मंगलवार, 24 नवंबर 2009

अधम खेती भीख निदान


यही कोई पच्चीस-तीस साल पहले की बात है.अगर आप भारत के किसी किसान से कहते कि मैं तुम्हे नौकरी दिलवा दूंगा तो वह खेती छोड़कर नौकरी करने को तैयार ही नहीं होता.तब तो हमारे किसान बड़ी शान से कहा करते थे उत्तम खेती मध्यम वान, अधम चाकरी भीख निदान.लेकिन आज हालात ऐसे हैं कि किसानों की खेती में अभिरुचि ही नहीं रह गई है.अभी कुछ ही दिन पहले की तो बात है जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान अपनी गन्ने की फसल को खेत में ही जलाने को उतारू हो रहे थे.आखिर ऐसा क्या हुआ कि कोई भी खेती करना नहीं चाहता.भले ही जब विकल्प न हो तब करने को तैयार हो जाएँ.आज प्रत्येक आधे घन्टे में एक किसान आत्महत्या कर रहा है.आजादी के समय भले ही अंग्रेजों ने लगान की दरें काफी ज्यादा रखी हो पर खेती घाटे का सौदा नहीं था.उस समय देश की ८० प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर थी.१९५०-५१ से ७०-७१ तक कृषि भारत की जी.डी.पी. में ५९ से ४८ प्रतिशत तक का योगदान कर रही थी.तब पूरे देश में नदियों पर बांध बनाकर सिंचित भूमि के क्षेत्रफल को बढ़ाने की कोशिशें की जा रही थी.लेकिन यह अजीबोगरीब तथ्य है कि जैसे ही देश में हरित क्रांति और आर्थिक विकास ने गति पकड़ी अर्थव्यवस्था में कृषि कि हिस्सेदारी घटने लगी और अब जी.डी.पी.में कृषि क्षेत्र का योगदान मात्र १७.२ प्रतिशत का रह गया है.हालाँकि कृषि की कम हिस्सेदारी को विकसित अर्थव्यवस्था का लक्षण माना जाता है.उदाहरण के लिए इंग्लैंड की जी.डी.पी. में २०%,अमेरिका में ३%,कनाडा में ४% और ऑस्ट्रेलिया में मात्र ५% योगदान कृषि का है.साथ ही कहीं इससे भी कम प्रतिशत लोग कृषि कार्य से जुड़े हैं यह भी उतना ही सच है. लेकिन भारत में स्थिति उल्टी है.हमारे यहाँ आज भी ७०% प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर हैं.जाहिर-सी बात है की १७.२% आय में ७०% लोग हिस्सेदार.जैसे-जैसे समय बीत रहा है किसानों की माली हालत ख़राब होती जा रही है.वह किसी नौकरीवाले के यहाँ अपनी बेटी की शादी नहीं कर सकता.दोनों की आर्थिक स्थिति में भारी अंतर जो पैदा हो गया है.फ़िर समाज के दूसरे पेशे में लगे लोगों के आगे खड़ा होने में भी उसे क्यों न शर्म आये?बिहार में कृषि की स्थिति तो और भी ख़राब है.जहाँ पंजाब के किसान १९९६-९७ में मात्र ५६.९ लाख हेक्टेयर जमीन से जो देश के कुल कृषि-क्षेत्र का मात्र ४.६ प्रतिशत था से देश के कुल कृषि उत्पादन का १०.८ प्रतिशत उपजा ले रहे थे वहीं बिहार ९०.६ लाख हेक्टेयर कृषि भूमि से यानि देश के ७.३ प्रतिशत कृषि-भूमि से मात्र ७.१% कृषि-उत्पादन पैदा कर पा रहा था.१९५१ और २००१ के बीच खाद्यान्नों के उत्पादन में ३१४% की वृद्धि हुई, तिलहनों में ३२०% की, गन्ने में ४१२% और रुई के उत्पादन में ३००% की वृद्धि हुई.अकेले गेहूं के उत्पादन में ही १०८३% की आश्चर्यजनक वृद्धि देखी गई.वृद्धि नहीं देखी गई तो खेती पर आश्रित लोगों की संख्या में कमी में.जबकि इस बीच सेवा क्षेत्र का जी.डी.पी. में योगदान ५३.२% और उद्योग का २९.६% हो गया.आंकड़ों से जाहिर है कि हिस्सेदारी में कृषि की हिस्सेदारी को जो क्षति पहुंची उससे वास्तविक लाभ हुआ सेवा क्षेत्र को.जबकि उद्योग क्षेत्र कमोबेश वहीं-का-वहीं बना रहा.सेवा क्षेत्र ऐसा क्षेत्र है जिसमें रोजगार की गुंजाइश  बहुत कम होती है.२००२ में जब कृषि उत्पादन सरप्लस पर था हम ९० डालर प्रति टन की दर से गेंहूं का निर्यात कर खुश हो रहे थे.अपनी गलत नीतियों के चलते मात्र सात सालों में हमारी आत्मनिर्भरता समाप्त हो गयी और आज हम २५० डालर प्रति टन की दर से गेहूं आयातित करने को बाध्य हैं.जरूरत है एक बार फ़िर से कृषि को प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर लाने की.एक लम्बे समय से सिंचित क्षेत्र को बढ़ाने में बड़ा निवेश नहीं किया गया है.सरकार को समझना चाहिए कि किसानों को सड़क तो चाहिए लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण उसके लिए पानी है.साथ ही पशुधन आधारित जैविक कृषि की ओर हमें वापस लौटना पड़ेगा.मोटे अनाज जो कम पानी में भी उपजते थे उनकी खेती को भी प्रोत्साहित करना पड़ेगा.और सबसे जरूरी बात यह कि बाजार और किसान के बीच से बिचौलियों की मौजूदगी को समाप्त करना पड़ेगा.कहना न होगा कि पिछले पचास सालों में हम ऐसा करने में पूरी तरह विफल रहे हैं.

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

भैया जब अन्नदाता ही आत्महत्या करने लगे तब फिर कैसे पेट भरे मानव-समाज का.सरकार भी बस लोलीपॉप दिखाने में लगी है.
अविनाश, नागपुर