बुधवार, 17 नवंबर 2010
घटना ही नहीं प्रतीक भी है लक्ष्मीनगर हादसा
कभी पटना में तो कभी मुम्बई में अक्सर घर गिरते रहते हैं लेकिन चूंकि इस बार घटना दिल्ली की थी इसलिए शोर भी ज्यादा हुआ.दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की राजधानी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में ५ मंजिला ईमारत को गिरे दो दिन बीत चुके हैं.अभी भी मकान के मलबे में से जिंदगियों की तलाश जारी है.इस मकान में रहनेवाले लोगों को क्या पता था कि उनका घर ही उनके लिए कब्र बन जाएगा,जिंदा लोगों का कब्र.१०-११ साल के शिबू का सबकुछ छिन गया है.वह अपने परिवार का एकमात्र जीवित सदस्य है.उसकी समझ में यह नहीं आ रहा कि वह अपने को अभागा माने या भाग्यशाली.मैं यह नहीं कहूँगा कि यह घटना केंद्र सरकार की नाक के नीचे हुई.केंद्र सरकार के भीतर ही क्या-कुछ नहीं हो रहा?यह सिर्फ एक घटना मात्र नहीं है यह प्रतीक भी है.यह घटना प्रतीक है हमारी व्यवस्था की नींव में लगे भ्रष्टाचार के घुन का जो लगातार हमारे संप्रभु देश को खोखला कर रहा है.यह घटना प्रतीक है अनिश्चितकालीन सुसुप्तावस्था में चले गए तंत्र का.कैसे एक व्यक्ति ने ईमारत बनाने के लिए सरकार द्वारा निर्धारित मानदंडों का उल्लंघन करते हुए अवैध रूप से इतनी ऊंची ईमारत खड़ी कर दी?जिन लोगों पर निर्माण की निगरानी करने की जिम्मेदारी थी उन्होंने क्यों अपने कर्तव्यों का सम्यक रूप से निर्वहन नहीं किया?सच्चाई तो यह है सभी सरकारी दफ्तरों में रिश्वत का बाज़ार गर्म है और रिश्वत देकर कुछ भी करवाया जा सकता है.जहाँ २ मंजिल से ज्यादा ऊंची ईमारत बनाने की अनुमति नहीं है वहां भी रिश्वत देकर २० मंजिला मकान बड़े शौक से बनाया जा सकता है.अभी कुछ साल पहले जब कलाम साहब भारत के राष्ट्रपति थे तब कुछ पत्रकारों ने उत्तर प्रदेश के किसी प्रखंड में रिश्वत देकर उनके नाम पर राशन कार्ड बनवा लिया था.आए दिन जीवित लोगों के मृत्यु प्रमाण पत्र बना कर संपत्ति हड़पने की घटनाएँ भी देश के विभिन्न भागों से प्रकाश में आती रहती है.१० हजार रूपये से भी कम वेतन पानेवाला हल्के का कर्मचारी महीने में कम-से-कम २-३ लाख रूपये की ऊपरी (अवैध) कमाई कर रहा है.कई साल हुए मैंने 1984 में प्रदर्शित हुई एक फिल्म देखी थी नाम था इन्कलाब.फिल्म में अमिताभ बच्चन एक ऐसे ईमानदार पुलिस अफसर बने हैं जिसे माफिया चक्रव्यूह में फँसा लेते हैं.जनता में बनी उनकी अच्छी छवि के बल पर माफियाओं की पार्टी चुनाव जीतती है.इस फिल्म में अमिताभ के किरदार का नाम है अमरनाथ.फिल्म के अंत में अमरनाथ विधायकों की बैठक में भाग लेने जाते हैं.बाहर जनता जय-जयकार कर रही होती है.भीतर शराब,जुआ,परिवहन,खान,पेट्रोलियम,शिक्षा,चीनी आदि चीजों के माफिया विधायकों के साथ अमरनाथ विचार-विमर्श कर रहे हैं कि किसको कौन-सा महकमा दिया जाए.पार्टी अध्यक्ष उन्हें संभावित मंत्रियों की सूची जिसमें विभागों का भी वर्णन है,थमाता है.सूची में शराब माफिया को उत्पाद मंत्री,परिवहन माफिया को परिवहन मंत्री,जुआ माफिया को गृह मंत्री,खान माफिया को खान मंत्री यानी जो जिस चीज का माफिया होता है उसे ही वह विभाग देने का प्रस्ताव है.अमरनाथ शपथ-ग्रहण से पहले ही इन्हें मशीन गन जिसे वे अटैची में लेकर आए थे से भून डालते हैं.सिनेमा हॉल में जमकर तालियाँ बजती हैं और लोग बाहर निकलने लगते हैं.कितना बड़ा व्यंग्य है हमारी व्यवस्था पर टी. रामाराव की यह फिल्म!आज क्या देश में यही स्थिति नहीं है?क्या हमारे देश में अयोग्यता ही सबसे बड़ी योग्यता नहीं बन गई है?शासन के तीनों अंगों व्यवस्थापिका,न्यायपालिका और कार्यपालिका में सबसे ऊपर से सबसे नीचे तक कमोबेश सभी भ्रष्ट हैं.१०० में ९९ बेईमान हैं फ़िर क्यों न हो लक्ष्मी नगर हादसा?आदर्श सोसाईटी घोटाले में तो सेना के पूर्व आला अधिकारियों पर भी गड़बड़झाला में शामिल होने के आरोप हैं.पूर्वी उत्तर प्रदेश के भारत-नेपाल सीमा पर स्थित एक बैंक का कैशियर नकली नोट को असली से बदलते हुए पकड़ा गया.सुप्रीम कोर्ट स्वयं २जी स्पेक्ट्रम मामले में प्रधान मंत्री कार्यालय की भूमिका पर ऊंगली उठा रहा है तो फ़िर बचा कौन?कुल मिलाकर भारत की हालत संतोषजनक से नाजुक तक पहुँच चुकी है.पूरा का पूरा लोकतान्त्रिक ढांचा चरमरा गया है ऐसे में किसी मकान में अवैध निर्माण करना कौन-सा मुश्किल काम है?जब दिल्ली में बिना भूकंप के ही घर गिर रहे हैं तो भूकंप आने पर क्या होगा?हमें याद रखना चाहिए कि दिल्ली भूकंप जोन ४ में स्थित है और यहाँ कभी भी ८ रियक्टर स्केल का तेज भूकम्प आ सकता है.भगवान न करे कि ऐसा हो लेकिन अगर ऐसा हुआ तो लाखों लोगों के मारे जाने के लिए और कोई नहीं बल्कि भ्रष्टाचार का चारागाह बन चुका तंत्र ही जिम्मेदार होगा.तंत्र हो या व्यक्ति उसको सुधारने के दो ही रास्ते होते हैं-१) पहले समझाया जाता है,गलत काम नहीं करने और अच्छे मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया जाता है.२)और जब बात का कोई असर नहीं हो तब लात से काम लेना पड़ता है यानी दण्डित करना पड़ता है.हमारी सरकार ने नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम से ही बाहर कर दिया है और न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल और लाचार है कि सजा दिलवाना भी टेढ़ी खीर है.अगरचे होता तो यह भी है कि अभियोजन पक्ष घूस खाकर केस को ही कमजोर कर देता है और अपराधी छूट जाता है.यानी हमारी सरकारें जिनमें केंद्र और राज्यों दोनों प्रकार की सरकारें शामिल हैं न तो पहले प्रकार के कदम ही उठा रही हैं और न ही दूसरे प्रकार के.इस तरह लक्ष्मीनगर का हादसा इस बात का द्योतक भी है कि हमारी सरकारें यथास्थितिवादी बन गई हैं और इसलिए आगे स्थिति सुधरने के बजाए बिगड़ने ही वाली है.तो फ़िर चाय पीते हुए टी.वी. देखिए,अख़बार पढ़िए और इंतजार करिए अगले और भी दर्दनाक लक्ष्मीनगर का.
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