सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

याचना नहीं अब रण होगा


anna
मित्रों,भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारी लडाई अब निर्णायक मोड़ पर आ गयी है.३० जनवरी को रामलीला मैदान से जो शंखनाद किया गया था आज उसने उसी ऐतिहासिक मैदान पर विराट रूप ग्रहण कर लिया है.बाबा रामदेव व अन्ना हजारे के नेतृत्व में लाखों भारतवासियों ने इस ऐतिहासिक मैदान से भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध अहिंसक जनयुद्ध छेड़ने का ऐलान कर दिया है.
मित्रों,रामायण में एक प्रसंग है कि राम सागर से मार्ग प्रदान करने की विनती करते हैं.लगातार तीन दिनों के अनुनय-विनय के बाद जब धीरोदात्त राम को कोई परिणाम निकलता नहीं दिखता तब वे ब्रह्मास्त्र का संधान करते हैं और तब समुद्र त्राहि-त्राहि करता हुआ राम के श्रीचरणों में आ गिरता है.
हमने भी पिछले ६४ सालों में बहुत अनुनय-विनय किया.विश्वास किया नेताओं के भाषणों पर कि भ्रष्टाचार को समूल नष्ट किया जाएगा.लेकिन आश्वासन आश्वासन बने रहे,घोषणाएं घोषणाएं बनी रहीं.हम ठगाते रहे और नेता-अफसर मालामाल होते रहे.एक विदेशी बैंकों में धन जमा करता रहा तो दूसरा देसी बैंकों के लौकरों में सोने की ईटें.अब याचना करते-करते हमारे हाथ थक गए हैं और वोटिंग मशीन का बटन दबाते-दबाते ऊंगलियाँ ऐंठने लगी हैं.
मित्रों,अब हम व्यवस्थापक नहीं बदलेंगे.हमें नहीं चाहिए एक के बाद एक भ्रष्टाचार के आगे मजबूर हो जानेवाले या इस महाभोज में शामिल हो जानेवाले प्रधानमंत्री.एक राजा और दो-चार कलमाड़ी को कुछ दिनों के लिए जेल भेज देने से भ्रष्टाचार नहीं मिटनेवाला,क्योंकि हमारा कानून और तंत्र सत्ता का मुखापेक्षी है.हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसे कानून बनाने होंगे व ऐसा तंत्र (सिस्टम) स्थापित करना होगा जिसमें भ्रष्टाचारियों के खिलाफ स्वचालित तरीके से कार्रवाई हो.जनता को धोखा देने के ख्याल से केंद्र सरकार ने भी एक लोकपाल बिल बनाया है.इसके अंतर्गत एक बार फिर से सतर्कता आयोग की तरह ही लोकपाल को भी सिर्फ सिफारिशी अधिकार दिया गया है.अगर यही करना है तो फिर सी.वी.सी. से अलग किसी लोकपाल नामक संस्था बनाने की जरुरत ही क्या है?साथ ही सांसदों और मंत्रियों पर मुकदमा चलने के लिए भी इसमें लोकसभा अध्यक्ष और प्रधानमंत्री से अनुमति लेने का प्रावधान किया गया है.लेकिन जब गुनाहगार खुद प्रधानमंत्री या लोकसभा अध्यक्ष हो तब?तब यह सरकार प्रायोजित लोकपाल कुछ भी नहीं कर पाएगा सिवाय मुंह ताकते रहने के.
इसलिए देश की कुछ जानी-मानी  देशभक्त हस्तियों ने अलग से जन लोकपाल विधेयक तैयार किया है जिसमें व्यवस्था की गयी हैं कि ९ सदस्यीय लोकपाल संस्था के सदस्य जनता द्वारा सीधे चुने जाएँ और सीधे तौर पर जनता के प्रति ही जवाबदेह भी हों.देश जनता का है,संविधान और संसद जनता का है और जनता के लिए है.इसलिए इसमें कोई अनहोनी नहीं है यदि जनता ही सीधे लोकपालों का चुनाव करे.इस लोकपाल को दंडात्मक अधिकार होगा.वह भ्रष्टाचारियों पर मुकदमा चलाएगा.उनकी संपत्ति जब्त करेगा और सजा भी दिलवाएगा.उसके दायरे में सभी लोग होंगे,पूरा भारत होगा;भंगी से लेकर राष्ट्रपति तक हर कोई होगा.
लेकिन हमारी सरकार इस बिल को स्वीकार करने को तैयार नहीं है.वह देश को लाचार लोकपाल देकर काम निकाल लेना चाहती है.लेकिन जनता को अब किसी भी तरह का झुनझुना नहीं चाहिए.जनता अब किसी भी तरह के और किसी भी तरह से भुलावे में नहीं आनेवाली.उसे तो जो चाहिए सो चाहिए ही और चाहिए तो बस जन लोकपाल.
आज ऐतिहासिक रामलीला मैदान में जनता-जनार्दन ने अपने विराट रूप का प्रदर्शन किया है,५ अप्रैल से युद्ध शुरू होगा और इस महाभारत में जनता अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण बनेंगे प्रखर गांधीवादी अन्ना हजारे.आगे-आगे अन्ना होंगे,उनके पीछे होंगे बाबा रामदेव,किरण बेदी,स्वामी अग्निवेश,अरविन्द केजरीवाल आदि और उनके पीछे होगा पूरा भारत;राम,मोहम्मद,ईसा और गोविन्द के सभी अनुयायी.इस भ्रष्ट सरकार में शामिल लोगों ने अगर आज की रैली का दूरदर्शन पर दूरदर्शन किया होगा तो वे अवश्य भारत के आकाश में हो रही सितारों की गुफ्तगू और उनके इशारों को समझ गए होंगे.
देश के नीति-निर्माता समझ गए होंगे कि देश की जनता क्या चाहती है.अब यह उन पर निर्भर है कि वे सहूलियत से जन लोकपाल की जनाकांक्षा को स्वीकार कर लेते हैं या ढीठ धृतराष्ट्र व दुर्योधन की तरह रणभूमि को आमंत्रण देते हैं.अगर इस बार रण सजाया गया तो सरकार की हार पूर्वनिश्चित है क्योंकि विराट जनता के आगे न तो कोई तोप काम करती है और न ही बदूकें.मिस्र,ट्यूनीशिया और लीबिया के हालात इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं.स्वतंत्रता का यह दूसरा संग्राम बड़ा भीषण होगा और दूरगामी प्रभावों वाला होगा.याचना का समय अब बीत चुका है.रामरुपी जनता ने सत्याग्रह ब्रह्मास्त्र का संधान कर लिया है.याचना नहीं अब रण होगा,संघर्ष बड़ा भीषण होगा.जय चंद्रशेखर आजाद,जब भारत.

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

टूटी कश्ती से चुनावी दरिया पार करने की कोशिश

जब किसी विपक्षी नेता को अपने राज्य में विधानसभा चुनाव में जाना हो और उसे बजट पेश करने का सुनहरा मौका मिल जाए तो जाहिर है वह इसका अपने चुनावी हितों की पूर्ति के लिए भरपूर उपयोग करेगा.नेहरु युग में हो सकता है कि ऐसा नहीं होता हो लेकिन वर्तमान काल में तो ऐसा ही होता है और इस साल ऐसा ही हुआ भी.वर्षों से पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजरें गड़ाए ममता बनर्जी ने तमाम पूर्वानुमानों को सत्य साबित करते हुए केंद्रीय रेल बजट को बंगाल का बजट बनाकर रख दिया.बीच-बीच में अन्य राज्यों  जिसमें केरल सबसे आगे रहा,का नाम भी घोषणाओं की बाढ़वाले भाषण में आता रहा लेकिन कम-से-कम आधे समय तक बंगाल की ही बात होती रही.मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जिन श्रोताओं-दर्शकों ने रेल बजट का प्रसारण देखा-सुना होगा उन्हें पश्चिम बंगाल के सभी जिलों के नाम जानने के लिए अब सामान्य ज्ञान की किताबें उलटनी नहीं पड़ेगी बल्कि ममताजी ने आज इनके नामों को इतनी बार दोहराया है कि उन्हें ये नाम यूं ही याद हो गए होंगे.ममता जी की मानें तो भारत में सिर्फ पश्चिम बंगाल ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ महापुरुषों ने जन्म लिया है.
                            इस साल रेलवे बाजार से १० हजार करोड़ रूपये का कर्ज लेने जा रही हैं क्योंकि रेलवे को प्रत्येक 2.5 रुपये कमाने के लिए 4.5 रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं.रेलवे की वित्तीय हालत बहुत ही ख्रराब है और यह अति दुखद है कि अकाउंट में हेरफेर कर यह दर्शाया गया है कि वास्तव में वह घाटे में नहीं है।ऐसे में पश्चिम बंगाल,केरल और आंध्र प्रदेश (यहाँ कांग्रेसी राज्य सरकार को चौतरफा समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है) के लिए नई परियोजनाओं की झड़ी लगा देनेवाली ममता ने यह नहीं बताया कि इनके लिए धन आएगा कहाँ से?खुदा न करे अगर ममता इस साल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बन गईं तो उनकी जगह आनेवाला रेलमंत्री उनकी घोषणाओं के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैय्या नहीं अपनाएगा इसकी क्या गारंटी है?लालू के जाने के बाद जिस तरह ममता ने बिहार की सभी रेल परियोजनाओं को निर्ममतापूर्वक अधर में लटका दिया आनेवाला रेलमंत्री भी कहीं उनके सपनों की परियोजनाओं के साथ वैसा ही व्यवहार तो नहीं करेगा?
                                      किसी भी रेल बजट की खामी पर्याप्त आवंटन का नहीं होना तो होता ही है;बजट में यह भी नहीं बताया जाता है कि किसी योजना को कितने समय में पूरा हो जाना है.लगता है जैसे देरी रेलवे का अनिवार्य गुण बन गयी है.फिर चाहे वह देरी ट्रेनों के परिचालन की हो या योजनाओं के पूरा होने की.ममता ने इस साल भी यात्री किराये में किसी तरह की वृद्धि नहीं की है.ज्ञात हो कि यात्री किराया बढ़े करीब एक दशक बीत चुके हैं.जाहिर है कि ऐसा करते समय उनके दिमाग में पश्चिम बंगाल का चुनाव तो होगा ही;साथ ही कमरतोड़ महंगाई का ख्याल भी कहीं-न-कहीं उनके जेहन में होगा.पिछले १० सालों में रेलवे किराया और बस किराया में भारी अंतर पैदा हो चुका है.उदाहरण के लिए हाजीपुर से मुजफ्फरपुर का बस का भाडा ३५ रूपया है जबकि रेलवे का भाडा पैसेंजर से १० रूपया और एक्सप्रेस से मात्र २४ रूपया है.अगर यात्री किराये में मामूली वृद्धि कर दी जाती है तो भी आमलोगों की जेब पर बोझ नहीं पड़ता.बदले में सरकार की आमदनी काफी बढ़ जाती जिससे ममता जी रेलयात्रियों की सुरक्षा के लिए कदम उठा पातीं न कि सिर्फ जुबानी खर्च से काम चलातीं.साथ ही नए रेल लाइन निर्माण के लक्ष्य को भी कई गुना बढाया जा सकता था.इतना ही नहीं यात्री कोच और मालगाड़ी के डिब्बे की कमी भी दूर हो जाती.साथ ही पिछले बजट में उन्होंने कई प्रमुख स्टेशनों को विश्वस्तरीय बनाने की जो घोषणा की थी उसे पूरा नहीं कर पाने लिए उन्हें देश से माफ़ी भी नहीं मांगनी पड़ती.
                            आजकल जब भी रेलगाड़ी में कोई आपराधिक घटना घटती है तो केंद्र राज्य पर और राज्य केंद्र पर आरोप लगाने लगता है.ट्रेनें चलायमान वस्तु हैं और उन्हें कई राज्यों और जिलों से होकर गुजरना पड़ता है.ऐसे में कभी-कभी दो राज्यों की पुलिसों और कभी-कभी दो जिलों की पुलिसों के मध्य विवाद उत्पन्न हो जाता है कि जब घटना घटी तब ट्रेन किस राज्य या जिले में थी.अच्छा होता अगर रेलवे के लिए अलग से राष्ट्रीय पुलिस सेवा की स्थापना कर दी जाती और रेल संपत्ति और यात्रिओं की सुरक्षा का जिम्मा पूरी तरह उसको ही सौंप दिया जाता.इस बार के रेल बजट में मंत्री ने दुर्घटनारोधी यंत्रों को कुछ चुनिन्दा रेल मंडलों में लगाने की घोषणा की है जिसे अधूरे मन से और बहुत देर से उठाया गया कदम ही कहा जा सकता है; इसके सिवा और कुछ भी नहीं.जबकि ममता जी द्वारा २०१०-११ के रेल बजट में की गयी दर्जनों घोषणाएं अभी भी अमल के इंतजार में हैं तो फिर कैसे विश्वास कर लिया जाए कि नई घोषणाओं को अमलीजामा पहनाया ही जाएगा?मंत्री को जब तक पुराने लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक नए लक्ष्यों की घोषणा नहीं करनी चाहिए थी.ममता ने पिछले बजट में १०२१ कि.मी. नई लाइन की स्थापना की घोषणा की थी लेकिन काम हुआ एक चौथाई से भी कम.इतना ही नहीं बजट में ८०० कि.मी. आमान परिवर्तन का लक्ष्य रखा गया था लेकिन काम हुआ एक बटा तीन.इन परिस्थितियों में बढ़ा-चढ़ाकर लक्ष्य घोषित करना या तो मूर्खता है या फिर धूर्तता.
                     रेलमंत्री को शिकायत है कि उन्हें सदन में बोलने नहीं दिया जाता.यह वह रेलमंत्री बोल रही हैं जो लम्बे समय से कैबिनेट और सदन की बैठकों में भाग ही नहीं ले रहीं.उनके ऐसे आरोपों पर सिर्फ हँसा ही जा सकता है.पूरी दुनिया के देशों में इस समय बुलेट ट्रेन चलाने की होड़ लगी है और हमारे यहाँ ट्रेनें चल रही हैं ५०-६० की रफ़्तार में.अगर भारत को विकास की वैश्विक दौड़ में सचमुच शामिल होना है तो उसे रेलवे सहित हरेक क्षेत्र में अपनी आधारभूत संरचना का विकास करना होगा और सुपर गति से करता होगा.वरना प्रत्यक्ष विदेश निवेश में आया ज्वार अब उतरने लगा ही है और आगे इसकी गति और भी तेज होनेवाली है.
                               जहाँ तक रेल बजट में की जानेवाली घोषणाओं के लिए धनाभाव का प्रश्न है तो या तो इसके लिए अलग से स्थायी कोष का गठन किया जाए या फिर रेल बजट को आम बजट का ही हिस्सा बना दिया जाए.इससे योजनाएं भविष्य में अटका नहीं करेंगी और उनके समय पर पूरी होने की भी गारंटी होगी.

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

ओ राही,दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से

१९९९ के अंतिम सप्ताह में हमने इंडियन एयरलाइंस के अपहर्ताओं के आगे झुककर जो गलती की उसने कहीं-न-कहीं कश्मीर में हमारी स्थिति को कमजोर ही किया.साथ ही पूरी दुनिया में यह गलत संकेत गया कि भारत एक सॉफ्ट स्टेट है और सीमापार के आतंकवाद से निबटने में सक्षम नहीं है.इन दिनों देश फिर से कुछ उसी तरह की स्थिति का सामना कर रहा है.माओवादियों ने मलकानगिरी के कलक्टर कृष्णा और एक अभियंता पवित्र मांझी का अपहरण कर लिया था.कड़ा रूख अपनाने के बदले माओवादियों की सभी १४ मांगें मान ली गईं.माओवादी मांझी को छोड़ भी चुके हैं.लेकिन उनके साथ एक पत्र भी भेजा है जिसमें उन्होंने कृष्णा को छोड़ने के बदले ५ नई मांगें की हैं.इस बीच माओवादी नेता गंती प्रसादम को जमानत दी जा चुकी है.लेकिन वे भी तब तक जेल से बाहर जाने को तैयार नहीं है जब तक उनके ६०० अन्य माओवादी साथियों को भी रिहा नहीं कर दिया जाता.
                    ऊंगली पकडवाने पर बांह पकड़ना तो देखा-सुना था लेकिन यहाँ तो माओवादी गला ही पकड़ रहे हैं.पुलिस ने बरसों की मेहनत और अप्रतिम साहस के बल पर जिन देशद्रोहियों को गिरफ्तार किया उन्हें एक व्यक्ति की जान बचाने के लिए रिहा करके सरकार किसी भी तरह वीरता का परिचय तो नहीं ही दे रही है.आगे जब भी माओवादियों को अपने किसी भी साथी को रिहा करवाना होगा तो वे किसी अधिकारी का अपहरण कर लेंगे और जंगल में ऐसा करना कठिन भी नहीं होगा.इस तरह सरकारी अधिकारी उनके लिए ए.टी.एम. मशीन बनकर रह जाएँगे.
              अगर सरकार इसी तरह बार-बार झुकती रही तो न तो कंधार विमान अपहरण इस शृंखला की अंतिम घटनात्मक कड़ी थी और न ही मलकानगिरी के कलक्टर का माओवादियों द्वारा अगवा किया जाना ही इस प्रकार की अंतिम घटना है.आज तो किसी को याद भी नहीं होगा कि भारत सरकार सबसे पहले आतंकवादियों के आगे २० साल पहले रुबैय्या सईद अपहरण मामले में झुकी थी.भारत सरकार और राज्य सरकारों को समझ लेना होगा कवि गोपाल सिंह नेपाली की इन पंक्तियों में छिपी हुई चेतावनी को जो उन्होंने १९५६ में ही दी थी और दुर्भाग्यवश जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं-
ओ राही,दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से
चरखा चलता है हाथों से,शासन चलता तलवार से
यह रामकृष्ण की जन्मभूमि,पावन धरती सीताओं की   
फिर कमी रही कब भारत में,सभ्यता-शांति सद्भावों की
पर नए पडोसी कुछ ऐसे,पागल हो रहे सिवाने पर 
इस पार चरते गौएँ हम,गोली चलती उस पार से
ओ राही,दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से

तुम उड़ा कबूतर अम्बर में,सन्देश शांति का देते हो
चिट्ठी लिखकर रह जाते हो,जब कुछ गड़बड़ सुन लेते हो
वक्तव्य लिखो कि विरोध करो,यह भी कागज वह भी कागज
कब नाव राष्ट्र की पार लगी,यों कागज की पतवार से
ओ राही,दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से

मालूम हमें है तेजी से निर्माण हो रहा भारत का
चहुँओर अहिंसा के कारण,गुणगान हो रहा भारत का
पर यह भी सच है,आजादी है तो चल रही अहिंसा है
वरना अपना घर दीखेगा,फिर कहाँ कुतुबमीनार से
ओ राही,दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से

सिद्धांत,धर्म कुछ और चीज,आजादी है कुछ और चीज
सबकुछ है तरु-डाली-पत्ते,आजादी है बुनियादी बीज
इसलिए वेद-गीता-कुरान,दुनिया ने लिक्खे स्याही से
लेकिन लिखा आजादी का इतिहास रूधिर की धार से 
ओ राही,दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से
चरखा चलता है हाथों से,शासन चलता तलवार से.  

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

रातभर बदनाम होती रही मुन्नी

मुन्नी अपनी करनी से बदनाम है या उसे बेवजह बदनाम कर दिया गया है;शोध का विषय है.लेकिन चाहे जैसे भी हो बदनामी तो बदनामी होती है;चाहे ओढ़ी हुई हो या थोपी हुई.मैंने सैंकड़ों विवाह-समारोहों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है लेकिन माँ कसम ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा.
                       मित्रों,२० फरवरी को मेरे अभिन्न-अजीज मित्र की शादी थी.मेरे मित्र अमीर घर में पैदा हुए समाजवादी हैं.कई-कई बार उनके द्वारा बेवजह ताकीद करने पर मैं निर्धारित कार्यक्रमानुसार दोपहर बाद ३ बजे उनके घर पहुंचा.न जाने क्यों मैं धनपतियों के घरों में जाकर बेचैन-सा हो उठता हूँ.इसलिए बोर होने से बचने के लिए एक साहित्यिक पत्रिका मैंने हाजीपुर स्टेशन पर ही खरीद ली थी;साहित्य अमृत का फरवरी अंक.करीब २ घंटे तक मैं मित्र के दरवाजे पर बैठे-बैठे उक्त पत्रिका के माध्यम से कभी नागार्जुन तो कभी नेपाली तो कभी केदारनाथ अग्रवाल तो कभी शमशेर तो कभी अश्क से मुलाकात करता रहा.मुझे झूठी औपचारिकता और झूठे दिखावे पसंद नहीं इसलिए भी ऐसे मौके पर मेरे लिए समय काटना मुश्किल तो जाता है.मैं जानता हूँ कि मेरा मित्र मुझसे अपार स्नेह रखता है और मेरे लिए उसकी शादी में शामिल होने के लिए बस इतना ही काफी से भी ज्यादा काफी था.
                    खैर,विवाह-स्थल मुजफ्फरपुर से कुछ किलोमीटर दूर गाँव में था.मैं एक गाड़ी में सवार हुआ जिसमें कई मजदूर भी थे और काफिला चल पड़ा.रास्ते में हम एक लाईन होटल पर रुके;जहाँ नाश्ता-पानी का इंतजाम था.जिन्हें जाम पीना था पीया;मैंने तो जमकर पानी पीया.फिर हम जनवासा पर पहुंचे.बड़ा ही उम्दा इंतजाम था.छककर नाश्ता किया.बचपन में गोलगप्पे नहीं खाने की गलती को सुधारते हुए खूब गोलगप्पे खाए.
                    यहाँ तक तो स्थिति ठीक थी.जब हम लड़कीवाले के दरवाजे पर द्वार लगाने पहुंचे तो पाया कि कैटरिंग में भोजन परोसने के लिए लड़के कम लड़कियां ज्यादा रखी गई हैं.गाँव में तो ऐसा दृश्य मैंने आज तक नहीं ही देखा था;महानगर दिल्ली में भी कभी नहीं देखा.याद आया कि अभी पिछले साल अपने ही गाँव में गाँव की ही एक नाबालिग लड़की को बैंड की धुन पर नाचते देखकर मेरा मन कैसे खट्टा हो गया था.बहरहाल यहाँ बाराती लड़कियों पर अश्लील टिप्पणियां कर रहे थे और वे भी इस तरह से पेश आ रही थीं जैसे ये तो होना ही था.चुस्त जींस-टीशर्ट में बनी-ठनी लड़कियां.हमारे गांवों में भी पैसा ही सबकुछ होता जा रहा है देखकर दुखद आश्चर्य हुआ.
                    ईधर बारातियों में गोली फायरिंग करने की होड़ लगी हुई थी.दर्जनों बंदूकें गरज रही थीं.लाखों रूपये झूठे दिखावे में फूंके जा रहे थे.जब हम लौटकर जनवासा पर पहुंचे तो कथित सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हो चुका था.हमने चूंकि पगड़ीवाली टोपी पहन रखी थी इसलिए हमें स्थान पाने में किसी तरह की असुविधा नहीं हुई.कुछ देर तक तो गायन का कार्यक्रम चला.फिर रिकार्डिंग डांस शुरू हुआ.५ लड़कियां काफी कम कपड़ों में आतीं और नृत्य प्रदर्शन कम देश प्रदर्शन ज्यादा करके चली जातीं.छोटे-छोटे बच्चों की भारी उत्साहित भीड़ जमा थी;कुछ बूढ़े भी उन पर अपना बुढ़ापा लुटाने को आतुर थे.तभी एक १४-१५ साल का बच्चा स्टेज पर चढ़ गया और लड़कियों के साथ कामुकता का प्रदर्शन करता हुआ भोंडा नृत्य करने लगा.इससे पहले एक गरीब मंच पर छेड़खानी करके अपनी धुनाई करवा चुका था.हम आश्चर्यचकित थे कि इस बच्चे को कोई क्यों नहीं कुछ कह रहा?थोड़ी ही देर में यह रहस्योद्घाटन हुआ कि जो व्यक्ति बार-बार हजार के नोट ईनाम में फेंक रहा था यह होनहार उन्हीं का एकमात्र पुत्र था.उस व्यक्ति की ईंट की चिमनियाँ थीं और वे मेरे मित्र के हो चुके या होनेवाले ससुर के सगे छोटे भाई थे.
                       वह बच्चा जब अपनी कथित मर्दानगी का प्रदर्शन करते-करते थक जाता और मंच से नीचे उतरने लगता तब उसके पिता उसे फिर से ऊपर बुला लेते और फिर से वह किसी अन्य नर्तकी के साथ नृत्य करने लगता.बच्चे की दोनों टाँगें ख़राब थीं.माता-पिता ने जरूर बचपन में पोलियो-ड्रॉप पिलवाने में कोताही की होगी.पिता की चौड़ी छाती बेटे के ठुमके के साथ और भी चौड़ी होने लगी.उसने मंच से ही घोषणा कि वह आर्केष्ट्रा पार्टी को आज डेढ़ लाख रूपये और दो कट्ठे जमीन का ईनाम तो देगा ही साथ ही इस साल की विश्वकर्मा पूजा के लिए भी अनुबंधित करता है वो भी साढ़े पांच लाख रूपये में.
                         मैंने गांवों में २०-३० हजार रूपये के कुल खर्च में लड़कियों की शादियाँ होते भी देखी हैं.लेकिन यहाँ तो उससे कई गुना सिर्फ दिखावे में न्योछावर किया जा रहा था.बार-बार सुपुत्रजी की फरमाईश पर या यूं कहें कि आदेश पर मुन्नी बदनाम हुई गाना बजता और कोई नर्तकी आकर उसके साथ नाचती.यहाँ नाचने वाला भी पैसा था और नचानेवाला भी.ईधर पुत्र की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था तो उधर पिता का सीना गर्व से फटा जा रहा था.मेरे पत्रकार मित्रों ने भी इससे पहले ऐसा अद्भूत दृश्य कभी नहीं देखा था.अंत में सभी नृत्यांगनाओं को एकसाथ उस जवान बच्चे के साथ नाचना था.एक के नितम्ब को उसने सरेआम दबा दिया और वह नाराज होकर नेपथ्य में चली गई.फिर अप्रतिम साहस का परिचय देते हुए उस परमवीर ने दूसरे को अपनी बांहों में भर ही तो लिया.परिणामस्वरूप धनलोभी आर्केष्ट्रा संचालक को सभी नर्तकियों को प्रसाधन-कक्ष में भेजना पड़ा.सभा विसर्जित हो गई और अपने पीछे छोड़ गई अनगिनत सवाल.
                पहला सवाल तो व्यक्तिगत था कि मेरा मित्र कैसे ऐसे परिवार के साथ सामंजस्य बिठाएगा?उसका दिल तो शीशे का है सोने या चांदी का नहीं है.अन्य कई सवाल भी मेरे सामने थे जो सामाजिक थे.विवाह एक सुअवसर है या कुअवसर?यह दो दिलों या आत्माओं के मिलन का अनुष्ठान है या धनबल के अश्लील प्रदर्शन का अचूक मौका?लक्ष्मी की सवारी हंस क्यों नहीं है उल्लू क्यों है?हम बुद्धिजीवियों पर उनकी कृपा क्यों नहीं होती जो उनका सदुपयोग कर उन्हें सम्मान दिलवाता.क्या लक्ष्मी को मूर्खों के हाथों लुटने में ही आनंद आता है?लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यह था कि उस रात मुन्नी तो बदनाम हुई ही ईंट कंपनी का मालिक और उसका ईकलौता बेटा बदनाम हुआ था या नहीं?या फिर बदलते सामाजिक परिवेश में मुन्नी को बदनाम करके भी उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि तो नहीं हुई?

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

रोये अब किस द्वार पे जाकर लुटी-पिटी बेचारी हिंदी

रोये अब किस द्वार पे जाकर,
लुटी-पिटी बेचारी हिंदी;
घर के लोगों से निष्कासित,
अपमानित किस्मत की मारी हिंदी.


खूनी पंजे का खूनी खेल,
हिंदी हुई लहूलुहान;
जबरन किया सूर्य को अस्त,
वादा था जिनका नया विहान;
क्यूं कर किस पर दांव लगाए
हर बाजी में हारी हिंदी;
रोये अब किस द्वार पे जाकर,
लुटी-पिटी बेचारी हिंदी;
घर के लोगों से निष्कासित,
अपमानित किस्मत की मारी हिंदी.

हुई सिविल सेवा परीक्षा
अब अंग्रेजी के हवाले मित्रों;
बनेंगे भविष्य में कलक्टर
सिर्फ टाई-कोट-पैंट वाले मित्रों;
उपेक्षित थी बना दी गयी फिर वंचित
तेरी-मेरी-हमारी हिंदी;
रोये अब किस द्वार पे जाकर,
लुटी-पिटी बेचारी हिंदी;
घर के लोगों से निष्कासित,
अपमानित किस्मत की मारी हिंदी.

जिससे आशंकित बिल गेट्स हैं
भयभीत बिल क्लिंटन थे;
उसके खिलाफ साजिश रचने में
मशगूल सोनिया-मनमोहन थे;
गाँधी के चेलों की मारी
गाँधी की राजदुलारी हिंदी;
रोये अब किस द्वार पे जाकर,
लुटी-पिटी बेचारी हिंदी;
घर के लोगों से निष्कासित,
अपमानित किस्मत की मारी हिंदी.

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

मनमोहन जी नामुमकिन नहीं है भारत में मिस्र जैसी क्रांति

कल जब ६ महीने की नरसिंह राव स्टाइल चुप्पी के बाद राव के सच्चे राजनैतिक शिष्य प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मीडिया के सामने उपस्थित हुए तो उम्मीद की जा रही थी कि वे भ्रष्टाचार व महंगाई से निबटने का कोई-न-कोई रोडमैप अवश्य साथ में लाए होंगे.लेकिन देश की जनता के साथ पत्रकारों को भी यह देखकर भारी निराशा हुई कि प्रधानमंत्री के पास ऐसा कोई रोडमैप नहीं था बल्कि उनकी झोली पूरी तरह खाली थी.उनके पास अगर कुछ था तो बस मजबूरियों का रोना था.आश्चर्य है कि विपक्ष बरसों से मनमोहन को भारत का सबसे मजबूर प्रधानमंत्री बता रहा था और कांग्रेस इसका खंडन करती जा रही थी;प्रधानमंत्री ने मजबूरी के विधवा-विलाप द्वारा उनके इस आरोप को स्वयं सत्य साबित कर दिया.अब इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया है कि मनमोहन सिंह भारतीय इतिहास के सबसे कमजोर और मजबूर प्रधानमंत्री हैं.दुर्भाग्यवश वह भी ऐसे कालखंड में जब देश एक साथ कई-कई गंभीर संकटों का सामना कर रहा है और देश को सशक्त व निर्णायक नेतृत्व की सर्वाधिक आवश्यकता है.
               ईमानदारी के कठपुतले मनमोहनजी फरमाते हैं कि भ्रष्टाचार को देखकर भी धृतराष्ट्र की तरह आँखें बंद रखना उनकी मजबूरी है क्योंकि वे नहीं चाहते हैं कि देश में हर ६ महीने पर चुनाव हो.कितनी महान सोंच हैं;कितनी बड़ी देशभक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं मनमोहन जी देश को हर ६ महीने पर चुनाव से बचाकर!!वाह दिल खुश हो गया!!एक चुनाव में देश का कितना खर्च होगा?बहुत होगा तो सौ या हजार या दस-बीस हजार करोड़ रूपया.चाहे जितना भी हो पौने दो लाख या २ लाख करोड़ रूपया तो नहीं ही होगा जितने का घोटाला उनकी सरकार में हर सप्ताह सामने आ रहा है.मनमोहन देश को चुनाव के नाम से डरा रहे हैं जैसे देश ने कभी चुनाव देखा ही नहीं है या फिर चुनाव न हो कोई भूत,हौवा या डरावना सपना हो.अगर हर ६ महीने के चुनाव से देश भ्रष्टाचारमुक्त हो सकता है तो फिर यही सही.हम सह लेंगे हर ६ महीने में १०-२० हजार करोड़ रूपये का खर्च.कम-से-कम हमें रोज-रोज के घोटाले तो नहीं देखने पड़ेंगे या फिर रोज-रोज दफ्तर-दफ्तर में कुल मिलाकर अरबों रूपये सालाना का सुविधा-शुल्क तो नहीं देना पड़ेगा.
                     अर्थव्यस्था विशेषज्ञ डॉक्टर साहब फरमाते हैं कि वे तो गठबंधन धर्म का पालन कर रहे हैं लेकिन अन्य दल नहीं कर रहे हैं तो वे क्या कर सकते हैं?मनमोहन जी को कोई तो बतलाये कि गठबंधन धर्म के पालन का मतलब यह नहीं कि वे अन्य दलों के मंत्रियों को देश को लूटने की खुली छूट दे दें.फिर उन्होंने जो शपथ पदभार ग्रहण करते समय ली थी वो क्या था?क्यों ली थी अपने कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन की शपथ?इसके बदले कैमरे के सामने उन्हें सिर्फ गठबंधन धर्म का पालन करने की शपथ लेनी चाहिए थी.क्यों शासन की शुरुआत ही उन्होंने इस धोखेबाजी से की?
                       हद तो यह है कि जिस मुंह से सच्चाई के आला अलंबरदार मनमोहन गठबंधन की मजबूरी का रोना रोते हैं उसी मुंह से उसी समय देश को यह भरोसा भी देते हैं कि भ्रष्टाचारियों को कदापि नहीं बख्शा जाएगा.क्या अब ऐसा करने से उनकी सरकार गिरेगी नहीं और हर ६ महीने पर चुनाव की नौबत नहीं आएगी?इसका भी जवाब दिया उन्होंने लेकिन परोक्ष रूप से और कहा कि गठबंधन मजबूत है,नहीं टूटनेवाला.एक साथ मनमोहन कई-कई तरह की बातें कर लेते हैं और सभी एक-दूसरे से पूर्णतया प्रतिकूल.किसे सच मानें और किसे झूठ?किस बात पर भरोसा करें;किस पर नहीं?रावण की तरह उनके भी दस मुंह होता तो ऐसा कृत्य क्षम्य होता लेकिन मनमोहन के तो एक ही मुंह है और एक ही जुबान भी.तो क्या हम यह नहीं समझें कि मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ उतनी ही और सीमित कार्रवाई करेगी जिससे गठबंधन बिखरने से बचा रहे.तभी तो वे यह दावा कर रहे हैं कि गठबंधन को बिखरने भी नहीं देंगे और भ्रष्टाचार को नियंत्रित भी कर लेंगे.मुंह फुलाना और हँसना एक मुंह वाले किसी भी इन्सान के लिए संभव नहीं,शायद मनमोहन के लिए संभव हो.
                    जहाँ तक महंगाई का प्रश्न है तो मनमोहन जी ने बताया कि उनको पता है कि गरीबों पर ही महंगाई की मार सबसे ज्यादा पड़ती है.लेकिन वे उच्च विकास दर के लिए ७% तक की मुद्रास्फीति को जरुरी मानते हैं.यानि उनकी पहली प्राथमिकता ऊंची विकास दर है और आखिरी प्राथमिकता महंगाई पर नियंत्रण.गरीबों को चाहिए कि वह उच्च विकास दर की ख़बरों से अटे-पटे अख़बार ख़रीदे और उनकी रोटी बनाकर खा ले;हर तीन महीने में एक बार और अपने को भाग्यशाली समझे कि वह उच्च विकास दर वाले समय में जी रहा है.
                    बेसिरपैर की तुलना करने में हमारे मनमोहनजी का कोई जवाब नहीं.कब किसकी तुलना किससे कर दें देवो न जानाति?कल भी उन्होंने कालिदास की उपमाशक्ति को कई प्रकाशवर्ष पीछे छोड़ते हुए २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में गयी रकम की तुलना गरीबों को दी जा रही सब्सिडी से कर दी.कल वे किसी अन्य घोटाले में हुए नुकसान की तुलना वेतन पर होनेवाले खर्च और भ्रष्टाचार-नियंत्रण पर होनेवाले व्यय से करेंगे और अपनी अद्भूत उपमा शक्ति का फिर से परिचय देंगे.कालिदास को अभी पानी-पानी ही किया है;शर्म की नदी में डुबकी लगाने को भी विवश कर देंगे.
                प्रधानमंत्रीजी विपक्ष पर आरोप लगा रहे हैं कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर केंद्रीय मंत्रियों से इस्तीफा दिलवाकर बदला सधा रहा है.अगर यह सच है भी तो विपक्ष क्या गलत कर रहा है?सरदारजी खुद अपने कर्तव्यों का पालन तो कर नहीं रहे हैं और चले हैं विपक्ष और मीडिया को जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाने.कई सालों तक हार्वर्ड में शिक्षक जो रह चुके हैं महानुभाव.शिक्षक तो पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब भी बने थे और कई बार बने थे लेकिन एक आदर्श स्थापित करने के बाद.लेकिन मनमोहन का आदर्शों से क्या लेना-देना?वे तो पर उपदेश कुशल बहुतेरे में विश्वास रखते हैं;अटूट विश्वास.जब मौका मिलता है उपदेश देने लगते हैं कि यह होना चाहिए,वह होना चाहिए.जैसे देश में किसी को पता ही नहीं हो कि क्या होना चाहिए?हम जनता ने यह जानने-सुनने के लिए उन्हें भारत की सबसे बड़ी कुर्सी नहीं सौंपी है कि यह होना चाहिए और यह नहीं होना चाहिए;हरगिज नहीं!!!जनता ने उन्हें इसलिए वोट दिया है क्योंकि उसे विश्वास है कि यह शख्स जो होना चाहिए उसे करके दिखाएगा.जैसे इसने देश को कर्ज और पूँजी की कमी के दलदल से बाहर निकाला;उसी प्रतिबद्धता के साथ यह लगातार बढ़ते भ्रष्टाचार के दलदल से भी हमें बाहर निकलेगा.लेकिन हाय री किस्मत!जिस पर मजबूत समझकर भरोसा किया वही सबसे ज्यादा मजबूर निकला.मजबूर भी ऐसा कि न तो अपनी मर्जी से भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई ही कर सके और नाराज होने पर न तो अपनी मर्जी से इस्तीफा ही दे सके.कल ही उन्होंने एक बार फिर से कहा कि वे इस्तीफा नहीं देंगे.दें भी कैसे मैडम का आदेश जो नहीं होगा.
                                 उनकी कई जुबानों वाले मुंह की एक और बाजीगरी देखिए.मनमोहनजी ने ७० हजार करोड़ रूपये के राष्ट्रमंडल घोटाले के बारे में कहा था कि ९० दिनों में जाँच पूरी कर ली जाएगी.जबकि वास्तविकता यह है कि जाँच अभी सही तरीके से शुरू भी नहीं हो सकी है;हालाँकि भ्रष्टाचार के इन खेलों को समाप्त हुए चार महीना पूरा होने को है.भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से अंकुश लगाने के लिए अपनी आदत के अनुसार प्रधानमंत्री ने प्रणव मुखर्जी की अगुवाई में एक समिति का गठन कर दिया है जो ६० दिनों में अपनी रिपोर्ट देगी.देखिए अब यह समिति क्या कहती है?वह जन लोकपाल की सिफारिश करती है या लोकपाल की?वह भ्रष्टाचार को मिटाने की बात करती है या बचाने की.मनमोहन जी विपक्ष पर बचकाना आरोप लगा रहे हैं कि विपक्ष महत्वपूर्ण बिलों को पारित करने में सहयोग नहीं कर रहा.किस बिल की बात कर रहे हैं वे?अगर बात प्रस्तावित लोकपाल बिल की हो रही है तो फिर विपक्ष को धन्यवाद् देना चाहिए क्योंकि यह बिल तो रद्दी की टोकरी में भी फेंकने लायक नहीं है;बल्कि सीधे दाह-संस्कार का अधिकारी है.
                     झूठ बोलते मनमोहन यही नहीं रुके.वे यह भी बोल गए कि तेज विकास दर के चलते भारत का दुनिया में मान बढ़ रहा है.पहले तो मनमोहन बताएं कि विकास दर का ४५-५० डिग्री का कोण लिए ग्राफ किसके विकास की देन है.गाँव में आधा पेट खाकर महंगाई से लड़ रहे गरीब की या फिर टाटा और मित्तल की जिनकी कम्पनियाँ आईटी क्रांति के रॉकेट पर सवार है.जहाँ तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का मान बढ़ने का उनका दावा है तो वह उनकी सरकार की अन्य उपलब्धियों की तरह ही खोखला है;पूरी तरह से खोखला.अमेरिका में हमारे बच्चों के गले और पैरों में कुत्तों की तरह पट्टा डालने और श्रीलंका द्वारा हमारे मछुआरों के साथ लगातार बदतमीजी की बढती घटनाएँ इसका प्रमाण हैं कि भारत का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान बढ़ा नहीं है बल्कि घटा है और जब तक सरकार चीन से डरती रहेगी और यह सोंचती रहेगी कि चीनी खतरे को नजरंदाज कर देने से भारत की ओर बढ़ रहा चीनी खतरा टल जाएगा तब तक भारत के अंतर्राष्ट्रीय सम्मान में क्षरण होता रहेगा.जब तक दूसरे का भाषण पढने लगनेवाला खुद से भी बेखबर व्यक्ति भारत का विदेशमंत्री बना रहेगा;भारत की अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर फजीहत होती रहेगी,भारत का सम्मान बढनेवाला नहीं है.
                अबोध व मासूम मनमोहन जी को दुःख है की उन पर भी अब भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं.वे खुद को सीजर की पत्नी बता रहे हैं.जनता के विश्वास का खून करनेवाला कैसे सीजर की पत्नी हो सकता है,वह तो ब्रूटस हुआ न?फिर मनमोहन का आचरण कैसे संदेहों से परे हो गया?क्या वे अपने को इन्सान नहीं मानते;भगवान मानते हैं?एक तरफ तो वे मानते हैं कि उनसे गलतियाँ हुई हैं और दूसरी तरफ खुद को पाक-साफ भी बता रहे हैं.लगता है जैसे मनमोहन कोई सात घूंघटोंवाली ऐसी महिला हैं जिसके हर घूंघट में अलग-अलग चेहरा है.कौन-सा चेहरा सच्चा है,कोई नहीं बता सकता.
                    मैं परम विद्वान मनमोहन जी को याद दिलाना चाहूँगा कि सदियों पहले गोस्वामी तुलसीदास कह गए हैं कि जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी,सो नृप अवस नरक अधिकारी.अभी भी उतनी देर नहीं हुई है;देर नहीं हुई यह कहना भी सत्य नहीं होगा.अब से भी जनता के दुखदर्द को समझने का प्रयास कीजिए और उन्हें दूर करिए.अब जमाना इंदिरा या सोनिया या राहुल इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा,सोनिया या राहुलवाला नहीं रहा.आज जमाना तहरीर चौक का है.कल जो कुछ उन्होंने कहा उसके अनुसार मनमोहनजी को अगर ऐसा लगता है कि भारत में मिस्र जैसी क्रांति नहीं हो सकती क्योंकि वे लोग जनता को समय-समय पर झूठी हरी,पीली,नीली,उजली,काली क्रांति दिखाते रहते हैं तो बेहतर होगा कि वे इस ग़लतफ़हमी को आगे नहीं पालें और अपने दिमाग के तबेले से खदेड़ डालें.
             भारत में जो विस्फोटक हालात उनकी भ्रष्ट और निकम्मी सरकार तैयार कर रही है वह किसी भी तरह से फ़्रांस,रूस,चीन या मिस्र की क्रांतिपूर्व की स्थिति से अलग नहीं है.भारत की जनता भी क्षुब्ध है और उच्च विकास दर की ख़बरों से भरे पड़े समाचार-पत्रों को निचोड़ने से न तो दूध निकल सकता है और न ही रोटी.जनता का धैर्य ऊपरी सीमा की ओर बढ़ रहा है.जनता समझ गयी है कि चुनाव-दर-चुनाव मतदान करने से सिर्फ शासक बदल रहे हैं शासन का चरित्र नहीं.व्यवस्थापकों को बदलना अब काफी नहीं है अब समय आ गया है जब व्यवस्था को बदला जाए.इससे पहले मनमोहन जी की पार्टी १९७४ देख चुकी है अब शायद आगे जब जनता सडकों पर आएगी तो १९७४ से नहीं मानेगी बल्कि १९४२ होगा और १९१७ होगा.व्यवस्था बदल दी जाएगी और भ्रष्ट काले अंग्रेजों को भी भारत छोड़कर जाना पड़ेगा,गोरे अंग्रेजों की तरह.हाँ,मैं मानता हूँ कि अभी देश में गाँधी जैसा नेतृत्व नहीं है लेकिन कभी-कभी मुद्दे ही नेतृत्व बन जाया करते हैं,हमरी न मानो तो हुस्नी मुबारक से पूछो.मैं सचेत करना चाहूँगा भारत सरकार को कि भारत में जिस तरह लोकतंत्र वरदान के बजाए अभिशाप बनता जा रहा है वह देश को सिर्फ और सिर्फ रक्तरंजित क्रांति की ओर ले जाएगा.मिस्र से चली बदलाव की हवा ने अब तूफ़ान का स्वरुप ग्रहण कर लिया है और लीबिया,यमन,बहरीन होते हुए क्रांति के दबाव का क्षेत्र हमारे पड़ोस के पड़ोस ईरान तक में बनने लगा है और ईरान न तो भारत से ज्यादा दूर ही है और न ही भारत की स्थिति ईरान से बहुत अलग ही है.
पुनश्च-मित्रों यह लेख मैंने कल ही लिख लिया था लेकिन बिजली नहीं रहने के कारण कल प्रकाशित नहीं कर पाया और आज कर रहा हूँ.

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

ऐ अजनबी तूं भी कभी आवाज दे कहीं से

प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है.प्रेम कोरा शब्द नहीं अनुभूति का नाम है,दुनिया की सर्वोत्तम अनुभूति का.कोई सरकार प्रेम करने पर प्रतिबन्ध लगा दे इससे बड़ा अत्याचार कोई हो ही नहीं सकता.ऐसा सिर्फ रोम में संभव है,भारत में नहीं.भारत में तो प्रेम को ही विद्या माना गया है.कबीर कहते हैं कि जिसने सबसे प्रेम करना सीख लिया वही पंडित है.सबके साथ अनुराग,सबके साथ प्रेम तभी संभव है जब या तो सबमें ईश्वर नजर आने लगे या फ़िर सबमें प्रेमी अथवा प्रेमिका दिखाई देने लगे.इसमें भी पहली अवस्था उत्तम है क्योंकि यहाँ पिटने का भय नहीं,दूसरी अवस्था में सिर्फ पिटने की ही सम्भावना है,प्रेम तो मिलने से रहा.
               सबमें ईश्वर है.सब उसी के अंश हैं.फ़िर घृणा क्यों और किससे?इसलिए दुनिया में अगर कुछ करनीय है तो वह है सिर्फ और सिर्फ प्रेम और कुछ भी नहीं.लेकिन ऐसा तभी संभव है जब कोई व्यक्ति ईश्वर में स्थित हो जाए.फ़िर तो जित देखूं तित तूं वाली अवस्था हो जाती है.ऐसा व्यक्ति किसी पर नाराज नहीं हो सकता,कुपित नहीं हो सकता,क्रोधित नहीं हो सकता.वह मन के हाथों बेमोल बिक चुका होता है;बाध्य हो जाता है.ऐसा व्यक्ति इस दुनिया में सिर्फ एक ही काम कर सकता है और वह है प्रेम.
              लेकिन यह सर्वसिद्ध है कि सभी मानवेंद्रियों में सबसे प्रभावकारी हैं नेत्र.हम जो देखते हैं उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते.इसलिए हम जब किसी को अनुचित कार्यों में एक बार लिप्त देखते हैं तो कुपित हो जाते हैं.बार-बार देखते हैं तब क्रोध स्थायी भाव ग्रहण करने लगता है और हम उससे घृणा करने लगते हैं.हम भूल जाते हैं कि जो हमें दिख रहा है वह माया है और हम जाने-अनजाने उसका शिकार बन चुके हैं.हम भूल जाते हैं कि यहाँ देखनेवाला भी ईश्वर है;दुष्कर्म करनेवाला भी ईश्वर,पीड़ित भी ईश्वर और घृणा करनेवाला भी ईश्वर.
                    ऐसा नहीं है कि अगर कोई अनुचित कर्म करे तो उसे ईश्वरीय कृत्य मानकर क्षमा कर दिया जाए तो उचित होगा.मायावी संसार में व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरुरी है कि मायावी कानून बने और मायावी दंड भी दिए जाएँ.इस सम्बन्ध में एक कथा बड़ी सटीक और प्रासंगिक है.कथा प्रेममूर्ति स्वामी रामकृष्ण परमहंस के मुखारविंद के निस्सृत है.एक दिन शिष्य को उसके गुरु ने बताया कि सभी जीवों में ईश्वर है इसलिए सबसे प्रेम करो,किसी से भी नहीं डरो.एक दिन शिष्य जब भिक्षाटन पर था तब किसी राजा का हाथी पगला गया.चौराहे पर भगदड़ मच गई.सब भागने लगे.लेकिन शिष्य नहीं भागा उसने सोंचा कि गुरूजी के अनुसार तो यह हाथी भी ईश्वर है इसलिए क्यों भागा जाए?लोग चिल्ला रहे थे उसे सचेत करने लिए कि भागो हाथी तुम्हें कुचल देगा.लेकिन वह नहीं भागा और खड़ा रहा.परिणामस्वरूप हाथी ने उसे घायल कर दिया.गुरूजी को मालूम हुआ तो राजकीय आरोग्यशाला में भागे-भागे आए और शिष्य से पूछा कि यह गजब हुआ कैसे?तो शिष्य ने कहा कि हाथी में जो ईश्वर था उसने मुझे घायल कर दिया.तब गुरूजी ने कहा कि मूर्ख,सिर्फ हाथी में ही ईश्वर था और तुम्हें जो लोग सचेत कर रहे थे उनमें ईश्वर नहीं था?
               प्रेम करना आसान नहीं है.आखिर यह सर्वोत्तम अनुभव मुफ्त में मिले भी तो कैसे?प्रेम में अपना सबकुछ पिघला देना पड़ता है.अपना व्यक्तित्व,अपनी सोंच,अपना अस्तित्व सबकुछ खाक कर देना होता है,तब जाकर मिलता है सच्चे प्रेम के बदले सच्चा प्रेम.कबीर कहते हैं कि प्रेम हाट में नहीं बिकता न ही बाड़ी में उपजता है.यह अनमोल फसल तो ह्रदय में उपजता है और ह्रदय में ही परिपक्व होता है और ह्रदय ही इसका रसास्वादन करता है.
                   पुरुष और स्त्री दुनिया को चलानेवाले दो पहिए हैं.जबतक दोनों अलग-अलग हैं दुनिया की गाड़ी नहीं चल सकती,ठहर जाएगी;सबकुछ समाप्त हो जाएगा.सुनता हूँ कि सबके लिए कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई है जो तत्काल अज्ञात है,अनजाना है.लेकिन भविष्य में वही उसके लिए सबकुछ न सही बहुत-कुछ हो जाएगा;क्योंकि वही प्रेम का सबसे सघन साक्षात् प्रतिरूप बनकर उसके जीवन में आएगा.लेकिन क्या यह प्रेम सिर्फ सांसारिक प्रेम होगा,शारीरिक होगा या यह प्रेम ईश्वरीय प्रेम की ऊंचाइयों को भले ही प्राप्त कर न पाए उसके निकट पहुंचेगा.मैं आदर्शवादी हूँ.मुझे सपनों में जीने की आदत है.मैं रोज कल्पना करता हूँ कि मैं अपनी अर्द्धांगिनी से बेईन्तहा मुहब्बत करता हूँ और हमारे प्रेम ने ईश्के मजाजी से ईश्के हकीकी तक का सफ़र तय कर लिया है.हमारे प्रेम ने उन्हीं ऊंचाईयों को हासिल कर लिया है जो कभी उसने राम और सीता के मध्य प्राप्त की थी.लेकिन मैं नहीं जानता हूँ उसका रंग-रूप,नाम और पता.इस समय वह कहाँ है और क्या कर रही है सबकुछ अनिश्चित भविष्य की धुंध में है..मैं उसकी पुकार सुन रहा हूँ लेकिन जान नहीं रहा कि वह कौन है और कहाँ है.वह भी इसी तरह मेरे दिल की आवाज को कहीं गुमसुम बैठी सुन रही है और व्याकुल है आवाज के स्रोत को जानने के लिए.मगर कहाँ,रहस्य है और तब तक यह रहस्य बना रहेगा जब तक भविष्य वर्तमान नहीं बन जाता.

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

रिक्त हो रहा हूँ मैं

कल रात मैंने एक बड़ा भयानक सपना देखा.मैं सपने में सपना देख रहा था.ऐसा भी नहीं है कि मैं यह सपना पहली बार देख रहा था.पहले भी कई बार मैंने यह सपना देखा है.मैंने देखा कि मैं सुबह में जगा तो पाया कि मेरी आवाज ही गायब है.मैं बोलना तो चाहता हूँ लेकिन कंठ से आवाज ही नहीं निकल रही है.काफी कोशिश के बाद जब बोला भी तो मुंह से सिर्फ निरर्थक शब्द निकले.
                  मारे घबराहट के निकालता हूँ वह कलम जिससे मैंने बहुत सारे लेख,कविता और व्यंग्य लिखे हैं.लेकिन यह क्या?कलम से भी कोई शब्द नहीं निकल रहे थे?यह क्या हो गया था मुझे और मेरी कलम को.कहीं मेरा शब्दकोष रिक्त तो नहीं हो गया था,व्यवस्था पर व्यंग्य करते-करते;उसे गलियाते,लताड़ते और उसकी आलोचना करते-करते.तभी मेरी नींद खुल गई और मैं एक साथ दोनों सपनों से बाहर आ गया.मारे घबराहट के मेरा कंठ सूख रहा था.मैंने पानी पीना शुरू किया एक गिलास,दो,तीन शायद दसवें गिलास तक.लेकिन अब भी घबराहट कायम थी.धडकनें बेकाबू थीं.मैं डरा हुआ था और अब भी डरा हुआ हूँ कि क्या सचमुच एक दिन मेरा शब्दकोष रिक्त हो जाएगा?वैसे भी जिन शब्दों का प्रयोग मैं कर रहा हूँ उनमें असर है कहाँ?मेरे शब्द अर्थहीन हैं शायद.तभी तो न तो मैं इस देश की जनता को जगा पा रहा हूँ और न ही बना-बसा पा रहा हूँ अपनी दुनिया-ब्रज की दुनिया.
                         कहाँ से लाऊँ अर्थवान शब्द?बाजार में तो बिकते नहीं.आपके पास हो तो उधार में देंगे न?लेकिन आपको मैं जानता भी तो नहीं हूँ.फ़िर कैसे पहुंचूं आप तक?मुझे ज्यादा नहीं बस दो-चार दर्जन ऐसे शब्द चाहिए जिनमें सिर्फ अर्थ-ही-अर्थ हो,असर-ही-असर हो.जिन्हें सुनते ही जनता में जागरण उत्पन्न हो जाए,जनता निकल आए अपने-अपने घरों से.मेरे गाँव-घर का हर चौक-चौराहा तहरीर चौक बन जाए और चारों तरफ रामराज्य जैसा वातावरण बन जाए.
पुनश्च-मेरी यह रचना पद्य भी है और गद्य भी.यह आप पर निर्भर करता है कि आप इसे क्या समझते हैं.यह सपना कोई काल्पनिक नहीं है,सत्य है.मैं स्वप्नफल विशेषज्ञ नहीं हूँ और अगर कोई विशेषज्ञ मिल भी जाए तो आदतन बिना पूर्ण संतुष्टि के मैं उसकी व्याख्या को मानूंगा नहीं.मैं प्रयोगवादी भी नहीं हूँ और मैंने इस गद्यात्मक पद्य या पद्यात्मक गद्य में कोई प्रयोग नहीं किया है.मुझे लगता है कि यह समस्या सिर्फ मेरी ही नहीं है.सार्वभौमिक है,दुनिया के सभी रचनाकारों की है;भले ही उन्हें इस तरह के सपने मूंदी आखों में नहीं आए हों.कभी-न-कभी खुली आँखों में जरूर आए होंगे.

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

काले कोट का काला धंधा

अंग्रेजों ने क्या सोंचकर वकीलों को काला कपडा पहनाया था इसका महज अनुमान ही लगाया जा सकता है.शायद उन्होंने सोंचा हो कि जिस तरह इस रंग पर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ाया जा सकता उसी तरह इसे पहननेवालों पर भी झूठ और लालच का रंग नहीं चढ़ेगा.लेकिन हो रहा है ठीक इसके उलट.इसे पहनकर कई लोगों द्वारा सिर्फ झूठ ही बोला जा रहा है और मुवक्किलों के विश्वास का नाजायज फायदा उठाया जा रहा है.
                  हाजीपुर व्यवहार न्यायालय में ऐसे वकीलों की एक बड़ी संख्या है जो पहले वकीलों के मुंशी थे और बाद में वकालत की डिग्री हासिल कर ली.जब ये लोग काला कोट नहीं पहनते थे यानी सिर्फ मुंशी थे तब इनका काम थोड़ी-सी हेराफेरी करके मुवक्किल की जेब से १०-२० रूपये ज्यादा निकाल लेने तक सीमित था.जैसे ही इन्होंने काला कोट पहना इनके हाथों में ठगने की अनियंत्रित शक्ति आ गई.अब वे हरेक मुवक्किल को १०-२० रूपयों का नहीं बल्कि हजारों-हजार रूपये का चूना लगा रहे हैं.वे एकसाथ मुंशी भी हैं और वकील भी.
                  मैं खुद भी एक ऐसे मुंशी-कम-वकील की शैतानी का शिकार हो चुका हूँ.मामला दखल कब्ज़ा का है.प्रारंभिक और अंतिम डिग्री हुए कई साल हो चुके हैं.उसने कहीं कोई काम नहीं बढाया और तारीख पर तारीख लेने का झूठ बोलकर हमसे लाखों रूपये ऐंठ लिए.चूंकि वह मेरे पिताजी का शिष्य रह चुका है इसलिए उस पर न तो पिताजी को ही कभी संदेह हुआ और न ही मुझे.अब हमारे पास खून के घूँट पीकर रह जाने के सिवा कोई उपाय नहीं रह गया है.
                           बात सिर्फ मेरी रहती तो मैं न तो यह लेख लिखता और न ही काले कोट पर कीचड़ उछालने की जहमत ही उठाता.लेकिन काले कोट द्वारा ठगा गया न तो मैं पहला आदमी हूँ और न ही आखिरी.मेरे जैसे हजारों-लाखों बेबस लोग न्याय की उम्मीद लिए कचहरी में आते हैं और लूट लिए जाते हैं.काले कोट की प्रतिबद्धता का मामला सिर्फ हाजीपुर व्यवहार न्यायालय तक ही सीमित नहीं है.यह तो सिर्फ एक बानगी है.इस तरह के ठगों से यह पूरा व्यवसाय अटा पड़ा है.अच्छे लोग हाजीपुर कचहरी में भी हैं लेकिन बहुत कम.इस तालाब की गन्दी मछलियाँ इतनी सयानी हैं कि धीरे-धीरे मुवक्किल को निगलती रहती हैं और वह उन्हें अपना हितैषी समझता रहता है.उनकी किस्सागोई को देखकर तो शायद आज प्रेमचंद होते तो खुद भी चक्कर खा जाते.
                        बार-बार मीडिया में मीडिया के नियमन की बातें आती रहती हैं लेकिन इन काले कोट वालों के नियमन का मामला कभी मीडिया या किसी भी मंच पर नहीं आता.जबकि यह व्यवसाय सीधे तौर पर व्यवस्था पर लोगों के विश्वास के क्षरण से जुड़ा हुआ है.यहाँ स्वनियंत्रण से बात नहीं बननेवाली है क्योंकि पूरे कुएँ में ही भांग पड़ी है.कोई मुवक्किल किसके पास जाएगा,अगर वो भी वैसा ही हुआ तो?
                     मैं देश के हजारों-लाखों वकील-पीड़ित मुवक्किलों की तरफ से केंद्र सरकार से मांग करता हूँ कि सरकारी तौर पर ऐसी व्यवस्था की जाए जिससे लाचार और बेबस लोगों को वकीलों की ठगी का शिकार होने से बचाया जा सके.उनकी मॉनिटरिंग की जाए जिन्होंने कानून की पढाई ही नैतिकता के हनन के लिए की है.जब भी कोई वकील ठगी में लिप्त पाया जाए तो उसपर आजीवन प्रतिबन्ध लगा दिया जाए.अन्यथा लोग न्यायालय नहीं जाएँगे और इससे अंततः कानून को अपने हाथों में लेने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा.वैसे भी लोग न्यायालयों में होनेवाले प्रक्रियागत विलम्ब से पहले से ही परेशान हैं.

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

अमीर राज्यों पे करम बिहार पे सितम,ऐ केंद्र सरकार ये जुल्म न कर

भारत एक संघीय राज्य है या दूसरे शब्दों में कहें तो राज्यों का संघ है.जिसकी राजधानी दिल्ली में है.दिल्ली में संघीय सरकार यानी केंद्र सरकार के प्रधान प्रधानमंत्री और अन्य मंत्री रहते हैं जो गरीबों के प्रति बड़े दयालु होने का दिखावा करते रहते हैं.ये लोग उनके लिए नित नई योजनाएं बनाते और घोषित करते रहते हैं.ऐसा होना भी चाहिए.जो गरीब हैं उनकी अतिरिक्त मदद अवश्य की जानी चाहिए.लेकिन वही केंद्र सरकार आजादी के बाद से ही चाहे केंद्र में जिसकी भी सरकार रही हो;गरीब राज्य बिहार को प्रताड़ित करने में लगी रही है.यह दोहरी नीति क्यों?गरीबों की मदद करो लेकिन गरीब राज्यों को और गरीब बना दो.इस तरह समाप्त होगी गरीबी?
                   बिहार की राजनीतिक रूप से प्रबुद्ध जनता इस केंद्र सरकार की देशविरोधी नीतियों को शुरू में ही समझ गई थी.तभी तो २००९ के लोकसभा चुनावों में बिहारियों ने केंद्र की यूपीए सरकार के खिलाफ जनादेश दिया था.आज पूरा भारत जहाँ उन चुनावों में अकर्मण्य और भ्रष्ट यूपीए को वोट देने को लेकर खुद के विवेक पर ही शर्मिंदा है,बिहारियों को अपने चुनावी विवेक पर गर्व है.फ़िर भी कांग्रेस को उम्मीद थी कि केंद्र प्रायोजित योजनाओं की नौका पर सवार होकर वह बिहार चुनाव की वैतरणी पार कर लेगी;नहीं तो पार्टी की हालत में कुछ तो सुधार होगा ही.इसलिए तब दंडस्वरूप किसी भी बिहारी को आजादी के बाद पहली बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में भले ही स्थान नहीं दिया गया हो,बिहार को मिलनेवाले फंड व बिजली के कोटे में कोई गंभीर कटौती नहीं की गई.
                       लेकिन जबसे बिहार विधानसभा चुनावों में यूपीए की पहले से डूबती-उतराती लुटिया डूब गई है;केंद्र जैसे पूरे बिहार की जनता को इसके लिए दण्डित करने पर तुल गया है.होना तो यह चाहिए कि राज्यों को सहायता वहां स्थापित सरकारों के प्रदर्शन के आधार पर देना चाहिए या फ़िर गरीबी को आधार बनाया जाना चाहिए.साथ ही जनसंख्या भी एक महत्वपूर्ण वास्तविकता है.इस समय इन तीनों ही मानदंडों पर बिहार खरा उतरता है.इसलिए सहायता राशि प्राप्त करने वाले राज्यों की सूची में उसका स्थान सबसे ऊपर रहना चाहिए.बिहार लम्बे समय तक देश की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला राज्य रहा है.आज भी वह तीसरा स्थान रखता है.लेकिन न ही तब बिहार की विशाल जनसंख्या के हितों का खयाल रखा गया और न ही अब रखा जा रहा है.
             जब केंद्र सरकार गरीबों के लिए कोई योजना लाती है तब यह सोंचकर कि ये लोग बांकियों से प्रतियोगिता में नहीं टिक सकते इसलिए बराबरी पर लाने के लिए अन्य लोगों से इतर इनकी मदद करना उसका धर्मं बनता है.आज जब बिहार जो देश का सबसे गरीब राज्य है और विकास की दौड़ में सबके साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलने को बेताब है;तो इसकी योजना राशि और बिजली कोटे में कटौती की जा रही है.बिहार में बदले माहौल से उत्साहित होकर बड़े-बड़े उद्योगपति आने और उद्योग स्थापित करने को उत्सुक हैं.मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूँ जो पटना के आसपास के क्षेत्रों में जमीन भी खोज रहे हैं.अगर वे आ गए तो बिना बिजली के कैसे फैक्टरी चलाएंगे,दीया या ढिबरी से?दूसरी ओर बिहार के किसान भी पिछले दो सालों से सूखा झेल रहे हैं.उनके लिए तो बिजली के कोटे में कमी बिजली गिरने के ही समान है.
                    केंद्र सरकार की बिहार के प्रति नीति उसी तरह की है जैसे कोई माँ अपनी बीमार संतान की देखरेख-दवादारू में और भी कटौती कर दे.फ़िर तो वह संतान मरेगी ही न.अगर दुर्भाग्यवश आप लेट से चल रही ट्रेन में कभी चढ़े होंगे तो देखा होगा कि रेलवे कंट्रोल उसके परिचालन में और भी देर करती जाती है.कुछ इसी तरह का रवैया केंद्र का बिहार और बिहारियों के प्रति है.यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे पास गुजरात की तरह संसाधन नहीं है.नहीं तो हमारे मुख्यमंत्री भी नरेन्द्र मोदी की तरह सीना ठोंककर कहते कि हे केंद्र सरकार!तुम अपना पैसा और बिजली अपने पास रखो.मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो.लेकिन केंद्र सरकार की प्रतिशोधात्मक नीतियों के चलते न राधा को नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी.
                यह स्पष्ट है कि केंद्र सरकार के सौतेले रवैये के चलते पिछड़ा बिहार विकास की दौड़ में और भी पिछड़ जाएगा.आज भी नीचे से नंबर एक है कल भी नीचे से ही नंबर एक रहेगा.बिहार सरकार को बुद्धिस्ट देशों और विश्व बैंक आदि से सीधे धन प्राप्त करने के प्रयास बढ़ा देने चाहिए और मान लेना चाहिए कि केंद्र से कुछ भी नहीं मिलनेवाला.यह केंद्र सरकार वैसे भी आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी हुई है और उसे राज्यों में भी भ्रष्ट मुख्यमंत्री चाहिए,नीतीश जैसा आदमी नहीं.साथ ही दो-दो बार बिहार में धोबिया पछाड़ खाकर भी या तो उसके होश ठिकाने नहीं आए हैं या फ़िर आघात से उसका दिमागी सन्तुलन ही गड़बड़ा गया है.अगले लोकसभा चुनाव में वह न सिर्फ बिहार में बल्कि पूरे भारत में मुंह की खानेवाली है.वो कहते हैं न कि मतदाता (भगवान) के घर में देर है अंधेर नहीं है.अगर बांकी भारत की लगातार तीसरी बार की मूर्खता से अगले चुनावों में भी यह सरकार जीत गई तो भी कोई बात नहीं.बिहार के पास आज भी बहुत शक्ति है;युवा शक्ति और श्रम शक्ति.जरूरत बस इसका योजनाबद्ध और ईमानदार तरीके से इस्तेमाल करने की है.मुझे पूरा भरोसा है कि आज नहीं तो कल एक दिन वह जरूर आएगा जब हम भी केंद्र से गुजरात सरकार की तरह यह कह सकेंगे कि तुम हमसे हो हम तुमसे नहीं.चाहे उस समय केंद्र और राज्य में किसी की भी सरकार हो.

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

क्या भारत में हिन्दू होना अपराध नहीं है?

पिछले दिनों हमने पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दुओं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना दिए जाने और उन पर भीषण,अमानुषिक अत्याचार किए जाने सम्बन्धी कई लेख अख़बारों-पत्रिकाओं में पढ़े हैं.
                 मैं इस विषय पर लेख लिखनेवाले मित्रों का स्वागत करता हूँ और साधुवाद देता हूँ.लेकिन मुझे घोर आश्चर्य है कि जिस देश में हिन्दू बहुसंख्यक हैं और दुनिया में हिन्दुओं की सबसे बड़ी जनसंख्या जहाँ निवास करती है;में हिन्दुओं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना दिए जाने पर क्यों नहीं उसी गंभीरता से लिखा जा रहा है.
                   पिछले कई वर्षों से हमारी भ्रष्टाचार पार्टी की केंद्र सरकार जिसकी प्रेरणा-स्रोत इटली से आयातित माननीय सोनिया गांधीजी हैं;ने हिन्दुओं को आतंकवादी सिद्ध करने के लिए अभियान-सा चला रखा है.न जाने सरकार की इसके पीछे क्या मंशा है?लेकिन इतना तो निश्चित है कि हिन्दुओं के प्रति इस सरकार की मंशा अच्छी तो नहीं ही है.
              आप अगर सुबह में देशभर से प्रसारित होने वाला राष्ट्रीय समाचार बुलेटिन समाचार-प्रभात नियमित रूप से सुनते हैं तो उसके बीच में आनेवाला वो विज्ञापन भी आपने जरूर सुना होगा जिसमें कभी रजिया तो कभी मारिया नामक छात्राओं को केंद्र सरकार द्वारा उच्च शिक्षा में छूट दिए जाने की बात सगर्व की जाती है.क्या यह छूट सभी हिन्दू लड़कियों को भी नहीं मिलनी चाहिए?अगर नहीं मिलनी चाहिए तो क्यों?क्या केंद्र सरकार स्पष्टीकरण देगी?
                        इसी तरह एक महत्वपूर्ण मुद्दा हज पर जानेवाले मुसलमानों को सब्सिडी देने का है.केंद्र सरकार की इस असमानतापूर्ण कृपा के खिलाफ जब कोर्ट में मुकदमा किया गया तो सरकार सब्सिडी के पक्ष में खड़ी हो गई.यह सब्सिडी भी तब दी जाती है जब इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता.पड़ोसी पाकिस्तान में इसलिए इस तरह की सब्सिडी नहीं दी जाती.इसी तर्ज पर आंध्र प्रदेश की सरकार ने वर्ष २००८ में येरुसलम की यात्रा पर जानेवाले ईसाईयों को सब्सिडी देने की घोषणा की.हालांकि अमरनाथ आदि हिन्दू यात्राओं के लिए सरकारी व्यवस्था की जाती है लेकिन सब्सिडी नहीं दी जाती.क्यों नहीं दी जाती या क्यों नहीं मिलनी चाहिए?इसका जवाब भी जाहिर है कि केंद्र सरकार को ही पता होगा.कुछ लोग कह सकते हैं कि हिन्दू धार्मिक आयोजनों पर होनेवाला खर्च भी कोई कम नहीं होता.तो मैं ऐसे गुमराह लोगों को बता देना चाहूँगा कि ९९.९९९९९९९९९९९९९९९९९९ प्रतिशत हिन्दू मंदिर राज्यों द्वारा गठित प्रदेश धार्मिक न्यास पर्षदों के अन्तर्गत हैं और इन मंदिरों से सरकारों को जो प्राप्त होता है वह भी कोई कम नहीं होता.अरबों रूपये की आमदनी होती है.अगर सबके लिए कानून बराबर होता तो मुस्लिम धार्मिक स्थल भी इसके अन्तर्गत होते.जबकि सभी मुस्लिम मस्जिद और खानकाह सुन्नी वक्फ बोर्ड और शिया वक्फ बोर्ड द्वारा संचालित हैं और जहाँ तक मैं जानता हूँ इनसे केंद्र और राज्य सरकारों को फूटी कौड़ी भी नहीं मिलती है.
                     वर्तमान केंद्र सरकार की गलत और हिन्दू-विरोधी नीति सिर्फ देश तक ही सीमित नहीं है.इस केंद्र सरकार की गलत नीतियों के चलते घोषित रूप से विश्व का एकमात्र हिन्दू-राष्ट्र नेपाल आज हिन्दू-राष्ट्र नहीं है.शायद इस सरकार को किसी हिन्दू-राष्ट्र से बातचीत में परेशानी होती थी.लेकिन उसी सरकार को पाकिस्तान सहित किसी भी इस्लामिक देश से सम्बन्ध सुधारने की बेताबी क्यों रहती है?इसी तरह केंद्र सरकार ने श्रीलंका में हिन्दुओं के एलटीटीई के नाम पर संहार पर भी तटस्थतापूर्ण रवैया अपनाया.चाहे देसी राजनीति हो या वैश्विक;राजनीति में मुर्दों (या मुद्दों) को भी मारा नहीं जाता;जिन्दा रखा जाता है.लेकिन केंद्र ने श्रीलंका जैसे महत्वपूर्ण पड़ोसी को चिंतामुक्त कर दिया.वही श्रीलंका अब भारत के चिर-शत्रु चीन की गोद में जा बैठा है और भारत को ही आँख दिखा रहा है.भारत के मछुआरे श्रीलंकाई नौसेना द्वारा मौत के घाट उतार दिए जाने के डर से भारत-श्रीलंका समुद्री सीमा के आसपास जाने से भी डरने लगे हैं.
                    हिन्दूबहुल भारत में नेहरु की मूर्खता के चलते हिन्दुओं पर हिन्दू विवाह अधिनियम,अनुच्छेद ३७० आदि के द्वारा कई तरह के प्रतिबन्ध लगा दिए गए हैं.लेकिन मुसलमानों को आजाद रखा गया है.मुसलमान अपनी मान्यताओं के पालन के लिए स्वतंत्र हैं यानी वे राजकीय अतिथि हैं;प्रथम श्रेणी के नागरिक हैं.जबकि हिन्दू जिनकी जनसंख्या देश में तीन-चौथाई से भी ज्यादा है अपनी मान्यताओं का स्वतंत्र रूप से पालन नहीं कर सकते.उसे सरकारी नियमन का पालन करना पड़ता है.एक देश में दो कानून.बहुसंख्यक परतंत्र और अल्संख्यक स्वतंत्र.इट हैप्पेंस ओनली इन इंडिया.यही तो केंद्र सरकार का इनक्रेडिबल इंडिया है. 

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

बापू मेरी शादी करवाओ रे

बापू मैंने तेरी इस बात पर बचपन में ही आँख खोलकर विश्वास कर लिया था कि सत्य ही ईश्वर है और आज भी मानता हूँ.लेकिन तब मुझे यह पता नहीं था कि सत्य नामक यह ईश्वर मुझे कहीं का नहीं रखेगा.मैं तब भी मानता था और आज भी मानता हूँ कि न ब्रूयात सत्यम अप्रियम का समर्थन करनेवाले लोग सत्य से भागनेवाले लोग हैं और घुमाफिराकर वे सदा ब्रूयात असत्यं प्रियम के पक्षधर हैं.
                     तुमसे पहले भी एक सत्य का दीवाना हुआ था,कबीर.रोज लुकाठी लेकर बाजार में खड़ा हो जाता था और जो भी उसके साथ चलना चाहता उसके समक्ष पागलपन भरी शर्तें रखता.जैसे जो घर फूंके आपना चलो हमारे साथ.अपने घर को तो वह पहले ही फूंक चुका था.लेकिन उसके सामने भी यह समस्या नहीं आई थी और उसकी तो तीन-तीन बीबियाँ थीं.तुम्हारी तो शादी बचपन में ही हो गई थी,मैंने आईएएस बनने के चक्कर में देर करके देर कर दी.फ़िर तुम तो राजकोट के दीवान के बेटे थे,राजसी ठाटबाट था.मेरे पास तो अपना घर भी नहीं है रे.आत्मा का घर भी किराये का और शरीर का घर भी किराये का;अपना कुछ भी नहीं.फ़िर क्यों कोई मुझे अपना बनाए?
                   बापू मेरे पास सिर्फ तेरी सत्य की पोटली है रे.अब तुम तेरी आज्ञा के बिना यह पोटली चुराने के जुर्म में मेरा अंगूठा मत कटवा देना.वैसे भी सत्य को धारण करना इस झूठ के युग में जुर्म ही तो है.देखो न लड़कीवाले आते हैं और मुझी से पूछते हैं कि आपकी उम्र कितनी है,आप क्या करते हैं?मैं बता देता हूँ जो भी सच होता है.यही कि मेरी उम्र ३४ साल है और इस समय स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहा हूँ.देश के बड़े-बड़े अख़बार मुझे छापते हैं बिना पैरवी और जान-पहचान के.
                क्या बताऊँ बापू फ़िर वह बेटीवाला लौटकर ही नहीं आता.मुझसे झूठ सुनना चाहते हैं वे शायद,सत्य को पचा नहीं पाते.पेट ख़राब हो जाता है उनका.डरते हैं कि यह सत्यवादी कहीं उनकी बेटी का जीवन भी नहीं ख़राब कर दे.बापू मैं क्या ऐसा आदमी हूँ रे?मैं तो अपनी पत्नी को बहुत प्यार करूंगा,अपनी जान से भी ज्यादा.सिर्फ सत्य से ज्यादा नहीं.सत्य से लिए तो ईसा एक बार सूली पर चढ़े थे मैं अनंत बार चढ़ जाऊँगा रे.हमारे बीच विवाद भी होंगे,झगड़े भी होंगे पर उन सबसे ज्यादा होगा प्यार और समर्पण.लेकिन पहले शादी तो हो.वैसे झगडे तो तेरे घर में होते होंगे.मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ.सच्ची पूछ रहा हूँ,बता न.
                    मैं तो थक गया हूँ सत्य बोलबोलकर और लड़कीवालों को चाय-मिठाई खिलते-पिलाते.अकेला भाई हूँ इसलिए सबकुछ मुझे ही करना पड़ता हैं न.अब तुम ही कुछ करो तो मुझे कुछ करने का मौका मिले.ऊपर बैठे-बैठे कोई चक्कर चलाओ,ऐसा चक्कर चलाओ कि बस इस साल मेरी शादी हो ही जाए.मेरी बात को दिल पे लेना;मजाक में मत उड़ा देना.वरना मेरा बांकी जीवन भी मजाक बनकर रह जाएगा रे.

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

लो आ गया अब घोटालों का बाप

मोबाइलों के कई बाप हो चुके हैं.इन बापों के भी कई बाप मौजूद हैं.हो सकता है कि इनमें से कुछ बाप आपकी जेबों में भी हों.लेकिन दुर्भाग्यवश घोटालों का अब तक कोई बाप नहीं था.अनाथ था घोटालों का पूरा कुनबा अबतक.परन्तु
हमारे प्रधानमंत्री ठहरे अनाथों के नाथ,दया के सागर और कृपा के सिन्धु.सो उनसे घोटालों का बिना बाप का होना और इसलिए गाँव-नगर में उपहास का पात्र बन जाना देखा नहीं गया.इसलिए उन्होंने इस असहाय परिवार पर कृपामृत की घोरवृष्टि करते हुए अपने पास रखे गए महकमे अंतरिक्ष विभाग से उन्हें बाप प्रदान कर दिया.
                   अभी कल ही अवतरित हुए हैं महाप्रभु.जाने अब तक किस टेबल की किन फाइलों की भूलभूलैया में गुम थे.भारत की अर्थव्यवस्था आज १९८६-८७ के मुकाबले जितनी गुना नहीं बढ़ी कहीं उससे ज्यादा गुना बढ़ गया है घोटालों का आकार.आगे आने वाले घोटाले शायद अर्थव्यवस्था के भीतर समाएँ भी नहीं.कितनी तेज वृद्धि दर है.जहाँ १९८६-८७ में बोफोर्स की खरीद में मात्र ४० करोड़ का घोटाला हुआ था अब दो लाख करोड़ रूपये का घोटाला हो रहा है.वो भी खुदरा में नहीं थोक में.
                    दो लाख करोड़ कितना होता है पता है आपको?२० ख़रब रूपये होते हैं २ लाख करोड़ में.यानी २ के बाद १२ शून्य बिठाने पड़ते हैं.अर्थात जितना इकाई,दहाई करके गिनने में हमें परेशानी होती है इस सरकार में रोजाना उतने रूपये के घोटाले हो रहे हैं.भगवान न करे कि यदि इतने रूपये हमें या आपको हाथ से गिनने के लिए दे दिए जाएँ तो १,२,३,४ करते-करते शायद ज़िन्दगी ही बीत जाए.
                  लेकिन हमारे माननीय प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों के लिए इतने रूपये का घोटाला करना चुटकी का खेल है.आँख बंद और माल गायब.सी.ए.जी. का काम है बकबक करना सो करती रहे.विपक्ष का काम है शोर मचाना सो मचाता रहे और जनता का काम है माननीयों के सब्जबागी भाषणों पर तालियाँ पीटना और वोट डालना सो ताली पीटती रहे और वोट डालती रहे.केंद्र सरकार के प्रधान और अन्य मंत्रियों का काम है घोटालों के नए-नए मॉडल,नए-नए बाप जनमत के बाजार में उतारना सो उतारते रहेंगे और हमारा काम है कागज काला करके इन घोटालेबाजों का मुंह काला करना सो करते रहेंगे.देखिए अब इस घोटालों के बाप के बाप को कब देश के सामने लाया जाता है.वैसे हमारे नेता व अफसर शुभकाम में देरी के आदी नहीं हैं.हमसे ज्यादा इंतजार नहीं करवाएँगे.

दौड़ रहा कागज का घोडा

इसको घटाया उसको जोड़ा,
दौड़ रहा कागज का घोडा.

इस हफ्ते घट गई महंगाई,
मुद्रास्फीति नीचे आई;
रामदीन का बढ़ गया खर्चा,
सब्जी-दाल की करो न चर्चा;
पेटी में रखा अनाज का बोरा;
इसको घटाया उसको जोड़ा,
दौड़ रहा कागज का घोडा.

विकास दर ने दौड़ लगाई,
अम्बानी ने संपत्ति बढ़ाई;
आम आदमी अब ज्यादा खाता है,
इसलिए अनाज कम पड़ जाता है;
कमाओ ज्यादा और खाओ थोड़ा;
इसको घटाया उसको जोड़ा,
दौड़ रहा कागज का घोडा.

दिए हैं हमने तीन अधिकार,
देगी भोजन की गारंटी भी सरकार;
कागज पर मिल रहा है काम,
कागज पर हो रहा भुगतान;
कागज पर मिल रहे अधिकार,
कागज पर चल रही सरकार;
कागजी न्याय कागजी भगोड़ा;
इसको घटाया उसको जोड़ा,
दौड़ रहा कागज का घोडा,
दौड़ रहा कागज का घोडा.

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

काले धन को सफ़ेद में बदलने का यन्त्र है आईपीएल

किसी पश्चिमी दार्शनिक ने कहा है कि आपकी रुचि राजनीति में हो या नहीं हो;राजनीति की रुचि आपमें हमेशा होती है.तभी तो भारतीय क्रिकेट इतिहास के सर्वश्रेष्ठ कप्तान और भारतीय क्रिकेट का महाराजा कहलानेवाले सौरव गांगुली को आई.पी.एल. की नीलामी में गन्दी राजनीति का शिकार होना पड़ा.यह वही सौरव हैं जिन्होंने भारतीय टीम पर अजहरुद्दीन के समय लगे मैच फिक्सिंग के आरोपों के बाद टीम के प्रति लोगों के विश्वास को पुनर्जीवित किया.यह वही सौरव हैं जिन्होंने भारतीय टीम के खिलाड़ियों की शारीरिक भाषा को पूरी तरह से बदल कर रख दिया और टीम के खिलाड़ियों को विदेशी बदतमीज खिलाड़ियों से आँखों में आखें डालकर बात करना सिखाया.यह वही सौरव हैं जिन्होंने भारत को विदेशों में भी जीतना सिखाया.वही सौरव जिसके नेतृत्व में खेले गए ४९ टेस्ट मैचों में भारत ने २१ मैच जीते और १४९ एकदिवसीय मैचों में से ७६ जीते;आज बाजार के क्रिकेट के आगे लाचार और अपमानित है.
                   ऐसा नहीं है कि पहले क्रिकेट का बाजार से कुछ भी लेना-देना नहीं था.पहले भी क्रिकेट का बाजार था और बाजार से लेना-देना था.लेकिन आई.पी.एल. तो क्रिकेट का बाजार है ही नहीं यह तो बाजार का क्रिकेट है.यह ड्रामा है,सर्कस है और ग्लैमर है;केवल नहीं है तो खेल नहीं है.यहाँ जितना खेल बल्ले और गेंद से खेला जा रहा है उससे कही ज्यादा पैसों से खेला जा रहा है.अब जब यह स्पष्ट है कि आई.पी.एल. कोच्ची टीम के प्रमोटरों दिलीप,अरुण और हर्षद मानिक लाल मेहता ने लिखेंस्तें बैंक में अपना काला धन जमा कर रखा है;हम भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को आई.पी.एल. को लेकर किसी भी तरह के भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं है.मित्रों,यह आई.पी.एल. क्रिकेट को प्रोत्साहित करने के लिए नहीं लाया गया है बल्कि यह इसलिए बनाया और लाया गया है जिससे भारत के शीर्ष पूंजीपति अपने काले धन को सफ़ेद धन में बदल सकें.वस्तुतः यह काले धन को सफ़ेद धन में बदलने की मशीन है.इस विशुद्ध रूप से धनाधारित सर्कस के रिंगमास्टर हैं बी.सी.सी.आई. के कर्ता-धर्ता और केंद्रीय मंत्रिमंडल के कुछ सदस्य.इनमें से एक शशि थरूर को तो रिश्वत में अपनी पत्नी को कोच्ची टीम में हिस्सेदारी दिलवाने के आरोप में मंत्री पद ही छोड़ना पड़ा.हालांकि कुछ ऐसे ही आरोप शरद पवार पर भी थे लेकिन वे तो ठहरे मोटी चमड़ीवाले सो मंत्रिमंडल में बने हुए हैं और आज भी आई.पी.एल. सहित पूरे भारतीय क्रिकेट के कर्ता-धर्ता बने हुए हैं.
                  मित्रों,क्या आप बता सकते हैं कि आई.पी.एल. से भारतीय और विश्व क्रिकेट का कितना भला हुआ है?इस फटाफट क्रिकेट के चलते हमारे खिलाड़ी देश के लिए खेलना भूल रहे हैं.पहले जहाँ भारतीय खिलाड़ियों का दिल देश के लिए धड़कता था अब वही खिलाड़ी सिर्फ पैसों के लिए खेलते हैं.देश के लिए खेलना जहाँ पहले गौरव की बात होती थी आज इन पूंजीपतियों की टीमों में खेलना गर्व की बात है.जहाँ पैसा हो और कम पूँजी में ज्यादा लाभ दिखाकर काला धन को सफ़ेद धन बनाने का स्वर्णिम अवसर हो वहां राजनीति तो होगी ही.भारतीय क्रिकेट के दो दिग्गजों शरद पवार और जगमोहन डालमिया की शत्रुता किसी से छुपी नहीं है.पवार ठहरे शक्तिशाली केंद्रीय मंत्री;उनके सामने डालमिया की क्या बिसात?इसलिए पहले तो डालमिया के प्रिय पात्र रहे गांगुली को नीलामी में किसी पूंजीपति ने नहीं ख़रीदा और बाद में इडेन गार्डेन से विश्व कप की मेजबानी छीन ली गई.
                        मित्रों,अब आप भी सोंचिये यह कैसा क्रिकेट है जिसमें खिलाड़ी सिर्फ एक खिलाड़ी ही नहीं है बल्कि वह खरीदी-बेची जानेवाली वस्तु भी है,जिंस है.इस नीलामी में सिर्फ खिलाड़ियों का ही दाम नहीं लगता बल्कि इसमें तराजू के पलड़े पर होता है उनके प्रति हमारा विश्वास भी.भारत में क्रिकेट सिर्फ एक खेल नहीं है बल्कि एक धर्म है और कुछ पूंजीपति हमारी इस धार्मिक आस्था का सौदा करने में लगे हैं.जहाँ तक सौरव के इस सर्कस में होने या नहीं होने का प्रश्न है तो सौरव भले ही इसमें नहीं हों इसमें भाग लेनेवाले कई खिलाड़ी ऐसे हैं जो देश और दुनिया के क्रिकेट को सिर्फ और सिर्फ सौरव की देन हैं.शाहरुख़ खान या अन्य आई.पी.एल. प्रमोटर चाहे कितना ही रबर क्यों न घिस लें,पवार कितनी भी राजनीति क्यों न कर लें;न तो वे सौरव के क्रिकेट रिकार्ड को कागजों पर से ही मिटा सकते हैं और न ही करोड़ों भारतीय के दिलों से ही.सौरव करोड़ों भारतीयों के दिलों में बसते हैं और बसते रहेंगे.

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

इस तरह तो विज्ञान का प्रचार होने से रहा

अख़बारों में विज्ञान एक्सप्रेस ट्रेन को लेकर आ रही उत्साहपूर्ण ख़बरों ने मुझमें इतना जोश भर दिया कि कल मैं खुद को सोनपुर जाने से रोक नहीं पाया.मेरी ७० वर्षीया माँ जगरानी देवी भी मेरे साथ हो ली.हालांकि वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है लेकिन उसके कुछ सीखने के जज्बे को देखते हुए मैं उसे साथ ले जाने से मना नहीं कर पाया.लेकिन जब हम सोनपुर स्टेशन पहुंचे तो पाया कि रेल प्रदर्शनी देखने के लिए लोगों की भारी भीड़ जमा है.इसमें भी ९० प्रतिशत स्कूली बच्चे थे तो कई कूड़ा-कोयला चुननेवाली महिलाएं भी पंक्तियों में लगी थीं.कई युवाओं को यह कहते भी सुना कि यार अगर अख़बार में यह भी छपता कि यहाँ इतनी भीड़ जमा हो रही है तो मैं आता ही नहीं.खैर,यह तो आप भी जानते हैं कि मैं कमजोर ईरादोंवाला तो हूँ नहीं.वो कहते हैं न कि गिरते हैं शह सवार ही मैदाने जंग में,वो तल्ख़ क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलें.सो हमने पहले तो १ किलोमीटर लम्बी पंक्ति का सबसे पिछला सिरा खोजा और खड़े हो गए.पंक्ति में कई परिचितों को खड़ा पाकर जोश और बढ़ गया.
                          खैर,ये तो रहा दर्शकों का हाल.वास्तव में हमसे ज्यादा फटी हुई थी वहां उपस्थित व्यवस्थापकों की.एक फट्टू महाशय बार-बार कण्ट्रोल रूम को मोबाइल पर फोन किए जा रहे थे कि भीड़ काफी बढ़ गई है,क्या करुँ?बच्चे ज्यादा हैं,कोई भी हादसा हुआ तो आपलोग समझिएगा?शायद उनकी पूरी ज़िन्दगी किसी वातानुकूलित कमरे में गुजरी थी या फ़िर महाशय साइबेरिया-अन्टार्क्टिका जैसे किसी निर्जन स्थल से पधारे थे.श्रीमान बार-बार व्यवस्था में लगे एन.सी.सी. कैडेटों पर चिल्ला रहे थे जिसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा था पंक्ति में मस्ती में लगे गरीब बच्चों को.टाई-शू वाले भी मस्ती कर रहे थे और इनसे कहीं ज्यादा कर रहे थे.लेकिन वे तो ठहरे देश के भविष्य सो उन्हें कौन टोंकता?मेरे सामने मेरे मना करने पर भी कई मैले-कुचैले कपडे पहने गरीब बच्चों को लाईन से बाहर कर दिया गया.बेचारों की २ घन्टे की तपस्या पर इस जाड़े में ठंडा पानी डाल दिया गया.उन्होंने चुपचाप बस्ता उठाया और भारी मन से चल पड़े,अनजाने सफ़र पर.क्या पाता वे भविष्य में फ़िर से इस तरह की पंक्ति में खड़े होने की हिम्मत करें भी या नहीं?
                   जब हम १६ बोगियों वाली इस ट्रेन में दाखिल हुए तो पाया कि अन्दर भी पंक्ति लगाकर रखी गई है और हद तो यह है कि पंक्ति को रूकने नहीं दिया जा रहा है.मुझे गुस्सा आ गया और मैंने यह कहकर इसका विरोध किया कि लोग कुछ सीखने-जानने आए हैं कोई बाबा हरिहरनाथ का दर्शन करने नहीं आए हैं.फ़िर मैं अपनी माँ के साथ पंक्ति से हट गया और आराम से प्रदर्शनी देखने लगा.प्रदर्शनी थी बड़ी ज्ञानवर्धक.विज्ञान का ऐसा कोई कोना नहीं जिसके बारे में उसमें बताया नहीं गया हो.बीच-बीच में लड़के खड़े थे जो बता रहे थे कि कहाँ किस चीज का मॉडल है.एक जगह हमें एक भविष्य के उपग्रह के मॉडल के बारे में बताया गया कि यह भारत का पहला उपग्रह होगा.मैंने प्रतिवाद किया कि भारत का पहला उपग्रह तो आर्यभट्ट था तब बताया गया कि यह पूरी तरह से भारत में बना पहला उपग्रह होगा.देर तक मैंने हर बोगी में रूककर प्रदर्शनी देखी और माँ को भी दिखाया.कुछ कमी-सी भी लगी.हमें लगा कि आगंतुकों को कुछ पाठ्य-सामग्री भी देनी चाहिए थी.
                        हम तो पंक्ति से अलग हो चुके थे लेकिन पंक्तिबद्ध लोगों के प्रति व्यवस्था में लगे लोगों का रवैया अब भी वही था.बच्चों को इस तरह आगे बढाया जा रहा था जैसे इस प्रदर्शनी का कोई उद्देश्य ही नहीं हो.मैंने ऐसा करनेवाले एक वोलेंतियर से कहा भी कि भीड़ का ही डर था तो या तो इसे बिहार में लाना ही नहीं चाहिए था या फ़िर १०-१५ दिनों के लिए लाना था.तीन दिन के लिए लाओगे तो भीड़ तो होगी ही.गलत तो नहीं कहा.इस तरह की जल्दीबाजी से इस प्रदर्शनी ट्रेन से न तो छात्र विज्ञान की तरफ आकर्षित हो सकेंगे और न ही वैज्ञानिक समाज की स्थापना में ही मदद मिलेगी.मैं कई सालों से कहता आ रहा हूँ कि अपने देश में जो भी समस्या है वह सिर्फ व्यवस्था में है और जहाँ व्यवस्था ठीक भी है तो डरपोक अधिकारी व्यवस्था को सही नहीं रहने देते.ऐसा क्यों है कि अमेरिका की प्रयोगशालाएँ भारतीय वैज्ञानिकों से पटी पड़ी हैं और यहाँ देश में प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों का टोंटा पड़ा है.भारत के पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब भी हमारे बच्चों में विज्ञान के प्रति घटती अभिरूचि पर कई बार चिंता व्यक्त कर चुके हैं.इस तरह के औपचारिकतावश किए गए प्रयासों से तो ऐसा होने से रहा.इसके लिए विस्तृत योजना बनानी पड़ेगी.सुदूर-भीतरी ग्रामीण इलाकों तक ऐसी ट्रेनों को ले जाना पड़ेगा,वैज्ञानिकों को ले जाना पड़ेगा और फ़िर जो बच्चे विज्ञान को अपना जीवन बनाने को तैयार होंगे उन्हें कदम-कदम पर हर तरह से प्रोत्साहित करना पड़ेगा,सहायता करनी पड़ेगी.खर्च भी ज्यादा नहीं होगा,शायद २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में गई राशि से भी कम.वरना जो चलता है वही चलता रहेगा.पढ़ाने पर खर्च करेंगे हम और फायदा उठाएगा अमेरिका.

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

सुशासन-पीड़ित वृद्ध विधवा का मुख्यमंत्री के नाम पत्र


सेवा में,
श्रीमान मुख्यमंत्री महोदय,
बिहार सरकार,पटना.
विषय:विद्युत आपूर्ति अवर प्रमंडल,कोनहारा रोड,हाजीपुर कार्यालय के कर्मियों द्वारा ७० वर्षीया विधवा के घर मीटर नहीं लगाने और धमकी देने के सम्बन्ध में.
महाशय,
उपरोक्त विषय के सम्बन्ध में सूचित करना है कि मैं,कांति देवी,उम्र-७० वर्ष,पति-स्व.आर.एस.पी.सिंह,मो.-लक्ष्मीनगर(धनौती),गंगा ब्रिज कॉलोनी के सामने,पो.+थाना-इंडस्ट्रिअल एरिया,हाजीपुर में लगभग १५ महीनों से रहती हूँ.मैंने दिनांक-१२-११-२००९ को एस्टीमेट राशि तथा मीटर विद्युत विभाग के कोनहारा रोड कार्यालय में जमा कराया.लगभग १० दिन बाद पूछने गई तो कहा गया कि टाइम लगेगा.जल्दी काम चाहिए तो खर्चा-पानी देना पड़ेगा.मैं लौटने लगी तो विभाग के ही एक कर्मी ने मुझे कार्यालय की बाहरी दीवार पर लगे बोर्ड पर लिखे नियम का हवाला देकर कहा कि शहरी क्षेत्र में एस्टीमेट राशि तथा मीटर जमा होने पॉँच दिनों के भीतर ही कनेक्शन देने का प्रावधान है.आप निश्चिन्त हो बिजली का इस्तेमाल कर सकती हैं.ज्यादा-से-ज्यादा एस्टीमेट राशि जमा करने की तिथि से मीटर लगने की तिथि तक औसत बिलिंग के आधार पर आपसे राशि भुगतान करा ली जाएगी.मैंने भी सोंचा कि जंगलराज थोड़े ही है जो विभाग खुद गलती पर होते हुए मेरे विधवा और वरिष्ठ महिला नागरिक होने का भी खयाल नहीं करेगा और फ़िर यह तो सुशासन सरकार है.इसके बाद विद्युत उपभोग शुरू करने के दो दिनों के अन्दर ही विद्युत बोर्ड के वीर अधिकारियों ने खुद के बनाए नियम को लात मरते हुए मुझपर बिजली चोरी के इल्जाम में एफ.आई.आर. संख्या-६८७/०९,दिनांक-०४-१२-०९ के आधार पर २५,००० रूपये का जुर्माना लगा दिया.यहाँ मेरा सबसे बड़ा अपराध यही है कि मैं पांचवीं पास हूँ और बिजली विभाग द्वारा जो नियम बताया जाएगा,उतना ही समझ सकती हूँ.मैंने कर्ज लेकर दिनांक-०७-१२-०९ को २५००० रूपया जमा करा दिया (रसीद की छाया-प्रति संलग्न).इसके बाद भी बोर्ड कार्यालय कई बार गई,लेकिन मीटर नहीं लगाया गया.
                    मेरे बेटे ने आर.टी.आई. द्वारा सूचना मांगनी चाही तो आवेदन नहीं लिया गया.हारकर पोस्ट द्वारा भेजा.जानकारी की जगह धमकी दी गई कि इस बार ऐसी धारा लगाकर फंसाऊंगा कि माँ तो क्या,बेटा भी ज़िन्दगी भर जेल में सड़ेगा.आर.टी.आई. का भी जवाब ऐसा आया,जिसमें कोई उत्तर ही नहीं था(छाया-प्रति संलग्न).धमकी के डर से मैंने अपने बेटे को अपील में जाने से रोक दिया.इसके बाद मैंने दो आवेदन दिनांक-१६-०१-२०१० एवं २९-१०-२०१० को लिखकर (अपनी उम्र और विधवा होने का हवाला देकर)डाक से भेजा.फ़िर भी मीटर नहीं लगाया गया और न ही कोई कारण ही बताया गया.
                     मीटर जमा कराने पर विद्युत बोर्ड,हाजीपुर के कर्मी अपनी गलती को आवेदक के सिर मढने की नीयत से मीटर प्राप्ति की रसीद नहीं देते हैं.इस तथ्य का सत्यापन उन उपभोक्ताओं से हो सकता है जिन्होंने मीटर जमा कर दिया हो.शायद ही कोई प्राप्ति रसीद दिखा पाएगा.
             दिनांक-१०-०१-२०११ को अक्षयवट राय स्टेडियम,हाजीपुर में लगी बिजली अदालत में बड़ी उम्मीद के साथ गई.वहां भी एस.डी.ओ.,विद्युत बोर्ड के सहयोगी ने वर्ष २०११ की अपनी डायरी में १० जनवरी तिथिवाले पृष्ठ पर क्र.सं.-(१) में कांति देवी,लक्ष्मी नगर धनौती,औद्योगिक थाना क्षेत्र,एफ.आई.आर.सं.-६८७/०९,दिनांक-०४-१२-२००९ लिखा,लेकिन मीटर लगाने के लिए कुछ नहीं लिखा.कहा गया ऑफिस आइयेगा,वहीँ देखेंगे.
                         अब अंतिम उम्मीद के रूप में आपको लिख रही हूँ.साथ ही यह निवेदित भी कर रही हूँ कि ७० वर्ष की वृद्धवस्था में मौसम की मार झेल पाने की असमर्थता के कारण मैं दिनांक-१२-०१-११ से बिजली कनेक्शन जोडवा कर उपभोग शुरू करने को विवश हूँ.आप चाहे उक्ति तिथि से मेरे लिए विद्युत सेवा बहाल समझ कर बिल भेजें या अपराधी समझकर जुर्माना ठोकें.आपकी नजर में अगर मैं दोषी हूँ,तो मैं बिना किसी हिचक के जेल जाने को तैयार हूँ.मुझे पूर्ण विश्वास है कि जेल के कैदी भी विद्युत बोर्ड,हाजीपुर कार्यालय के अधिकारियों/कर्मियों से अधिक्र संवेदनशील होंगे और चोरनी की जगह चाची,दादी या दीदी जैसा सम्मान जरूर देंगे.
                अगर उपरोक्त तथ्यों की जाँच एवं तदनुसार सुधार की इच्छा हो,तो मेरे द्वारा लिखे गए वाक्यों के बाल की खाल न निकालकर,उनके निहितार्थों को समझने की कृपा करेंगे और खुद गलती पर रहकर निरीहों को गलती करने के लिए मजबूर करने और फ़िर उन्हें पकड़कर चोर-चोर चिल्लानेवाले अधिकारियों एवं कर्मियों के विरुद्ध समुचित कार्रवाई करने की कृपा करेंगे.
                                                          विश्वासभाजन,
                                                          कांति देवी,
                                                          पति-स्व.प्रो.आर.एस.पी.सिंह,
                                                          लक्ष्मी नगर,गंगा ब्रिज कॉलोनी के सामने,                                                            पो.+थाना-इंडस्ट्रिअल एरिया,
                                                          हाजीपुर (वैशाली)
                                                          एस्टीमेट सं.-७३४-०९-१०
पुनश्च-यह पत्र दिनांक ११-०१-२०११ को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी को स्पीड पोस्ट से भेजा गया था.लेकिन अब तक न तो विधवा कांति देवी के घर में बिजली का मीटर ही लगा है और न ही मीटर नहीं लगने के लिए दोषी अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई ही की गई है.साथ ही इसकी प्रतिलिपि ऊर्जा मंत्री,बिहार,संपादक,दैनिक जागरण और अध्यक्ष,बिहार राज्य विद्युत बोर्ड को भी उक्त तिथि को ही भेजी गई थी.

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

प्रायश्चित करे केंद्र सरकार

मित्रों वर्तमान केंद्र सरकार की असीम अनुकम्पा से हमारा देश एशिया का दूसरा भ्रष्टतम देश बन गया है.शीर्ष पर अभी इंडोनेशिया है.अगर हमें शर्मनाक शिखर पर पहुँचने से बचना है और अपनी स्थिति सुधारनी है तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार पर लगातार दबाव बनाए रखना होगा.अगर हमने ऐसा नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब भारत बड़े ही शर्म के साथ एशिया ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे भ्रष्ट देश घोषित किया जाएगा और इसके लिए कहीं-न-कहीं हम और आप सभी दोषी होंगे.
                    मित्रों जैसा कि आप सभी जानते हैं कि इस समय के केंद्रीय मंत्रिमंडल में योग्य लोगों की कोई कमी नहीं है.कोई ईमानदारी में नंबर वन है तो कोई सरकारी कामकाज में.लेकिन अंग्रेजी में एक कहावत है कि हैंडसम इज दैट हैंडसम डज.कहने का तात्पर्य यह कि भले ही केंद्र सरकार में योग्यतम लोगों की भीड़ है सरकार का प्रदर्शन तो बड़ा ही निम्न है.नाम बड़े और दर्शन छोटे.ऐसे में मंत्रियों की तुलना में मंदबुद्धि हमलोगों का यह कर्तव्य हो जाता है कि हम सरकार को उसके कर्तव्यों की याद दिलाएं.
                              मित्रों पिछले कई महीनों से २-जी स्पेक्ट्रम घोटाला चर्चा के केंद्र में है.कल ही पूर्व संचार मंत्री राजा की गिरफ़्तारी हुई है और केंद्र इसको लेकर खुद अपनी ही पीठ ठोंकने में लगा है कि हम न कहते थे कि हम भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर हैं.अगर भ्रष्ट नेताओं के कुछ दिनों के लिए जेल चले जाने से ही भ्रष्टाचार समाप्त हो जाता तो राजनीति में पीएच.डी. लालूजी तो कई बार जेल जा चुके हैं.तो क्या इससे भ्रष्टाचार की सेहत पर कोई प्रभाव पड़ा है,नहीं न?२-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में अभी तो कानूनी दांवपेंच शुरू ही हुआ है.दिल्ली में बैठे कांग्रेसी नेताओं,राजा को सजा मिलना तो अभी दिल्ली दूर है.कहीं ऐसा न हो कि मामला ठंडा पड़ते ही केंद्र भी ठंडा पड़ जाए और राजा फ़िर से बाहर आ जाएँ;जैसा कि माननीय लालूजी के केस में हुआ भी है.
                     केंद्र सरकार को चाहिए कि राजा और अन्य दोषियों की सारी नामी-बेनामी संपत्ति जब्त करे.लेकिन अगर ऐसा हो भी जाता हैं तो उससे पौने २ लाख करोड़ रूपये की भरपाई होनी तो मुश्किल ही है.इसलिए केंद्र की इस जानबूझकर की गई गलती का एकमात्र प्रायश्चित यही हो सकता है कि राजा के समय आवंटित सारे २-जी स्पेक्ट्रमों को रद्द कर फ़िर से निविदा आमंत्रित कर इन २-जी स्पेक्ट्रमों की दोबारा नीलामी की जाए.तभी सरकारी खजाने को लगी चपत की भरपाई हो पाएगी.साथ ही अगर यह दोहरी नीति अपनायी गई तो भ्रष्टाचारियों को भी भविष्य के लिए सबक मिलेगी.चूंकि इस मामले में घूस देकर सरकारी नीतियों को प्रभावित करने वाले लोग भी भ्रष्टाचार के लिए कम दोषी नहीं हैं,इसलिए भी राजा के कार्यकाल में आवंटित २-जी स्पेक्ट्रमों को रद्द किया जाना चाहिए और पारदर्शी तरीके से फ़िर से इनकी नीलामी की जानी चाहिए.आप जानते हैं कि केंद्र कह सकता है कि क्योंकि मामला इस समय न्यायालय में विचाराधीन है;इसलिए जो न्यायालय कहेगा वही करेंगे.लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अदालत सजा दे सकती है नीतियों में बदलाव नहीं कर सकती.नीतिगत कदम जैसे आवंटन रद्द करना,नीलामी के तरीके में परिवर्तन करना और नए व पूर्ण पारदर्शी नियमों के आधार पर फ़िर से स्पेक्ट्रमों की नीलामी करने का काम तो केवल और केवल केंद्र सरकार ही कर सकती है.चाहे स्वतः करे या न्यायालय के आदेश से करे.तो फ़िर उसे इस शुभकाम में विलम्ब नहीं करना चाहिए.अगर केंद्र सरकार तत्परतापूर्वक ऐसा नहीं करती है तो फ़िर यही माना जाएगा कि वह भ्रष्टाचार के प्रति बगुला भगत की नीति अपना रही है,विशुद्ध ढोंग और दिखावे की नीति.

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

डॉक्टरों की हड़ताल,गरीबों पर मौत का कहर

हमारे देश में डॉक्टरों को धरती पर विचरण करनेवाले भगवान का दर्जा दिया जाता है.मैं और आप सभी का जीवन कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी डॉक्टर की देन है.बचपन में मेरा बायाँ हाथ कोहनी के पास से टूट गया था तब डॉ. आरसी राम ने शल्य चिकित्सा द्वारा मुझे विकलांग होने से बचा लिया था.मैं सोंचता हूँ कि अगर डॉक्टर नहीं होते तो न तो मैं होता और न ही मेरा परिवार ही.
                लेकिन समय के साथ घटते सामाजिक मूल्यों ने डॉक्टरी को भी पेशे में बदल दिया है.आज इससे बेहतर कोई व्यवसाय नहीं है.मरीजो की मजबूरी का भरपूर लाभ उठाईये और उन्हें लूट लीजिए.आज से बीस-पच्चीस साल पहले जब बिहार सरकार ने सरकारी डॉक्टरों से निजी प्रैक्टिस बंद करने को कहा था तो पटना के कई लब्धप्रतिष्ठित डॉक्टरों ने सरकारी नौकरियों से ही त्यागपत्र दे दिया था.तब से गंगा के प्रवाह में भारी कमी आ चुकी है और कमी आ चुकी है इस पेशे से जुड़े लोगों की संवेदनाओं में.आज निजी नर्सिंग होम खोलकर बैठे डॉक्टर मरीजों को एटीएम की मशीन समझते हैं.जब जितना चाहा उतना धन निकाल लिया.पटना में तो कई डॉक्टर रिक्शेवालों को मरीज लाने पर कमीशन भी देते हैं.कई बार तो निजी नर्सिंग होम वाले मनमाफिक पैसा नहीं देने पर मरीजों के साथ मारपीट भी करते हैं.बच्चे बदल देने की घटनाएँ भी इनमें खूब होती हैं.
                       यह तथ्य किसी से छिपा हुआ नहीं है कि कुछ अपवादों के साथ सारे प्राइवेट नर्सिंग होम के डॉक्टर कहीं-न-कहीं सरकारी डॉक्टर भी हैं.सरकारी नौकरी से सिर्फ वेतन उठाया जाता है,९९ प्रतिशत डॉक्टर तो कभी ड्यूटी पर जाते ही नहीं है.यहाँ मैं ग्रामीण क्षेत्रों में पदस्थापित चिकित्सकों की बात कर रहा हूँ.सरकार समय-समय पर यह घोषणा करके कि डॉक्टरों को गांवों में ड्यूटी करने के लिए बाध्य किया जाएगा,जनता को कोरी सांत्वना देती रहती है.मजबूरन गाँव का गरीब आदमी बीमार होने पर शहर के बड़े सरकारी अस्पताल की ओर रूख करता है और जब वहां ईलाज शुरू होता है तो पता चलता है कि डॉक्टरों ने तो हड़ताल कर दी है.मुद्दा चाहे जो भी हो,कारण चाहे जो भी हों;मरता सिर्फ और सिर्फ गाँव का गरीब है.पैसेवालों का क्या,वे तो महंगे निजी अस्पतालों में भी ईलाज करा लेते हैं.गरीब हड़ताल से पहले आता तो अपने पैरों पर चलकर है,जाता चार कन्धों पर सवार होकर.अस्पताल से छुट्टी तो मिलती ही है;दुनिया से भी छुट्टी मिल जाती है.
            मैं जब कॉलेज में था तब मेरे एक रसायन शास्त्र के शिक्षक जिनकी विद्वता का मैं आज भी आदर करता हूँ,कभी कॉलेज में सिलेबस पूरा नहीं करते थे.५० मिनट के क्लास में वे ३०-४० मिनट तक चुटकुला सुनाते रहते.वे ऐसा क्यों करते थे?क्योंकि उनका ट्यूशन खूब चलता था और अगर वे कक्षा में ही सबकुछ पढ़ा देते तो फ़िर ट्यूशन में कोई आता ही क्यों?मुझे लगता है कि डॉक्टरों की इन हड़तालों के पीछे भी एक कारण तो यह है ही.इन दिनों बिहार में उनके द्वारा किए गए हड़ताल को ही लीजिए.राज्य के सबसे बड़े अस्पताल पीएमसीएच में भर्ती सारे समर्थ मरीज निजी नर्सिंग होम की तरफ पलायन कर गए हैं और कर रहे हैं.जिनके पास पैसा नहीं वे यहीं रूककर हड़ताल के टूटने का इंतजार कर रहे हैं.उनमें से कईयों की इस इंतजार में सांसों की डोर ही टूट गई हैं.
                    रोजाना ५०-१०० लाशें पीएमसीएच से बाहर निकल रही हैं और सरकार मूकदर्शक बनी हुई है.सरकार क्यों नहीं डॉक्टरों पर अनुशासन का डंडा चला रही?सरकारें चाहे डॉक्टरों की हड़ताल दिल्ली में हो या पटना में या मुम्बई-चेन्नई में;इनके आगे इतनी लाचार क्यों हो जाती हैं?क्या ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इससे फायदा अंततः सरकार को ही है.मरनेवालों में अधिकतर बीपीएल हैं और इनकी मृत्यु से सरकारी फंड पर बोझ कम हो रहा है.गरीबी तो नहीं मिटी है और न ही मिटेगी,गरीब जरूर मिट जाएँगे;पूरी तरह से नहीं तो अंशतः ही सही.

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

तिब्बतियों से अतिथि धर्म का पालन सुनिश्चित कराये केंद्र

भारत में युगों-युगों से अतिथियों को देवता माना जाता रहा है-अतिथि देवो भव.लेकिन कभी-कभी निहित स्वार्थी तत्व हमारी इस सदाशयता का बेजा फायदा उठा लेते हैं.इन दिनों ऐसी ख़बरें आ रही हैं कि भारत में शरण लिए तिब्बती बौद्ध-गुरु करमापा लामा वास्तव में चीनी एजेंट हैं.
                          हितोपदेश के अनुसार जब तक आग लकड़ी में सटती नहीं है तब तक लकड़ी को जला नहीं सकती उसी तरह किसी को धोखा देने से पहले जरुरी होता है कि उसका विश्वास हासिल किया जाए अर्थात मित्रता की जाए.करमापा ने भी शायद यही नीति अपनायी.हालांकि जाँच अभी आरंभिक दौर में है फ़िर भी अगर हमारी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने करमापा पर आरोप लगाए हैं तो यह उम्मीद करना बेमानी नहीं होगी कि उनके पास इस बात के पुख्ता सबूत अवश्य होंगे.
                    चीन की विदेश नीति जिस प्रकार की रही है उसे देखते हुए अगर आरोप सच हों तो भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.चीन की  कम्युनिस्ट पार्टी सिर्फ चीन तक अपनी तानाशाही के सीमित रहने से बिलकुल भी संतुष्ट नहीं है और वह पूरी दुनिया पर चीनी तानाशाही स्थापित करना चाहती है.हालांकि वह इन दिनों अरब देशों में तानाशाहों के विरुद्ध भड़के असंतोष को देखकर घबरा गई है और उसने इन्टरनेट पर ईजिप्ट और ट्यूनीशिया सर्च करने पर रोक लगा दी है.कभी १८वीं-१९वीं शताब्दियों में फ़्रांस और यूरोप के बारे में कहा जाता था कि जब भी फ़्रांस को जुकाम होता है तो पूरा यूरोप छींकने लगता है.तब पूरा यूरोप फ़्रांस में तानाशाही के स्थान पर लोकतंत्र की स्थापना से डरा हुआ था.उसे इस बात का भय था कि कहीं नए विचारों की हवा उनकी जनता को भी न लग जाए.आज के चीन की भी वही हालत है.जुकाम अरब को हुआ है और छींक चीन को आ रही है.
                               चीन की चाहे जो भी कूटनीति हो,जो जैसा करेगा वैसा भरेगा.जहाँ तक करमापा का प्रश्न है तो अगर करमापा के नेतृत्व में तिब्बती भारतीय भूमि पर कब्जे की कोशिश कर रहे हैं और इस बात में अगर थोड़ी-सी भी सच्चाई है तो करमापा को उनके अनुयायियों सहित तत्काल बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए.हम अतिथि को भले ही देवता मानते हैं लेकिन हम यह हरगिज बर्दाश्त नहीं कर सकते कि कोई अतिथि अपनी मर्यादा का उल्लंघन करते हुए हमारे ही यानी मेजबानों के घरों पर कब्ज़ा कर ले या ऐसा करने का प्रयास करे.हमारी भलमनसाहत को बाहरी दुनिया का कोई भी देश या व्यक्ति हमारी कमजोरी नहीं समझ ले यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी भारत सरकार की है.
                  भारत न तो इराक है और और न ही उत्तरी कोरिया.भारत सवा अरब की विशाल आबादी वाला मजबूत मुल्क है.इसे इसके गद्दार नेताओं-अफसरों ने खोखला कर दिया है अन्यथा चीन या दूसरे किसी भी देश की क्या बिसात जो भारत की तरफ आँख उठाकर भी देखे.अब तक भारत के विदेश मंत्री ने ऐसी कोई महत्वपूर्ण सफलता हासिल नहीं की है जिसे दुनिया के कूटनीतिक इतिहास में मील का पत्थर कहा जा सके.चीन तो फ़िर भी चीन है इस समय तो श्रीलंका भी भारत को घुड़कियाँ दे रहा है.तो क्या हम यह समझें कि हमारे विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा करमापा मामले को भली-भांति संचालित कर पाएँगे और भारत की जनता चीन-तिब्बत से आए आस्तीन के साँपों से उत्पन्न खतरों से निश्चिन्त हो पाएगी?