मित्रों,बिहार में नीतीश कुमार की सरकार जब 2005 में पहली बार सत्ता में आई तो उसके समक्ष जैसे समस्याओं का पहाड़ खड़ा था। दुर्भाग्यवश उसको ऐसी सरकार का उत्तराधिकारी बनना पड़ा था जिसने बिहार को हर तरह से बर्बाद करके रख दिया था। नीतीश सरकार ने सबसे पहले आशानुरूप कानून-व्यवस्था को दुरूस्त किया। मुख्यमंत्री के रूप में उनके पहले कार्यकाल में फिरौती के लिए अपहरण और रंगदारी का धंधा लगभग बंद ही हो गया। शांति का माहौल बना तो बिहार का विकास भी होने लगा और इतनी तेजी से हुआ कि देश के साथ-साथ पूरी दुनिया के लिए विकास का नीतीश मॉडल चर्चा और शोध का विषय बन गया। स्वयं भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार पिछले कई सालों से बिहार में जीडीपी की वृद्धि-दर पूरे भारत में सबसे तेज रही है।
मित्रों,नीतीश कुमार जब पिछले विधानसभा चुनावों में वोट मांगे जनता के दरवाजे पर पहुँचे तो उन्होंने वोट नहीं मांगा बल्कि सेवा के बदले मजदूरी मांगी और बिहार की गद्गद् जनता उनको क्या खूब मजदूरी दी! तीन चौथाई से भी ज्यादा (लगभग 84%) बहुमत से जिताकर फिर से बिहार सजाने-संवारने की जिम्मेदारी उनको सौंप दी। परन्तु इस बार जब नीतीश मुख्यमंत्री बने तो जैसे उनका कायांतरण हो चुका था। अब उनके मन में सेवकभाव का अभाव था और स्वामीभाव जन्म ले चुका था। उन्होंने लगातार विध्वंसात्मक व उटपटांग निर्णय लिए। योग्यता की जगह अब चापलूसी उनको ज्यादा रास आने लगी थी। शनैः-शनैः अच्छे और योग्य अधिकारी किनारे लगा दिए गए। चापलूसों की मौज हो गई जिसका असर जल्दी ही शासन-प्रशासन पर पड़ने और दिखने लगा। कानून-व्यवस्था पर उनकी पकड़ ढीली पड़ने लगी और आपराधिक तत्त्व फिर से सिर उठाने लगे। तृणमूल स्तर पर पुलिस का रवैय्या भी बदलने लगा। अब वह फिर से जनपीड़क की सनातन भूमिका में खुलकर आने लगी। अपहरण का बाजार फिर से गर्म होने लगा। बलात्कारियों ने कुछ इस प्रकार से आतंक मचाया कि लड़कियाँ अपने घर में भी सुरक्षित नहीं रह गईं। बिना रंगदारी दिए अब कोई न तो बिहार की सड़कों पर टेम्पो-बस ही चला सकता है और न तो सड़क य़ा पुल ही बनवा सकता है। जनता को भुलावा देने के लिए बिहार में सेवा का अधिकार कानून लागू कर दिया गया परन्तु बिना समुचित तैयारी के। परिणाम यह हुआ कि इसके कारण जनता को सुविधा मिलने के स्थान पर पहले से भी ज्यादा कष्ट होने लगा। क्या मजाल कि अब बिना घूस दिए जनता को किसी सरकारी योजना का लाभ मिल जाए या उसका काम हो जाए। मुद्रा-स्फीति के नित-नई ऊँचाइयाँ छूने के साथ ही रिश्वत की दरें भी बढ़ती रहीं। निगरानी ने कुछ लोगों को घूस लेते पकड़ा भी,कुछ टायर्ड-रिटायर्ड अफसरों की सम्पत्ति भी जब्त की परंतु उसके सारे कदम ऊँट के मुँह में जीरा के समान स्थितियों को सुधारने में नाकाफी और सांकेतिक साबित हुए। बाद में घूस लेते पकड़े गए लोगों को जब जनता ने फिर से पुराने पदों पर आसीन होते हुए देखा तो उसे यह बात समझते देर नहीं लगी कि घूस लेते हुए पकड़े गए लोग घूस देकर छूट जा रहे हैं। आज बिहार की जनता इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ हो चुकी है कि नीतीश-राज में निगरानी के अफसर ही सबसे ज्यादा भ्रष्ट हैं और सबसे ज्यादा आय से ज्यादा सम्पत्ति जोड़ रहे हैं। सबसे पहले तो इनकी सम्पत्ति की ही जाँच होनी चाहिए सिर्फ सम्पत्ति की स्वैच्छिक घोषणा करवा लेने से काम नहीं चलनेवाला। बीच में घूस लेते पकड़े गए कुछ लोगों को नौकरियों से बर्खास्त भी किया गया लेकिन अब न जाने क्यों ऐसा नहीं किया जा रहा है। भ्रष्टाचारियों की सम्पत्ति जब्ती का काम भी काफी कम पैमाने पर किया गया जबकि इसे अभियान की शक्ल में हर गांव और शहर में चलाया जाना चाहिए था। सूचना के अधिकार के नाम पर भी इन दिनों खूब दिखावा किया गया है और सिर्फ जुर्माने की घोषणा ही की जा रही है दोषियों से जुर्माने की राशि वसूली ही नहीं जा रही है फिर क्यों कोई अधिकारी-कर्मचारी जनता को सूचना दे? एक बार फिर से राशन-किरासन ग्रामीण गरीबों तक नहीं पहुँचने लगा हे और आपूर्ति अधिकारी रिश्वत खाकर खुद ही कालाबजारी को बढ़ावा दे रहे हैं। विद्यालयी शिक्षा की गाड़ी तो उनके पहले कार्यकाल में ही उनकी अयथार्थवादी नीतियों के कारण पटरी से उतर गई थी इस बार उच्च शिक्षा का भी उन्होंने बंटाधार कर दिया है और कर रहे हैं।
मित्रों,जनता नाराज और बेहाल थी कि नीतीश कुमार ने उसे भरमाने की ठान ली और रचा अधिकार-यात्रा का इंद्रजाल। मगर इस बार उनका तिलिस्म और उनका जादू बिल्कुल भी नहीं चल पाया। जनता हर जगह उनको हूट करने लगी और चेताने लगी कि विशेष राज्य का रोना रोना बंद करो और काम पर लग जाओ नहीं तो हम तुमको वहीं पहुँचा देंगे जहाँ कभी हमने लालू को पहुँचाया था। नीतीश ने भी देर से ही सही जनता की नाराजगी को महसूस किया और अधिकार-यात्रा को बीच में ही स्थगित कर दिया। मगर फिर भी अभी तक ऐसा लग नहीं रहा है कि वे जनता की वास्तविक समस्याओं को दूर करने के लिए व्यग्र हुए जा रहे हैं। हो सकता है कि उनको कोई मार्ग ही नहीं सूझ रहा हो। लेकिन ऐसा कैसे संभव है जबकि उन्होंने अपनी पहली पारी में कुल मिलाकर अच्छा काम किया था और जनता भी कुल मिलाकर उनसे खुश भी थी। जिस कानून-व्यवस्था को सुधारने को लेकर नीतीश सरकार को अब तक सबसे ज्यादा वाहवाही मिल रही थी आज उसी की बदहाली उनके लिए बदनामी का सबब बन रही है। नीतीश सरकार के लिए यह घोर शर्म की बात है कि मुजफ्फरपुर के मुख्य बाजार स्थित जवाहरलाल रोड से जिस लड़की नवरुणा का खिड़की तोड़कर घर में से 18 सितंबर को अपहरण कर लिया गया था उसका पुलिस डेढ़ महीने बाद भी पता नहीं लगा पाई है। न जाने वह अबला कहाँ और किस हाल में होगी? आतताइयों ने न जाने कितनी बार उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया होगा? इसी तरह वैशाली जिले के बिदूपुर थाने के मजलिसपुर गाँव से 4 सितंबर से ही गायब सविता देवी के 12 साला इकलौते बेटे मुन्ना कुमार का भी स्वयं मुख्यमंत्री के द्वारा हाजीपुर में सार्वजनिक तौर पर निर्देश देने के बावजूद पुलिस पता नहीं लगा पाई है। सविता देवी का रो-रोकर बुरा हाल है। इतना ही नहीं पुलिस द्वारा बरमेश्वर मुखिया हत्याकांड को भी नहीं सुलझा पाना भी सरकार की अक्षमता को ही दर्शाता है और दुर्भाग्यवश इस तरह के उदाहरणों की संख्या सैंकड़ों में है। जदयू के बाहुबली नेता मुन्ना शुक्ला द्वारा मुजफ्फरपुर केंद्रीय कारागार से ही पटना साहिब इंजीनियरिंग कॉलेज, भगवानपुर (वैशाली) के एमडी से दो करोड रूपये रंगदारी मांगने की घटना ने तो नीतीश सरकार पर से जनता के विश्वास की जैसे नींव ही हिला दी है। प्रश्न यह भी है कि जब जेल में मोबाईल फोन की सुविधा कैदी को उसके रसूख को देखकर या रिश्वत खाकर इस निजाम में भी दी जा रही है तो फिर यह शासन लालू-राबड़ी के शासन से अलग कैसे है या फिर इसे क्यों अलग मानना चाहिए? सच्चाई तो यह है कि जिस तरह पिछले महीनों में बिहार में कानून-व्यवस्था के मामले में अराजकता उत्पन्न हो रही है उससे तो अब बिहार की दस करोड़ जनता को फिर से लालू-राबड़ी का सर्वविनाशकारी शासन याद आने लगा है और यह डर भी सताने लगा है कि कहीं बिहार में फिर से जंगल-राज की वापसी तो नहीं होने जा रही। खगड़िया,नवादा,बेगूसराय और मधुबनी में पिछले दिनों जो कुछ भी हुआ उसके पीछे भी निश्चित रूप से विपक्षी पार्टियों की राजनीति से कहीं ज्यादा जनता का सरकार और उसकी नीतियों के प्रति बढ़ते अविश्वास का हाथ था। जनता ने राज्य के विभिन्न स्थानों पर विरोध दर्ज कराके नीतीश जी को बता दिया है,जता दिया है कि अब सिर्फ घोषणाओं से वह खुश नहीं होनेवाली है। घोषणाएँ करने और योजनाएँ बनाने का समय काफी पहले बीत चुका है अब एक्शन की घड़ी है और उसको धरातल पर काम चाहिए। तंत्र से भ्रष्टाचार कम होना चाहिए और उनका जीवन आसान और अधिक सुविधाजनक होना चाहिए। जंगल-राज उसे न तो पहले मंजूर थे और न तो आगे ही मंजूर होगा। नीतीश जी बिहार की दुःखी आम जनता की चीत्कारों को सुन रहे हैं या उन्होंने बिहाररूपी अनसुलझी पहेली को हल करने से हार मानकर फिर से विपक्ष में बैठने का मन बना लिया है यह तो आनेवाला वक्त ही बताएगा?
मित्रों,नीतीश कुमार जब पिछले विधानसभा चुनावों में वोट मांगे जनता के दरवाजे पर पहुँचे तो उन्होंने वोट नहीं मांगा बल्कि सेवा के बदले मजदूरी मांगी और बिहार की गद्गद् जनता उनको क्या खूब मजदूरी दी! तीन चौथाई से भी ज्यादा (लगभग 84%) बहुमत से जिताकर फिर से बिहार सजाने-संवारने की जिम्मेदारी उनको सौंप दी। परन्तु इस बार जब नीतीश मुख्यमंत्री बने तो जैसे उनका कायांतरण हो चुका था। अब उनके मन में सेवकभाव का अभाव था और स्वामीभाव जन्म ले चुका था। उन्होंने लगातार विध्वंसात्मक व उटपटांग निर्णय लिए। योग्यता की जगह अब चापलूसी उनको ज्यादा रास आने लगी थी। शनैः-शनैः अच्छे और योग्य अधिकारी किनारे लगा दिए गए। चापलूसों की मौज हो गई जिसका असर जल्दी ही शासन-प्रशासन पर पड़ने और दिखने लगा। कानून-व्यवस्था पर उनकी पकड़ ढीली पड़ने लगी और आपराधिक तत्त्व फिर से सिर उठाने लगे। तृणमूल स्तर पर पुलिस का रवैय्या भी बदलने लगा। अब वह फिर से जनपीड़क की सनातन भूमिका में खुलकर आने लगी। अपहरण का बाजार फिर से गर्म होने लगा। बलात्कारियों ने कुछ इस प्रकार से आतंक मचाया कि लड़कियाँ अपने घर में भी सुरक्षित नहीं रह गईं। बिना रंगदारी दिए अब कोई न तो बिहार की सड़कों पर टेम्पो-बस ही चला सकता है और न तो सड़क य़ा पुल ही बनवा सकता है। जनता को भुलावा देने के लिए बिहार में सेवा का अधिकार कानून लागू कर दिया गया परन्तु बिना समुचित तैयारी के। परिणाम यह हुआ कि इसके कारण जनता को सुविधा मिलने के स्थान पर पहले से भी ज्यादा कष्ट होने लगा। क्या मजाल कि अब बिना घूस दिए जनता को किसी सरकारी योजना का लाभ मिल जाए या उसका काम हो जाए। मुद्रा-स्फीति के नित-नई ऊँचाइयाँ छूने के साथ ही रिश्वत की दरें भी बढ़ती रहीं। निगरानी ने कुछ लोगों को घूस लेते पकड़ा भी,कुछ टायर्ड-रिटायर्ड अफसरों की सम्पत्ति भी जब्त की परंतु उसके सारे कदम ऊँट के मुँह में जीरा के समान स्थितियों को सुधारने में नाकाफी और सांकेतिक साबित हुए। बाद में घूस लेते पकड़े गए लोगों को जब जनता ने फिर से पुराने पदों पर आसीन होते हुए देखा तो उसे यह बात समझते देर नहीं लगी कि घूस लेते हुए पकड़े गए लोग घूस देकर छूट जा रहे हैं। आज बिहार की जनता इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ हो चुकी है कि नीतीश-राज में निगरानी के अफसर ही सबसे ज्यादा भ्रष्ट हैं और सबसे ज्यादा आय से ज्यादा सम्पत्ति जोड़ रहे हैं। सबसे पहले तो इनकी सम्पत्ति की ही जाँच होनी चाहिए सिर्फ सम्पत्ति की स्वैच्छिक घोषणा करवा लेने से काम नहीं चलनेवाला। बीच में घूस लेते पकड़े गए कुछ लोगों को नौकरियों से बर्खास्त भी किया गया लेकिन अब न जाने क्यों ऐसा नहीं किया जा रहा है। भ्रष्टाचारियों की सम्पत्ति जब्ती का काम भी काफी कम पैमाने पर किया गया जबकि इसे अभियान की शक्ल में हर गांव और शहर में चलाया जाना चाहिए था। सूचना के अधिकार के नाम पर भी इन दिनों खूब दिखावा किया गया है और सिर्फ जुर्माने की घोषणा ही की जा रही है दोषियों से जुर्माने की राशि वसूली ही नहीं जा रही है फिर क्यों कोई अधिकारी-कर्मचारी जनता को सूचना दे? एक बार फिर से राशन-किरासन ग्रामीण गरीबों तक नहीं पहुँचने लगा हे और आपूर्ति अधिकारी रिश्वत खाकर खुद ही कालाबजारी को बढ़ावा दे रहे हैं। विद्यालयी शिक्षा की गाड़ी तो उनके पहले कार्यकाल में ही उनकी अयथार्थवादी नीतियों के कारण पटरी से उतर गई थी इस बार उच्च शिक्षा का भी उन्होंने बंटाधार कर दिया है और कर रहे हैं।
मित्रों,जनता नाराज और बेहाल थी कि नीतीश कुमार ने उसे भरमाने की ठान ली और रचा अधिकार-यात्रा का इंद्रजाल। मगर इस बार उनका तिलिस्म और उनका जादू बिल्कुल भी नहीं चल पाया। जनता हर जगह उनको हूट करने लगी और चेताने लगी कि विशेष राज्य का रोना रोना बंद करो और काम पर लग जाओ नहीं तो हम तुमको वहीं पहुँचा देंगे जहाँ कभी हमने लालू को पहुँचाया था। नीतीश ने भी देर से ही सही जनता की नाराजगी को महसूस किया और अधिकार-यात्रा को बीच में ही स्थगित कर दिया। मगर फिर भी अभी तक ऐसा लग नहीं रहा है कि वे जनता की वास्तविक समस्याओं को दूर करने के लिए व्यग्र हुए जा रहे हैं। हो सकता है कि उनको कोई मार्ग ही नहीं सूझ रहा हो। लेकिन ऐसा कैसे संभव है जबकि उन्होंने अपनी पहली पारी में कुल मिलाकर अच्छा काम किया था और जनता भी कुल मिलाकर उनसे खुश भी थी। जिस कानून-व्यवस्था को सुधारने को लेकर नीतीश सरकार को अब तक सबसे ज्यादा वाहवाही मिल रही थी आज उसी की बदहाली उनके लिए बदनामी का सबब बन रही है। नीतीश सरकार के लिए यह घोर शर्म की बात है कि मुजफ्फरपुर के मुख्य बाजार स्थित जवाहरलाल रोड से जिस लड़की नवरुणा का खिड़की तोड़कर घर में से 18 सितंबर को अपहरण कर लिया गया था उसका पुलिस डेढ़ महीने बाद भी पता नहीं लगा पाई है। न जाने वह अबला कहाँ और किस हाल में होगी? आतताइयों ने न जाने कितनी बार उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया होगा? इसी तरह वैशाली जिले के बिदूपुर थाने के मजलिसपुर गाँव से 4 सितंबर से ही गायब सविता देवी के 12 साला इकलौते बेटे मुन्ना कुमार का भी स्वयं मुख्यमंत्री के द्वारा हाजीपुर में सार्वजनिक तौर पर निर्देश देने के बावजूद पुलिस पता नहीं लगा पाई है। सविता देवी का रो-रोकर बुरा हाल है। इतना ही नहीं पुलिस द्वारा बरमेश्वर मुखिया हत्याकांड को भी नहीं सुलझा पाना भी सरकार की अक्षमता को ही दर्शाता है और दुर्भाग्यवश इस तरह के उदाहरणों की संख्या सैंकड़ों में है। जदयू के बाहुबली नेता मुन्ना शुक्ला द्वारा मुजफ्फरपुर केंद्रीय कारागार से ही पटना साहिब इंजीनियरिंग कॉलेज, भगवानपुर (वैशाली) के एमडी से दो करोड रूपये रंगदारी मांगने की घटना ने तो नीतीश सरकार पर से जनता के विश्वास की जैसे नींव ही हिला दी है। प्रश्न यह भी है कि जब जेल में मोबाईल फोन की सुविधा कैदी को उसके रसूख को देखकर या रिश्वत खाकर इस निजाम में भी दी जा रही है तो फिर यह शासन लालू-राबड़ी के शासन से अलग कैसे है या फिर इसे क्यों अलग मानना चाहिए? सच्चाई तो यह है कि जिस तरह पिछले महीनों में बिहार में कानून-व्यवस्था के मामले में अराजकता उत्पन्न हो रही है उससे तो अब बिहार की दस करोड़ जनता को फिर से लालू-राबड़ी का सर्वविनाशकारी शासन याद आने लगा है और यह डर भी सताने लगा है कि कहीं बिहार में फिर से जंगल-राज की वापसी तो नहीं होने जा रही। खगड़िया,नवादा,बेगूसराय और मधुबनी में पिछले दिनों जो कुछ भी हुआ उसके पीछे भी निश्चित रूप से विपक्षी पार्टियों की राजनीति से कहीं ज्यादा जनता का सरकार और उसकी नीतियों के प्रति बढ़ते अविश्वास का हाथ था। जनता ने राज्य के विभिन्न स्थानों पर विरोध दर्ज कराके नीतीश जी को बता दिया है,जता दिया है कि अब सिर्फ घोषणाओं से वह खुश नहीं होनेवाली है। घोषणाएँ करने और योजनाएँ बनाने का समय काफी पहले बीत चुका है अब एक्शन की घड़ी है और उसको धरातल पर काम चाहिए। तंत्र से भ्रष्टाचार कम होना चाहिए और उनका जीवन आसान और अधिक सुविधाजनक होना चाहिए। जंगल-राज उसे न तो पहले मंजूर थे और न तो आगे ही मंजूर होगा। नीतीश जी बिहार की दुःखी आम जनता की चीत्कारों को सुन रहे हैं या उन्होंने बिहाररूपी अनसुलझी पहेली को हल करने से हार मानकर फिर से विपक्ष में बैठने का मन बना लिया है यह तो आनेवाला वक्त ही बताएगा?
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