हममें से कई बुद्धिजीवी राजनीति पर बात करने से भी कतराते हैं और मानते हैं कि राजनीति से दूर रहने में ही भलाई है। लेकिन क्या हम ऐसा करके ख़ुद को ही धोखा नहीं दे रहे होते हैं? एक यूरोपियन राजनीतिज्ञ ने कहा भी है कि हमारी रुचि भले ही राजनीति में नहीं हो राजनीति कि रुचि हममें हमेशा होती है। हमारे रहन- सहन से लेकर हमारे सामाजिक परिवेश तक को राजनीति प्रभावित करती है। इसीलिए अगर हम बिहार में हुए उपचुनाव के परिणामों पर एक नज़र डालें तो यह कोई ग़लत काम नहीं होगा।
बिहार हमेशा से भारत की राजनीति को मार्ग दिखाता रहा है। बिहार निश्चित रूप से परिवर्तन की ओर अग्रसर है। इस परिवर्तन को बिहार की जनता ने लोक सभा चुनाव में रा ज ग को वोट देकर स्वीकार भी किया। फ़िर सवाल उठता है कि मात्र तीन महीने में ऐसा क्या हो गया कि नीतीशजी को चिंतन बैठक बुलाने कि जरूरत आन पड़ी। कारण कई गिनाए जा सकते हैं। सबसे पहली बात कि नीतीशजी ने एकबारगी सबको नाराज़ कर दिया। युवा शिक्षामित्र नियुक्ति के तीन साल बाद हटायेजाने या हटायेजाने का खतरा उत्पन्न हो जाने से नाराज़ हो गए। जबकि लोकसभा के चुनाव में इन्होने काफी बढ़-चढ़कर सरकार का समर्थन किया था।
विश्वविद्यालय के कर्मचारी विश्वविद्यालयों में राज्य सरकार के बढ़ते हस्तक्षेप और अनियमित वेतन से नाराज़ थे। विश्वविद्यालय शिक्षकों कि उम्रसीमा ६५ साल किए जाने कि घोषणा ने शिक्षकों और युवाओं दोनों को एकसाथ नाराज़ किया। शिक्षक लागू नहीं किए जाने से और युवा इसकी घोषणा मात्र से क्षुब्ध थे।
इस तरह सरकार ने सभी वेतनभोगियों को अपने खिलाफ कर लिया।
जातीय आधार पर देखा जाए तो सवर्ण न्यायिक क्षेत्रों में आरक्षण, बटाईदारी कानून लागू करने की आशंकाओं, पंचायतो में आरक्षण आदि कारणों से सरकार को सबक सिखाने के मूड में थे.
पिछडों में यादव मतदाता फ़िर से आर जे डी की ओर मुड गए, मुस्लिम वोटों में बिखराव आ गया और दलितों को अपना भविष्य एल जे पी के हाथों में ज्यादा सुरक्षित दिखा.
परिणाम आपके सामने है। कानून-व्यवस्था के क्षेत्र में सुधार अवश्य हुआ है लेकिन अफसरों की तानाशाही भी बढ़ गई है। बिजली एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें स्थितियां सुधरने के बजाए बिगड़ी है। नीतीशजी ने सोचा था कि कांटी और बरौनी ताप विद्युत घर एन टी पी सी के हाथों में देने से स्थिति में सुधार होगा। लेकिन केंद्रीय उपक्रम होने के कारण एन टी पी सी जान-बूझकर बिहार सरकार को परेशां करने लगा है और नीतीशजी सिवाय मूकदर्शक बने रहने के कुछ भी कर पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं। बिहार के मतदाताओं में साक्षरता की कमी भी रा जग की हार में कहीं-न-कहीं जिम्मेवार रही है। लालू जानते थे कि बिहार की जनता नहीं जानती है कि महंगाई के लिए केन्द्र सरकार जिम्मेदार होती है। इसलिए उन्होंने महंगाई के लिए राज्य सरकार को दोषी ठहराया और इसका लाभ भी उन्हें मिला।
परिणाम चाहे जो भी रहा हो मैं मानता हूँ कि बिहार अब विकास की पटरी पर लौट आया है और इसके लिए सबसे ज्यादा साधुवाद के पत्र हैं नीतिश कुमार। कभी-कभी बदलाव जनता को मनमाफिक नहीं भी बैठता है। जैसा आंध्र में चंद्रबाबू के साथ हुआ। इसलिए उन्हें हर कदम फूंक- फूंक कर उठाना होगा। कहने कि जरूरत नहीं- बहुत कठिन है डगर राजनीति की।
1 टिप्पणी:
aapne chunav ka satik vishleshan kiya hai. isase yah pata chalta hai ki aapki bihar mamlon par kitne pakad hai.-banti from bokaro
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