बुधवार, 16 दिसंबर 2020
कुत्ते की पूँछ बिहार का प्रशासन
मित्रों,कुत्ता जितना वफादार जीव है उतना ही सीधा भी लेकिन उसकी पूँछ कहने की आवश्यकता नहीं बड़ी टेढ़ी होती है. टेढ़ी खीर कैसे टेढ़ी होती है हमने तो नहीं देखा लेकिन आज तक जहाँ भी कुत्ते को देखा है उसे टेढ़ी पूँछ वाला ही पाया है. यद्यपि मैंने कभी किसी को कुत्ते की पूँछ को नली में डालते हुए तो नहीं देखा लेकिन यह कहावत बिहार क्या पूरे भारत में मशहूर है कि चाहे कुत्ते की पूँछ को १२ बरस तक लोहे की नली में कैद कर दो वो सीधी नहीं होगी टेढ़ी ही रहेगी.
मित्रों, एक अरसा हुआ तब मैं फुलवरिया कटिहार में रहता था. फुलवरिया चौक पर जब भी पुलिस की गाड़ी आती तो लोग कहते कुत्ते आ रहे हैं. मुझे लगा चूंकि लोगों की रक्षा करना पुलिस का काम है इसलिए कुत्ता कह भी दिया तो क्या हुआ हालांकि लोग पुलिस को कुत्ता हिकारत की दृष्टि से कहते थे. तब बिहार में लालूजी का शासन था.
मित्रों, तब बिहार में आज के बंगाल की तरह ही कैडर राज था. राजद का कोई छुटभैया नेता भी थाना पर चला जाए तो पुलिस घबरा जाती थी. पुलिस के पास स्टेशनरी तक नहीं थी, पुलिस गाड़ी में तेल नहीं होता था. मतलब की तब नौकरशाही लोकशाही के सामने पूरी तरह से लाचार थी, विवश थी.
मित्रों, फिर बिहार के सिंहासन पर नीतीश कुमार जी विराजमान हुए और इन्होंने नौकरशाही को खुली छूट दे दी. सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता भी तब थाने पर जाने से डरने लगे. नौकरशाही और लोकशाही के बीच आवश्यक संतुलन न तो लालू जी के समय थी और न ही नीतीश जी ने इसका ख्याल रखा. एक ने नौकरशाही को शून्य बना दिया तो दूसरे ने सीधे सौ जबकि होना तो यह चाहिए था कि नौकरशाही और लोकशाही को ५०-५० पर रखा जाता.
मित्रों, हमने वर्ष २०१२ में अपने एक आलेख बेलगाम नौकरशाही के आगे लाचार नीतीश में कहा था कि नीतीश जी ने नौकरशाही को बेलगाम बनाकर जो गलती की थी उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं.
मित्रों, पद पा लेना आसान है लेकिन शासन चलाना काफी कठिन. जब तक शासक की नीतियाँ सही नहीं होंगी कोई अच्छा शासन दे ही नहीं सकता. नीतीश जी की नीतियाँ गलत थीं भले ही उससे उनको और बिहार को अल्पकालिक लाभ हुए हों लेकिन बबूल का पेड़ कब तब काँटा देने से बचेगा? आज बिहार के प्रशासनिक अधिकारी कर्तव्यनिर्वहन नहीं करते सिर्फ कागजी खानापूरी करते हैं. सरकार भी सिर्फ कागज खाती है इसलिए उसे कागज खिलाया जा रहा है. जब लिपि सिंह इतना जघन्य और अक्षम्य अपराध करने के बावजूद निर्भय और सुरक्षित है तो फिर कोई प्रशासनिक अधिकारी क्यों सरकार से डरे? नौकरशाही को उसी तरह लोकशाही के पाँव तले होने चाहिए जैसे सिंह माता दुर्गा के क़दमों के नीचे होता है. राज्य के राजस्व मंत्री राम सूरत राय स्वयं स्वीकार कर रहे हैं कि उनका विभाग सबसे ज्यादा भ्रष्ट है लेकिन क्या स्वीकारोक्ति समाधान है या बन सकती है?
मित्रों, रही बात बिहार पुलिस की तो बिहार में पुलिस है ही कहाँ? पुलिस का दो प्रकार का काम होता है-पहले अपराध को होने से पहले ही रोक देना और अपराध होने के बाद अपराधियों को पकड़कर दण्डित करवाना. बिहार पुलिस तो इन दोनों में से कोई भी काम कर ही नहीं रही है फिर काहे ही पुलिस? पुलिस तो बस थाने में बैठी रहकर कागजी काम करती है और रिश्वत खाती है. क्या मजाल कि किसी भी आम आदमी का कोई भी काम सीधे तरीके से हो जाए. ऐसे माहौल में मैं दावा करता हूँ कि आईजी तो क्या डीजीपी भी गश्ती करें तब भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा.
मित्रों, बिहार में इन दिनों एक और खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई है. लोग निगरानी द्वारा रिश्वत लेते हुए पकडे जाते हैं और न्यायालय द्वारा फिर से बहाल कर दिए जाते हैं. इसी तरह से न्यायालय धड़ल्ले से अपराधियों को जमानत देती है. कुछ न्यायाधीश तो जमानत देने के लिए विख्यात हैं. जब तक न्यायालय प्रशासन का साथ नहीं देगा तब तक प्रशासन सबकुछ करके भी कुछ नहीं कर सकता. फिर बिहार में जनशिकायत का जो भी मंच है सही तरीके से काम नहीं कर रहा है ऐसे में जनता जाए तो कहाँ जाए? जब तक नौकरशाही नीतीश की सुनती थी जनता दरबार लगाया फिर फजीहत से बचने के लिए बंद कर दिया क्योंकि समाधान नहींं होता था। कुल मिलाकर जो चलता था वही चल रहा है और शायद चलता रहेगा चाहे नीतीश कुमार कितनी भी बैठकें कर लें. सरकार को चाहिए कि नई तकनीकी से लाभ उठाते हुए सबकुछ ऑटोमैटिक और ऑनलाइन कर दे और कोई उपाय नहीं है कुत्ते की दुम को सीधी करने का. हमने देखा है कि सिर्फ रजिस्ट्रीवाली जमीनों का ही ऑनलाइन नामांतरण हो रहा है कोर्ट के आदेश का नहीं हो पाता सरकार को इन विसंगतियों को भी दूर करना होगा.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें