शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

न्याय की हत्या

कल का दिन भारतीय न्यायपालिका के इतिहास का काला दिन माना जाना चाहिए.कल कानून के रक्षक से भक्षक बना एक ढीठ अपने रसूख के बल पर फ़िर से आजाद हो गया.१९ सालों से न्याय का इंतजार कर रहे रूचिका के परिवार के लिए यह बेटी को खोने से भी बड़ा सदमा है.भारत में अंग्रेजी शासन की देनों में एक महत्वपूर्ण देन माना जाता है कानून का शासन और कानून के समक्ष समानता.हमारे संविधान में भी इन तत्वों को समाहित किया गया है.लेकिन यथार्थ में न तो अंग्रेजों के समय ही कानून के समक्ष समानता थी और न ही अभी है.गांधीजी ने भी न्यायिक प्रणाली की इस अन्यायी प्रवृत्ति से क्षुब्ध होकर कहा था कि कानून अमीरों की रखैल है.हमारी न्यायिक प्रक्रिया में निहित दोषों के चलते फैसला आने में वर्षों नहीं दशकों लग जाते हैं.पीड़ित बार-बार न्यायालय जाता है और उसे न्याय के बदले थमा दी जाती है तारीख.तारीख पर तारीख बीतती जाती है.तारीख मिलती है फैसला नहीं मिलता और जब दशकों बाद फैसला आता है तो पता चलता है कि न्याय तो मिला ही नहीं.फ़िर ऊपरी अदालतों में अपील और फ़िर से उसी नाटक का दोहराया जाना.रूचिका के पूरी परिवार के लिए संकट की शुरुआत तब हुई जब १२ अगस्त,१९९० को रूचिका गिरहोत्रा नामक १४ वर्षीया उभरती टेनिस खिलाड़ी के साथ हरियाणा पुलिस का तत्कालीन महानिरीक्षक और हरियाणा लॉन टेनिस एसोसिएशन का अध्यक्ष एसपीएस राठौड़ छेड़छाड़ करता है.१६ अगस्त को रूचिका और उसके परिवारवाले राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री हुकुम सिंह और राज्य के गृह सचिव से इसकी शिकायत करते हैं.१७ अगस्त को मुख्यमंत्री तत्कालीन पुलिस महानिदेशक आर.आर.सिंह को जाँच करने के लिए कहते हैं.१८ अगस्त को राठौड़ के खिलाफ शिकायत दर्ज की जाती है.जाँच में आरआरसिंह राठौड़ को प्रथम दृष्टया दोषी पाते हैं और रिपोर्ट और प्राथमिकी दर्ज करने की सिफारिश करते हैं. डीजीपी और गृह सचिव जेके दुग्गल राठौड़ के खिलाफ विभागीय कार्रवाई और आरोप पत्र दाखिल करने की अनुशंसा करते हैं.१२ मार्च १९९१ को गृहमंत्री संपत सिंह विभागीय कार्रवाई की स्वीकृति देते हैं और फाईल मुख्यमंत्री के पास भेज दी जाती है.अगले ही दिन मुख्यमंत्री मंजूरी दे देते हैं.२८ मई १९९१ को राठौड़ के खिलाफ आरोप पत्र स्वीकार किया जाता है.तब तक राज्य में राष्ट्रपति शासन लग जाता है.इसके बाद २३ जुलाई १९९१ को भजनलाल कांग्रेस पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री बनते हैं और ९ मई १९९६ तक पद पर बने रहते हैं.इनके समय राठौड़ के प्रति  सरकारी रवैया अचानक बदल जाता है.वह अपराधी मुख्यमंत्री का कृपापात्र बन जाता है और इसका लाभ उठाकर वह अशुभारम्भ करता है रूचिका के परिजनों को प्रताड़ना देने के कार्य का.अचानक हरियाणा पुलिस द्वारा रूचिका के भाई को कार चोर बना दिया जाता है और ६ अप्रैल १९९२ से ४ सितम्बर १९९३ के काले कालखंड में उसके खिलाफ कार चोरी के एक के बाद एक छह मामले दर्ज किए जाते हैं.सभी मामले भादंसं की धारा 379 के तहत दर्ज किए जाते हैं.२३ अक्तूबर १९९३ को आशु को हरियाणा पुलिस अवैध तरीके से घर से उठा लेती है और दो महीने तक हिरासत में रखती है.इसी दौरान 4 नवम्बर,१९९३ को भजनलाल के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार राठौड़ को अपर पुलिस महानिदेशक के रूप में तरक्की दे देती है.पारितोषिक,वाह री आम आदमी की पार्टी की सरकार.कितना ख्याल रखा तूने आम आदमी को प्रताड़ित करनेवाले इस खास आदमी का.२८ दिसंबर,१९९३ को अपने और अपने परिवार के ऊपर हो रही ज्यादतियों को नहीं सह पाने के कारण रुचिका जहर खाकर आत्महत्या कर लेती है और अगले ही दिन आशु को रिहा कर दिया जाता है.जैसे पुलिस और सरकार को उसे रिहा करने के लिए इसी सुनहरे पल का इन्तजार था.रुचिका की मौत के महीनों बाद अप्रैल १९९४ में राठौड़ के खिलाफ आरोप तय कर दिया जाता है.इसी बीच ११ मई १९९६ को बंसीलाल राजपाट सँभालते हैं और ५ जून १९९८ को राठौड़ एक अन्य मामले में निलंबित कर दिए जाते हैं.२१ अगस्त १९९८ को पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय हरियाणा पुलिस पर अविश्वास जताते हुए इस मामले यानी रूचिका मामले की सीबीआई जाँच का आदेश देता है इस उम्मीद के साथ कि वह इस हाई प्रोफाईल मामले की निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच करेगा.विश्वास और सीबीआई पर!उसे तो ऐसे मामलों को दबाने में मास्टरी हासिल है.३ मार्च १९९९ को बंसीलाल सरकार राठौड़ को अपर पुलिस महानिदेशक के रूप में फ़िर से बहाल कर देती है और उसे फ़िर से खुली छूट मिल जाती है अपने ओहदे के नाजायज इस्तेमाल करने की.२३ जुलाई १९९९ को ओमप्रकाश चौटाला हरियाणा के मुख्यमंत्री बनते हैं और ३० सितम्बर को विभागीय जांच में जैसा कि हरेक हाई प्रोफाईल मामले में होता है,राठौड़ को दोषमुक्त करार दिया जाता है.इसी को तो भाईचारा कहते हैं न!जब तुम फँसों तो हम बचाएँ और जब हम फंसें तो तुम बचाना.१० अक्तूबर १९९९ को लोकतान्त्रिक तरीके से आम आदमी द्वारा चुनी गई चौटाला सरकार द्वारा एक आम परिवार के अमन-चैन की हत्या करनेवाले,कानून का गला घोंत्नेवाले राठौड़ को हरियाणा पुलिस का महानिदेशक बना दिया जाता है.पूरे प्रदेश की पुलिस का मुखिया.१६ नवम्बर २००० को घटना के १० साल बाद आखिरकार सीबीआई रुचिका छेड़छाड़ मामले में राठौड़ के खिलाफ आरोप पत्र दायर करने में सफल हो जाती है.परिणामस्वरूप दिखावे के लिए ५ दिसंबर को उसे डीजीपी के पद से हटा दिया जाता है और छुट्टी पर भेज दिया जाता है.हालांकि इससे उसके रूतबे में कोई कमी नहीं आती है.छुट्टी में रहते हुए ही राठौड़ पुलिस सेवा से सेवानिवृत्त हो जाता है.क्या इसे ही जनता की सेवा करना कहते हैं जो वह जीवनभर करता रहा.त्वरित न्याय के नए मानदंड स्थापित करते हुए घटना के १९ साल बाद २१ दिसंबर २००९ को सीबीआई की विशेष अदालत राठौड़ को दोषी ठहराती है और छह महीने की कैद और एक हजार रुए के जुर्माने की मामूली सजा सुनाती है.मानो उसने पड़ोसी के बगीचे से चोरी से आम तोड़ने जैसा कोई छोटा-मोटा अपराध किया हो.८ फरवरी २०१० को नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ फैशन डिजाइनिंग अहमदाबाद का एक छात्र अदालत परिसर में ही राठौड़ पर चाकू से हमला करता है,लेकिन वह बच जाता है.अभी कुछ साल भी पहले महाराष्ट्र में बलात्कार के मामले में एक रसूखदार अभियुक्त को अदालत द्वारा छोड़ देने के बाद कई महिलाओं ने मिलकर छुरा घोंपकर भरी अदालत में वध कर दिया था.क्यों बढ़ रही है इस तरह की प्रवृत्ति,क्या हमारे नीति-निर्मातों का इस ओर ध्यान गया है?जब न्यायालयों से न्याय नहीं मिलेगा तो जनता में गुस्से का उत्पन्न होना स्वाभाविक है.सरकार ने अगर समय रहते स्थिति को नहीं संभाला तो भविष्य में वह दिन दूर नहीं जब पढ़े-लिखे लोग भी कानून को हाथ में लेने को बाध्य हो जाएँगे.२५ मई २०१० को अदालत गिरहोत्रा परिवार की अपील पर छह महीने कैद की सजा को बढ़ाकर डेढ़ साल कर देती है और सीबीआई राठौड़ को गिरफ्तार कर लेती है.लेकिन कल उच्चतम न्यायालय में सीबीआई ने अपना असली रूप दिखा दिया है.उसने बता दिया है कि उसका गठन भले ही भ्रष्टाचार को रोकने के लिए किया गया हो,उसका वास्तविक काम भ्रष्टाचारियों की कानून से रक्षा करना है.शातिर,सुशिक्षित और समाज में उच्च प्रास्थिति रखनेवाला निर्लज्ज अपराधी एक बार फ़िर स्वतंत्र हो चुका है.उसके चेहरे पर फ़िर से दंभ भरी हंसी विराजमान है.अदालत का यह आदेश केन्द्रीय जाँच ब्यूरो के उस फ़ैसले के बाद आया है जिसमें जाँच एजेंसी ने रुचिका गिरहोत्रा मामले में दर्ज किए गए तीन नए केस में से दो में जाँच बंद करने का फ़ैसला किया है.ये केस रुचिका के पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के साथ छेड़-छाड़ करने और उसके भाई आशू को हवालात में प्रताड़ित करने से संबंधित थे.तो क्या यह माँ लेना चाहिए कि पुलिस आशू को झूठे मुक़दमे में फँसाकर हवालात में प्रताड़ित करने नहीं बल्कि दामाद की तरह आवभगत करने के लिए ले गई थी.हालांकि 68-वर्षीय राठौर के ख़िलाफ़ रुचिका को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में जाँच जारी रहेगी.लेकिन कब तक?बहुत जल्दी यह मामला भी निश्चित रूप से दफ़न हो जाएगा और उसके साथ दफ़न हो जाएगा सवा अरब भारतीयों का कानून पर विश्वास,पुलिस अधिकारी की सनक के चलते बर्बाद हो चुके परिवार के न्याय पाने के अरमान.जब न्याय तंत्र न्याय दे ही नहीं सकता तो क्यों खर्च किए जा रहे हैं रोजाना इसके नाम पर करोड़ों रूपये?क्यों नष्ट किया जा रहा है जनता का अमूल्य समय कानूनी कार्यवाहियों में?क्या औचित्य है न्याय के इन कथित मंदिरों का?क्यों नहीं हटा दिया जाता संविधान से समानता का अधिकार प्रदान करने वाले बेकार और बेजान शब्दों को?क्यों???

कोई टिप्पणी नहीं: