शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

अब बाजार के हवाले वतन साथियों

मुंशी प्रेमचंद के ज़माने में पंच परमेश्वर हुआ करते थे.बाद में जमाना बदला और जातिवाद की हवा बहने लगी तब एक जुमला काफी लोकप्रिय हुआ करता था और वह था जाति नाम परमेश्वर.फ़िर समय बदला और जाति की जगह अब बाज़ार भगवान हो गया.केंद्र में उस समय नरसिंह राव की सरकार थी और वित्त मंत्री थे डा. मनमोहन सिंह जो वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री हैं.धीरे-धीरे सब कुछ सब कुछ यानी बाज़ार के हाथों सौंपा जाने लगा.बहुत-से सरकारी निगमों और कंपनियों का औने-पौने दामों में विनिवेश कर दिया गया.कुछ को तो साफ बेच दिया गया.फ़िर बारी आई खेती की.पहले गाज गिरी गन्ना किसानों पर.सरकार ने चीनी के बढ़ते मूल्य के साथ गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढाया और कहा कि अगर मिलवाले ऊपर से किसानों को पैसा देना चाहे तो उसे कोई आपत्ति नहीं होगी.लेकिन मिल मालिक क्यों चीनी के धंधे में बढ़ते मुनाफे को किसानों के साथ बाँटने लगे?नतीजा यह है कि जहाँ महाराष्ट्र के मिल मालिक किसानों को अच्छी कीमत दे रहे हैं वहीं उत्तर प्रदेश के मिल मालिक ऐसा नहीं कर रहे हैं.किसानों ने ईंख की खेती में आग लगाना शुरू कर दिया.जंतर-मंतर, दिल्ली जाकर उन्होंने अपनी बात जनप्रतिनिधियों तक पहुँचाने की भी कोशिश की.लेकिन आज तक कुछ हुआ नहीं.अब केंद्र ने बांकी के किसानों के भविष्य को भी बाज़ार की आग में झोंक देने का फैसला कर लिया है.एक तरफ तो उसने प्रति बोरी यूरिया का मूल्य २५ रूपया बढा दिया गया वहीँ दूसरी ओर यूरिया को छोड़कर बांकी सभी उर्वरकों के मूल्य निर्धारण का अधिकार उत्पादकों को दे दिया गया.इसका सीधा मतलब है कि अब तक इन उर्वरकों पर जो सब्सिडी दी जा रही थी उसे अब पूरी तरह वापस ले लिया जायेगा.जाहिर है इनकी कीमतें अब आकाश को छूने जा रही हैं.खेती पहले से ही किसानों के लिए घाटे का सौदा है.अब खेती की लागत और भी बढ़ने जा रही है.महंगाई के मोर्चे पर भी अगर हम देखें तो पूरा देश पहले से ही महंगाई की ताप से झुलस रहा है.सरकार के इस कदम से निश्चित रूप से महंगाई कम नहीं होगी बल्कि बढ़ेगी.सरकार चलानेवालों पर भले ही प्रतिवर्ष अरबों रूपये खर्च हो जाएँ परन्तु खेती जिसका सीधा ताल्लुक पेट से है पर खर्च नहीं होना चाहिए क्योंकि यह सरकार की नज़र में अपव्यय की श्रेणी में आता है.खेती को कार्पोरेट के हाथों में सौंपने के सरकारी प्रयास पहले ही विफल हो चुके हैं क्योंकि हम भारतीयों का अपनी धरती अपनी जमीन के साथ भावनात्मक सम्बन्ध होता है और हम किसी कीमत पर अपनी जमीन इन अविश्वसनीय व्यापारियों के हाथों नहीं दे सकते.अब देखना है कि खेती के साथ बाज़ार का क्या व्यवहार रहता है क्योंकि पूरी खेती न सही इसे प्रभावित करने का एक बड़ा हथियार तो उनके हाथ लग ही गया है.

1 टिप्पणी:

prabhat kumar singh ने कहा…

चर्चिल ने आजादी के समय इस बात में शंका व्यक्त की थी कि भारत में लोकतंत्र सफल हो भी सकती है.लगता है चर्चिल ने जो कहा था वह गलत नहीं था.हमारे नेता धीरे-धीरे करके देश को बेच रहे हैं.