शनिवार, 31 अगस्त 2019

इस्तीफा क्यों नहीं देते नीतीश जी


मित्रों, जब भी कहीं बिहार के इतिहास की किसी मंच पर चर्चा होती है तो आम बिहारियों की तरह मेरा सर भी गर्व से ऊंचा हो जाता है. यह सच भी है कि प्राचीन भारत का इतिहास एक लम्बे समय तक बिहार का इतिहास रहा है. मैं हठात सोंचने लगता हूँ कि बिहार क्या था और क्या हो गया. क्या आपने कभी सोंचा है कि बिहार बीमार कैसे हो गया? मैं यह सवाल विशेष रूप से बिहारियों से कर रहा हूँ. इस सवाल का थोडा-सा जवाब मुझे पिछले कुछ महीनों में मिला है जबसे मैं दोबारा सिन्हा लाईब्रेरी का सदस्य बना हूँ. इस उदाहरण से आप समझ जाएंगे कि बिहार में तंत्र कैसे काम करता है.
मित्रों, मैं अपने एक आलेख में कुछ हफ्ते पहले बता चुका हूँ कि जब मैं बिहार के गौरव सिन्हा लाईब्रेरी का दोबारा सदस्य बना तो पाया कि वहां की स्थिति बहुत ख़राब है. सिर्फ ५ स्टाफ बचे हैं जिनको पिछले ५ सालों से वेतन नहीं मिला है. जब मैंने आदतन मामले की गहराई से छान-बीन की तो पता चला कि लाईब्रेरी की दुरावस्था के लिए न सिर्फ लाईब्रेरी प्रशासन जिम्मेदार है बल्कि बिहार के मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री और पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी जिम्मेदार हैं क्योंकि ये लोग भी पुस्तकालय की सञ्चालन समिति के सदस्य हैं लेकिन इन्होंने कभी लाईब्रेरी से सम्बंधित किसी भी बैठक में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराई है.
मित्रों, सूत्रों ने बताया कि पुस्तकालय की डीड के अनुसार पुस्तकालय सञ्चालन समिति का सचिव हमेशा स्वर्गीय डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा जी के परिवार से होगा. दुर्भाग्यवश डॉ. सिन्हा के परिवार में अब सिर्फ एक ही जीवित सदस्य बचा है जो बराबर विदेश में रहता है और उसको पुस्तकालय से कोई मतलब नहीं है. साल २०१५ में जब सरकार ने पुस्तकालय को अधिगृहित किया तब उम्मीद की जा रही थी कि इससे पुस्तकालय की स्थिति सुधरेगी लेकिन हुआ उल्टा. जहाँ २०१५ से पहले राष्ट्रीय रैंकिंग में पुस्तकालय को चौथा स्थान प्राप्त था अब वो पहले दस में भी नहीं आती.
मित्रों, अब बात करते हैं कि अधिग्रहण के बाद आखिर ऐसा क्या किया गया कि आज पुस्तकालय अपने हालात पर रो रहा है. सबसे पहले तो पुस्तकालय के एक भवन से पुस्तकालय को हटा कर उसमें प्रदेश पुस्तकालय निदेशालय का कार्यालय खोल दिया गया और इसके लिए पुस्तकालय के पत्र-पत्रिका संभाग को बंद कर दिया गया. इतना ही नहीं निदेशालय में बैठनेवाले निदेशक उसी परिसर में स्थित पुस्तकालय में कभी झाँकने तक नहीं आते. सूत्र बताते हैं कि जब भी पुस्तकालय समिति की बैठक होती है तो ४ लोग औपचारिकता निभाने के लिए मीटिंग में आते हैं और उलटे-सीधे निर्णय लेकर चले जाते हैं. अभी पिछले साल ही सरकार से पुस्तकालय को ४२ लाख रूपये आवंटित हुए जिसमें से १० लाख रूपये परिसर में स्थित निदेशालय में एसी और जेनरेटर लगाने में खर्च कर दिए गए जबकि पुस्तकालय के मुख्य भवन में कई पंखे ख़राब हैं और पाठकों को गर्मी में पढ़ना पड़ता है. इतना ही नहीं पुस्तकालय के बचे-खुचे स्टाफ जिनको पिछले ५ सालों से वेतन नहीं मिला है अपनी किस्मत पर रो रहे हैं जबकि पैसा बैंक की शोभा बढ़ा रहा है.
मित्रों, सूत्र बताते हैं कि एक समय जब राम शोभित सिंह पुस्तकालयाध्यक्ष और डॉ. राम वचन राय संचालन समिति के अध्यक्ष हुआ करते थे तब स्थिति इतनी ख़राब नहीं थी लेकिन जबसे पुस्तकालय सरकारी हाथों में गयी है इसका बंटाधार हो गया है. कोई शिकायत करे भी तो कहाँ करे और किससे करे क्योंकि पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तो इसकी सञ्चालन समिति के चेयरमैन ही हैं और बिहार के मुख्यमंत्री-शिक्षामंत्री सदस्य. जब मैंने परसों २९ अगस्त को मुख्यमंत्री निवास पर फोन लगाया तो बताया गया कि मुख्यमंत्रीजी बीमार हैं इसलिए इस महीने बात नहीं करेंगे. मैं समझता हूँ कि बिहार जैसे प्रदेश में जो खुद ही बीमार है में एक बीमार व्यक्ति को मुख्यमंत्री नहीं रहना चाहिए। बहुधा पिछले कई वर्षों से नीतीश जी बीमार ही चल रहे हैं. ऐसे में बिहार कैसे स्वस्थ होगा जो खुद ही अनगिनत लाईलाज रोगों से दशकों से ग्रस्त है? दुर्भाग्यवश में पास इस मामले में सिर्फ सवाल है जवाब नहीं. वैसे प्रश्न तो यह भी उठता है कि अगर नीतीश जी बीमार हैं और शासन नहीं संभाल सकते तो इस्तीफा क्यों नहीं दे देते? नीतीश जी मान क्यों नहीं लेते कि अब वो अतीत बन चुके हैं और जब तक अतीत स्थान रिक्त नहीं करेगा वर्तमान को कैसे नए समाज, नए प्रदेश, नए राष्ट्र और नए विश्व के निर्माण का सुअवसर मिलेगा?

शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

पहलू खान मामला सिस्टम की मौत का परिचायक


मित्रों, मैं एक बार नहीं हजारों बार कह चुका हूँ कि अपने प्यारे भारत में कानून तो बहुत हैं लेकिन व्यवस्था नाम की चीज नहीं है. आप कहेंगे कि यह अव्यवस्था आई कहाँ से? तो दोस्तों वास्तविकता तो यह है कि यह कहीं से आई नहीं बल्कि हमेशा से यहीं थी अंग्रेजों के समय से ही. दरअसल अंग्रेजों ने जो प्रशासनिक व्यवस्था भारत में स्थापित की थी उसका उद्देश्य कहीं से भी भारत में रामराज्य स्थापित करना नहीं था बल्कि लूटना था. यह अंग्रेजों की नहीं बल्कि यह तो हमारी गलती है कि आजतक हमने शासन-प्रशासन और न्यायपालिका में कोई बदलाव नहीं किया है या बदलाव नहीं कर पाए हैं. यहाँ तक कि आजादी के ७५ साल बाद तक भी हमारी पुलिस भी वही है और पुलिस को चलानेवाले कानून भी. साथ ही हमारी अदालतें भी उन्हीं कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य हैं जो अंग्रेजों के समय भारतवासियों को लूटने के लिए बनाए गए थे.
मित्रों, अगर ऐसा नहीं होता तो कल पहलू खान हत्याकांड में वो फैसला नहीं आता जो आया है. मैं पूछता हूँ कि आखिर क्यों आज भी हमारा कानून ऑडियो-वीडियो प्रूफ को प्रूफ नहीं मानता जबकि आज का युग ही मोबाइल का युग है? आप समझ सकते हैं कि यह कितनी बड़ी विडम्बना है हमारे वक़्त की? हम कहीं भी कुछ भी होते हुए देखते हैं फिर चाहे हो अच्छी घटना हो या बुरी हम सबसे पहले अपना मोबाइल निकालते हैं और उसका वीडियो बना लेते हैं लेकिन हमारा कानून उसे प्रूफ मानता ही नहीं और सारी सुनवाई के बाद कहता है कि पहलू खान की हत्या हुई है और उसका विडियो प्रूफ भी है लेकिन हमारे कानून के अनुसार पहलू खान को किसी ने नहीं मारा. मैं इसी मंच पर मुन्ना सिंह नामक गरीब की हत्या का मुद्दा कई बार उठा चुका हूँ जो वैशाली जिले के चांदपुरा ओपी के खोरमपुर का रहनेवाला था और जिसकी २०१४ में ही घर में घुसकर हत्या कर दी गई थी लेकिन क्या मजाल कि इस मामले में एक गिरफ़्तारी भी हुई हो न्याय मिलना तो दूर की बात रही.
मित्रों, ऐसा नहीं है कि पहलू खान ऐसा इकलौता भारतीय है जिसे न्याय नहीं मिला बल्कि हम रोजाना ऐसी ख़बरों को पढ़ते हैं कि रेप पीडिता थानों के चक्कर लगाती रही लेकिन उनका केस दर्ज नहीं किया गया. अभी पटना में एक रिटायर्ड आईपीएस को कुछ लोगों ने पीटा और पुलिस बुलाने पर भी नहीं आई. मुझे तो लगता है कि हमारे चंद थानेदारों को छोड़कर ज्यादातर इतने भ्रष्ट हैं कि अगर उनकी खुद की माँ-बहन के साथ भी बलात्कार हो जाए तो उनसे भी मुकदमा दर्ज करने के लिए पैसे मांगेगे. ऐसे माहौल में हम कैसे न्याय की उम्मीद कर सकते हैं? क्या ऐसा करना बेईमानी नहीं होगी दफा ४२० के तहत?
मित्रों, आपमें से जो लोग भीड़ के द्वारा न्याय को उचित मानते हैं उनसे मैं कहना चाहूँगा कि मैं नहीं जानता कि पहलू खान निर्दोष था. साथ ही मैं यह भी नहीं जानता कि वो दोषी था लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि भीड़ के पास दिमाग नहीं होता. जब भीड़ हिंसक हो जाती है तो उसे मुजफ्फरपुर और गोपालगंज के डीएम के बीच कोई फर्क नहीं दिखता. उसका शिकार मैं भी हो सकता हूँ और आप भी, यहाँ तक कि पुलिस इंस्पेक्टर भी या फिर जज साहब भी. इसलिए कृपया इसका समर्थन न करें. वैसे विचारणीय यह भी है कि इस तरह की घटनाओं को बढ़ावा क्यों मिल रहा है? कहीं इसके पीछे हमारी कानून-व्यवस्था के प्रति लोगों के विश्वास का कम होना तो नहीं. वैसे अपने मोदीजी को सबका विश्वास चाहिए. देखते हैं कि वो इस दिशा में कब और कौन-सा कदम उठाते हैं. -इन्तहां हो गयी इंतज़ार की, आई न कुछ खबर पुलिस सुधार की...........

गुरुवार, 15 अगस्त 2019

बच्चों को कब मिलेगी आज़ादी


मित्रों, कहते हैं कि बचपन हर गम से बेगाना होता है लेकिन सच्चाई तो यह है कि आज बच्चे जैसे ही स्कूल जाना शुरू करते हैं उनके ऊपर भारी-भरकम बोझ डाल दिया जाता है. उदाहरण के लिए मेरे बेटे भगत को ही लें तो वो साढ़े सात-पौने आठ बजे स्कूल बस से अपने स्कूल श्रीराम इंटरनेशनल स्कूल मुस्ताफापुर-चकौसन, वैशाली, बिहार के लिए रवाना हो जाता है और वापस लौटता है साढ़े तीन-पौने चार बजे. इस तरह कुल मिलाकर उस ६ साल के प्रेप में पढनेवाले बच्चे को ८ घंटे स्कूल में रहना पड़ता है. जब मैंने स्कूल प्रशासन से इस बारे में शिकायत की और कहा कि बच्चे के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड रहा है तो उनका कहना था कि सीबीएसई के नियमानुसार ऐसा करना जरूरी है. तथापि मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई निर्देश सीबीएसई ने कभी जारी किया है और वो भी प्रेप के विद्यार्थियों के लिए. कम-से-कम मुझे सीबीएसई की वेबसाईट पर तो ऐसा कुछ नहीं मिला.
मित्रों, इतना ही नहीं शिक्षा के बाजारीकरण ने बच्चों की शिक्षा को बेहद महंगा बना दिया है.  बिहार और भारत के सबसे गरीब ईलाकों में से एक वैशाली जिले के निरा देहात में मुझे अपने बच्चे के लिए ३००० महीने की फीस भरनी पड़ती है. १९८० के दशक में जब मैं स्कूल में पढता था तब शायद पूरे दस साल में कुल मिलाकर भी मुझे इतनी फीस नहीं देनी पड़ी थी. लेकिन वह दौर सरकारी स्कूलों का था और आज सरकारी स्कूलों में बांकी सबकुछ होता है बस पढाई नहीं होती. ऐसे माहौल में कोई गरीब कहाँ से और कैसे अपने बच्चे को पढ़ाएगा. उस पर तुर्रा यह कि इन स्कूलों में बराबर कोई-न-कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम होता रहता है जिसके कारण अभिभावकों को अतिरिक्त आर्थिक बोझ उठाना पड़ता है. आज स्थिति इतनी ख़राब है कि पहले लोग बिमारियों के कारण गरीबी रेखा के नीचे चले जाते थे और आज बच्चों को पढ़ाने के चक्कर में भी महाजनों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं. और कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि बंधक रखा गहना छूट भी नहीं पाता और डूब जाता है. मुझे खुद भगत के नामांकन में २५००० रू. से ज्यादा खर्च करने पड़े और गहना बंधक रखना पड़ा.
मित्रों, यह बहुत अच्छी बात है कि गरीबों के स्वास्थ्य को लेकर सरकार चिंतित है लेकिन यह उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि बच्चों की शिक्षा को लेकर सरकार कतई चिंतित नहीं है. निजी स्कूलों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है. बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर सरकार का रवैया हम मुजफ्फरपुर में फैले चमकी बुखार के समय अभी कुछ हफ्ते पहले ही देख चुके हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि देश के उन बच्चों का क्या होगा जिनके हाथों में देश का भविष्य है? वैसे भी हमारे संविधान का सार कहा जानेवाले प्रस्तावना के अनुसार भारत एक लोककल्याणकारी गणराज्य है. ऐसे में सरकार कैसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को निजी क्षेत्र के हवाले कर सकती है? फिर तो भारत लोककल्याणकारी राज्य के बदले धनपतिकल्याणकारी राज्य बनकर रह जाएगा.
मित्रों, हम बार-बार दम भरते हैं कि हमें भारत को अमेरिका बनाना है तो मैं बता दूं कि अमेरिका में भी १९३९ में महामंदी आई थी और तब वहां की सरकार को भी घनघोर पूंजीवाद के स्थान पर कई लोककल्याणकारी कदम उठाने पड़े थे. यकीं न हो तो वित्त मंत्री अमेरिका का इतिहास पढ़ सकती हैं. मैं समझता हूँ कि इस समय हमारी अर्थव्यवस्था भी महामंदी की तरफ अग्रसर है.
मित्रों, विषयांतर के लिए क्षमा मांगते हुए आज ७३ वें स्वाधीनता दिवस के अवसर पर मैं भारत सरकार से अनुरोध करता हूँ कि वो ऐसे प्रबंध करे जिससे देश के मासूम बच्चों को भी सही मायने में आजादी मिल सके-अज्ञानता से आजादी, कुपोषण से आजादी, शिक्षा के नाम पर किए जानेवाले आर्थिक शोषण से आजादी.

सोमवार, 5 अगस्त 2019

धारा ३७०-मोदी सरकार का अत्यंत प्रशंसनीय कदम


मित्रों, आज और अबसे कुछ ही देर पहले भारत की संघ सरकार ने एक अत्यंत प्रशंसनीय प्रस्ताव संसद में रखा है. जिसके अनुसार अब बहुत जल्द भारतीय संविधान से धारा ३७० के एक उपखंड को छोड़कर बांकी समाप्त हो जाएगी. साथ ही उसने संविधान की धारा ३५ ए को समाप्त कर दिया है. इतना ही नहीं जम्मू-कश्मीर को दो भागों में बांटने का प्रस्ताव भी संसद के समक्ष रखा गया है. अबसे जम्मू-कश्मीर केंद्रशासित प्रदेश होगा यद्यपि वहां विधानसभा बनी रहेगी. जबकि लद्दाख अब बिना विधानसभा वाला केंद्रशासित प्रदेश होगा. सबसे अच्छी बात प्रस्ताव में यह है कि अबसे संसद द्वारा १९५२ से लेकर आज तक पारित किए गए सारे कानून जम्मू-कश्मीर में भी लागू हो जाएंगे. 
मित्रों, मोदी सरकार के इस कदम की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम होगी क्योंकि इस धारा के कारण जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा मिला हुआ था जिसके चलते भारत की एकता और अखंडता को क्षति पहुँच रही थी. आज अमर शहीद डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आत्मा को निश्चित रूप से शांति मिल गई होगी जिन्होंने एक राष्ट्र दो विधान, दो प्रधान, दो निशान का विरोध करते हुए अपनी शहादत दी थी. यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूं उस समय भारत के तत्कालीन विधि मंत्री डॉ. भीमराव रामजी अम्बेदकर ने संविधान में धारा ३७० को शामिल करने को देशद्रोह कहते हुए ऐसा करने से मना कर दिया था. लेकिन नेहरु ने अम्बेडकर जी की उपेक्षा करते हुए इसे लागू करवाया था. बाद में धारा ३७० नेहरु की सबसे बड़ी भूल साबित हुई और जम्मू-कश्मीर में इस्लामिक आतंकवाद का उदय हुआ जिसने हिन्दुस्तान के इस हिस्से में हिन्दुओं का जीना मुश्किल कर दिया.
मित्रों, दूसरी तरफ धारा ३७० के चलते जम्मू-कश्मीर का विकास प्रभावित हो रहा था क्योंकि कोई भी ऐसा व्यक्ति जो जम्मू-कश्मीर का निवासी नहीं था वहां संपत्ति नहीं खरीद सकता था. ऐसे में कोई उद्योगपति वहां उद्योगों की स्थापना नहीं कर सकता था. अब यह प्रतिबन्ध समाप्त हो गया है ऐसे में निश्चित रूप से जम्मू-कश्मीर का तेज़ औद्योगिक व आर्थिक विकास होगा.
मित्रों, धारा ३७० पर जम्मू-कश्मीर के उन दो परिवारों का विरोध तो फिर भी समझ में आता है जिन्होंने इसे अपनी निजी जागीर बना लिया था लेकिन कांग्रेस द्वारा विरोध कहीं से भी समझ में नहीं आता है. क्या कांग्रेस आज जिस स्थिति में है आगे उससे भी ख़राब स्थिति में जाना चाहती है?
मित्रों, कुल मिलाकर जबसे केंद्र में मोदी सरकार आई है तबसे ही उसने जम्मू-कश्मीर में बहुमुखी कदम उठाए हैं. एक तरफ तो वो वहां के शांतिप्रिय लोगों का समर्थन कर रही है वहीँ दूसरी तरफ आतंकवादियों के खिलाफ करारा प्रहार भी किया जा रहा है. कुल मिलाकर मोदी सरकार ने पंडित नेहरु द्वारा की गई कई ऐतिहासिक भूलों में से एक को दूर कर दिया है. इतना ही नहीं जिस तरह से ९ अगस्त को हम अगस्त क्रांति दिवस कहते हैं उसी प्रकार आज ५ अगस्त के दिन को भारतीय इतिहास में भारतीय संविधान भूल सुधार दिवस के रूप में याद किया जाएगा. इस समय पूरे भारत से जश्न मनाए जाने के समाचार प्राप्त हो रहे हैं और मैं भी मिठाई, पटाखे और रंग लाने जा रहा हूँ क्योंकि आज एक साथ होली और दिवाली मनाने का दिन है और इसके लिए केंद्र सरकार निश्चित रूप से बधाई की पात्र है.

शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

मोदीजी को अर्थव्यवस्था के लुढकने की बधाई


मित्रों, कई दशक पहले ७वीं कक्षा में मैंने गणित का एक प्रश्न पढ़ा था कि एक बन्दर एक खम्भे पर एक मिनट में १० मीटर चढ़ता है और दूसरे मिनट में ५ मीटर फिसल जाता है तो वो कितनी देर में खम्भे पर चढ़ जाएगा. अब अगर इस सवाल को उलट दें मतलब कि पहले मिनट में बन्दर ५ मीटर चढ़े और दूसरे मिनट में १० मीटर फिसल जाए तो? तो शायद बन्दर कभी खम्भे पर नहीं चढ़ पाएगा.
मित्रों, आजकल यही स्थिति भारतीय अर्थव्यवस्था की है. एक तिमाही में यह जितनी चढ़ रही है दूसरी तिमाही में उससे ज्यादा उतर जा रही है. पिछले साल से ही प्रत्येक सेक्टर में खासकर विनिर्माण में भारी गिरावट आ रही है जिससे रोजगार की स्थिति काफी ख़राब है और दिन-ब-दिन ख़राब ही होती जा रही है. शेयर बाज़ार को अर्थव्यवस्था का थर्मामीटर कहा जाता है और वहां भी स्थिति कत्लेआम वाली ही है. और अब तो विश्वबैंक के नए आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि हमने २०१७ में जो पाया था उसे २०१९ में गँवा दिया है. अर्थात हम जिस सातवें स्थान से उछलकर वैश्विक अर्थव्यवस्था में ५वें स्थान पर पहुंचे थे एक बार फिर से पुनर्मूषिको भव की तरह उसी ७ वें स्थान पर पहुँच गए हैं.
मित्रों, आगे मुझे लगता है कि हमारी स्थिति उस बन्दर वाली होनेवाली है जो पहले मिनट में ५ मीटर चढ़ता था और दूसरे मिनट में १० मीटर फिसल जाता था. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि सरकार खुद ही अर्थव्यवस्था की बाट लगानेवाले कदम उठा रही है और लगातार उठा रही है. बैटरीचालित गाड़ियों की कीमत पर ऑटोमोबाइल उद्योग का भट्ठा बैठाने की पूरी व्यूह-रचना तैयार है. मैं पूछता हूँ कि क्या इस काम को ऑटोमोबाइल सेक्टर को बचाते हुए नहीं किया जा सकता था या किया जा सकता है? इससे पहले रियल स्टेट सेक्टर को प्रयत्नपूर्वक बर्बाद कर दिया गया. सरकार उत्पादन बढ़ाने की दिशा में तो काम कर रही है लेकिन यह नहीं समझ पा रही है कि मांग कैसे पैदा होगी? राजकोषीय घाटे का कम होना जरूरी है लेकिन इतना भी नहीं कि मांग ही समाप्त हो जाए. इतना ही नहीं एक-एक कर सारी सरकारी नवरत्न कंपनियों को काफी मेहनत करके बीमार किया जा रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि जब मांझी ही नाव को डुबो देना चाहता है तो उसे बचाया कैसे जाए? इसी तरह परिवहन कानूनों में बदलाव कर जुर्माने को बढ़ाने से किसी भी तरह सरकार की आमदनी नहीं बढ़ेगी बल्कि पुलिसवालों की बढ़ेगी.
मित्रों, मैंने कई साल पहले ही मोदी जी को अपने एक आलेख में कहा था कि एक वित्त मंत्रालय चाहे तो पूरे देश को बर्बाद कर सकता है और आपने उसी को अरुण जेटली जैसे नासमझ अर्थशास्त्री के हाथों में दे दिया है. लेकिन अब मुझे लगता है कि इस सरकार में चाहे वित्त मंत्री कोई भी रहे नीति वही रहेगी जिससे सिर्फ-और-सिर्फ मंदी आएगी. कदाचित इस सरकार के ईंजन में सिर्फ बैक गियर है फॉरवर्ड गियर है ही नहीं. मैं यह नहीं कहता कि सरकार को सामाजिक सुधारों को नहीं करना चाहिए लेकिन उसके साथ-साथ अर्थव्यवस्था की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है यह भी समझना होगा. वैसे अगर हर मामले में पाकिस्तान के साथ तुलना करके खुश होना है तो होईए और होते रहिए लेकिन तब विश्वगुरु बनने के सपने को भूल समझ कर भूल जाना होगा. वैसे कभी-कभी मेरे दिल में यह ख्याल भी आता है कि क्या बन्दर खम्भे पर बिना फिसले नहीं चढ़ सकता था?