रविवार, 20 सितंबर 2009
सत्य और सत्ता
हमारे देश के राजनेताओं की छवि जनता के बीच कितनी ख़राब हो चुकी है यह इसी बात से प्रमाणित होती है कि वर्तमान पीढी का कोई भी विद्यार्थी नेता बनाना नहीं चाहता। भारतीय वांग्मय में सत्य और धर्म एक-दूसरे के पर्याय माने जाते रहे हैं। हमारे राष्ट्रीय चिन्ह पर भी सत्यमेव जयते को शामिल कर पूरी दुनिया को विश्वगुरु ने यही संदेश दिया है। लेकिन लगता है कि हमारे राजनेताओं ने इस सत्य को पूरी तरह रद्दी की टोकरी में डाल दिया है। उनके लिए तो सत्ता ही सत्य है। विलासिता ही जीवन-शैली है और येन-केन-प्रकारेण असीमित धनार्जन जीवन का लक्ष्य। फ़िर तो हम अमेरिका क्या चीन की भी बराबरी नहीं कर पाएंगे और नेपाल भी आखें दिखाता रहेगा। वर्तमान नेतृत्व इतना निकम्मा और बेहया-बेशर्म हो गया है कि हम किसी भी राजनेता के बारे में निश्चित होकर नहीं कह सकते कि यह नेता ईमानदार और देशभक्त है। घोटाला करना अब योग्यता बन गया है और खुलकर जाति-धर्म का कुत्सित खेल खेला जा रहा है। इकबाल की तरह मैं भी यह सोंच रहा हूँ कि आख़िर यह देश टिका हुआ कैसे है- कुछ बात है कि हस्ती-------------? पर कोई उत्तर नहीं मिल रहा है। जबकि मियां इकबाल के समय तो सिर्फ़ दुनिया हमारी दुश्मन थी, अब हम ख़ुद भी अपना दुश्मन बन गए हैं।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें