीय राजनीति के कीचड़ में घसीट लिया है.
मित्रों, पहले इस पार्टी ने अम्बेदकर जी को भगवान बना दिया, फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससीएसटी एक्ट में दिए गए फैसले को पलट दिया, फिर प्रोन्नति में आरक्षण लागू कर दिया और अब आखिर में भगवानों को भी जाति में बांटना शुरू कर दिया. अपने दिव्यज्ञान का परिचय देते हुए इस पार्टी के एक बहुत बड़े नेता योगी आदित्यनाथ जी ने गहन शोध के बाद पता लगाया कि रामभक्त हनुमान जी बन्दर नहीं थे बल्कि दलित थे.
मित्रों, इसके बाद से तो बेचारे हनुमान जी की जान पर बन आई है. कोई उनको जाट बता रहा है तो कोई आदिवासी, कोई यादव तो कोई ब्राह्मण. एक ने तो धर्म की दीवारों को गिराते हुए उनको मुसलमान भी बता दिया. बेचारे हनुमान जी इसके बाद से जबरदस्त कन्फ्यूजन और गुस्से में हैं. भोले-भाले हनुमान जी समझ नहीं पा रहे हैं कि पहले उनके प्रभु राम को और अब खुद उनको क्यों वोट की गन्दी राजनीति का शिकार क्यों बनाया जा रहा है? सबसे पहले हनुमान जी जा पहुंचे अपने आराध्य प्रभु राम के पास फरियाद लेकर कि प्रभु त्राहिमाम. परन्तु वहां से बेचारे को निराशा हाथ लगी. राम जी ने चिरपरिचित मुस्कान के साथ अपनी विवशता प्रकट करते हुए कहा कि वत्स जब मैं अपने आपको राजनीति से बचा नहीं पा रहा हूँ तो तुमको कैसे बचाऊँ?
मित्रों, फिर हताश-निराश हनुमान जी पहुंचे अपनी माँ अंजना के पास. माँ बेचारी क्या कहती क्योंकि उनके समय में तो जाति-प्रथा थी ही नहीं फिर जातीय राजनीति तो दूर की बात थी. तबसे हनुमान जी जो खुद ही संकटमोचक कहलाते हैं, बड़े संकट में हैं कि वे करें तो क्या करें.
मित्रों, मुझे याद आता है कि जब मैं १९९४-९५ में कटिहार जिले के फुलवडिया चौक पर अपने कामत पर रहता था तब एक पंडित जी कोढा बाज़ार में सड़क पर हनुमान जी की मूर्ति रखकर आने-जाने वाले हर वाहन से चंदा मांगते थे. क्या धूप, क्या वर्षा और क्या सर्दी. मैं उनकी अटूट भक्ति देखकर अचंभित था. एक दिन मैंने श्रद्धावश उनसे कहा कि पंडित जी आपकी भक्ति देखकर मैं अभिभूत हूँ. पंडित जी के उत्तर ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया. उन्होंने कहा कि वे तो सिर्फ इसलिए मंदिर बनाने में लगे हैं ताकि उनकी आनेवाली पीढ़ियों का भविष्य सेटल हो जाए. मैं समझ क्या रहा था और सच्चाई क्या निकली. तबसे मैं जब भी किसी चौक-चौराहे पर हनुमान जी की मूर्ति या मंदिर देखता हूँ मुझे वो पंडितजी याद आने लगते हैं.
मित्रों, कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म अफीम की तरह है. लगता है कि हमारे देश के नेता काफी पहले धर्म का राजनैतिक महत्व समझ गए थे. तभी तो देश का धर्म में नाम पर बंटवारा हुआ और अब धर्म के नाम पर चुनाव जीते जाते हैं. किसी ने सच ही कहा है कि पहले राजनीति में धर्म था और अब धर्म में भी राजनीति घुस गई है. पता नहीं अब धर्म का और भारत देश का क्या होगा? हम तो हनुमान जी से दोनों हाथ जोड़ कर यही विनती कर सकते हैं कि हे प्रभु, हे संकटमोचक, देवानामप्रिय हमारे प्यारे देश की रक्षा करिए. नहीं तो अभी तो आपकी जाति को लेकर राजनीति हो रही है भविष्य में न जाने भगवान शंकर, विष्णु, ब्रह्मा, कुबेर, गणेश, कार्तिकेय, इंद्र, अग्नि, पवन, विश्वकर्मा, चित्रगुप्त आदि की जाति को लेकर भी तरह-तरह के दावे किए जाएंगे जैसे इन सबका जन्म प्रणाम-पत्र उन्होंने अपने ही हाथों से बनाया था.
मित्रों, पहले इस पार्टी ने अम्बेदकर जी को भगवान बना दिया, फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससीएसटी एक्ट में दिए गए फैसले को पलट दिया, फिर प्रोन्नति में आरक्षण लागू कर दिया और अब आखिर में भगवानों को भी जाति में बांटना शुरू कर दिया. अपने दिव्यज्ञान का परिचय देते हुए इस पार्टी के एक बहुत बड़े नेता योगी आदित्यनाथ जी ने गहन शोध के बाद पता लगाया कि रामभक्त हनुमान जी बन्दर नहीं थे बल्कि दलित थे.
मित्रों, इसके बाद से तो बेचारे हनुमान जी की जान पर बन आई है. कोई उनको जाट बता रहा है तो कोई आदिवासी, कोई यादव तो कोई ब्राह्मण. एक ने तो धर्म की दीवारों को गिराते हुए उनको मुसलमान भी बता दिया. बेचारे हनुमान जी इसके बाद से जबरदस्त कन्फ्यूजन और गुस्से में हैं. भोले-भाले हनुमान जी समझ नहीं पा रहे हैं कि पहले उनके प्रभु राम को और अब खुद उनको क्यों वोट की गन्दी राजनीति का शिकार क्यों बनाया जा रहा है? सबसे पहले हनुमान जी जा पहुंचे अपने आराध्य प्रभु राम के पास फरियाद लेकर कि प्रभु त्राहिमाम. परन्तु वहां से बेचारे को निराशा हाथ लगी. राम जी ने चिरपरिचित मुस्कान के साथ अपनी विवशता प्रकट करते हुए कहा कि वत्स जब मैं अपने आपको राजनीति से बचा नहीं पा रहा हूँ तो तुमको कैसे बचाऊँ?
मित्रों, फिर हताश-निराश हनुमान जी पहुंचे अपनी माँ अंजना के पास. माँ बेचारी क्या कहती क्योंकि उनके समय में तो जाति-प्रथा थी ही नहीं फिर जातीय राजनीति तो दूर की बात थी. तबसे हनुमान जी जो खुद ही संकटमोचक कहलाते हैं, बड़े संकट में हैं कि वे करें तो क्या करें.
मित्रों, मुझे याद आता है कि जब मैं १९९४-९५ में कटिहार जिले के फुलवडिया चौक पर अपने कामत पर रहता था तब एक पंडित जी कोढा बाज़ार में सड़क पर हनुमान जी की मूर्ति रखकर आने-जाने वाले हर वाहन से चंदा मांगते थे. क्या धूप, क्या वर्षा और क्या सर्दी. मैं उनकी अटूट भक्ति देखकर अचंभित था. एक दिन मैंने श्रद्धावश उनसे कहा कि पंडित जी आपकी भक्ति देखकर मैं अभिभूत हूँ. पंडित जी के उत्तर ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया. उन्होंने कहा कि वे तो सिर्फ इसलिए मंदिर बनाने में लगे हैं ताकि उनकी आनेवाली पीढ़ियों का भविष्य सेटल हो जाए. मैं समझ क्या रहा था और सच्चाई क्या निकली. तबसे मैं जब भी किसी चौक-चौराहे पर हनुमान जी की मूर्ति या मंदिर देखता हूँ मुझे वो पंडितजी याद आने लगते हैं.
मित्रों, कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म अफीम की तरह है. लगता है कि हमारे देश के नेता काफी पहले धर्म का राजनैतिक महत्व समझ गए थे. तभी तो देश का धर्म में नाम पर बंटवारा हुआ और अब धर्म के नाम पर चुनाव जीते जाते हैं. किसी ने सच ही कहा है कि पहले राजनीति में धर्म था और अब धर्म में भी राजनीति घुस गई है. पता नहीं अब धर्म का और भारत देश का क्या होगा? हम तो हनुमान जी से दोनों हाथ जोड़ कर यही विनती कर सकते हैं कि हे प्रभु, हे संकटमोचक, देवानामप्रिय हमारे प्यारे देश की रक्षा करिए. नहीं तो अभी तो आपकी जाति को लेकर राजनीति हो रही है भविष्य में न जाने भगवान शंकर, विष्णु, ब्रह्मा, कुबेर, गणेश, कार्तिकेय, इंद्र, अग्नि, पवन, विश्वकर्मा, चित्रगुप्त आदि की जाति को लेकर भी तरह-तरह के दावे किए जाएंगे जैसे इन सबका जन्म प्रणाम-पत्र उन्होंने अपने ही हाथों से बनाया था.
2 टिप्पणियां:
वोट के लिए योगी जी का दाँव व्यर्थ गया।
धन्यवाद शेष भाई
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