सोमवार, 26 नवंबर 2012

श्रीलंका में अविलंब प्रभावी हस्तक्षेप करे भारत सरकार

मित्रों,इतिहास गवाह है कि भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में बौद्ध धर्म सर्वप्रथम मौर्य सम्राट अशोक महान के शासन-काल में पहुँचा। अशोक ने अपने बेटे महेन्द्र और बेटी संघमित्रा को बोधिवृक्ष की टहनी देकर श्रीलंका भेजा था। जल्दी ही ऐसी स्थिति भी आई जब बौद्ध धर्म श्रीलंका का बहुसंख्यक धर्म बन गया और सनातन हिंदू धर्म अल्पसंख्यक। फिर भी दोनों के बीच कहीं कोई वैमनस्यता नहीं थी। यह जानकर आपको घोर आश्चर्य होगा कि श्रीलंका के बौद्धों की भाषा सिंहली मागधी अपभ्रंश से निकली हुई है और इसलिए भौगोलिक रूप से श्रीलंका के बिहार से काफी दूर होने के बावजूद बिहारी हिंदी से वह काफी मिलती-जुलती है।
                    मित्रों,भारत की ही तरह श्रीलंका में भी साम्प्रदायिकता का विकास आधुनिकता की देन है। जबतक देश गुलाम था श्रीलंका के हिंदू सांस्कृतिक रूप से आजाद थे लेकिन देश के आजाद होते ही श्रीलंकाई हिंदुओं के साथ व्यापक पैमाने पर भेदभाव शुरू हो गया। जिस श्रीलंका में वर्ष 1897 में शिकागो-वक्तृता के बाद स्वामी विवेकानंद का अभूतपूर्व स्वागत हुआ था और जिस श्रीलंका के तबके बौद्ध युवा स्वामी जी की गाड़ी में घोड़े की जगह जुत जाने को अपना सौभाग्य मान रहे थे उसी श्रीलंका में हिंदू धर्म के गर्भ से ही ढाई हजार साल पहले निकले धर्म के बहुसंख्यक अनुयायियों ने आजादी मिलने के साल में ही 1948 में हिंदुओं से उसकी नागरिकता छीन लेने का कुत्सित प्रयास किया। 1956 में बहुमत के बल पर सिंहली को श्रीलंका की आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया गया और तमिल हिंदुओं ने जब इसका विरोध किया तो बौद्ध हिंसा पर उतारू हो गए। इस प्रकार श्रीलंका में पहली बार तमिल विरोधी दंगे 1956 में हुए और फिर तो इसका सिलसिला ही चल पड़ा। जब जी चाहा बौद्धों ने हिंदुओं का नरसंहार किया,बलात्कार किए और धन-धर्म सब लूट लिया। बाद के सालों में उनको जानबूझकर सरकारी नौकरियों में नहीं आने दिया गया। अंततः जब स्थिति असह्य हो गई तब मरता क्या न करता की नीति पर चलने को लाचार तमिल हिंदुओं ने एलटीटीई का गठन किया और ईट का जवाब पत्थर से देने लगे। इस कार्य में उनकी यथासंभव मदद की भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने। लेकिन जब उनका महामूर्ख बेटा प्रधानमंत्री बना तो उसने श्रीलंका सरकार की कूटनीति को समझने में भारी भूल कर दी और जबकि श्रीलंका की सरकार ने वादे के अनुसार तमिलों के कल्याणार्थ कोई भी कदम नहीं उठाया था तमिलों को निहत्था करने के लिए भारतीय शांति सेना भेज दी। अब श्रीलंका में बड़ी ही दुःखद स्थिति बन गई थी। हिंदू ही हिंदू के खिलाफ लड़ रहे थे और एक-दूसरे को मार रहे थे। श्रीलंका की सरकार ने फिर भी भारतीय सेना पर ही उल्टे अनगिनत आरोप लगाए और अंततः भारतीय सेना अपने एक हजार से ज्यादा जाबांजों को गंवाने के बाद अपने उद्देश्य को पूरा किए बगैर ही बेआबरू होकर वापस लौट आई।
                     मित्रों,1991 के मध्यावधि चुनाव में जब कांग्रेस के फिर से जीतने के पूरे आसार थे तभी अपने अस्तित्व और भविष्य को लेकर भयभीत तमिल टाईगर्स ने राजीव गांधी की हत्या कर दी और तभी से कांग्रेस श्रीलंकाई तमिलों के हितों के प्रति न केवल उदासीन हो गई बल्कि उसकी वर्तमान सरकार ने तो अस्त्र-शस्त्र और प्रशिक्षण द्वारा श्रीलंका सेना की भरपूर मदद भी की है और कर रही है। 17-18 मई,2009 को तमिल टाईगर्स की पराजय और गृह-युद्ध के समाप्त होने से पहले कई महीनों तक श्रीलंकाई सेना और बौद्ध नागरिकों ने तमिल हिंदुओं पर जुल्मों-सितम का ऐसा कहर ढाया जिसे देखकर कदाचित् उनके अराध्य करूणावतार भगवान बुद्ध की आत्मा भी काँप गई होगी। लगभग 40 हजार तमिलों की सामूहिक हत्या कर दी गई जिनमें बहुत-सी महिलायें और बच्चे भी शामिल थे। हजारों महिलाओं के साथ श्रीलंकाई सेना ने सामूहिक बलात्कार किया और फिर उनके हाल पर छोड़ दिया। यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं किया और सितंबर 2008  में अपने कर्मचारियों को श्रीलंका से हटा लिया। मूंदहूँ आँख कतहूँ कछु नाहिं। यहाँ तक कि दक्षिणी प्रांत के प्रसिद्घ सैलानी शहर बेनटोटा में रहनेवाले तमिल समुदाय के लोगों को 2007 में ही पुलिस ने हिदायत दी थी कि वे अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए वहां से बाहर चले जाएँ। आज जबकि गृह-युद्ध को समाप्त हुए साढ़े तीन साल बीत चुके हैं तब भी पुलिस किसी भी तमिल को घर-बाजार-खेत से उठा ले रही है और उन पर पूर्व तमिल टाईगर्स होने के आरोप लगा दे रही है। आज भी श्रीलंका के तमिल काफी डरे-सहमे हैं और कोई भी तमिल अपना मुँह तक खोलने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है सरकार का विरोध करने या कुछ मांग करने की तो बात ही दूर रही। आज भी वहाँ के आम सिंहली नागरिक सरकार की शह पर तमिल हिंदुओं का अपहरण,हत्या और बलात्कार कर रहे हैं। आज भी दर्जनों तमिल हिंदू रोज भारत में शरणार्थी बनकर आ रहे हैं। वर्तमान काल में श्रीलंका में हिंदुओं की जो स्थिति है उससे तो यही लगता है कि वहाँ की सरकार और बहुसंख्यक बौद्ध जनता यह चाहती ही नहीं है कि उसके देश में एक भी तमिल हिंदू रहे। उनको जब मानव माना ही नहीं जा रहा है तो फिर इस आलेख में उनके मानवाधिकारों की बात करना ही बेमानी होगी।
                              मित्रों,आज श्रीलंका में भले ही रावण नहीं हो लेकिन वहाँ के बौद्धों का हिन्दुओं के प्रति व्यवहार रावण से कुछ कम भी नहीं है। कभी राम ने श्रीलंका पर आक्रमण कर सीता का उद्धार किया था और श्रीलंका में धर्म का राज्य स्थापित किया था। आज के श्रीलंका में हिंदू जबरन खानाबदोश बना दिए गए हैं। खुलेआम उनका अपहरण हो रहा है,बलात्कार हो रहा है और बदले में भारत सरकार कोई प्रभावी कदम नहीं उठा रही है। आज भी वहाँ की सेना और पुलिस हिंदुओं को सिर्फ हिंदू होने के जुर्म में घरों से उठा ले रही है और जबर्दस्ती यह स्वीकार करवाने की कोशिश करती है कि वह तमिल टाईगर्स का पूर्व सदस्य रह चुका है। क्या वे हिंदू मानव नहीं है और उनका कोई मानवाधिकार नहीं है? हमने देखा कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी उनके मानवाधिकारों की रक्षा करने में कोई प्रभावी अभिरूचि नहीं दिखाई है। अब तक तो शायद मदर इंडिया सोनिया गांधी का बदला भी पूरा हो गया होगा क्योंकि एक राजीव गांधी के बदले पिछले 21 सालों में 1 लाख से भी ज्यादा तमिल मारे जा चुके हैं,हजारों तमिल महिलाओं की अस्मत लूटी जा चुकी है। क्या भारत सरकार ने श्रीलंका के हिंदुओं की रक्षा के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाने की कसम उठा रखी है? क्या वह भी श्रीलंका की कथित धर्मनिरपेक्ष सरकार की तरह यह चाहती है कि श्रीलंका में सनातन धर्म का कोई नामलेवा ही नहीं रहे? क्या उस स्थिति में हम भारतीय हिंदू भी मूकदर्शक बने रहेंगे और शांतिपूर्वक कांग्रेस को ही वोट देते रहेंगे? क्या हमारे ऐसा करने से हमारा हिंदू धर्म मजबूत होगा या देश मजबूत होगा? माना कि हम हिंदुओं ने कभी तलवार के बल पर अपने धर्म का विस्तार करना नहीं चाहा लेकिन जब कोई दूसरा धर्म हमारे धर्म को तलवार के बल पर जड़-मूल से ही समाप्त कर देने की कोशिश करे तब भी तलवार तो क्या जुबानी आवाज तक नहीं उठाना क्या हमारी वीरता का परिचायक है या होगा?

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