बचपन में मैंने एक श्लोक पढ़ा था- व्यव्हारेन मित्राणि जायन्ते, रिपवस्तथा। लेकिन लगता है हमारी केन्द्र सरकार के किसी भी मंत्री ने नहीं पढ़ा। तभी तो वह चीन की तरफ़ से लगातार किए जा रहे शत्रुतापूर्ण व्यव्हार में भी मित्रता के लक्षण खोज रहे हैं। चीन भारत के सभी पड़ोसी देशों में अपना प्रभाव बढ़ने की कोशिश कर रहा है और इसमें उसे सफलता भी मिल रही है। चाहे बांग्लादेश हो या बर्मा या इंडोनेशिया या फ़िर श्रीलंका, हर जगह उसकी दखल बढ़ रही है। पाकिस्तान की पीठ पर तो उसका वरदहस्त है। पाकिस्तान वास्तव में अमेरिका नहीं चीन के बल पर भारत को विगत पचास वर्षों से परेशां कर रहा है। चीन भारत से तीन गुना बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है और सामरिक शक्ति में सिर्फ़ अमेरिका और रूस ही उससे टक्कर ले सकते है। वास्तव में हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री जब वित्त मंत्री थे तब उन्होंने रक्षा अनुसन्धान पर होनेवाले व्यय में भारी कटौती कर दी थी। वर्तमान में भी स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है. माना कि आर्थिक विकास आवश्यक है, लेकिन चारों तरफ़ से दुश्मनों से घिरे रहकर कोई भी देश तब तक आर्थिक महाशक्ति नहीं बन सकता है, जब तक उसमें जरुरत होने पर किसी भी देश से निबटने की क्षमता न हो। इसीलिए तो दिनकर ने कुरुक्षेत्र में कहा था-क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो , उसको क्या जो दंतहीन, विष हीन, विनीत, सरल हो। लगता है हमारी केन्द्र सरकार को न तो देश में लगातार बढ़ रही महंगाई से कोई मतलब है और न ही हमारे देश के चारों ओर चल रही राजनयिक, सामरिक और कूटनीतिक गतिविधियों से। मतलब है तो बस सत्ता में बने रहने से यानि उसका पञ्च लाइन है- सत्ता किसी भी कीमत पर। हाँ एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि कभी-न- कभी सिंघजी ने रामचरित मानस की ये पक्तियां जरूर पढ़ी होगी- मून्दहूँ आँख कतहूँ कछु नाहीं। तभी तो वे मौका मिलते ही झपकी ले लेते हैं। कुछ समझे, श्रीमान ये सोते हुए व्यक्ति की सरकार है, सोती हुई सरकार।
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