मंगलवार, 29 सितंबर 2009

बिगडेगी और बिगडेगी दुनिया यही नहीं रहेगी

हिन्दी फ़िल्म मेला के लिए महान गायक मोहम्मद रफी ने कभी यह गाना गाया था कि बिगडेगी और बनेगी दुनियायही रहेगी. पर उस समय वे नहीं जानते थे कि इतनी जल्दी दुनिया में मानवों का अस्तित्व ही खतरे में पर जाएगा।शायद आप समझे नहीं! मेरा मतलब धरती के बढ़ते तापमान से है जिसे लोग आजकल ग्लोबल वार्मिंग के नाम सेजानते हैं.इस साल देश ने जो अकाल देखा वह अप्रत्याशित नहीं था. ऐसा तो होना ही था. धरती की बढती गरमी कोलेकर कई साल पहले ही दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि भारत और चीन में अगले आनेवाले वर्षों मेंभयंकर जलवायु सम्बन्धी बदलाव देखने को मिल सकते हैं. ग्लोबल वार्मिंग के लिए कहीं-न-कहीं हम-आप सभीजिम्मेदार हैं.यह हम सभी के पापों का परिणाम है। चाहे हमने ऐसा कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित करके किया होया फ़िर बेवजह बिजली बर्बाद करके या फ़िर पैदल जानेलायक जगह पर मोटर से जाकर या फ़िर एयर कन्डीशनका उपयोग करके। अब पाप जो करना था हम कर चुके और परिणाम भी सामने आने लगे हैं. यह सूखा तो बस एकनमूना है. प्रश्न उठता है कि आगे क्या किया जाए? प्रायश्चित! कैसा प्रायश्चित? क्या गंगा-सेवन करते हुए गोबरनिगला जाए. नहीं भइया कम-से-कम इस मामले में तो नहीं. प्रायश्चित के तरीके मैं बताता हूँ जो धरती पर लगेजख्मों पर मरहम का काम करेंगे. बस हमें कुछ सावधानियां बरतनी पड़ेगी.
घर में अगर आप पुराने तरीके वाले बल्ब का उपयोग कर रहे हैं, तो उनकी जगह

सी ऍफ़ एल का उपयोग करें। ७ वाट का सी ऍफ़ एल ४० वाट के बल्ब के बराबर रौशनी देता है। इस तरह आप ८०प्रतिशत तक बिजली बचाकर ग्लोबल वार्मिंग रोकने में सहयोग कर सकते हैं। याद रखिये कि बिजली का लगभग८० प्रतिशत हिस्सा कोयले को जलाकर बनता है, जिससे भारी मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।
सार्वजानिक स्थानों पर हेलोजन लैम्पों का प्रयोग न करके एल इ डी का प्रयोग किया जाए। एल इ डी यानि लेडलाइट एमिटिंग डायोड। इससे ४० प्रतिशत तक बिजली की बचत होगी।
आने-जाने के लिए जहाँ तक सम्भव हो बसों का प्रयोग करें। एक शोध के अनुसार कुल कार्बन डाई ऑक्साइडउत्सर्जन का ३० प्रतिशत हिस्सा वाहनों से निकलने वाले धुँए का होता है।
जहाँ तक सम्भव हो डेरा कार्यस्थल से पैदल आ-जा सकने वाली दूरी पर ही रखें। अच्छा हो कि नियोक्ता ख़ुद हीकार्यस्थल के पास ही आवासीय कालोनी बसाये
प्लास्टिक के थैलों को बाय-बाय करें। प्लास्टिक के थैलों ने पर्यावरण के लिए बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर दी है।यह १००० साल में विघटित होता है और तब तक हवा में जहरीली गैसें छोड़ता रहेगा।
रिसाईकिल द्वारा उत्पादित कागज़ का उपयोग करें। इस तरह आप ५० प्रतिशत तक ऊर्जा बचा सकते हैं जो कि पूरी तरह से नया कागज़ बनाने में लगती। साथ ही भारी संख्या में पेड़ों को भी कटने से बचा सकते हैं।
७ साल में एक पेड़ जरूर लगायें और उसकी देख-भाल सुनिश्चित करें। एक पेड़ साल में लगभग १ टन कार्बन डाई ऑक्साइड को ओक्सिजन में बदल देता है।
८ लाल बत्ती पर या कहीं भी अगर ३० सेकंड से ज्यादा रूकना हो तो गाड़ी का इंजन बंद कर देन।
९ पैकजिंग में कम-से-कम कागज अथवा पोलीथिन का इस्तेमाल करें। अगर आप साल में इसमें १० प्रतिशत की भी कमी ला पाते हैं तो आप ६ क्विंटल कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को रूक पाएंगे।

१० सामान को नजदीकी बाजार से खरीदें और उसे लाने में जलने वाले पेट्रोल-डीजल को तो बचाएं ही साथ-ही-साथ इनके जलने से होनेवाले कार्बन डाई ऑक्साइड को भी हवा में जाने से रोकें।

११ एयर कन्डीशन के फिल्टर को हमेश साफ रखें। इस तरह आप साल में लगभग डेढ़ क्विंटल कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को रोक पाएंगे।
१२ पशुपालक भाई कई कम-कम दूध देनेवाले जानवरों की जगह एक ज्यादा दूध देनेवाले जानवर को पालें, क्योंकि इनके मल-मूत्र से निकलनेवाली मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड गैसें कार्बन डाई ऑक्साइड से क्रमशः २३ और २९६ गुना ज्यादा हरित गृह प्रभाव रखती हैं।





रविवार, 27 सितंबर 2009

न्याय प्रणाली में सुधार जरूरी

हमारे देश की न्याय व्यवस्था इतनी विलंबकारी, खर्चीली और भ्रष्ट हो गई है कि इसे न्याय की जगह अन्याय व्यवस्था कहना ज्यादा ठीक रहेगा। मैं देखता हूँ कि निचली अदालतों में अधिकतर फैसले पैसे लेकर लिए जा रहे हैं। ऊपरी अदालतों का प्रत्यक्ष अनुभव तो मुझे नहीं है पर वहां भी स्थितियां भिन्न नहीं होगी ऐसा मुझे लगता है। अगर इसी को न्याय प्रणाली कहते हैं तो फिर इसकी जरूरत ही क्या है? निश्चित रूप से इसमें व्यापक सुधार की आवश्यकता है। भंग सिर्फ़ लोटे में नहीं है बल्कि पूरे कुएं में ही भंग पड़ी हुयी है। इसमें आमूल-चूल परिवर्तन होने चाहिए और शीघ्रातिशीघ्र होने चाहिए। मुकदमों के निपटारे के लिए एक समय सीमा तय होनी चाहिए। यह बात किसी से छिपी हुयी नहीं है की नक्सालियों के बढ़ते प्रभाव क्षेत्र के पीछे हमारी विलंबकारी न्याय प्रणाली भी है। पहले ही काफी देर हो चुकी है।
जनसेवक होते हुए भी न्यायाधीशों की कोई जिम्मेवारी निश्चित नहीं है। ग़लत फ़ैसला लेने पर उन पर भी कार्रवाई होनी चाहिए। सारे न्यायाधीशों की संपत्ति की भी समय-समय पर जाँच की व्यवस्था होनी चाहिए। आख़िर वे भी हाड़-मांस के ही बने हैं।

रविवार, 20 सितंबर 2009

सत्य और सत्ता

हमारे देश के राजनेताओं की छवि जनता के बीच कितनी ख़राब हो चुकी है यह इसी बात से प्रमाणित होती है कि वर्तमान पीढी का कोई भी विद्यार्थी नेता बनाना नहीं चाहता। भारतीय वांग्मय में सत्य और धर्म एक-दूसरे के पर्याय माने जाते रहे हैं। हमारे राष्ट्रीय चिन्ह पर भी सत्यमेव जयते को शामिल कर पूरी दुनिया को विश्वगुरु ने यही संदेश दिया है। लेकिन लगता है कि हमारे राजनेताओं ने इस सत्य को पूरी तरह रद्दी की टोकरी में डाल दिया है। उनके लिए तो सत्ता ही सत्य है। विलासिता ही जीवन-शैली है और येन-केन-प्रकारेण असीमित धनार्जन जीवन का लक्ष्य। फ़िर तो हम अमेरिका क्या चीन की भी बराबरी नहीं कर पाएंगे और नेपाल भी आखें दिखाता रहेगा। वर्तमान नेतृत्व इतना निकम्मा और बेहया-बेशर्म हो गया है कि हम किसी भी राजनेता के बारे में निश्चित होकर नहीं कह सकते कि यह नेता ईमानदार और देशभक्त है। घोटाला करना अब योग्यता बन गया है और खुलकर जाति-धर्म का कुत्सित खेल खेला जा रहा है। इकबाल की तरह मैं भी यह सोंच रहा हूँ कि आख़िर यह देश टिका हुआ कैसे है- कुछ बात है कि हस्ती-------------? पर कोई उत्तर नहीं मिल रहा है। जबकि मियां इकबाल के समय तो सिर्फ़ दुनिया हमारी दुश्मन थी, अब हम ख़ुद भी अपना दुश्मन बन गए हैं।

नहीं मेरी राह बदल देना

माँ दुर्गा के चरणों में समर्पित

नहीं मेरी राह बदल देना,
मुझे छोड़ के ना तुम चल देना।
रहे चिर काल तक निवास तेरा मेरे हृदय के गह्वर में,
नहीं जमीं पे तुमसे जुदा रहूँ न अलग रहूँ मैं अम्बर में;
छीन के स्वर्गिक प्राकृतिक छटा
नहीं कंक्रीटों का जंगल देना;
नहीं अपनी राह बदल देना,
मुझे छोड़ के ना तुम चल देना।
बीते जीवन मेरा तेरी ही पूजा में,
नहीं चाहूं इसके सिवा दूजा मैं;
टूट जाए जो सिर्फ़ एक पत्थर से
नहीं ऐसा शीशमहल देना;
नहीं अपनी राह बदल देना,
मुझे छोड़कर ना तुम चल देना।
माता यही है मेरी कामना,
जब-जब हो बुरे वक़्त का सामना;
रख देना हाथ मेरे कंधे पर,
यह दया करना इस अंधे पर;
जब पड़ जाए अकाल मेरे जीवन में
तुम प्यार की नई फसल देना;
नहीं अपनी राह बदल देना,
मुझे छोड़ के ना तुम चल देना।
सौंपकर जीवन तेरे हाथों में,
आ गया मैं तेरी बातों में;
तेरे दर्शन को जो तरसती रहे
एक ह्रदय अति विकल देना;
नहीं अपनी राह बदल देना,
मुझे छोड़ के ना तुम चल देना।
कहीं ऐसा न हो कि कभी मुझे छोड़नी पड़े अपनी राह,
मेरा साहस न चुक जाए और मृत हो जाए जीने की चाह;
जो तूफानों में भी ना विचलित हो
मुझे विश्वास ऐसा अटल देना;
नहीं अपनी राह बदल देना,
मुझे छोड़ के ना तुम चल देना।
मेरे स्वाभाविक जीवन में कभी विघ्न न हो,
मेरा मन उत्तेजनाराहित रहे और अधिक उद्विग्न न हो;
तुम मेरे लिए जरूर ऐसा
कोई इंतजाम कर देना;
नहीं अपनी राह बदल देना,
मुझे छोड़ के ना ख़ुद चल देना।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

बिहार के उप चुनाव परिणाम : संकेत और निहितार्थ

हममें से कई बुद्धिजीवी राजनीति पर बात करने से भी कतराते हैं और मानते हैं कि राजनीति से दूर रहने में ही भलाई है। लेकिन क्या हम ऐसा करके ख़ुद को ही धोखा नहीं दे रहे होते हैं? एक यूरोपियन राजनीतिज्ञ ने कहा भी है कि हमारी रुचि भले ही राजनीति में नहीं हो राजनीति कि रुचि हममें हमेशा होती है। हमारे रहन- सहन से लेकर हमारे सामाजिक परिवेश तक को राजनीति प्रभावित करती है। इसीलिए अगर हम बिहार में हुए उपचुनाव के परिणामों पर एक नज़र डालें तो यह कोई ग़लत काम नहीं होगा।
बिहार हमेशा से भारत की राजनीति को मार्ग दिखाता रहा है। बिहार निश्चित रूप से परिवर्तन की ओर अग्रसर है। इस परिवर्तन को बिहार की जनता ने लोक सभा चुनाव में रा ज ग को वोट देकर स्वीकार भी किया। फ़िर सवाल उठता है कि मात्र तीन महीने में ऐसा क्या हो गया कि नीतीशजी को चिंतन बैठक बुलाने कि जरूरत आन पड़ी। कारण कई गिनाए जा सकते हैं। सबसे पहली बात कि नीतीशजी ने एकबारगी सबको नाराज़ कर दिया। युवा शिक्षामित्र नियुक्ति के तीन साल बाद हटायेजाने या हटायेजाने का खतरा उत्पन्न हो जाने से नाराज़ हो गए। जबकि लोकसभा के चुनाव में इन्होने काफी बढ़-चढ़कर सरकार का समर्थन किया था।
विश्वविद्यालय के कर्मचारी विश्वविद्यालयों में राज्य सरकार के बढ़ते हस्तक्षेप और अनियमित वेतन से नाराज़ थे। विश्वविद्यालय शिक्षकों कि उम्रसीमा ६५ साल किए जाने कि घोषणा ने शिक्षकों और युवाओं दोनों को एकसाथ नाराज़ किया। शिक्षक लागू नहीं किए जाने से और युवा इसकी घोषणा मात्र से क्षुब्ध थे।
इस तरह सरकार ने सभी वेतनभोगियों को अपने खिलाफ कर लिया।
जातीय आधार पर देखा जाए तो सवर्ण न्यायिक क्षेत्रों में आरक्षण, बटाईदारी कानून लागू करने की आशंकाओं, पंचायतो में आरक्षण आदि कारणों से सरकार को सबक सिखाने के मूड में थे.
पिछडों में यादव मतदाता फ़िर से आर जे डी की ओर मुड गए, मुस्लिम वोटों में बिखराव आ गया और दलितों को अपना भविष्य एल जे पी के हाथों में ज्यादा सुरक्षित दिखा.
परिणाम आपके सामने है। कानून-व्यवस्था के क्षेत्र में सुधार अवश्य हुआ है लेकिन अफसरों की तानाशाही भी बढ़ गई है। बिजली एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें स्थितियां सुधरने के बजाए बिगड़ी है। नीतीशजी ने सोचा था कि कांटी और बरौनी ताप विद्युत घर एन टी पी सी के हाथों में देने से स्थिति में सुधार होगा। लेकिन केंद्रीय उपक्रम होने के कारण एन टी पी सी जान-बूझकर बिहार सरकार को परेशां करने लगा है और नीतीशजी सिवाय मूकदर्शक बने रहने के कुछ भी कर पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं। बिहार के मतदाताओं में साक्षरता की कमी भी रा जग की हार में कहीं-न-कहीं जिम्मेवार रही है। लालू जानते थे कि बिहार की जनता नहीं जानती है कि महंगाई के लिए केन्द्र सरकार जिम्मेदार होती है। इसलिए उन्होंने महंगाई के लिए राज्य सरकार को दोषी ठहराया और इसका लाभ भी उन्हें मिला।
परिणाम चाहे जो भी रहा हो मैं मानता हूँ कि बिहार अब विकास की पटरी पर लौट आया है और इसके लिए सबसे ज्यादा साधुवाद के पत्र हैं नीतिश कुमार। कभी-कभी बदलाव जनता को मनमाफिक नहीं भी बैठता है। जैसा आंध्र में चंद्रबाबू के साथ हुआ। इसलिए उन्हें हर कदम फूंक- फूंक कर उठाना होगा। कहने कि जरूरत नहीं- बहुत कठिन है डगर राजनीति की।

बुधवार, 16 सितंबर 2009

शशि थरूर क्या विदेश राज्यमंत्री होने के लायक हैं?

भारत के सार्वकालिक महान कूटनीतिज्ञ और विदेश राज्य मंत्र शशि थरूर ने विमानों के इकोनोमी क्लास को जानवरों का बड़ा कहकर कांग्रेस के सादगी के अभियान को जोरदार झटका दिया है. हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने इकोनोमी क्लास में विमान-यात्रा कर अपनी पार्टी की सरकार के मंत्रियों को सादगी का संदेश दिया था. हालाँकि उनकी यह कथित सादगी भरी यात्रा अंततः सरकारी क्षेत्र की विमान कम्पनी के लिए चूं-चूं का मुरब्बा ही सिद्ध हुई और सुरक्षा कारणों से लगभग आधी सीटें खाली करवानी पर गईं. कुछ इसी तरह की घटना राहुल गाँधी की रेल यात्रा में भी देखने को मिली, जिसका गुब्बार अभी थमा भी नहीं है.
ये श्रीमान शशि थरूर वही व्यक्ति हैं जिनको भारत ने यूएन ओ के महासचिव पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाया था. शशिजी को इकोनोमी क्लास जानवरों का बड़ा लगता है तो इसका सीधा मतलब है की इसमें यात्रा करने वाले उनकी नज़र में जानवर हैं. फ़िर हम ज़मीन पर चलने वाले लोगों के लिए तो नया विशेषण ही गढ़ना होगा. शायद शशिजी ने कुछ सोंच भी रखा हो. क्या बिडम्बना है की शशिजी जिस सरकार में विदेश राज्य मंत्री हैं, वह हम जमीन पर रेंगने वाले कीडे- मकोडों के वोट से बनी है। हालाँकि कांग्रेस पार्टी ने उनके मतों को नकार दिया है, क्या इस तरह की विलासितापूर्ण ज़िन्दगी जीने वाले व्यक्ति को मंत्री बनाये रखना उचित है; वह भी ऐसी सरकार में जो कथित रूप से आमलोगों की चिंता करने वाली सरकार है।

धनवान?

एक बूढा-सा जीर्ण- शीर्ण कायावाला
तथाकथित भिखारी सो रहा है;
खुले आसमान के नीचे
सारी चिंताओं को कदाचित अपने
ईंट रुपी तकिये के नीचे दबाकर,
चेहरे पर लिए परम संतोष का भावः
जो शायद उसकी कंगाली से उपजा है;
वह बीच-बीच में मुस्कुराता भी है,
न जाने कौन- से सपने देखकर;
शायद भरपेट रोटी मिलने के सपने;
आती-जाती सांसों के साथ
गालों के फूलने और पिचकने से,
मालूम हो रहा है की वह जीवित है अब भी;
सीने में बंद यही एक मुट्ठी बंद हवा,
उसकी एकमात्र संपत्ति है;
वह सुख-दुःख, मान-अपमान
से ऊपर उठ चुका है,
और बन चुका है
दुनिया का सबसे धनवान व्यक्ति.

टूटते-दरकते रिश्ते

भारत में विवाह समझौता नहीं बल्कि संस्कार माना जाता रहा है। लेकिन वर्तमान के जटिल यथार्थ के सामने क्या इस रिश्ते में इतनी गर्माहट बच गयी है जिसके चलते पति-पत्नी स्वाभविक जीवन-साथी माने जाते थे? आजकल के युवाओं में वैसे भी सबकुछ ठेंगे पर रखने का फैशन है, चाहे रिश्ते हों या कानून। पहले जहाँ इस पवित्र बंधन के द्वारा दो लोगों का जीवन दो नहीं रहकर एक हो जाता था अब ऐसा नहीं हो पा रहा है।
पति हो या पत्नी दोनों जीवन की अपने हिसाब से व्याख्या करने लगे हैं, अब दोनों की अपनी ज़िन्दगी भी है, अलग-अलग। एकात्मता जहाँ समन्वय को बढ़ता है, अलगाव की अवस्था में सम्बन्ध समझौते में बदल जाता है। फ़िर चाहे वह भक्त या भगवान के बीच का सम्बन्ध हो या मानव और मानव के बीच का। हम अपने आराध्य से मनौती मानते हैं कि मुझे यह दे दो तो मैं पूजा-अनुष्ठान का आयोजन करूंगा या दर्शन के लिए आऊंगा यहाँ भी एक समझौता है।
तो फ़िर रिश्तों के कमजोर पड़ने के कारण क्या हैं? कारण जहाँ तक मेरी दृष्टि जाती है वो है प्रेम की कमी। प्रेम में त्याग छिपा होता है। राम प्रेम की प्रतिमूर्ति होने के साथ-साथ त्याग की भी प्रतिमूर्ति हैं।
आज के युवा अपने अधिकारों के प्रति को जागरूक हो गए हैं लेकिन कर्तव्यों के मामले में यही बात दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है। कर्तव्यों पर अधिकारों को हावी होते हुए आप महाभारत में भी देख सकते है. कर्तव्य और अधिकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरा सिर्फ़ अराजकता को जन्म देता है। वर्तमान भारत में चारों ओर छाई अराजकता के पीछे भी शायद यही कारण है। नेताओं और अधिकारियों को असीमित अधिकार तो दे दिए गए लेकिन कर्तव्य ज्ञान कौन कराएगा? कदाचित रिश्तों के दरकने के पीछे भी यही कारण है। रामायण से महाभारत तक के समय में आए अन्तर में हम इसे स्पष्ट देख सकते हैं। जहाँ रामायण में हर कोई त्याग के लिए तत्पर है वहीं महाभारत में बिना कर्तव्य किए ही दुर्योधन अधिकार चाहता है और इस क्रम में पांडवों
के अधिकारों की अनदेखी करने लगता है।

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

नीतिश और भ्रष्टाचार

बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमारजी आजकल भ्रष्टाचार के खिलाफ जेहाद करते दिखना चाह रहे हैं. वे केन्द्र की सरकार से मांग कर रहे हैं की वह भ्रष्टाचार के मामलों को तीव्र गति से सुनवाई करने के लिए नए फास्ट ट्रैक न्यायालयों के गठन की अनुमति दे.
क्या वास्तव में वे भ्रष्टाचार का खत्म चाहते हैं? लोकसभा चुनाव के समय बिहार राज्य विद्युत बोर्ड के अध्यक्ष स्वपन मुखर्जी के खिलाफ निगरानी विभाग ने २१ करोड़ रुपए की हेरा-फेरी का मामला पकड़ा था. लेकिन आज तक कुछ हुआ नहीं और मुखर्जी साहब अब भी बाईज्ज़त अपने पद पर बने हुए हैं. क्या कोई आम आदमी निगरानी के सिकंजे में आता तब भी सरकार का यही रवैय्या होता? क्या निगरानी की तलवार सिर्फ़ छोटे अधिकारीयों और कर्मचारियों के लिए है?

सोमवार, 14 सितंबर 2009

सब कुछ करना पड़ता है

सब कुछ करना पड़ता है;
लाखों दुखों को दबाकर दिल में,
होकर अपमानित भरी महफ़िल में ;
हँसते रहना पड़ता है,
सब कुछ करमा पड़ता है.
सुनते रहना पड़ता है बातें,
फ़िर भी मामूली रकम हैं पाते;
मामूली रकम पाकर भी
बॉस से डरना पड़ता है,
सब कुछ करना पड़ता है.
काम करते हम रात में जगकर ,
घर-परिवार ईष्ट -मित्रों को तजकर;
सुनहरे भविष्य की आशा में
शोषण को तैयार रहना पड़ता है,
सब कुछ करना पड़ता है.

महान बी. एस. एन. एल.

भारत सरकार का उपक्रम बी. एस. एन. एल. अपनी महान कार्यशैली के लिए अपने ग्राहकों के बीच प्रसिद्द रहा है. इसकी सेवाओं से बुरी तरह प्रभावित होने के बाद हम हाजीपुर वासियों ने कुल जमा ५ साल का दुरूपयोग करते हुए इसका नया अब्ब्रेविअशन तैयार किया भाई साहब नहीं लगेगा. क्यों परेशान हो रहे हैं? जिस तरह यह देश सुख और दुःख के अनुभवों से परे रहते हुए चलाया जा रहा है उसी तरह बीएसएनएल भी पूरी तरह भगवान भरोसे चल रहा है.
बेरोजगारों का सम्मान करने में भी इसका जवाब नहीं. जिस काम कंप्यूटर फोरमेशन के लिए हाजीपुर में अधिकतम ३०० रुपए देने का प्रचलन है, इस महान कंपनी के हाजीपुर स्थित अधिकारी १५०० का बिल बनाकर १२०० रुपए कंप्यूटर मिकैनिक को दे डालते हैं. क्या परदुख कातरता है!
छुट्टी चाहे वह साप्ताहिक अवकाश ही क्यों न हो, घर जाने से पहले इसके कर्मचारी और अधिकारी सभी सेवाओं को बंद कर देते हैं और ग्राहकों को भी अमन-चैन से छुट्टी मानाने के अवसर दे जाते हैं.हमारे देश की सबसे बड़ी नदी यानी भ्रष्टाचार की गंगा बीएसएनएल से होकर भी बहती है. इतने महत्वपूर्ण तीर्थस्थल की उपेक्षा उसके बस की बात भी नहीं है. हर काम २० प्रतिशत के कमीशन पर. खुली दूकान है भाई.
अब ज्यादा क्या बोलूं? मैं क्या शेषनाग भी इसकी महिमा का गुणगान करने में अपने-आपको असमर्थ पाएंगे. खैर बांकी का गुणगान फिर कभी. अभी मुझे अपना फ़ोन कनेक्शन ठीक करवाने बी. एस. एन.एल. कार्यालय जाना है.

शनिवार, 12 सितंबर 2009

आम आदमी की सरकार?

देश महंगाई की बुखार से तप रहा है और हमारी आम लोगों की सरकार मंत्री फाइव स्टार होटल में ऐश कर रहे थे। उनका दुःख है कि उनको अलॉट किया गया बंगला उनके रहने लायक नहीं है। जब दिल्ली के लुटियन ज़ोन में बने बंगले इन कथित इंसानों के रहने लायक नहीं हैं तब फिर २०-२५ हज़ार में बने इंदिरा आवास कैसे रहने लायक हो सकते हैं, क्या सरकार बताएगी? गाँधी का नाम लेकर वोट मांगने वाली पार्टी ने किस तरह गाँधी और उनके सिद्धांतों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है, उसका इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है?

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

कब जागेगी सरकार

बचपन में मैंने एक श्लोक पढ़ा था- व्यव्हारेन मित्राणि जायन्ते, रिपवस्तथा। लेकिन लगता है हमारी केन्द्र सरकार के किसी भी मंत्री ने नहीं पढ़ा। तभी तो वह चीन की तरफ़ से लगातार किए जा रहे शत्रुतापूर्ण व्यव्हार में भी मित्रता के लक्षण खोज रहे हैं। चीन भारत के सभी पड़ोसी देशों में अपना प्रभाव बढ़ने की कोशिश कर रहा है और इसमें उसे सफलता भी मिल रही है। चाहे बांग्लादेश हो या बर्मा या इंडोनेशिया या फ़िर श्रीलंका, हर जगह उसकी दखल बढ़ रही है। पाकिस्तान की पीठ पर तो उसका वरदहस्त है। पाकिस्तान वास्तव में अमेरिका नहीं चीन के बल पर भारत को विगत पचास वर्षों से परेशां कर रहा है। चीन भारत से तीन गुना बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है और सामरिक शक्ति में सिर्फ़ अमेरिका और रूस ही उससे टक्कर ले सकते है। वास्तव में हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री जब वित्त मंत्री थे तब उन्होंने रक्षा अनुसन्धान पर होनेवाले व्यय में भारी कटौती कर दी थी। वर्तमान में भी स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है. माना कि आर्थिक विकास आवश्यक है, लेकिन चारों तरफ़ से दुश्मनों से घिरे रहकर कोई भी देश तब तक आर्थिक महाशक्ति नहीं बन सकता है, जब तक उसमें जरुरत होने पर किसी भी देश से निबटने की क्षमता न हो। इसीलिए तो दिनकर ने कुरुक्षेत्र में कहा था-क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो , उसको क्या जो दंतहीन, विष हीन, विनीत, सरल हो। लगता है हमारी केन्द्र सरकार को न तो देश में लगातार बढ़ रही महंगाई से कोई मतलब है और न ही हमारे देश के चारों ओर चल रही राजनयिक, सामरिक और कूटनीतिक गतिविधियों से। मतलब है तो बस सत्ता में बने रहने से यानि उसका पञ्च लाइन है- सत्ता किसी भी कीमत पर। हाँ एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि कभी-न- कभी सिंघजी ने रामचरित मानस की ये पक्तियां जरूर पढ़ी होगी- मून्दहूँ आँख कतहूँ कछु नाहीं। तभी तो वे मौका मिलते ही झपकी ले लेते हैं। कुछ समझे, श्रीमान ये सोते हुए व्यक्ति की सरकार है, सोती हुई सरकार।

रविवार, 6 सितंबर 2009

महंगाई के कारण और निवारण

आजकल चारों तरफ़ हमारे देश में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती महंगाई के कारण त्राहि-त्राहि मची हुई है और आम आदमी की सरकार जब रोम जल रहा था तब नीरो बंशी बजा रहा था को चरितार्थ करने पर तुली हुई है। यहाँ तक कि लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार की पहली प्राथमिकता ९ प्रतिशत विकास-दर प्राप्त करना बताया। महगाई को पहली प्राथमिकता बताते भी कैसे? उनकी सरकार के अनुसार तो परेशानी का कारण महंगाई का ज्यादा होना नहीं बल्कि मुद्रास्फीति-दर (सरकारी भाषा में महंगाई-दर का यही नाम है) का शून्य प्रतिशत से नीचे चला जाना है। क्या कहना आम आदमी की सरकार का और उसकी आम आदमी की चिंता का। एक तरफ़ तो चीनी के मूल्य पचास रुपए किलो का सार्वकालिक रिकॉर्ड बनाने की ओर अग्रसर है, अरहर की दाल वाजपेयी काल के ३० रुपए प्रति किलो से १०० रुपए प्रति किलो पर पहुँच चुकी है और सरकार कह रही है कि मुद्रा-स्फीति में वृद्धि की दर धनात्मक की जगह ऋणात्मक हो गई है। सबसे पहली बात कि मुद्रा-स्फीति का बढ़ना किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए स्वाभाविक तो है ही जरूरी भी है। अब जहाँ तक सरकार के मानने की बात है कि महंगाई-दर शून्य प्रतिशत से नीचे चल रही है तो ऐसा वह जनता को भ्रमित करने के लिए कह रही है। सरकार जान बूझकर महंगाई को थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर मापती है, जबकि वास्तविक महंगाई का पता उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से चलता है, जो इस समय भी दहाई अंकों में है. महंगाई मौसमी भी होती है जैसे बरसात में सब्जियों के दाम का बढ़ जाना। बेमौसमी महंगाई भी होती है, जैसे
दाल, अनाज और उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होना। लेकिन इस बार की महंगाई इन दोनों से अलग है। अर्थव्यवस्था वृद्धि-दर में तो गिरावट आ रही है वहीं महंगाई (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर) सातवें आसमान पर है। ऊपर से कोढ़ में खाज यह कि मानसून की बेवफाई के चलते चालू वित्तीय वर्ष में कृषि उत्पादन में भी लगभग १५ प्रतिशत की कमी आने के आसार दिखाई दे रहे हैं। जाहिर है कि मांग और पूर्ति में भारी अन्तर पैदा हो गया है। सरकार ने एक बार फ़िर जनता को यह कह कर गुमराह करना चाहा कि विदेशों से दल और अनाज का आयात किया जाएगा, जबकि दुनिया के किसी भी दूसरे देश में यह क्षमता नहीं है कि सवा अरब लोगों का पेट भर सके। मैं तो सोचता हूँ कि सरकार कितनी बेशर्म हो गई है। आजादी के ६२ साल बाद भी हमारी खेती वर्षा पर निर्भर हैं! कारण साफ है उदारवाद की हवा में हम भूल गए कि कृषि पर भी ध्यान देना जरूरी है। हम डॉलर और पाउंड तो नहीं खा सकते। २००८-०९ में कृषि विकास दर १.६ प्रतिशत रह गई जबकि भारत कि तेजी से बढती आबादी के लिए इसका ४ प्रतिशत होना जरूरी माना जाता है। एक बात और अगर आप भी निजीकरण और बाजारवाद के समर्थक हैं तो यह तो इसके दुष्प्रभाव की एक बानगी भर है। बाजार की शक्तियों को दाम बढ़ने में ही लाभ नज़र आ रहा है। उदहारण के लिए, अब हम आटा पाकेट वाला खाते हैं। स्वाभाविक है कि इस व्यवसाय से जुडी कंपनियों ने
गेहूं के मौसम में जमकर इसकी खरीद की और अपने स्टॉक में जमा कर लिया। अब तक तो मूल्य नियंत्रण सरकार के हाथों में था, अब इन कम्पनियों के हाथों में आ गया। अब भी अगर सरकार चाहे तो सभी बिचौलियों को समाप्त कर स्थिति को नियंत्रित कर सकती है, लेकिन इसके लिए ईमानदार नेताओं की जरूरत होगी, जो भारत से विलुप्त हो चुके हैं। हमें कृषि के महत्व को भी समझाना होगा । सिंचाई के वैकल्पिक साधन खोजने होंगे और विभिन्न योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नियंत्रण पाना होगा, अन्यथा युवाओं की तेजी से बढती जनसंख्या वरदान के बजाय अभिशाप बन जायेगी.

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

शर्म करो मीडिया

कल बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतिश कुमार के नाम १८ साल पुराने एक मामले में सम्मन जारी किया। आश्चर्य की बात है कि बिहार के किसी भी बड़े अख़बार ने इसे पेज १ पर प्रकाशित करने कि हिम्मत नहीं दिखाई। बिहार के सबसे बड़े अख़बार ने तो पेज २ पर भी इसे स्थान नहीं दिया। ये बातें क्या दर्शाती हैं? क्या बिहार की प्रिंट मीडिया ने सरकार के आगे घुटने टेक दिए हैं या फ़िर सरकारी विज्ञापन छिन जाने का डर सता रहा है? लगता है कि इन विशालकाय मीडिया समूहों का जनसेवा से कुछ सरोकार नहीं रह गया है। इस उपभोक्तावादी युग में कुछ लोगों के लिए पैसा ही सब कुछ जो हो गया है, भगवान से भी ज्यादा बड़ा.

हिंदुस्तान कोचिंग स्कॉलरशिप

मैं हिंदुस्तान अख़बार में कई वर्ष तक काम कर चुका हूँ और घर में भी हिंदुस्तान ही लेता हूँ। आजकल उसमें इस परियोजना में चयनित छात्र- छात्रों की प्रतिक्रियाएं और अनुभव छापे जा रहे हैं। कोई कहता है कि मेरी तो लाइफ बन गयी, तो कोई कह रहा है कि हिंदुस्तान ने मुझे बर्बाद होने से बचा लिया। खबरें इतने आकर्षक ढंग से छापी जा रही हैं कि लगता है कि जैसे इनका चयन आई आई टी के लिए हो गया है। मैं इस अभियान का विरोधी नहीं हूँ, लेकिन मैं जानता हूँ कि इस समाचार-पत्र में विज्ञापन नुमा समाचारों के लिए संवाददाताओं की कितनी फजीहत की जाती है। मैं अख़बार के नीति-नियंताओं से यह पूछता हूँ कि फ़िर ये खबरें समाचार हैं या स्वयं हिंदुस्तान और ब्रिल्लिएंत कोचिंग का विज्ञापन। अगर ये समाचार हैं तो फ़िर यही बता दें कि समाचार और विज्ञापन में क्या अन्तर है? दूसरी बात यह कि २०००० रुपए से कम मासिक आय वाले छात्र-छात्राएं भाग ले सकते हैं लेकिन हिंदुस्तान टाईम्स मीडिया लिमिटेड के कर्मियों के बच्चे भाग नहीं ले सकते हैं। मैं पूछता हूँ कि क्या हिंदुस्तान के सभी कर्मचारियों का वेतन २०००० रुपए से ज्यादा है या हिंदुस्तान में काम करना अपराध है? जहाँ तक मैं समझता हूँ हिंदुस्तान, बिहार के संभवतः ९० प्रतिशत कर्मियों का मासिक वेतन ३००० से भी कम है, फ़िर क्यों उन्हें इस योजना से बाहर कर दिया गया?

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

ताज़ी हवा

कलम चले तो जिगर खुश भी हो और छलनी भी
कलम रुके तो निजाम ऐ ज़िन्दगी भी रुक जाये
कलम उठे तो उठे सर तमाम दुनिया का
कलम झुके तो खुदा की नज़र भी झुक जाए


- ताज़ा हवा से साभार

बुधवार, 2 सितंबर 2009

ये क्या हो रहा है

हम अक्सर देखते हैं की देश, समाज और हमारे व्यक्तिगत जीवन में बहुत-सी

ऐसी बातें और घटनाएँ होती रहती हैं जो हमारे नियंत्रण में नहीं होती हैं। तब हम परेशां हो जाते हैं और सोचने को बाध्य हो जाते हैं की ये क्या हो रहा है? बीजेपी में जो हो रहा है उसके बारे में आडवाणी जी ने कभी नहीं सोचा होगा। निराश, हताश अमिताभ बच्चन को कभी हरिवंश राय बच्चन ने कहा था की जब तेरे मन का हो तो अच्छा और मन का न हो तो और भी अच्छा क्योंकि संसार को चलनेवाला आपसे ज्यादा जानता है की आपके लिए क्या अच्छा और क्या बुरा है। जीवन में मैंने न जाने कितने उतार-चढाव देखे हैं। आपने भी देखे होंगे। जीवन की अपने गति होती है, वह कभी और कहीं रूकती नहीं है। रूकते हैं हम। अगर आप सत्य के मार्ग पर चलकर सफर तय करना चाहते हैं तो सफलता में हो सकता है की देरी हो। पर वह सफलता विकार- रहित होगी। बिना साइड-एफ्फेक्ट्स के। और आप ज्यादा आनंद पायेंगे। दुनिया वही है लोगों की सोंच बदल गई है। कुछ लोग माउस की क्लिक की तरह तुंरत सफलता पा लेना चाहते हैं। धन कमा लेना चाहते हैं। इस जल्दीबाजी के कारन बहुत-कुछ पीछे छूट जाता है। छुट जाता है माँ का आँचल और सोंधी-सोंधी खुशबू वाली गाँव की जमीन। अंत में पता चलता है जीवन व्यर्थ हो गया। समाज और राष्ट्र से हर किसी को कुछ-न-कुछ प्राप्त होता है। पर हम समाज और देश को देते क्या हैं? कुछ भी नहीं। बिना कुछ दिए सब-कुछ मुफ्त में पा लेने की आशा रखते हैं और जीवन बिताकर चले जाते हैं। आज हमारे आदर्श राम,कृष्ण,गाँधी नहीं बल्कि आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक अपराधी हो गए हैं। जब उद्देश्य ही ग़लत हो या नामालूम हो तो फ़िर परिणाम तो ग़लत आएगा ही। इस पर आप भी गौर करें हमें भी अपने टिप्पणियों द्वारा अवगत कराएँ.