शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

समर शेष है

हमारे आसपास के कई लोग अक्सर बेटा-बेटी में कोई अंतर नहीं होने फिकरा पढ़ते रहते हैं.लेकिन धरातल की खुरदरी जमीन पर यह आदर्श टिक नहीं पाता.मैं खुद भी इसका भुक्तभोगी हूँ.मैं अपने एक लेख में यह बता चुका हूँ कि मेरे मामा नहीं थे और चचेरे मामा नानी के साथ बराबर मारपीट किया करते थे.एक बार जब उन्होंने नानी का हाथ तोड़ दिया गया तब हमें परिवार सहित नानी की देखभाल के लिए ननिहाल में रहना पड़ा.मेरी माँ अपने माता-पिता की निर्विवाद उत्तराधिकारी थी और अभी भी है.लेकिन नाना के भाई-भतीजों ने हमारा विरोध किया कि पैतृक संपत्ति में पुत्री को हिस्सा नहीं दिया जा सकता.पिताजी प्रोफ़ेसर थे और गाँव के बहुत-से लोग उनसे उपकृत हो चुके थे.लेकिन जब हम लोगों ने गाँव के लोगों से मदद मांगी तो कोई आगे नहीं आया और तटस्थ रहने की बात करने लगे.जाहिर है कि ऐसे में जो पशुबल में आगे था फायदे में रहा.आज भी गाँव में यही स्थिति है.गाँव में ज्यादातर लोग अच्छे हैं लेकिन डरपोक हैं और इसलिए तटस्थ होने का ढोंग कर रहे हैं.हमने न्यायालय में लड़ाई लड़ी और जीत भी हासिल की वो भी बिना गाँववालों की मदद के.हमारे देश में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है.आज भी हर जगह ईमानदारों का बहुमत है.लेकिन ये लोग गांधीजी के असली बन्दर हैं और कुछ देखो मत,कुछ सुनो मत और बोलने का तो प्रश्न ही नहीं;इनका वेदवाक्य है.लालू-राबड़ी के घोटाला युग में एक पंडितजी बिहार के मुख्य सचिव बनाए गए थे.पूरे ईमानदार.कभी-कभी तो रिक्शे से भी कार्यालय पहुँच जाते.कभी हराम के पैसे को हाथ नहीं लगाया.लेकिन जब भी जहाँ भी सत्ता ने उनसे हस्ताक्षर करने को कहा हस्ताक्षर करते रहे.घोटाले पर घोटाला होता रहा.ईमानदार रहे पर बेईमानी को रोकने की कोशिश भी नहीं की.उनकी इस तटस्थतापूर्ण ईमानदारी से किसको लाभ हुआ?राज्य या देश को तो नहीं ही हुआ.फ़िर ऐसी ईमानदारी किस काम की और किसके काम की?कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ईमानदारी की कसमें खाते नहीं थक रहे.लेकिन क्या उनकी ईमानदारी भी तटस्थतापूर्ण नहीं है?उन्होंने क्यों किसी मंत्री को कभी कुछ भी गलत करने से नहीं रोका?उनके मंत्रिमंडल के सदस्य मनमानी करते रहते हैं और वे मूकदर्शक बने रहते हैं.संविधान द्वारा प्राप्त अधिकारों का भी उपयोग नहीं करते.व्यक्तिगत रूप से वे भले ही ईमानदार हों लेकिन कर्त्तव्य के प्रति तो ईमानदार नहीं हैं.ठीक यही सब द्वापर में तब हुआ था जब ध्रितराष्ट्र हस्तिनापुर के राजा थे.क्या फ़िर से हस्तिनापुर में एक ध्रितराष्ट्र का शासन नहीं है?उस समय भी दुर्योधन ने अपने लोगों के लिए खजाने का मुंह खोल दिया था केंद्रीय मंत्री भी तो यही कर रहे हैं.मनमोहन की ईमानदारी से देश को नुकसान छोड़कर क्या कोई लाभ भी मिला है?नहीं.तब फ़िर उनकी ईमानदारी का क्या लाभ?तटस्थतापूर्ण ईमानदारी के कायर धर्म का पालन करनेवाले सारे लोग परोक्ष रूप से महाभारत काम में भी बेईमानों को फायदा पहुंचा रहे थे और आज भी बेईमानों को लाभ पहुंचा रहे है.महाभारत काल में भी भीष्म,द्रोण और कृप की तटस्थता से दुर्योधन ने ही लाभ उठाया था आज भी आज के दुर्योधन उठा रहे हैं.ये ईमानदार लोग वास्तव में ऐसी गायों के समान हैं जो न तो दूध ही दे सकती है और न ही बछड़ा जन सकती है.इतिहास गवाह है कि हस्तिनापुर को उनके इन शुभचिंतकों की तटस्थता का मूल्य चुकाना पड़ा और मगध ने पूरे देश पर कब्ज़ा कर लिया.इन महारथियों का कर्तव्य था कि वे सत्ता और पुत्र के मोह में पड़े राजा को गद्दी से हटाकर युधिष्ठिर को राजा बनाते.लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और हस्तिनापुर पर एक अंधा और अयोग्य व्यक्ति को राजा बने रहने दिया.जबकि मगध में हमेशा योग्यतम का शासन रहा.इसलिए वहां बार-बार वंश परिवर्तन देखने को मिलता है.यही कारण था कि मगध ने १००० साल तक भारतवर्ष पर शासन किया.आज द्वापर समाप्त हुए हजारों वर्ष बीत चुके हैं और हजारों सालों के बाद हम इन तटस्थ ईमानदारों द्वारा की गई गलतियों का विश्लेषण कर रहे हैं.आनेवाला कल निश्चित रूप से हमारा भी विश्लेषण करेगा और तब सभी तटस्थ ईमानदार लोग अपराधी घोषित किए जाएँगे.इसलिए ऐसे तत्वों को महाभारत से शिक्षा ग्रहण करते हुए तटस्थता का त्याग कर युद्ध छेड़ना चाहिए,असत्य और अन्यायी तत्वों के खिलाफ.सत-असत का संघर्ष हमेशा चलते रहने वाला संघर्ष है.यह महाभारत काल में भी चल रहा था और आज भी जारी है और भविष्य में भी चलते रहनेवाला है.राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में-समर शेष है,नहीं पाप का भागी केवल व्याध;जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध.

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