शनिवार, 14 नवंबर 2009

बीमार न्याय व्यवस्था को इलाज की जरूरत


भारतीय न्यायवस्था अंग्रेजों की देन है. जाहिर है अंग्रेज संगीतकारों से भारतीय शास्त्रीय गायन की जानकारी की अपेक्षा तो नहीं ही जा सकती. उनके द्वारा तैयार किया गया न्यायिक ढांचा लगातार बढ़ते आर्थिक शोषण को बनाये रखने की जरूरत पर आधारित था.स्पष्ट है कि स्वतंत्र भारत में इसे बदल देना चाहिए था.लेकिन हमारे अंग्रेजपरस्त राजनेताओं ने इसे बनाये रखा.भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लोकतंत्र, सर्वप्रभुत्व संपन्नता, समाजवाद और पंथनिरपेक्षता के पायों को मजबूत करने के लिए व्यक्ति की गरिमा बनाये रखने के उद्देश्य से आर्थिक और सामाजिक न्याय स्थापित करने का हम भारत के लोगों ने संकल्प व्यक्त किया है. आदर्श राज्य व्यवस्था का लक्ष्य आम आदमी को मिले न्याय में ही साकार होता है. उद्देशिका में कानून सम्मत न्याय की कल्पना की गई है.उच्चतम न्यायालय सर्वोच्च न्यायपालिका है. राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय अत्यंत महत्वपूर्ण न्याय केंद्र है. उन्हें परमादेश निकलने की उच्चतम न्यायालय के बराबर अधिकारिता है और वह भी ज्यादा व्यापक आधारों पर. उच्च न्यायालय के तहत कार्यरत जिलास्तरीय न्यायपालिका है जिसके न्यायाधीशों की नियुक्ति राज्य शासन द्वारा की जाती है. जिला स्तर की कनिष्ठ उपनाम से प्रसिद्द न्यायपालिका को न्याय व्यवस्था का असल बोझ उठाना पड़ता है. सिविल और दांडिक प्रकरणों में संवैधानिक पेंच नहीं होते और न ही ज्यादा विधिक दार्शनिकता ही होती है. गवाही के आधार पर तय किये जानेवाले ऐसे मामलों में न्यायाधीशों का हाथ बाँधता जाता है. राज्य की शासन व्यवस्था भी बहुत अधिक कारगर नहीं होती. इसलिए ऐसे प्रकरणों की संख्या लाखों-करोड़ों में अनगिनत और कठिनतर चुनौतियों में बदल जाती है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती.केंद्रीय बजट में न्यायपालिका का व्यय स्थायी योजना मद में नहीं है. आवश्यकतानुसार उसके लिए राशियों का आवंटन किया जाता है. यही कारण है कि न्यायपालिका में एक-तिहाई पद खाली है और जब इतने पद खाली रहेंगे तो जनता को समय पर न्याय कैसे मिलेगा?वास्तव में नेता-अधिकारी गठबंधन न्यायिक संस्थाओं को अधूरा, आंशिक और अल्पकालीन रखने में अपना लाभ समझ रहा है. अधीनस्थ न्यायपालिका में नियुक्तियां राज्य सरकारों के जिम्मे है. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्तियों में पहले मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों की चलती थी. अब उच्चतम न्यायालय का चलता है. उच्च नयायालय के न्यायाधीश का पद देश में ऐसा अकेला पद है जिसके लिए कोई प्रतियोगी परीक्ष नहीं होती. सिफारिश का भी पता तब चलता है जब नियुक्ति हो जाती है.सौ से अधिक संशोधन के बाद भी भारत के संविधान में अभी तक उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के चयन और उनकी नियुक्ति की विस्तृत प्रक्रिया का निर्धारण नहीं हो सका है.सम्बंधित अनुच्छेदों १२४ और २१७ में केवल इतना ही कहा गया है की सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के सन्दर्भ में राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति करेंगे.उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के मामले में लिखा गया है कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ ही मुख्यमंत्री और राज्यपाल इस प्रक्रिया को पूरा करेंगे.संविधान लागू होने के शुरूआती दशक के दौरान परिपाटियों और संवैधानिक मूल्यों का व्यापक तौर से आदर किया जाता रहा.इंदिरा गाँधी के समय यह सलाह-मशविरे की प्रक्रिया मुख्य न्यायाधीश को पसंद के न्यायाधीश के नाम की सूचना देने तक सीमित रह गई.उस समय कहा जाता था कि न्यायाधीशों के लिए विधि मंत्री को जानना जरूरी है न कि कानून के बारे में जानना.१९९३ में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने इस प्रक्रिया को पूरी तरह पलट दिया और एक झटके में नियुक्ति सम्बन्धी सारे अधिकार अपने हाथों में कर लिया. अब मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के पॉँच सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश निर्णय लेते हैं और राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेज देते हैं. इस तरह भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश बन गया जहाँ गोपनीयता की आड़ में न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं. नई प्रणाली में केवल सत्ता एक जगह से दूसरी  जगह स्थानांतरित हो गई. गोपनीयता की सख्त दीवार अब भी वर्तमान थी.कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पी.डी.दिनाकरन की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायलय में होने को लेकर बहस जारी है. लेकिन यह संकट काफी पहले से चल रहा है.
यह काफी हर्ष की बात है कि केंद्र सरकार न्यायपालिका में सुधार के लिया संसद के शीतकालीन सत्र में विधेयक लाने जा रही है.इसके माध्यम से न्याय में होनेवाले विलंब, न्यापालिका में कायम भ्रष्टाचार और नियुक्ति सम्बन्धी त्रुटियों को दूर करने का प्रयास किया जायेगा.

कोई टिप्पणी नहीं: