मित्रों, दरअसल जो राजनेता किसी अपराधी को संरक्षण देकर बढ़ावा देते हैं जब वो उनके लिए ही खतरनाक बनने लगता है तो राजनेता खुद को बचाने के लिए उसको मरवा देते हैं. कदाचित विकास दूबे के साथ भी यही हुआ. १९९० में जब वो छुटभैया हुआ करता था तभी से लगभग सारे दलों ने उसको हाथोहाथ लिया. उसकी हनक फिर इतनी बढ़ गई कि जब १९९१ में यूपी पुलिस के तेज़ तर्रार इंस्पेक्टर त्रिपुरारी पांडे ने उसे गिरफ्तार किया तब स्वयं तत्कालीन विधान सभा अध्यक्ष हरि किशन श्रीवास्तव ने एसएसपी को फोन करके उसे छुडवा लिया था. फिर तो विकास दूबे का मनोबल इस कदर बढ़ा कि साल 2001 में उसने एक पुलिस थाने में घुसकर हरिकिशन श्रीवास्तव के खिलाफ १९९६ में चौबेपुर से भाजपा उम्मीदवार रह चुके भाजपा जिलाध्यक्ष और दर्जा प्राप्त मंत्री संतोष शुक्ला की गोली मारकर हत्या कर दी लेकिन कोर्ट में सुनवाई के दौरान घटना के गवाह 25 पुलिसकर्मी बयानों से पलट गए। इससे उसे सजा नहीं हो सकी थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उस समय वर्तमान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. बाद में सरकार भी बदली व मायावती और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने लेकिन विकास दूबे के खिलाफ किसी भी सरकार ने कोर्ट में अपील नहीं की.
मित्रों, विदित हो कि विकास दुबे और उसके साथियों ने संतोष शुक्ला को बीच रास्ते में रोक लिया था और उसके काफिले पर हमला कर दिया था। उस दौरान संतोष शुक्ला ने दुबे और उसके साथियों से मुकाबला करने का प्रयास किया, लेकिन दूबे ने उस पर रॉड से हमला कर दिया। हमले में घायल होने के बाद शुक्ला कानपुर देहात के शिवली पुलिस थाने में घुस गए, लेकिन किसी भी पुलिसकर्मी ने उन्हें नहीं बचाया। इस दौरान विकास दूबे ने यह दिखाते हुए कि उसे पुलिस का कोई डर नहीं है, वह भी थाने में घुस गया और पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। इसके बाद भी पुलिस उसे नहीं पकड़ पाई और उसने चार महीने बाद आत्मसमर्पण कर दिया और बाद में बरी भी हो गया जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं. दूबे के "आत्मसमर्पण" को याद करते हुए स्वर्गीय संतोष शुक्ला के भाई मनोज ने बताया कि दूबे ने राजनेताओं के साथ कोर्ट में प्रवेश किया था। इससे वह भौचक्के रह गए, लेकिन उन्हें सबसे बड़ा झटका उस समय लगा, जब मामले के जांच अधिकारी सहित 25 पुलिसकर्मियों ने कोर्ट में अपने बयान बदल दिए। इसके बाद उन्होंने तत्कालीन कानपुर देहात के जिला मजिस्ट्रेट और विशेष अभियोजन अधिकारी (SPO) से भी मुलाकात की, लेकिन किसी ने मदद नहीं की।
मित्रों, मैं अपने पिछले आलेख में भी कह चुका हूँ कि विकास दूबे कांड ने तंत्र के अपराधीकरण को पूरी तरह से उजागर करके रख दिया है. सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे भारत की पुलिस भ्रष्ट है और रक्षक के स्थान पर भक्षक बन गई है. खाकी और खादी ने मिलकर ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि जनता का तंत्र से विश्वास ही उठता जा रहा है. बार-बार भीड़ द्वारा अपराधियों की हत्या के पीछे भी यह अविश्वास ही है. ऐसे में सवाल उठता है कि विकास दूबे के फलने-फूलने के पीछे किन लोगों का हाथ है? उत्तर प्रदेश सहित देश के लगभग सभी राज्यों के सभी जिलों में ऐसे बाहुबली हैं जो या तो खुद ही राजनीति में हैं या फिर अपराधियों को संरक्षण देते हैं. विकास दूबे के मामले में हमने देखा कि पुलिस में भी ऐसे बिके हुए लोग हैं जो नौकरी तो सरकार की करते हैं लेकिन काम अपराधियों के लिए करते हैं. यही कारण है कि शरीफ लोग आज थानों में जाने तक से डरते हैं. इसके साथ ही हमारी न्यायपालिका और अधिवक्ता भी विकास दूबे के विकास के लिए जिम्मेदार हैं. इन सबके अलावे अगर कोई और दोषी है तो वो है हमारा समाज जो विकास दूबे जैसे घिनौने लोगों को अपना आदर्श मानता है जाति और धर्म के नाम पर. क्या कारण है कि शहीद देवेन्द्र मिश्र की विकास दूबे द्वारा हत्या पर आज कोई भी ब्राह्मण आवाज नहीं उठा रहा जबकि विकास दूबे गिरोह पर कार्रवाई को ब्राह्मण ब्राह्मण विरोधी कृत्य बता रहे हैं? क्या कारण है कि शहीद देवेन्द्र मिश्र हमारे लिए आदर्श न होकर दुर्दांत विकास दूबे हमारा आदर्श बन गया है?
मित्रों, इसके साथ ही उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार पर भी अब बड़ी जिम्मेदारी आन पड़ी है. सरकार को चाहिए कि बिना जाति, धर्म और वोट बैंक की परवा किए पूरे उत्तर प्रदेश में जितने भी विकास दूबे हैं उन सबका चुन-चुनकर खात्मा करे. साथ ही नौकरशाही और राजनीति में छिपे उन सभी लोगों को भी उनके उचित स्थानों तक पहुँचाया जाए जो ऐसे अपराधियों को संरक्षण देते हैं. अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो ऐसे ही उत्तर प्रदेश में अपराध का विकास होता रहेगा, ऐसे ही अपराधी आते रहेंगे जिनके हाथ न केवल ईमानदार पुलिसवालों की गिरेबानों तक पहुंचेंगे बल्कि जो बेधड़क थाने में घुसकर हत्याएं करेंगे.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें