आजकल चारों तरफ़ हमारे देश में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती महंगाई के कारण त्राहि-त्राहि मची हुई है और आम आदमी की सरकार जब रोम जल रहा था तब नीरो बंशी बजा रहा था को चरितार्थ करने पर तुली हुई है। यहाँ तक कि लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार की पहली प्राथमिकता ९ प्रतिशत विकास-दर प्राप्त करना बताया। महगाई को पहली प्राथमिकता बताते भी कैसे? उनकी सरकार के अनुसार तो परेशानी का कारण महंगाई का ज्यादा होना नहीं बल्कि मुद्रास्फीति-दर (सरकारी भाषा में महंगाई-दर का यही नाम है) का शून्य प्रतिशत से नीचे चला जाना है। क्या कहना आम आदमी की सरकार का और उसकी आम आदमी की चिंता का। एक तरफ़ तो चीनी के मूल्य पचास रुपए किलो का सार्वकालिक रिकॉर्ड बनाने की ओर अग्रसर है, अरहर की दाल वाजपेयी काल के ३० रुपए प्रति किलो से १०० रुपए प्रति किलो पर पहुँच चुकी है और सरकार कह रही है कि मुद्रा-स्फीति में वृद्धि की दर धनात्मक की जगह ऋणात्मक हो गई है। सबसे पहली बात कि मुद्रा-स्फीति का बढ़ना किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए स्वाभाविक तो है ही जरूरी भी है। अब जहाँ तक सरकार के मानने की बात है कि महंगाई-दर शून्य प्रतिशत से नीचे चल रही है तो ऐसा वह जनता को भ्रमित करने के लिए कह रही है। सरकार जान बूझकर महंगाई को थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर मापती है, जबकि वास्तविक महंगाई का पता उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से चलता है, जो इस समय भी दहाई अंकों में है. महंगाई मौसमी भी होती है जैसे बरसात में सब्जियों के दाम का बढ़ जाना। बेमौसमी महंगाई भी होती है, जैसे
दाल, अनाज और उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होना। लेकिन इस बार की महंगाई इन दोनों से अलग है। अर्थव्यवस्था वृद्धि-दर में तो गिरावट आ रही है वहीं महंगाई (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर) सातवें आसमान पर है। ऊपर से कोढ़ में खाज यह कि मानसून की बेवफाई के चलते चालू वित्तीय वर्ष में कृषि उत्पादन में भी लगभग १५ प्रतिशत की कमी आने के आसार दिखाई दे रहे हैं। जाहिर है कि मांग और पूर्ति में भारी अन्तर पैदा हो गया है। सरकार ने एक बार फ़िर जनता को यह कह कर गुमराह करना चाहा कि विदेशों से दल और अनाज का आयात किया जाएगा, जबकि दुनिया के किसी भी दूसरे देश में यह क्षमता नहीं है कि सवा अरब लोगों का पेट भर सके। मैं तो सोचता हूँ कि सरकार कितनी बेशर्म हो गई है। आजादी के ६२ साल बाद भी हमारी खेती वर्षा पर निर्भर हैं! कारण साफ है उदारवाद की हवा में हम भूल गए कि कृषि पर भी ध्यान देना जरूरी है। हम डॉलर और पाउंड तो नहीं खा सकते। २००८-०९ में कृषि विकास दर १.६ प्रतिशत रह गई जबकि भारत कि तेजी से बढती आबादी के लिए इसका ४ प्रतिशत होना जरूरी माना जाता है। एक बात और अगर आप भी निजीकरण और बाजारवाद के समर्थक हैं तो यह तो इसके दुष्प्रभाव की एक बानगी भर है। बाजार की शक्तियों को दाम बढ़ने में ही लाभ नज़र आ रहा है। उदहारण के लिए, अब हम आटा पाकेट वाला खाते हैं। स्वाभाविक है कि इस व्यवसाय से जुडी कंपनियों ने
गेहूं के मौसम में जमकर इसकी खरीद की और अपने स्टॉक में जमा कर लिया। अब तक तो मूल्य नियंत्रण सरकार के हाथों में था, अब इन कम्पनियों के हाथों में आ गया। अब भी अगर सरकार चाहे तो सभी बिचौलियों को समाप्त कर स्थिति को नियंत्रित कर सकती है, लेकिन इसके लिए ईमानदार नेताओं की जरूरत होगी, जो भारत से विलुप्त हो चुके हैं। हमें कृषि के महत्व को भी समझाना होगा । सिंचाई के वैकल्पिक साधन खोजने होंगे और विभिन्न योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नियंत्रण पाना होगा, अन्यथा युवाओं की तेजी से बढती जनसंख्या वरदान के बजाय अभिशाप बन जायेगी.
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