गुरुवार, 23 जुलाई 2020

भारतीय न्यायपालिका की प्रासंगिकता


मित्रों, बरसों पहले हिंदी फिल्म शिकार में एक गाना था-परदे में रहने दो पर्दा न उठाओ, पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा. दोस्तों, हमारी न्यायपालिका की गंदगी भी अब तक परदे के पीछे थी जिसे विकास दूबे कांड ने अकस्मात् सामने ला दिया है. दरअसल विकास दुबे एंकाउंटर की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट को पहली बार न्यायपालिका में खराबी नज़र आई है. सुप्रीम कोर्ट ने यह मान लिया है कि सिस्टम में गंभीर खराबी है। कहते हैं कि कोई बिल्ली अपनी ही गर्दन में कभी घंटी नहीं बांध सकती और कोई कभी अपने गिरेबान में झांकने की कोशिश नहीं करता. ठीक यही बात हमारे देश की न्यायपालिका पर भी लागू होती है.

मित्रों, अभी दो-तीन दिन पहले ही १९८५ में हुए एक बहुचर्चित हत्याकांड का फैसला आया है. जी हाँ, मथुरा जिला एवं सत्र अदालत को भरतपुर के पूर्व महाराजा किशन सिंह के पुत्र मानसिंह और उनके दो साथियों की फर्जी मुठभेड़ जो 11 फरवरी 1985 को हुई थी, में फैंसला सुनाने में 35 साल लग गए। अब तक सभी पुलिस वाले नौकरी से रिटायर हो चुके हैं. उनमें से ४ तो जिंदगी से भी रिटायर हो चुके हैं. अब जाकर कोर्ट ने दोषी पुलिसवालों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है जब उनका जीवन स्वतः समाप्त होनेवाला है. इस बहुचर्चित हत्याकांड की सुनवाई के दौरान 1700 तारीखें पड़ीं और 25 जिला जज बदले गए। वर्ष 1990 में यह केस मथुरा जिला जज की अदालत में स्थानांतरित किया गया था। कुल 78 गवाह पेश हुए, जिनमें से 61 गवाह वादी पक्ष ने तो 17 गवाह बचाव पक्ष ने पेश किए। 8 बार फाइनल बहस हो चुकी थी। इस सुनवाई के दौरान करीब 35 साल में लगभग 1000 से ज्यादा दस्तावेज पेश किए गए। मथुरा जिला कोर्ट ने पूर्व डीएसपी कानसिंह भाटी समेत 11 पुलिसवालों को दोषी करार देते हुए सजा सुनाई। कोर्ट ने तीन आरोपियों को बरी कर दिया। हत्या के 3 आरोपियों नेकीराम, सीताराम और कुलदीप की पहले ही मौत हो चुकी है। सबूतों के अभाव में आरोपी महेंद्र सिंह पहले ही रिहा किया जा चुका है।
 

मित्रों, ये तो हुई एक महाराजा को न्याय मिलने में हुई देरी की बात अब एक गरीब का भी उदहारण देख लीजिए. 13 जुलाई 1984 को कानपुर के एक डाकिये के खिलाफ 57 रुपया 60 पैसा गबन करने का एफआईआर दर्ज किया गया और निलम्बित कर दिया गया. 29 साल बाद 3 दिसम्बर 2013 को उसे निर्दोष पाया गया. मगर अफ़सोस, इतने सालों में पैसे की तंगी और 350 पेशियों पर आये खर्च से उसका गरीब परिवार दाने-दाने को मोहताज हो गया. इसी तरह 23 मई 1987 के चर्चित हाशिमपुरा केस का फैंसला 28 साल बाद मार्च 2015 में आया तथा 2 जनवरी 1975 के ललित नारायण मिश्र हत्याकांड का फैसला 40 साल बाद दिसम्बर 2014 में दोषियों को आजीवन कारावास की सजा के रूप में आया. कितने जिंदा बचे थे अभियुक्तों में से? बेहमई हत्याकांड जनवरी 1981 में हुआ. आज तक केस ट्रायल स्टेज में पड़ा है क्योंकि केस की मूल केस डायरी खो गई है।
 

मित्रों, ये कुछ उदाहरण उस सुप्रीम कोर्ट के लिए हैं जो सरकार से पूछ रही है कि विकास दुबे को उसके ऊपर कई दर्जन संगीन मामले होते हुए जमानत कैसे मिली. क्या सिर्फ पूछ लेने भर से सुप्रीम कोर्ट का कर्तव्य पूरा हो गया? क्या स्थितियां बदल गईं. पूछने की इतनी ही जल्दी थी तो जिन-जिन न्याय-मूर्तियों (?) ने विकास दूबे को जमानत दी थी उनको भी अगली तारीख पर तलब कर लिया होता। अदालत के अदर्ली, पेशकार से लेकर जज सब रोज़ बिकते हैं क्या सुप्रीम कोर्ट को नजर नहीं आता? एसी चैम्बरों में बैठकर पत्थरबाजों पर पैलेट गन न चलाने की हिदायत देना बहुत आसान है लेकिन वही न्याय-मूर्ति गर्दन झुका कर ये नहीं देख सकते कि उनकी अदालतों में क्या चल रहा है? जो जबान हिला कर ये नहीं पूछ सकते कि महाराष्ट्र के जज चश्मे नाक पर पहनते हैं या कहीं और जिससे कि उन्हें पालघर में निर्दोष, निरीह, वयोवृद्ध संतों की पुलिस-पब्लिक द्वारा संयुक्त रूप से की गई नृशंस हत्या नजर नहीं आती? कैसी हालत हो गई है कि एक जज से कुछ फुट की दूरी पर उसका पेशकार रिश्वत लेता है और जज को नहीं दिखता. फिर भी जनता को उम्मीद रहती है कि जज उसे न्याय देगा.

मित्रों, हम पूछते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को कब समझ में आएगा कि सिर्फ पुलिसिया सिस्टम नहीं बल्कि पूरा सिस्टम गड़बड़ है. जरुरत इस बात की है कि सर्वोच्च अदालत उसे देखे और सोचे कि हाशिमपुरा, हैदराबाद और कानपुर जैसे मुठभेड़ करने और पैलेट गन चलाने की जरुरत क्यों पड़ती है और क्यों आम आदमी को इन मुठभेड़ों से राहत महसूस होती है? और अगर मेरी बातों से माननीय न्याय-मूर्तियों के अहं को ठेस लगी है तो डाल दें मुझे भी जेल में. मैं समझता हूँ कि ऐसी अंधेर नगरी में जहाँ इन्साफ अमावस्या का चाँद बन गया हो, रहने से अच्छा है जेल में रहना. लेकिन एक बार मेरे इस सवाल पर गौर जरुर करिएगा माई-बाप कि आज के समय में जब एक क्लिक से बड़ा-से-बड़ा काम हो जाता है, क्या भारत में न्यायपालिका की कोई प्रासंगिकता या उपयोगिता रह गयी है?

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