दुनिया परिवर्तनशील है.सबकुछ पल-पल बदलता रहता है.समाज बदल रहा है और साथ-साथ बदल रहा है सांस्कृतिक परिदृश्य.दुनिया की सबसे पुरानी भारतीय संस्कृति अगर आज भी कायम है तो इसके पीछे जो शक्ति है वह है इसकी नमनीयता.लेकिन पहले जहाँ सांस्कृतिक परिवर्तन की गति धीमी थी अब वह काफी तेज हो गई है.कल मैं विश्वप्रसिद्ध सोनपुर पशु मेले में घूमने गया था.हाजीपुर और सोनपुर जुड़वाँ शहर हैं और दोनों के बीच में हजारों साल से अनवरत प्रवाहित है सदानीरा नारायणी गंडक.बचपन में जब १९८४-८५ में मैं माँ-पिताजी के साथ मेले में जाता था तब एक चाकू जरूर खरीदता था जिससे अपने ननिहाल जगन्नाथपुर में जहाँ मैं रहता था में कभी बांस का तीर-धनुष बनाता तो कभी शीशम का डंडा तो कभी ताड़ का बैट.इतना ही नहीं तब हथिसार से लेकर घुडसाल और मवेशी बाजार तक में भारी भीड़ रहती थी. लेकिन आज मेला घूमते हुए मुझे भारी निराशा हुई.हाथी और घोड़े तो मेला से गायब थे ही और मवेशी भी नाममात्र के थे.वैसे भी कृषि कार्यों में पशुओं की जरुरत समाप्त हो जाने के चलते कोई भी अब मवेशी पालना नहीं चाहता.हाँ, चाकू सहित लोहे के सामान और मिट्टी की सीटी जरूर जहाँ-तहां बिकते हुए नजर आये. स्थिति देखकर मेरे मन में यह बात आई कि क्या इस मेले के अब भी पशु मेला कहा जा सकता है? अब जबकि यह पशुमेला रहा ही नहीं तब फ़िर इसका एशिया या दुनिया का सबसे बड़ा पशुमेला होने का तो प्रश्न ही नहीं.हाँ, गर्म कपड़ों की दुकानों और गलियों में जिस तरह की भीड़ थी वह शायद इसे दुनिया का सबसे बड़ा मेला साबित करने के लिए काफी हो.विधान-सभा चुनाव के लिए एक साल से भी कम समय शेष रह जाने के कारण हाजीपुर से लेकर सोनपुर तक पूरे मेले में जगह-जगह राजनैतिक दलों के बैनर लगाये गए थे.मेले में ज्यादातर दुकानें कपड़ों की थी.पहले जहाँ एक-दो थियेटर वाले ही मेला में आते थे इस बार आधा दर्जन से भी ज्यादा थियेटर आये हुए थे.अगर मैं कहूं कि सोनपुर मेला का मतलब अब थियेटरों का मेला हो गया है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी.
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