सोमवार, 22 नवंबर 2010
जागिए मनमोहन,जागिए कृपानिधान
वर्ष १९९० का स्वतंत्रता दिवस समारोह मुझे आज भी याद है.तब मैं हाई स्कूल में था और वैश्विक अर्थव्यवस्था को समझने लगा था.लाल किले के प्राचीर से भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह देश को संबोधित करते हुए कह रहे थे कि वे जानते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था संकट में है और विदेशी मुद्रा भंडार समाप्त होने को है.लेकिन जिस तरह मधुमेह के रोगी को चीनी देने से बीमारी और बढ़ जाती है उसी तरह उनकी समझ से विदेशों से कर्ज लेने से अर्थव्यवस्था का संकट और बढ़ जाएगा.दरअसल उन दिनों भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार सोवियत संघ में उथल-पुथल का वातावरण तो था ही २ अगस्त,१९९० से २८ फरवरी,१९९१ तक चले खाड़ी युद्ध ने खनिज तेल के मूल्य में बेतहाशा वृद्धि कर दी थी.वी.पी. की जिद का परिणाम यह हुआ कि बाद में जब कुछ ही महीनों बाद चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने तो उन्हें देश का सोना विदेशों में गिरवी रखकर पैसों का इंतजाम करना पड़ा.लेकिन यह कोई स्थाई समाधान तो था नहीं.इसके कुछ ही महीने बाद जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने और वित्त मंत्री बने मनमोहन सिंह तो उन्होंने जब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से सहायता मांगी तो उसने इनकार तो नहीं किया लेकिन उनके समक्ष एक शर्त रख दी.वह शर्त यह थी कि भारत को उदारवाद को अपनाना होगा.हालांकि किसी भी देश में बिना पूर्व तैयारी के उदारवाद को अपनाना अच्छा नहीं माना जाता.इसके लिए नए तरह के प्रशासन जो पारदर्शिता सहित और भ्रष्टाचार रहित हो की आवश्यकता होती है.साथ ही जरुरी होती है मजबूत आधारभूत संरचना.जाहिर है कि उस समय की आपातकालीन स्थितियों में ऐसा कर पाने के लिए भारत के पास समय नहीं था.जबकि चीन ने पूरी तैयारी के साथ उदार अर्थव्यवस्था को अपनाया और दूसरे देशों को अपनी शर्तों पर ही पूँजी निवेश की ईजाजत दी थी.इसलिए भारत की तत्कालीन केंद्र सरकार ने आई.एम.एफ. की मांगें मान लीं और भारतीय अर्थव्यवस्था ने बंद और सरकार नियंत्रित अर्थव्यवस्था से उदार और मुक्त अर्थव्यवस्था में आँख मूंदकर हनुमान कूद लगा दी.उस समय सोंचा गया कि जो भी बदलाव जरुरी हैं बाद में कर लिए जाएँगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं.अचानक देश में इतना पैसा आने लगा कि राजनेता घूस खाने और विदेशी मुद्रा भंडार गिनने में खो गए.इस प्रकार सारे सुधार पीछे छूट गए.विदेशी और देशी कंपनियां जानती थीं कि भारत के राजनेता और नौकरशाह पैसों के कितने भूखे हैं.इसलिए उन्होंने निवेश के लिए निर्धारित रकम में रिश्वत को भी शामिल करना शुरू कर दिया.कई साल पहले एनरोन नामक अमेरिकी ऊर्जा कंपनी ने दावा किया था कि उसने भारत में अपनी इकाई स्थापित करने के लिए नीति निर्माताओं और संचालकों को करोड़ों रूपये दिए थे.सातवें-आठवें दशक में जहाँ नेताओं का गठजोड़ अपराधियों से हुआ करता था अब उसका स्थान एक नए गठजोड़ नेता-कंपनी गठजोड़ ने ले लिया.यह जोड़ी ज्यादा चालाक,आधुनिक,रणनीतिक,बेफिक्र और सुरक्षित थी.इसी गठजोड़ के दम पर हर्षद मेहता से लेकर २जी स्पेक्ट्रम तक अनगिनत घोटाले किए गए.जिनमें से न जाने कितनों के बारे में तो जनता को आज भी पता नहीं है और कभी पता चलेगा भी नहीं.लगता है जैसे अर्थव्यस्था के उदारीकरण के साथ ही भ्रष्टाचार का भी उदारीकरण कर दिया गया है.हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि देश में आज भी अंग्रेजो के ज़माने का प्रशासन है.सत्ता में आने से पहले वर्तमान यू.पी.ए. की सरकार ने भी प्रशासनिक सुधार का वादा किया था.लेकिन उसके सत्ता में आए हुए ७ साल होने को हैं और इस दिशा में प्रगति शून्य है.२००५ में लागू किए गए सूचना के अधिकार से कोई खास फायदा होता नजर नहीं आ रहा.सरकार ने प्रशासनिक सुधार पर विचार करने के लिए पहले कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक समिति बनाई और फ़िर वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया.मोइली आयोग के मसौदे को अगर लागू कर दिया जाए तो निश्चित रूप से सरकारी कामकाज का ढर्रा बदल जाएगा और भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लग जाएगा.आयोग ने नौकरशाहों को सौंपे गए कार्यों के लिए जवाबदेह बनाने की बात कही है,लेकिन सरकार ने अब तक इसे ठन्डे बस्ते में डाल रखा है.नई आर्थिक नीतियों को लागू किए जाने के इतने वर्षों के बाद भी हम अभी तक अपने कामकाज के तौर-तरीके में बदलाव नहीं ला पाए हैं.देश की आजादी के कुछ ही वर्षों में परमिट-लाइसेंस-कोटा राज की जो लौह पकड़ देश की अर्थव्यवस्था पर हावी हो गई आज भी बनी हुई है.देश और अर्थव्यवस्था की आवश्यकतानुसार निर्णय कभी नहीं लिए जाते हैं.महीनों और कभी-कभी कई सालों तक हमारे अफसरशाह मामले को टालते रहते हैं.दरअसल वे अपने अधिकारों का प्रयोग ही अडंगा डालने के लिए करते हैं.उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने के बावजूद हम अपने प्रशासन तंत्र को उदार नहीं बना पाए हैं.इसलिए उदारवादी नीतियों का देश को कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है.उदारवाद का जो भी फायदा हुआ है दुर्भाग्यवश क्रीमी लेयर यानी केवल ऊपर के २ से ३ करोड़ लोगों को हुआ है.प्रधानमंत्री लगभग रोज ही कहते हैं कि विकास की रफ़्तार तेज है लेकिन यह वास्तविक वृद्धि नहीं कही जा सकती.प्रतिव्यक्ति आय में जो बढ़ोत्तरी हो रही है वह इसी क्रीमी लेयर की आय में बढ़ोत्तरी है.ऐसा लगता है कि सरकार प्रशासनिक सुधार करना चाहती ही नहीं है.प्रधानमंत्री नौकरशाही की कछुआ चाल पर चिंता तो व्यक्त करते हैं पर उसके सुधार के लिए कोई कदम नहीं उठाते.जबकि वैश्वीकरण के इस युग में प्रशासनिक सुधार में देरी देश के लिए बहुत घातक होगी.आज आवश्यकता इस बात की है कि मोइली आयोग की सिफारिशें शीघ्रातिशीघ्र लागू की जाएँ.सारी बिमारियों का ईलाज है इसमें.मोइली आयोग चाहता है कि हर विभाग के कामों का लक्ष्य और उसकी सीमा तय हो और इस प्रक्रिया में हर नौकरशाह से जो अपेक्षाएं हों वे सम्बंधित विभाग के मंत्री के साथ लिखित समझौते के रूप में दर्ज की जाए.इतना ही नहीं यह समझौता सार्वजनिक जानकारी में हो जिससे पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके.साथ ही किसी कार्य योजना के मामले में लाभार्थियों की प्रतिक्रियाएं इकट्ठी की जाए ताकि यह आकलन किया जा सके कि लक्ष्य की प्राप्ति वास्तव में हुई है अथवा कागजी या आधी अधूरी रही है.लेकिन सिर्फ कार्यपालिका में सुधार ही काफी नहीं होगा बल्कि न्यायपालिका में भी ठीक इसी तरह की जिम्मेदारी लानी पड़ेगी और इसमें भी ऐसे इंतजाम करने होंगे जिससे मुकदमों का निर्णय सालों के बजाए महीनों में हो सके.साथ ही जानबूझकर गलत निर्णय देने और भ्रष्टाचार में शामिल अधीनस्थ न्यायालयों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक के न्यायाधीशों को दण्डित किये जाने और जरुरत हो तो बाहर का दरवाजा दिखाने की व्यवस्था करनी होगी.इस सम्बन्ध में भी केंद्र सरकार के पास एक संशोधन प्रस्ताव लंबित है और भगवान जाने कब लागू की जाएगी? इसके साथ ही केंद्र को भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टोलरेंस की नीति अपनानी होगी और इसे रोकने के लिए बने निगरानी तंत्र को चुस्त-दुरुस्त करना होगा.यह सही है कि देश आज ८० के दशक के ४-५ % के बजाए ८-९ % की दर से विकास कर रहा है.लेकिन इसी दौर में कृषि क्षेत्र को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है.यही वह दौर है जब हरित क्रांति से भारत के ग्रामीण समाज में आई खुशहाली पर ग्रहण लग गया और प्रति घन्टे के हिसाब से किसान आत्महत्या करने लगे.इस दौर में आई सभी सरकारों ने कृषि,पशुपालन और ग्रामीण उद्योग-धंधों के प्रति उदासीनता दिखाई.नतीजतन आजादी के बाद पहली बार इन क्षेत्रों में नकारात्मक परिवर्तन दर्ज किया गया.इन्हीं नीतियों के चलते कृषि क्षेत्र से श्रम और पूँजी दोनों का पलायन बहुत तेजी से हुआ.आज तमिलनाडु से लेकर जम्मू-कश्मीर तक के किसानों में मातमपुर्सी छाई हुई है.उदारीकरण के कारण सिर्फ सूचना प्रौद्योगिकी जैसे सीमित रोजगार वाले कुछ क्षेत्रों में रोजगार के रोजगार बढे हैं.इसके साथ ही सेवा क्षेत्र का दायरा बढ़ा है जिसमें रोजगार की संभावनाएं नगण्य होती हैं.उद्योग क्षेत्र में कपड़ा,दवा,इमारती सामान जैसे धंधे पिटे हैं तो कंप्यूटर और इलेक्ट्रोनिक उपकरणों का कारोबार बढ़ा है.वास्तव में वर्तमान काल में देश का जो भी विकास हो रहा है वह रोजगारविहीन विकास है.सरकार को ऊपर बताए गए सुधारों के अलावे इस ओर भी समय रहते ध्यान देना पड़ेगा.अब यह कहने से काम नहीं चलने वाला कि मैं देर करता नहीं देर हो जाती है.यह सही है कि हम वैश्वीकरण अथवा उदारीकरण की प्रक्रिया से अलग नहीं हो सकते लेकिन हमें अपने देश की परिस्थितियों को समझकर अपनी शर्तों के मुताबिक नीतियों को लागू करना पड़ेगा ताकि उसके फायदे का व्यापक विस्तार आम जनता की जिंदगी में भी नजर आये.हाथ पर हाथ रखकर सोंच-विचार का समय समाप्त हो चुका है.सुधार के लिए पहले ही काफी देर हो चुकी है.यह समय अब शीघ्र प्रभावी कदम उठाने का समय है.जागिए मनमोहन,जागिए कृपानिधान.
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