रविवार, 21 नवंबर 2010
जाने ये कैसा जहर दिलों में उतर गया
जन्म और मृत्यु जीवन के दो विपरीत ध्रुव हैं.एक शुरूआत है तो दूसरा अंत.जो भी है बस इन्हीं दो ध्रुवों के बीच है.जब भी किसी महापुरुष या महास्त्री की जयंती या पुण्यतिथि आती है तो उनके नाम पर राजनीति करनेवाले लोग यह कहना नहीं भूलते कि वे आज भी हमारे दिलों में जिंदा हैं.यूं तो उत्तरोत्तर बढती महंगाई ने जीवन को महंगा बना दिया है.लेकिन कई बार हमें जिंदा रहने के लिए बहुत बड़ा मूल्य चुकाना होता है.कई स्थानों पर नक्सली गरीब आदिवासियों के बच्चों को अपनी कथित जनसेना में भर्ती करने के लिए बन्दूक दिखाकर दबाव डालते हैं और धमकी देते हैं कि जिंदा रहना है तो अपने बच्चे हमें सौंप दो.कई बार कोई चमचा किसी नेता को खुश करने के लिए भरी सभा में उसे जिन्दा आर्दश बताता है.जबकि नेताजी का उन आदर्शों से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं होता.ऐसा भी कहते हैं कि आदमी मर जाता है पर विचार नहीं मरा करते.आज भी गांधीवाद,मार्क्सवाद आदि को अक्सर जिंदा बताया जाता है.कोई भी वाद जब तक धरातल पर नहीं उतरे तब तक उसका क्या मूल्य है?सिद्धांत तो फ़िर स्वप्न ही है वास्तविकता तो प्रयोग है.इस तरह हम कभी नारों में तो कभी भाषणों में किसी के जिंदा होने की बात बराबर सुनते रहते हैं.क्या हम सचमुच जिंदा हैं?अगर हम जिंदा हैं तो कैसे जिंदा हैं?क्या लक्षण हैं जिंदा रहने के?क्या सिर्फ शारीरिक रूप से जिंदा रहने मात्र से मानव को जीवित मान लिया जाना चाहिए?नहीं,बिलकुल नहीं!!हमारे स्वार्थों ने धरती को बर्बाद कर दिया है.अभी भी ज्ञात आकाशीय पिंडों में सिर्फ धरती पर ही जीवन है.हालांकि हम मानव पिछले ५०-६० सालों से धरती के बाहर जीवन की तलाश में लगे हैं.अगर इसमें सफलता मिल भी जाती है तो हम इसका कितना फायदा उठा पाएँगे अभी भी यह भविष्य के गर्त में है.यह कितनी बड़ी बिडम्बना है कि संवेदनात्मक रूप से तो हम दम तोड़ रहे हैं और तलाश रहे हैं बर्बाद करने के लिए नए ग्रह-उपग्रह को.यूं तो धरती पर जीवों और जीवन की हजारों प्रजातियाँ हैं लेकिन मानव प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना माना जाता है.शायद ऐसा इसलिए हो कि ऐसा बतानेवाले हम मानव हैं.पांच ज्ञानेन्द्रियाँ तो सभी जीवों में होती हैं इसलिए यह आधार तो नहीं हो सकता मानव को धरती का सर्वश्रेष्ठ जीव सिद्ध करने के लिए.बल्कि जो चीज मानव को सर्वश्रेष्ठ बनाती है वह है उसकी संवेदना,एक-दूसरे के सुख-दुःख से उसका प्रभावित होना.लेकिन पिछले सौ सालों में हुई वैज्ञानिक प्रगति ने इसकी सामूहिकता की भावना को क्रमशः कमजोर किया है.अब तो यह क्षरण इस महादशा में पहुँच गया है कि कभी-कभी मानव को मानव कहने में भी शर्मिंदगी महसूस होती है.पहले जहाँ राजतन्त्र में किसी भी व्यक्ति को बहादुरी का प्रदर्शन करने का पुरस्कृत किया जाता था,आज का शासन और समाज उसे अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ देता है.अभी दो दिन पहले ही मेरे शहर हाजीपुर में बैंक डकैती की एक घटना हुई.अख़बारों ने पूरा ब्यौरा छापा कि किस तरह एक डकैत को भागते समय वहां मौजूद लोगों ने पकड़ लिया.लेकिन उसे पकड़ने की पहल करने वाले और इस क्रम में गंभीर रूप से घायल हो गए महादेव नामक ठेलेवाले का कहीं जिक्र नहीं था.उसे और उसकी बहादुरी को तत्काल भुला दिया गया मीडिया द्वारा.गरीब जो ठहरा.खैर बैंक के सामने गोलगप्पे का ठेला लगाने वाले इस अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने अप्रतिम साहस का परिचय देते हुए डकैतों में से एक को पकड़ लिया लेकिन डकैतों द्वारा बम द्वारा प्रहार कर देने से घायल हो गया.घाव गंभीर था इसलिए उसे पी.एम.सी.एच.रेफर कर दिया गया,जहाँ वह उचित ईलाज नहीं होने के कारण तिल-तिल कर मर रहा है.न तो प्रशासन और न ही समाज उसके और उसके भूखे परिवार की सुध ले रहे हैं.भीषण गरीबी के कारण पढाई छोड़ चुका बेटा ईधर-उधर कर्ज के लिए मारा-मारा फ़िर रहा है लेकिन कोई रिश्तेदार या परिचित कर्ज नहीं दे रहा.क्या इस दशा में भी हम कह सकते हैं कि हम जिंदा हैं?क्या लोकतंत्र जिसे जनता का,जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन माना जाता है उसमें एक साहसी व समाजरक्षक की जान की यही कीमत है?फ़िर कोई क्यों जाए सार्वजनिक धन-संपत्ति की रक्षा के लिए जान पर खेलने?जब ओरिएंटल बैंक ऑफ़ कॉमर्स में डकैती हो रही थी तब भीड़-भरे राजेंद्र चौक पर हजारों लोग मौजूद थे लेकिन उनमें जिंदा तो बस एक महादेव ही था जो दिल में देशभक्ति के ज्वार के कारण डकैतों से भिड़ जाने की मूर्खता कर बैठा.क्या आवश्यकता थी उसे ऐसा करने की?बैंक लुट रहा था तो लुटने देता.उसका तो उस बैंक में तो क्या किसी भी बैंक में खाता तक नहीं था.जो गलती उसने की सो की लेकिन उसके प्रति हमारा क्या कर्त्तव्य बनता है? क्या भीड़ में मौजूद इस एकमात्र जिंदा व्यक्ति की मौत हो जाएगी और हम उसे मर जाने देंगे?उसके मर जाने से एक लाभ तो होगा ही कि एक पेट कम हो जाएगा जनसंख्या विस्फोट का सामना कर रहे देश में.वैसे भी गरीबों की जिंदगी की कोई कीमत तो होती नहीं.लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा अस्तित्व ऐसे ही चंद जिन्दा लोगों के चलते कायम है.वरना पूर्ण संवेदनहीनता की स्थिति में हम चाहे शारीरिक रूप से जीवित रहें भी तो मानव पद से गिर जायेंगे और हममें और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाएगा.आज कोई अपराधी किसी को लूट रहा होता है,कोई घायल सड़क किनारे तड़प रहा होता है,किसी की ईज्जत सरेआम तार-तार कर दी जाती है और हजारों जोड़ी आँखें देखकर भी अनदेखा करती रहती हैं.इतना संवेदनहीन तो पशु भी नहीं होता और अगर कोई विरोध की हिम्मत करे भी तो बाद में महादेव की तरह अपने को अकेला पाता है.कहाँ गई परोपकारः पुण्याय की भावना?कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी ने वर्षों पहले ही अपने निबंध गेंहूँ और गुलाब में पेट को गेहूं और मस्तिष्क को गुलाब मानते हुए कहा था कि अगर हमारे लिए गेंहूँ यानी पेट ही सबकुछ है तो फ़िर हम पशु हैं मानव हैं ही नहीं.बल्कि यह गुलाब यानी मस्तिष्क ही है जो हमें उनसे श्रेष्ठ बनाती है.तभी तो हमारे शरीर में पशुओं की तरह पेट और सिर एक ही रेखा में नहीं होते बल्कि मस्तिष्क पेट से काफी ऊपर,सबसे ऊपर होता है.गेंहूँ का गुलाब पर हावी हो जाना मानवता की हार है,मौत है.बढती मानव जनसंख्या के बीच मानवता की मौत पर चिंता व्यक्त करते हुए किसी शायर ने क्या खूब कहा है-जाने ये कैसा जहर दिलों में उतर गया,परछाई जिंदा रह गई इन्सान मर गया.
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