दृश्य एक-देश में इंदिरा गाँधी का राज है.जनसँख्या विस्फोट उनकी नजर में देश के पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार सबसे बड़ा तत्त्व है.पूरी सरकार जनसँख्या नियंत्रण के लिए कुछ ज्यादा ही प्रयास करती दिख रही है.लोगों की जबरन नसबंदी जोरों पर है.नसबंदी और बंध्याकरण करवानेवाले पुरुषों और स्त्रियों को विशेष प्रोत्साहन राशि दी जा रही है.
दृश्य दो-२०११ की जनगणना शुरू हो चुकी है.पिछड़ों और दलितों की राजनीति करनेवाले नेता केंद्र सरकार से जोरशोर से जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं.अंततः प्रधानमंत्री भी उनकी मांग को मान जाते हैं.पिछड़े और दलित नेताओं को लगता है कि पिछली जाति आधारित जनगणना के समय यानी १९३१ में इन जाति समूहों का देश की जनसँख्या में जितनी हिस्सेदारी थी अब कहीं उससे ज्यादा है.अगर जनगणना का परिणाम इनके अनुकूल आता है जिसकी पूरी सम्भावना भी है तो ये जनसंख्या के हिसाब से अपनी जातियों के लिए आरक्षण करने की मांग करेंगे.यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इंदिरा गांधी के समय और बाद में भी सरकारी प्रचार से और देशभक्ति से प्रभावित होकर सबसे ज्यादा जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को ऊंची जातियों के हिन्दुओं ने अपनाया था.लेकिन ज्यादा अच्छा होना भी कभी-कभी नुकसानदेह हो जाता है.संस्कृत में एक श्लोक है-आपदा आपतंतीनाम हेतुप्यापीतुताम, मातृजंघा हि वत्सस्य स्तम्भि भवति बंधने.यानी समय जब विपरीत हो जाए तो अच्छे कर्म करने पर भी फल बुरे आते हैं.आजादी के बाद से जनसंख्या बढ़ाने में सबसे ज्यादा योगदान दिया है मुसलमानों ने और तत्पश्चात नंबर आता है पिछड़े और दलित हिन्दुओं का.लेकिन लोकतंत्र देशभक्ति और भावनाओं के बल पर नहीं चलता बल्कि सरकारें बनती और गिरती हैं संख्याबल से. इसलिए वे लोग आज की जातिवादी और अल्पसंख्यकवादी राजनीति के युग में फायदे में हैं जिन्होंने जनसंख्या में अंधाधुंध वृद्धि कर देश को नुकसान पहुँचाया है.कुछ लोग कहते हैं कि तेजी से बढती जनसंख्या देश के लिए एक संपत्ति है.निश्चित रूप से जब भी किसी देश की जनसंख्या तेज गति से बढ़ेगी तो युवाओं की आबादी उस देश में ज्यादा होगी.लेकिन क्या भारत के सभी युवाओं को संसाधन या संपत्ति कहा जा सकता है? निश्चित रूप से नहीं.जब तक युवाओं में उत्पादक कार्यों के लिए गुण विकसित नहीं कर दिए जाते तब तक वे संपत्ति नहीं बल्कि बोझ ही बने रहेंगे.देश में बेरोजगारों की लगातार बढती संख्या से स्पष्ट है कि जनसंख्या में तेज वृद्धि के लिए जिम्मेदार लोगों ने देश का हित नहीं बल्कि अहित ही किया है.
फणीश्वर नाथ रेणु ने आजादी के तत्काल बाद प्रकाशित अपने उपन्यास मैला आँचल में जाति आधारित राजनीति पर व्यंग्य करते हुए कहा था कि अब तो लोग अपने ललाट पर जाति का नाम लिखवाकर घूमेंगे.कितने दूरदर्शी थे रेणु.६० साल पहले ही देश की भावी राजनीति की दशा और दिशा को परख लिया था.कम-से-कम बिहार और यू.पी. में जातीय पक्षपात की स्थिति इतनी बुरी है कि जिस जाति का आदमी मुख्यमंत्री बनता है अचानक वहां नौकरियों में उन जातियों का प्रतिशत काफी बढ़ जाता है और शराब से लेकर सड़क तक का ठेका उसी जाति के लोगों को मिलने लगता है.इतना ही नहीं बढ़ते जातीय तनाव से बीच-बीच में गृहयुद्ध जैसी स्थिति भी पैदा हो जाती है.कभी-कभी तो जातीय तनाव इतना बढ़ जाता है कि राह चलते अपनी जाति जाहिर करना जानलेवा भी हो जाता है.खैर ये तो हुई तनाव के दिनों की बात. आम दिनों में भी कोई अगर किसी से उसकी जाति पूछे तो हमें अच्छा नहीं लगता लेकिन लगता है इस बार की जनगणना में सरकारी नुमाइंदे आपसे और हमसे अधिकारपूर्वक हमारी जाति का नाम पूछेंगे.मध्य युग में कबीर ने कहा था जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान.लेकिन हमारे नेताओं ने सत्ता हथियाने की होड़ में इस दोहे में भारी उलट-पलट करके इसे कर दिया है जाति ही पूछो साधू की, पड़ा रहने दो ज्ञान.
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