सोमवार, 19 नवंबर 2012

एकता और अखंडता के लिए खतरा थे बाल ठाकरे

मित्रों, एक बड़ी पुरानी कहावत हमारे बीच आज भी बड़े ही चाव से कही और सुनी जाती है कि जंग और प्यार में सबकुछ जायज होता है लेकिन आज का बदले वक्त में तो कुछ भी नाजायज रह ही नहीं गया है और अगर आज कोई क्षेत्र इसका सबसे कम अपवाद है तो वो है राजनीति का क्षेत्र। यद्यपि कुछ लोग आज भी राजनीति के क्षेत्र में ऐसे हैं जिन्होंने अब तक भी अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया है लेकिन धीरे-धीरे ऐसे अपवादों की संख्या बड़ी तेजी से घटती जा रही है। हमारे राजनीतिज्ञ येन-केन-प्रकारेण अपने प्रति जनसमर्थन बढ़ाना चाहते हैं चाहे इससे देश को दीर्घकालिक संदर्भ में नुकसान ही क्यों न हो। हालाँकि देश की एकता और अखंडता को कमजोर करनेवाले कदम जानते-बूझते हुए वे लोग भी रोज ही उठा रहे हैं जो इसकी रक्षा करने और इसको अक्षुण्ण रखने की शपथ लेकर ही मंत्री और सांसद-विधायक बनते हैं फिर बाला साहब ने तो कभी कोई सरकारी पद ग्रहण ही नहीं किया। फिर भी उनकी राजनीति और रणनीति सिर्फ इस एक कारण से सही नहीं हो जाती। निश्चित रूप से बाल ठाकरे की सोंच संकुचित थी और विचारधारा संदूषित। बाल ठाकरे ने अपने प्रति समर्पित लोगों की एक विशाल सेना बनाई और वे यारों के भी यार थे परन्तु उनका प्रेम व्यापक संदर्भ में सिर्फ और सिर्फ मराठी मानुषों के लिए था।
                मित्रों, इस प्रकार बाल ठाकरे की राजनीतिक विचारधारा कुछ और नहीं थी बल्कि क्षेत्रीयता और गुंडागर्दी का खतरनाक और विस्फोटक सम्मिश्रण थी। अपने द्वारा खींची गई इसी रेखा को वे 2007 में तब भी पार नहीं कर पाए थे जब राष्ट्रपति के पद के लिए चुनाव हो रहा था। तब बाल ठाकरे ने योग्य और ईमानदार भैरों सिंह शेखावत को छोड़कर भ्रष्ट और अयोग्य प्रतिभा पाटिल का सिर्फ इसलिए समर्थन किया था क्योंकि वह मराठी थीं। बाल ठाकरे ने मराठी और गैरमराठी को मुद्दा बनाकर और उसके बल पर अप्रत्याशित सफलता प्राप्त करके देश का ऐसे कर्महीन राजनीतिज्ञों को जो जाति और धर्म के नाम पर पहले से ही जनता को बाँटकर सत्तासुख भोग रहे थे अपनी राजनीति चमकाने का एक और ऐसा मानवताविरोधी हथियार दे दिया जो सिर्फ विध्वंस ही कर सकता था। उनकी गंदी राजनीति का एक दुष्परिणाम यह भी हुआ है कि महाराष्ट्र की मूल समस्याओं से वहाँ की जनता का ध्यान ही हट गया।
                     मित्रों,महाराष्ट्र का विकास तो हुआ है और खूब हुआ है लेकिन यह विकास भ्रष्ट्राचार के साथ हुआ विकास है और इसके साथ ही इस विकास ने सिर्फ विकास के चंद द्वीपों का निर्माण किया है। गरीब जहाँ था वहीं है और अमीरों की आय शिखर को छूने लगी है। विकास का लाभ सबको समान रूप से नहीं मिल सका है। बाल ठाकरे ने बड़ी चतुराई से मराठी जनता को यह समझाया कि तुम्हारी सारी समस्याओं और गरीबी का एकमात्र कारण महाराष्ट्र में मजदूरी करने के लिए आनेवाले गैरमराठी हैं जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं था। सच्चाई तो हमेशा यह रही है कि मराठियों की समस्त समस्याओं का कारण उनके भ्रष्ट राजनेता थे और हैं। भारत के दूसरे राज्यों में भी यही स्थिति है। वर्तमान सरकार में हुए आदर्श या सिंचाई या किसी अन्य घोटाले को ही लें, क्या इनको भैय्या लोगों ने अंजाम दिया है? जिस तरह मराठी दूसरे राज्यों में कारोबार और नौकरी करते हैं वैसे ही दूसरे राज्यों के लोग भी कमाने-खाने के लिए महाराष्ट्र आते हैं। वे मराठी नेताओं की तरह महाराष्ट्र को लूटते नहीं हैं बल्कि श्रम करते हैं,निर्माणात्मक कार्य करते हैं तो बदले में मजदूरी मांगते हैं और पाते हैं। मैं महाराष्ट्र के राजनेताओँ से पूछना चाहता हूँ और जानना चाहता हूँ कि आज से 30-40 साल पहले उनकी सम्पत्ति कितने की थी और कैसे यह इतनी जल्दी इतनी ज्यादा हो गई?  क्या बाल ठाकरे ने कभी प्रदेश के प्रशासनिक ढाँचे में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ कभी आवाज उठाई? अगर नहीं तो क्यों? क्यों उनकी शरद पवार से इतनी पटती थी?
               मित्रों,शोषण की सबसे खतरनाक अवस्था वह होती है जब शोषित को यह पता ही न चले कि उसका शोषण भी हो रहा है बल्कि उसको उल्टे शोषण में ही अपनी भलाई नजर आने लगे और मराठा मानुष के मन में कुछ ऐसे ही मानसिक इन्द्रजाल का निर्माण किया बाल ठाकरे ने वह भी तब जबकि वे खुद मूलतः बिहारी थे। कुछ लोग ठाकरे को साम्प्रदायिक और मुस्लिम विरोधी भी मानते हैं जबकि ऐसा था नहीं। वे मुसलमानों से नफरत तो करते थे परन्तु सिर्फ ऐसे मुसलमानों से जो भारत और भारत की संस्कृति से न तो प्यार ही करते हैं और न तो इसका आदर ही करते हैं। उन्होंने पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने का कई बार विरोध किया था और इसमें कुछ भी गलत नहीं था। आतंकवाद और क्रिकेट एकसाथ कैसे चल सकते हैं? बालासाहब ने एक बार नहीं अपितु कई बार कहा है कि उनको सलीम खान और ईरफान पठान जैसे भारतीय मुसलमानों पर गर्व है और वे दाऊद इब्राहिम जैसे मुसलमानों से नफरत करते हैं। फिर वे साम्प्रदायिक कैसे हो गए? क्या दंगों के दौरान अपनी और अपने संप्रदायवालों की रक्षा करने को साम्प्रदायिकता का नाम दिया जाना चाहिए या फिर अल्पसंख्यक-तुष्टिकरण का विरोध करने को साम्प्रदायिकता कहा जाना चाहिए? मैं नहीं समझता कि सिर्फ बाबरी मस्जिद नामक विवादित और परित्यक्त ढाँचे को गिराने का समर्थन करने मात्र से कोई साम्प्रदायिक हो गया। यहाँ बिहार में ही पिछले वर्षों में न जाने कितने ऐसे मंदिरों को तोड़ा गया है जो सड़कों के चौड़ीकरण में य़ा फ्लाईओवर बनाने में बाधा बन रहे थे तो क्या हमारी राज्य सरकार साम्प्रदायिक हो गई? हमें प्रत्येक स्थिति में यह याद रखना चाहिए कि मानव ने धर्म को बनाया है न कि धर्म ने मानब को। इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि न तो अल्पसंख्यकवाद ही देश के हित है और न तो बहुसंख्यकवाद ही। दोनों ही समानरूप से देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा हैं। हालाँकि यह साबित नहीं होता है कि बाल ठाकरे साम्प्रदायिक थे फिर भी हमने अपने व्यापक विश्लेषण में पाया है कि बाल ठाकरे भारत की एकता और अखंडता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा थे क्योंकि वे क्षेत्रियता की राजनीति करते थे। हालाँकि अब यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं होगा कि उनके बाद भी क्या शिवसेना मराठा मानुष की राजनीति ही करती है जिसकी पूरी संभावना भी है या अपनी विचारधारा को परिवर्तित करती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश के अन्य कई नेताओं की ही तरह बाल ठाकरे भी जोड़ने की नहीं तोड़ने और बाँटने की राजनीति करते थे। इसके साथ ही बाल ठाकरे गुंडागर्दी और हिंसा को भी सर्वथा त्याज्य नहीं मानते थे। उनका संगठन शिवसेना वास्तव में गुंडों का गिरोह है न कि छत्रपति शिवाजी की महान विचारधारा से ओतप्रोत आदर्शवादी युवाओं से निर्मित महान संगठन जैसा कि इसके नाम से प्रतिबिंबित होता है। वर्ष 1997 में मैं खुद नागपुर में बैंकिंग की परीक्षा के दौरान अन्य गैरमराठियों के साथ शिवसैनिकों के हाथों अपमानित हो चुका हूँ।

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