शनिवार, 27 नवंबर 2010
अल्प विराम,पूर्ण विराम
पिछले दो दिनों से मैं कम्प्यूटर से दूर था.मेरे जीवन में अल्पविराम आ गया था.वजह यह थी कि विधाता ने मेरे सबसे छोटे चाचा की जिंदगी में पूर्णविराम लगा दिया.यूं तो भाषा और व्याकरण में पूर्णविराम के बाद भी वास्तविक पूर्णविराम नहीं होता और फ़िर से नया वाक्य शुरू हो जाता है.लेकिन जिंदगी में पूर्णविराम लग गया हो तो!दुनिया के सारे धर्म इस रहस्य का पता लगाने का प्रयास करते रहे हैं.बहुत-सी अटकलें लगाई गई हैं दार्शनिकों द्वारा.लेकिन चूंकि सिद्ध कुछ भी नहीं किया जा सकता है इसलिए नहीं किया जा सका है.ईसाई और इस्लाम इसे पूर्णविराम मानते हैं तो सनातन धर्म का मानना है कि मृत्यु के बाद फ़िर से नया जीवन शुरू हो जाता है और यह सिलसिला लगातार चलता रहता है.जिंदगी में हम कदम-कदम पर किन्तु-परन्तु का प्रयोग करते हैं लेकिन मृत्यु कोई किन्तु-परन्तु नहीं जानती.कब,किसे और कहाँ से उठाना है को लेकर उसके दिमाग में कभी कोई संशय नहीं होता.वह यह नहीं जानती कि मरनेवाला १०० साल का है या ५० का या फ़िर १ साल का.जिंदगी का वाक्य अभी अधूरा ही होता है और वह पूर्ण विराम लगा देती है.उसका निर्णय अंतिम होता है.ऑर्डर इज ऑर्डर.मेरे चाचा की उम्र अभी मात्र ४५ साल थी.बेटी की शादी करनी थी.तिलकोत्सव भी संपन्न हो चुका था.लेकिन अचानक जिंदगी समाप्त हो गई,बिना कोई पूर्व सूचना दिए जिंदगी के नाटक से भूमिका समाप्त.मुट्ठी से सारा का सारा रेत फिसल गया.चचेरा भाई अभी ६ठी जमात में पढ़ रहा है.उसे अभी मौत के मायने भी पता नहीं हैं.दाह संस्कार के दौरान भी वह निरपेक्ष बना रहा.हमने जो भी करने को कहा करता गया.नाजुक और नासमझ कन्धों पर परिवार का बोझ.गाँव की गन्दी राजनीति से संघर्ष.उसे असमय बड़ा बनना पड़ेगा.मुझसे भी बड़ा.हालांकि वह मुझसे २२-२३ साल छोटा है फ़िर भी.इस पूर्णविराम ने उसके मार्ग में न जाने कितने अल्पविराम खड़े कर दिए हैं.वैसे अंधाधुध विक्रय के बावजूद इतनी पैतृक संपत्ति अभी शेष है कि खाने-पीने की दिक्कत नहीं आनेवाली.लेकिन ऊपरी व्यय?बहन की शादी तो सिर पर ही है.खेती की गांवों में जो हालत है उसमें तो बड़े-बड़े जमींदारों की माली हालत ठीक नहीं.वैसे मैं भी मदद करूँगा जब भी वह मेरे पास आएगा.लेकिन गाँव के लोग क्या उसे मेरे पास आने से रोकेंगे नहीं?बैठे-निठल्ले लोगों के पास सिवाय पेंच लड़ाने के और कोई काम भी तो नहीं होता.मेरे अन्य जीवित चाचा लोग जिनके वे मुझसे ज्यादा नजदीकी थे,ने उनके परिवार से किनारा करना भी शुरू कर दिया है.मैंने अनगिनत लोगों के दाह-संस्कार में भाग लिया है.लेकिन हर बार प्रत्येक मरनेवाले के परिवार के साथ सहानुभूति रही है,स्वानुभूति नहीं.पहली बार दिल में किसी के मरने के बाद दर्द हो रहा है.आखिर मरनेवाला मेरे घर का जो था.अनगिनत अच्छी बुरी यादें हैं उनसे जुड़ी हुई.लोग जब मृतक-दहन चल रहा था तब चुनाव परिणाम का विश्लेषण करने में लगे थे.कुछ लोग अभद्र मजाक में मशगूल थे.परन्तु मैं वहीँ पर सबसे अलग बैठा गंगा किनारे की रेतीली मिट्टी में चाचा के पदचिन्ह तलाश रहा था.अंतिम यात्रा के पदचिन्ह!!!
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