मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

मैं कुतिया हूँ!


मैं दुनिया की कथित रूप से सबसे सभ्य प्रजाति आदमी की भाषा में एक कुतिया हूँ। मैं जानती हूँ कि उनकी भाषा में यह एक गाली है यानि मैं दुनिया के लिए एक गाली हूँ। इंसानों को क्या पता कि मेरा जीवन कितना दुःखमय रहा है। जबसे पैदा हुई जाड़ा,गर्मी और बरसात सब मैंने नीले आसमान के तले गुजारी है। कभी किसी ने रोटी दे दी तो किसी ने लात मार दी। रोटी देनेवाले को मैंने पूँछ हिलाकर हमेशा शुक्रिया कहा मगर लात मारनेवाले को कभी काटा नहीं। मैं खुदमुख्तार और आजाद हूँ इसलिए भी मुझे दुःख के थपेड़ों का ज्यादा सामना करना पड़ा। कई बार इंसान हम जैसे स्वतंत्रता पसंद कुत्तों को आवारा भी कह डालते हैं लेकिन हम आवारा नहीं हैं हम तो समय के मारे हैं। इतना कष्ट उठाने के बावजूद मुझे अपनी जिंदगी को लेकर तब तक कोई शिकायत नहीं थी जब तक कि मैं माँ नहीं बनी थी।
                        यही कोई एक महीना पहले मैंने 8 छोटे-छोटे बच्चों को जन्म दिया। 5 काले,दो भूरे और एक चितकबरा। उनमें से चितकबरे को मेरे निवास-स्थान यानि जिस खुले मैदान में मैं रहती हूँ के सामनेवाले घर ने अपना लिया और इस तरह मेरे पास बच गए 7 बच्चे। जब भी कोई इंसान हमारे बच्चों को अपनाता है तो एक साथ हमें दुःख और सुख दोनों होता है। दुःख होता है अपने बच्चे से बिछुड़ने का और सुख होता है यह सोंचकर कि मेरे एक बच्चे का जीवन अब सुरक्षित हो गया। उसी घर के बगल के घर में एक बुढ़िया रहती है जो जब-तब मेरे बच्चों को डंडे और लात से मारती रहती है। बच्चों का क्या वे चले ही जाते हैं उसके कैंपस में रोटी के लालच में।
                                           अभी दस दिन भी नहीं बीते थे मुझे माँ बने कि ठंड पड़नी शुरू हो गई। आप इंसान तो रजाई ओढ़कर आराम से ठंड गुजार लेते हो हम पर इस मौसम में क्या बीतती है यह हमीं जानते हैं। गाँव में तो बुझे हुए अलाव के गड्ढ़ों में बैठकर या घास-भूसे के ढेर में घुसकर हमारे रिश्तेदार गर्मी प्राप्त कर लेते हैं परंतु शहरों में तो खुले आसमान के तले ठिठुरने के सिवाय कोई रास्ता ही नहीं बचता। अकेली थी तो कोई चिंता नहीं थी लेकिन इस बार 7-7 बच्चे भी तो थे। मैं सातों बच्चों को अपने तन से ढँक लेती और रातभर अपने शरीर की गर्मी देती रहती जिससे उनको ठंड न लगे और उनकी मृत्यु न हो। सुबह होते ही फिर पेट भरने की जद्दोजहद। अगर खाना न खाऊँ तो दूध कैसे बने और बच्चों को क्या पिलाऊँ? यकीन मानिए मैं कभी अपने अपने बच्चों को अकेले नहीं छोड़ना चाहती मगर एक तो मेरे पेट की आग और फिर बच्चों को भी दूध चाहिए इसलिए जहाँ-जहाँ इंसान कूड़े फेंकता है मैं भटकती रहती हूँ कि कुछ अवशिष्ट-जूठन मिल जाए।
                                            इसी तरह एक दिन मैं बच्चों के पास नहीं थी। बच्चों को आपस में खेलता-कूदता छोड़कर दूर निकल गई थी कि अचानक इंसानों के तीन-चार शरारती बच्चे आए और मेरे एक काले रंगवाले बच्चे को पूँछ से पकड़कर उठाकर ले गए। मैं दूर से ही सबकुछ देख रही थी। फिर उन्होंने उसको जूठी सब्जियों के रस से भरे गड्ढ़े में डूबा दिया। बेचारा तड़प उठा एक तो भीषण ठंड उस पर मिर्च-मसालों की जलन। उन बच्चों का दिल इतने से ही नहीं माना और वे उस पर पत्थर भी बरसाने लगे। तभी उस पर एक देवदूत सरीखे इंसान की नजर पड़ी और उन्होंने बच्चों को भगाकर मेरे बच्चे को अपने हाथों से बाहर निकाला। जब वह देवदूत बच्चे को अन्य बच्चों के पास छोड़ने आ रहा था तब गलतफहमी में मैं उस पर गुर्राई भी थी मगर उसने कुछ भी बुरा नहीं माना। फिर मैं उस बच्चे को देर तक चाटती रही जिससे उसका तन तो सूख ही जाए उसकी थरथराहट भी दूर हो जाए। खैर किसी तरह मेरा वह प्यारा बच्चा जीवित बच गया।
                          लेकिन वो कहते हैं न कि जब विपदा आती है तो अकेली नहीं आती। कल होकर वही क्रूर बच्चे फिर से आए और मेरे एक भूरेवाले बच्चे को साथ लेकर चले गए। उसी दिन शाम में मैंने उसकी लाश बगल के चौराहे पर पड़ी हुई देखी। वो मेरा सबसे बड़ा बच्चा था। भोला था,तुरंत इंसानों पर विश्वास कर लेता था और थोड़ा-सा पुचकारने पर पीछे-पीछे चल देता था। मैं उसके मृत शरीर को दूर से ही देखती रही और रोती रही,अकेली,चुपचाप। फिर भी मैं उन शरारती बच्चों को शाप नहीं दूंगी मैं इंसान थोड़े ही हूँ कि बदले की भावना रखूँ।
                              यह मेरा सौभाग्य है कि मेरे निवास के पास एनएच नहीं है अन्यथा मेरे कई बच्चे अब तक सड़क-दुर्घटना के शिकार हो चुके होते और इंसानों की मौत मर चुके होते। आज कई दिनों के बाद आसमान पर चटख धूप खिली हुई है। रातभर मेरे छहों बच्चे मुझसे चिपककर ठंड के मारे कराहते रहे लेकिन अभी आपस में खेल-कूद रहे हैं। उनमें से कुछ इतने बड़े हो गए हैं कि खड़े-खड़े ही मेरा दूध पी लेते हैं और मुझे उनको दूध पिलाने के लिए झुकना या बैठना नहीं पड़ता। लगभग सारे-के-सारे बच्चे अब भोजन की तलाश में खुद ही कूड़ों का चक्कर भी लगाने लगे हैं। मैं क्या करूँ बड़ा होने के साथ उनका पेट भी तो बढ़ने लगा है और सिर्फ मेरे दूध से उनकी भूख नहीं मिट पा रही। इंसानों ने भी अब बचा हुआ भोजन फेंकना कम कर दिया है और जो कुछ भी बचता है वे उसे फ्रिज में रख देते हैं। पता नहीं आनेवाले समय में मेरे बच्चों का जीवन कैसे कटेगा? वैसे भी दिन-प्रतिदिन इंसानों का नैतिक पतन होता जा रहा है। वे अब अपनों को भी नहीं बख्श रहे। हमारे बच्चों को भी तो रहना आखिर इंसानों की दुनिया में ही है। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)    
पुनश्च-11-01-2014, मित्रों कल रात से ही हाजीपुर में बरसात हो रही है। मेरी पड़ोसन कुतिया के तीन काले वाले बच्चे रात की बारिश और ठंड को झेल नहीं सके और रात में ही दम तोड़ दिया। खुले मैदान में वो जीवित रह भी कैसे सकते थे जबकि सबकुछ जमा देनेवाली ठंड पड़ रही हो? सुबह अपने बचे हुए बच्चों को लेकर वो कई परिसरों में गई कि कोई तो ऐसा दयालु इंसान होगा जो उसे और उसके बचे हुए तीनों बच्चों को आश्रय दे देगा लेकिन कहीं तो उस पर डंडों की बरसात की गई तो कहीं लात-जूतों की। बरसात अभी भी जारी है और ठंड लगातार बढ़ती जा रही है लेकिन वो बेचारी कुतिया अपने बच्चों के साथ लगातार वर्षा में भींग रही है।                  

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

नो वन किड्नैप्ड नवरुणा


मुजफ्फरपुर से अपने घर से सोते समय खिड़की तोड़ कर 18 सितंबर,2012 की रात में अपहृत कर ली गई नवरुणा के मामले में उस समय दिलचस्प मोड़ आ गया जब केन्द्रीय जाँच एजेंसी सीबीआई ने मामले की जाँच के बिहार सरकार के अनुरोध को ठुकराते हुए केस से संबंधित कागजात वापस कर दिए। ऐसे में प्रश्न उठता है कि अब इस मामले का होगा क्या? क्या इस मामले का भी हश्र वही होने जा रहा जो कभी जेसिका हत्याकांड का हुआ था कि नो वन हैव किल्ड जेसिका? अगर अपहरण हुआ तो लड़की गई कहाँ और अगर नहीं हुआ तो लड़की कहाँ है? जब तीन-चार घंटे में निर्भया के साथ दुष्कर्मी दरिंदगी की प्रत्येक हद को तोड़ सकते हैं तो अपहर्त्ताओं ने 12 साल के उस मासूम के साथ इतने दिनों में कितनी दरिंदगी की होगी यह सोंचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
नवरुणा अपहरण कांड न सिर्फ बिहार पुलिस,सीआईडी बल्कि पूरी बिहार सरकार की कार्यक्षमता पर लगा हुआ एक बहुत बड़ा प्रश्न-चिन्ह है। इस अपहरण कांड और उसके उद्भेदन में बिहार सरकार के तंत्र की विफलता से यह आशंका भी जन्म लेती है कि इसके पीछे कहीं-न-कहीं बहुत-ही प्रभावशाली लोगों का हाथ है। वे कदाचित मुजफ्फरपुर में पीढ़ियों से बसे बंगालियों को भगाकर उनकी बहुमूल्य जमीन पर कब्जा जमाना चाहते हैं। यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि पिछले दिनों कई बंगालियों पर मुजफ्फरपुर में जानलेवा हमले हो चुके हैं। ये लोग इतने अधिक प्रभावशाली हैं कि शायद इनकी सीधी पहुँच न सिर्फ पटना बल्कि दिल्ली के सत्ता प्रतिष्ठानों तक भी है। संदेह तो यह भी उत्पन्न हो रहा है कि क्या सचमुच बिहार सरकार या पुलिस जाँच को लेकर गंभीर है या फिर जाँच का ढोंग मात्र कर रही है? सीबीआई ने हालाँकि जाँच से इन्कार करके बिहारवासियों व नवरुणा के परिजनों को निराश किया है तथापि उसको इसलिए कर्त्तव्यविमुखता के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि कानून-व्यवस्था मूल रूप से राज्य का विषय होता है न कि केंद्र का। (हाजीपुर टाईम्स से साभार)

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

कहीं यह कांग्रेस-केजरीवाल का फिक्स मैच तो नहीं?

मित्रों,अभी कुछ दिन जब अरविन्द केजरीवाल अपने कथित पूजनीय गुरू अन्ना हजारे पर कांग्रेस के हाथों की कठपुतली होने और दोनों के बीच सबकुछ पूर्वनिर्धारित होने का आरोप लगा रहे थे तब मैं यह सोंचने में लगा था कि कहीं कांग्रेस और केजरीवाल के बीच फिक्स मैच तो नहीं चल रहा है? वरना ऐसा न तो पहले देखा गया था और न ही सुना गया था कि कोई पार्टी उसी पार्टी की सरकार को बिना शर्त समर्थन दे जिसने उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिन्ह लगा दिया हो और कांग्रेस जैसी धूर्त पार्टी ऐसा महामूर्खता तो बिना वजह के कर ही नहीं सकती।
                    मित्रों,जहाँ तक मुझे लगता है कि आप पार्टी कांग्रेस की प्रयोगशाला में तैयार तजुर्बा है जो मोदी रथ को रोकने के लिए इस्तेमाल की जा रही है। याद कीजिए कि केजरीवाल को प्रमोट किसने किया-केंद्र की कांग्रेस सरकार ने। अन्ना हों या केजरीवाल दोनों ही कांग्रेस द्वारा फिक्स किए गए मैच को खेल रहे हैं। कहना न होगा कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का आप पार्टी प्रयोग बेहद सफल रहा है। सत्ता का जाम भाजपा के होठों तक पहुँचते-पहुँचते दूर हो गया है। सोंचिए,कल्पना कीजिए कि अगर कांग्रेस ने बिना शर्त समर्थन देकर आप को सत्ता में आने का अवसर नहीं दिया होता तो क्या होता? तब केजरीवाल अभी तक मीडिया से सिरे से गायब हो चुके होते और यह चर्चा शुरू ही नहीं होती कि क्या केजरीवाल अब मोदी का रथ रोकेंगे? जाहिर है कि अगर दिल्ली विधानसभा की तरह ही लोकसभा चुनावों में भी त्रिशंकु की स्थिति बनती है तो सबसे ज्यादा संतोष कांग्रेस को होगा। चाहे मुख्यमंत्री केजरीवाल हों या शीला दीक्षित या फिर प्रधानमंत्री अरविन्द केजरीवाल हों या मनमोहन सोनिया गांधी परिवार को कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण सहित अधिकांश मुद्दों पर आप और कांग्रेस की विचारधारा एक है। कांग्रेस को अगर नफरत है तो सिर्फ हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व से जिसके उभार को रोकने के लिए वो केजरीवाल तो क्या ड्रैकुला से भी हाथ मिला सकती है। जो मित्र केजरीवाल के बार-बार जनता के पास जाने और हर काम को जनता की ईच्छा बताकर करने को नई तरह की राजनीति की शुरुआत मान रहे हैं उनको मैं हिटलर का इतिहास पढ़ने की सलाह दूंगा जो केजरीवाल की ही तरह जनता की ईच्छा बताकर बुरे-से-बुरे काम को अंजाम दिया करता था। जनलोकप्रियता की राजनीति हमेशा अच्छा परिणाम नहीं देती बल्कि कई बार शासन को देश-प्रदेश के हित में जनाकांक्षाओं की अनदेखी भी करनी पड़ती है।
                               मित्रों,इस बीच आप पार्टी के नेताओं के सुर भी आरोपों और वादों को लेकर बदलने लगे हैं। पहले जहाँ ये स्वयंभू-स्वघोषित ईमानदार बिजली कंपनियों से कमीशन खाकर कांग्रेस सरकार पर बिजली के दर बढ़ाने के आरोप लगा रहे थे और यह दावा भी कर रहे थे कि वे बिजली कंपनियों का ऑडिट करवाएंगे और अगर जरूरी हुआ तो उनको हटाकर नई कंपनियों को राष्ट्रीय राजधानी में बिजली वितरण का ठेका देंगे अब सरकारी खजाने से सब्सिडी देकर बिजली बिल को आधा करने और प्रत्येक परिवार को 750 लीटर पानी मुफ्त में देने की बातें कर रहे हैं। मियाँ जब सब्सिडी देकर ही वादों को पूरा करना था जो कि एक छोटा-सा बच्चा भी कर सकता है तो फिर चुनाव से पहले हथेली पर दूब जमा देने के वादे किए ही क्यों थे? ये लोग फरमाते हैं कि जनता का पैसा जनता के ऊपर ही खर्च कर देंगे। मगर यह खर्च करना तो हुआ नहीं लुटा देना हुआ जो बाँकी दल पहले से ही टीवी-लैपटॉप-साईकिल जनता के बीच बाँटकर कर रहे हैं। क्या केजरीवाल एंड कंपनी यह बताएगी कि 36000 करोड़ रुपए के कुल वार्षिक बजटवाले दिल्ली राज्य के लिए वो 20-तीस हजार करोड़ रुपए की सब्सिडी के लिए पैसे कहाँ से लाएगी? इस 36000 करोड़ रुपए में से भी कुछ राशि योजनागत व्यय के लिए होगी जिसमें से वे राशि डाईवर्ट कर नहीं सकते ऐसे में दिल्ली के विकास,नए निर्माण, मेंटनेंस और वेतन के लिए पैसा कहाँ से आएगा? ऐसे में लगता है कि आप पार्टी सरकार बनाने से पहले ही यानि परीक्षा शुरू होने से पहले ही अनुत्तीर्ण हो गई है। केजरीवाल जी चुनाव में मुद्दा बिजली-पानी था न कि यह कि मुख्यमंत्री या विधायकों-मंत्रियों को जेड श्रेणी की सुरक्षा और अन्य सुविधाएँ मिलनी चाहिए या नहीं। (हाजीपुर टाईम्स पर भी एक साथ प्रकाशित)

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

चाहते क्या हैं केजरीवाल और अन्ना?

मित्रों,प्रसंग महाभारत से है। तब पांडव और द्रौपदी अज्ञातवास में राजा विराट के यहाँ शरण लिए हुए थे। कौरव सेनानायक सुशर्मा ने दक्षिण दिशा से हमला कर विराट को बंदी बना लिया था। अर्जुन को राजमहल में छोड़कर बाँकी पांडव उनको छुड़ाने जा चुके थे तभी सूचना मिली कि उत्तर से विशाल कौरव सेना ने आक्रमण कर दिया है। रनिवास में मारे भय के सन्नाटा छा गया। तभी विराटकुमार उत्तर जिनके अभी दूध के दाँत भी नहीं टूटे थे जोश से भर उठे और रथ लेकर युद्धभूमि में पहुँच गए। बृहन्नला बने अर्जुन उनके सारथी थे। जैसे ही बालक उत्तर ने भीष्म,द्रोण,कर्णादि से सुसज्जित कौरव सेना देखी उसके हाथ-पाँव भूल गए और वो रथ से उतरकर भागने लगे। लगता है यही हालत इन दिनों आप पार्टी के अरविन्द केजरीवाल की हो रही है। उन्होंने चुनावों में असंभव वादे कर तो दिए परन्तु अब उनको पूरा करने की सोंचकर ही उनको पसीना आ रहा है और सत्ता की चाबी हाथ में होते हुए भी वे सरकार बनाने से भाग रहे हैं।
               मित्रों,सत्ता की चाबी से एक और प्रसंग याद आ रहा है। वर्ष 2005 में फरवरी में बिहार में विधानसभा चुनाव हुआ। जनता ने कुछ इसी तरह का जनादेश दिया। रामविलास पासवान के 32 विधायक थे और बिना उनको समर्थन दिए या उनसे समर्थन लिए कोई भी सरकार नहीं बननी थी। इसी तरह रामविलास जी अड़ गए थे कि हम न तो किसी को समर्थन देंगे और न ही किसी से समर्थन लेंगे बल्कि हम तो फिर से चुनाव चाहते हैं। उनको लगा कि दोबारा चुनाव होने पर उनको अकेले बहुमत मिल जाएगा लेकिन जनता ने नवंबर में हुए चुनावों में उनसे सत्ता की चाबी ही छीन ली और तब से बेचारे की हालत दिन-ब-दिन पतली ही होती गई। यह संदर्भ ज्यादा पुराना नहीं है और केजरीवाल अगर चाहें तो इससे शिक्षा ले सकते हैं।
                              मित्रों,इस समय यह पता नहीं चल रहा कि केजरीवाल चाहते क्या हैं। अगर वे दिल्ली में जनलोकायुक्त लाना चाहते हैं या जनता को सचमुच बिजली,पानी और दाल-सब्जियों की महँगाई से राहत दिलवाना चाहते हैं,अगर उनको मुद्दों की राजनीति करनी है तो उनको सरकार बनानी चाहिए। अन्यथा अगर उनको सिर्फ सत्ता की राजनीति करनी है तो फिर करें। कुछ लोग कह सकते हैं कि सरकार तो भाजपा भी बना सकती है उनको मैं बता दूँ कि भाजपा किसी भी स्थिति में सरकार बना पाने की स्थिति में नहीं है। केजरीवाल पहले ही कह चुके हैं कि वे न तो किसी को समर्थन देंगे और न ही किसी से समर्थन लेंगे। कांग्रेस भी भाजपा को समर्थन नहीं देगी। अन्य दो को अगर भाजपा अपने साथ ले भी आती है तब भी उसकी संख्या मात्र 34 तक पहुँचती है जबकि केजरीवाल को कांग्रेस बिना शर्त समर्थन देने को तैयार है और भाजपा भी कह रही है कि यदि केजरीवाल उनसे समर्थन मांगते हैं तो वह जरूर उस पर विचार करेगी इसलिए इस समय दिल्ली अगर किसी की सरकार बन सकती है तो वो है आप पार्टी। माना कि केजरीवाल दिल्ली में फिर से चुनाव चाहते हैं परन्तु अगर चुनावों के बाद भी संख्या-समीकरण नहीं बदलता है तब क्या होगा? तब वे क्या कहेंगे और करेंगे? तब क्या वे यह कहेंगे कि वे तीसरी बार चुनावों में जाना चाहते हैं? फिर चुनावों में जो व्यय होगा उसका बोझ कौन उठाएगा?
                            मित्रों,केजरीवाल ने उन सभी ईमानदार नेताओं को जो अपने मूल दल में घुटन महसूस कर रहे हैं को आप पार्टी में आमंत्रित किया है। तो क्या केजरीवाल को सिर्फ जिताऊ उम्मीदवार चाहिए,राजनीति में शुचिता और पवित्रता नहीं चाहिए? क्या केजरीवाल की पार्टी में आ जानेभर से कोई ईमानदार हो जाएगा या हो जाता है? इसी बीच कुछ सर्वेक्षणवीरों ने दिल्ली की 7-8 सौ जनता के बीच इस बात पर सर्वेक्षण किया है कि क्या केजरीवाल को वर्तमान स्थिति में सरकार बनाने के प्रयास करने चाहिए या नहीं। जब चुनावरूपी महासर्वेक्षण से यह पता नहीं चला कि दिल्ली की जनता चाहती क्या है तो फिर 7-8 सौ लोगों का सर्वेक्षण करने से क्या पता लगेगा? ये भाई लोग दरअसल पहले नतीजे सेट करते हैं और फिर बाद में सर्वेक्षण करते हैं।
                              मित्रों,इन दिनों अन्ना हजारे संसद के वर्तमान सत्र में जो कि इसका अंतिम सत्र भी है में जनलोकपाल पारित करने की मांग को लेकर अनशन कर रहे हैं। उनका लक्ष्य पवित्र है लेकिन उनकी कार्यशैली विचित्र है। कभी उनको अतिभ्रष्ट नीतीश शासन स्वच्छ नजर आता है तो कभी वे अपने पुराने चेले अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ नजर आते हैं तो अगले ही पल उनको अरविन्द अच्छे लगने लगते हैं। पता ही नहीं चलता कि अन्ना चाहते क्या हैं? अब तो केंद्र सरकार ने कह भी दिया है कि वर्तमान सत्र में ही लोकपाल विधेयक को पारित करवाया जाएगा इसलिए अब अन्ना के अनशन का कोई मतलब नहीं रह जाता। अन्ना कभी कहते हैं कि उनके मंच पर कोई राजनीतिज्ञ नहीं आएगा फिर महाराष्ट्र के राजस्व मंत्री से मिलते भी हैं और तब कहते हैं कि उनके मंच पर सबका स्वागत है। इसलिए मैं अन्ना से निवेदन करता हूँ कि पहले वे अपने चित्त को स्थिर कर लें फिर चाहे तो आंदोलन करें,जनजागरण या फिर आमरण अनशन।

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

केजरीवाल की जीत जनता की हार

 मित्रों,दिल्ली, 2014, इंडिया कप टुर्नामेंट का सेमीफाइनल दौर समाप्त हो चुका है। भाजपा ने कांग्रेस को और मोदी ने राहुल को इसमें 4-0 से करारी पटखनी दी है। राजस्थान में तो मोदी नाम के राजनैतिक तूफान ने इतना जोर पकड़ा कि कांग्रेस का तंबू ही उखड़ गया। वहीं मध्य प्रदेश में भी कांग्रेसी खेमा पूरी तरह से नष्ट व बर्बाद गया है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का शामियाना पूरी तरह से उखड़़ा तो नहीं लेकिन उसे मोदी नामक तूफान ने भारी क्षति जरूर पहुँचाई है। भारत के दिल दिल्ली में जरूर स्थिति अलग रही जहाँ कांग्रेस को तूफान से जितना नुकसान हुआ उससे कहीं ज्यादा क्षति उसको अरविन्द केजरीवाल नामक बगुला भगत के हाथों उठानी पड़ी और एक तरह से उसका सफाया ही हो गया।
                          मित्रों,जहाँ तीनों राज्यों के परिणामों से मैं अतिप्रसन्न हूँ वहीं दिल्ली के नतीजों से मुझे हर्षमिश्रित दुःख हो रहा है। दुःख इसलिए क्योंकि बड़ी-बड़ी बातों के मसीहा अरविन्द केजरीवाल का न तो साध्य ही पवित्र है और न तो साधन ही। कहने को तो यह व्यक्ति राजनीतिज्ञों को राजनीति सिखाने आया था परन्तु कर वही रहा है जो पहले से अन्य लोग करते रहे हैं। गांधीजी कहा करते थे कि न सिर्फ साध्य की पवित्रता जरूरी है बल्कि साधन की पवित्रता उससे कहीं अधिक आवश्यक है। अरविंद ने यह जीत बरेली दंगों के आरोपी तौकीर रजा और इस्लामिक कट्टरपंथ के प्रतीक बुखारी के समर्थन से पाई है,उसने यह जीत अमर शहीद मोहनचंद शर्मा की शहादत को कलंकित करके पाई है और उसने यह जीत ईमानदारी का नकली मुखौटा जनता को दिखाकर पाई है।
                                  मित्रों,अरविंद के चुनाव जीत जाने से यह साबित नहीं हो जाता कि अरविंद केजरीवाल सच्चे,देशभक्त और ईमानदार हैं। अगर चुनाव इस बात की कसौटी हो सकती है तो लालू, मुलायम ,माया ,मनमोहन,पवार,राजा,कलमाडी आदि तो दर्जनों बार चुनाव जीत चुके हैं और इनमें से कईयों ने तो कई-कई बार विभिन्न राज्यों पर शासन भी किया है। इसलिए मैंने या अनुरंजन झा ने या किसी अन्य चुनाव परिणामों के आने से पहले केजरीवाल की विश्सनीयता पर जो प्रश्न-चिन्ह लगाए थे वे अब भी अपनी जगह बने हुए हैं और मैं समझता हूँ कि आप पार्टी की शानदार सफलता के बाद उनका महत्त्व और प्रासंगिकता पहले से और भी ज्यादा हो गई है। मैं इस बात के लिए जरूर अरविन्द को धन्यवाद दूंगा कि उन्होंने बाँकी पार्टियों के नेताओं को बता दिया है कि एसी में बैठने से अब काम नहीं चलनेवाला। अब उनको जनता का पास जाकर उनकी समस्याओं को समझना होगा और उनके लिए सड़कों पर भी संघर्ष करना होगा,मुकदमे झेलने पड़ेंगे,जेल भी जाना होगा। (पढ़ें आलेख झूठों का सरताज अरविन्द केजरीवाल)
                               मित्रों,अंत में मैं चारों राज्यों विशेष रूप से मध्य प्रदेश और राजस्थान की सभी हिन्दू जनता का अभिनंदन करता हूँ कि उनमें से 90-95 प्रतिशत ने देश की वस्तुस्थिति को समझा। यह उनकी चट्टानी एकजुटता का ही परिणाम है कि जो लोग चुनाव के दौरान मोदी लहर से लगातार इन्कार कर रहे थे अब सन्निपात के शिकार हो गए हैं। इसमें संदेह नहीं कि इन दोनों राज्यों में भाजपा को वोट देकर मुसलमानों के एक बड़े हिस्से ने छद्मधर्मनिरपेक्षतावादी ठगों के भ्रष्टाचार से लाल-लाल फूले-फूले गालों पर करारा तमाचा जड़ा है। मैं उम्मीद करता हूँ कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में भारत की जनता न सिर्फ कांग्रेस बल्कि आम आदमी पार्टी समेत सारी छद्मधर्मनिरपेक्षतावादी बगुला भगत पार्टियों के वजूद को ही मिटाकर रख देगी और भारतीय राजनीति के रुपहले क्षितिज पर नरेंद्र मोदी नामक ऐसा सूरज चमकेगा जिसकी चमक से चीन तो क्या अमेरिका और यूरोप की आँखें भी चौंधिया जाएंगी।

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

हाजीपुर टाईम्स यशस्वी भव

मित्रों,एक आम बिहारी मेधावी छात्र की तरह बचपन से मैंने बस एक ही सपना देखा था आईएएस बनने का परंतु होनी को मंजूर नहीं था। न जाने क्यों जब भी मेरी प्रतियोगिता परीक्षा होती मैं बीमार पड़ जाता या अन्य किसी कारण से उसमें उपस्थित नहीं हो पाता और सिविल सेवा परीक्षा के दौरान भी ऐसा ही हुआ। खैर उसके बाद मैंने सोंचा कि तंत्र को भीतर घुसकर साफ नहीं कर पाया तो क्या हुआ अब पत्रकार बनकर बाहर से हल्ला मचाकर ही साफ करूंगा परंतु कई-कई अखबारों में काम करने के बाद मैंने पाया कि सारे-के-सारे मीडिया संस्थान तो सरकारी विज्ञापन की बीन पर नाचते हैं। फिर मैंने ब्लॉग लिखना शुरू किया और जमकर लिखा भी। लेकिन इसमें भी समस्या थी। कभी किसी अखबार ने मनमाफिक पाया तो ले लिया वरना छोड़ दिया। फिर पेट भरने की समस्या भी सामने थी।
                         मित्रों,इसलिए काफी सोंच-समझकर मैंने इस वेबसाईट हाजीपुर टाईम्स की शुरुआत की है। मैं जानता हूँ कि किसी भी साधन का सदुपयोग भी हो सकता है और दुरूपयोग भी। मैं आपलोगों को भरोसा दिलाता हूँ कि मैं इसका सिर्फ-और-सिर्फ सदुपयोग ही करूंगा। मैं ऐसा इसलिए कर सकता हूँ क्योंकि मैं साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय में विश्वास रखता हूँ। मेरे लिए पैसा कमाने मूल लक्ष्य न तो कभी रहा है और न ही आगे रहनेवाला है। धनालाभ होना तो चाहिए लेकिन मुख्य उत्पाद के रूप में नहीं सहउत्पाद के रूप में। मेरी यह वेबसाईट साधन बनेगी वैशाली से भ्रष्टाचार के समूल उन्मूलन का और आवाज बनेगी आम आदमी की पीड़ा का। इसके तेवर वही रहेंगे जो मेरे ब्लॉग ब्रज की दुनिया के थे या हैं। हमने यह वेबसाईट मौजूदा ढर्रे पर पत्रकारिता करने के लिए स्थापित नहीं किया है बल्कि संपूर्ण पत्रकारिता जगत को यह बताने के लिए किया है कि पत्रकारिता कैसे की जानी चाहिए। मैं अब तक सच्चाई और ईमानदारी के मार्ग पर चला हूँ और आगे भी चलता रहूंगा। सरकारी नौकरी अगर मुझे पानी रहती तो मैं रामविलास पासवान के रेलमंत्री रहते हुए सेटिंग करके रेलवे में घुस गया होता। मैं जानता हूँ कि मेरा पथ अग्निपथ है। कदम-कदम पर मुझे मरणांतक पीड़ा झेलनी पड़ेगी परंतु मेरे हौंसले हमेशा की तरह बुलंद हैं।
                                  मित्रों,एक बात और। हो सकता है कि मेरी वेबसाईट का नाम हाजीपुर टाईम्स देखकर आपको लग रहा हो कि इसका परास सिर्फ हाजीपुर शहर या ज्यादा-से-ज्यादा वैशाली जिला रहनेवाला है। ऐसा हरगिज नहीं होने जा रहा है। जैसा न्यूयार्क टाईम्स मतलब केवल न्यूयार्क नहीं होता या वाशिंगटन पोस्ट का अर्थ केवल वाशिंगटन भर नहीं होता वैसे ही हाजीपुर टाईम्स नाम होने का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि इसमें सिर्फ हाजीपुर से समाचार ही शामिल होंगे या हाजीपुर या वैशाली की घटनाओं की ही विवेचना की जाएगी बल्कि इसकी जद में पूरी दुनिया होगी,पूरी मानवता होती। हाँ,उसका परिकेंद्र जरूर हाजीपुर में होगा। अंत में मैं आप सभी शुभेच्छुओं से अपने इस नवजात शिशु के लिए आशीर्वाद की कामना करता हूँ और आशा करता हूँ कि आपलोग मुझे निराश नहीं करेंगे।             
                

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

हिन्दू हो या मुसलमान आँसुओं का रंग समान


महुआ (वैशाली)।(निसं) जाति और धर्म  के नाम पर समाज में बहुत से सही-गलत कारनामे चलते हैं, लेकिन जिंदगी, हादसा और मौत किसी का मजहब देखकर भेदभाव नहीं करते। महुआ के सिंघाड़ा गांव के दो दोस्त अलग-अलग समुदाय के थे पर दोनों की पीड़ा एक थी। दोनों धरती पर आविर्भाव के बाद से ही अपनी-अपनी गरीबी से जूझते रहे। दोनों ने साथ ही नौकरी की तलाश की। दोनों आंध्र प्रदेश गए । मालपुर सिंघाड़ा निवासी लालदेव पासवान के पुत्र 35 वर्षीय राजीव कुमार और  रामराय सिंघाड़ा निवासी 37 वर्षीय मो.फिरोज आंध्र प्रदेश में एक ही कंपनी में नौकरी भी करने लगे थे। होनी कुछ ऐसी कि पिछले सप्ताह एक भीषण सड़क हादसे में दोनों की मौत भी साथ-साथ हुई। दोनों के शव बुरी तरह क्षत-विक्षत थे। उन्हें पहचानना मुश्किल था। दोनों के शवों को साथ ही गांव लाया गया, लेकिन सही पहचान न हो पाने से राजीव का शव कब्रिस्तान में और फिरोज का शव श्मशान पहुंच गया। लगे थे। होनी कुछ ऐसी कि पिछले सप्ताह एक भीषण सड़क हादसे में दोनों की मौत भी साथ हुई। दोनों के शव बुरी तरह क्षत-विक्षत थे। उन्हें पहचानना मुश्किल था। दोनों का शव साथ ही गांव लाया गया, लेकिन सही पहचान न होने से राजीव अनजाने में ही सही, हिंदू युवक के शव के पास मुसलिम ग्रामीणों ने मातमपुर्सी की और मुसलिम नौजवान की देह के पास हिंदू परिजनों ने विलाप किया। आंसु बहानेवाले नेत्र अलग-अलग संप्रदायों के थे मगर उनका रंग एक था। सिसिकियां भी श्मसान और कब्रिस्तान में एक-जैसी थीं। इनकी कोई अलग मजहबी पहचान नहीं थी। फिरोज के परिजन राजीव के शव को फिरोज की देह समझकर सुपुर्द-ए-खाक कर चुके थे। इधर, श्मशान में शव को जलाने से पहले उसे साफ करने और स्नान कराने के दौरान लोगों को पता चला कि शव राजीव का नहीं, फिरोज का है । फिरोज का शव लेकर जैसे ही लोग सिंघाड़ा रामराय पहुंचे, मुसलिम समुदाय के लोग भौंचक्के रह गए। आनन-फानन में कब्र से राजीव का शव निकालकर उसके परिजनों को सौंपा गया। दोबारा उन दोनों का उनके अपने-अपने धर्म  के अनुसार क्रिया-कर्म हुआ। दो जिगरी दोस्तों की मौत से जहाँ पूरे गांव में मातम का वातावरण है, लेकिन शव की अदला-बदली ने मातमी माहौल की संजीदगी बढ़ा दी है और हिन्दू-मुसलमान दोनों समुदायों को यह सोंचने पर विवश कर दिया है कि जब दर्द और आँसू के रंग एक हैं तो फिर दोनों के बीच वैमनस्यता क्यों? (http://hajipurtimes.in/ से साभार)

सोमवार, 18 नवंबर 2013

जेहादी आतंकवाद पर चुप क्यों हैं मुसलमान?

मित्रों,यह बहुत बड़ी विडंबना है कि एक तरफ तो हमारा भारतीय मुस्लिम समाज उनके धर्म के नाम पर हो रहे देशविरोधी आतंकवाद के खिलाफ आवाज नहीं उठाता वहीं जब उसके मजहब को आतंकवादियों का धर्म कहकर आलोचना की जाती है तो विफर उठता है। अगर हम वैश्विक स्तर पर इस्लामिक आतंकवाद के पैदा होने और पनपने के कारणों की विवेचना करें तो हमारे कई ऐसे मित्र हैं जो मानते हैं कि जेहादी आतंक गरीबी की वजह से फलता-फूलता है। किन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। मैं नहीं मानता कि सिर्फ मुस्लिम समाज में व्याप्त गरीबी के चलते जेहादी आतंकवाद में बढ़ोत्तरी होती है। उदाहरण के लिए इस युग का दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी ओसामा बिन लादेन तो अरबपति था फिर वो आतंकवादी क्यों बना? उसको कौन-से रोटी के लाले पड़े हुए थे कि वो पूरी दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद का प्रतीक बन गया?
                           मित्रों,जहाँ तक बिहार में जेहादी आतंकवाद के पैर फैलाने का सवाल है तो प्रश्न उठता है कि जब वर्ष 2011 में चिन्नास्वामी स्टेडियम बम ब्लॉस्ट के मामले में दरभंगा से कबीर अख्तर को गिरफ्तार किया गया था तब से बिहार के मुस्लिम समाज ने आतंकवाद को मौन सहमति क्यों दे रखी थी? तब क्या सोंचकर राजद ने गिरफ्तारी के विरूद्ध धरना दिया था? क्या सोंचकर तब से लेकर अब तक नीतीश सरकार सबकुछ जानते हुए भी कान में तेल डाले पड़ी हुई थी? क्यों जेसीटीसी की बैठक में नीतीश ने केंद्र पर आतंकवाद के नाम पर बिहारी मुसलमानों को तंग करने का आरोप लगाया था? क्या राजद और जदयू का ऐसा मानना नहीं है कि एक आम मुसलमान उनके धर्म के नाम पर की जा रही देशविरोधी हिंसा को उचित मानता है?
                  मित्रों,सवाल तो यह भी उठता है कि क्यों आजतक मुस्लिम समाज ने कभी किसी आतंकी को पकड़कर स्वयं पुलिस के हवाले नहीं किया? जिस तरह बिहार में आतंकवाद के खिलाफ मुसलमान सड़कों पर उतरने लगे हैं इससे पहले उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया? जिस तरह मोदी के प्रबल विरोधियों में 99 प्रतिशत हिन्दू हैं उसी तरह की स्थिति जेहादी आतंकवाद के संदर्भ में क्यों नहीं है? अगर किसी कौम का आतंक नहीं होता और आतंकवादी इस्लाम के नाम का दुरूपयोग कर रहे हैं तो फिर क्यों मुस्लिम समाज चुपचाप ऐसा अन्याय होने दे रहा है? क्यों कभी 56 इस्लामिक राष्ट्रों के संगठन में आतंकवाद को गैर इस्लामी घोषित और आतंकवाद की किसी भी तरह से मदद नहीं करने का संकल्प पारित नहीं किया गया? इस्लाम के नाम पर जेहाद तो उन इस्लामिक राष्ट्रों में भी चल रहा है और उन देशों में तो मुसलमान ही इस्लाम की रक्षा के नाम पर मुसलमानों को मार रहे हैं। क्या इससे यह समझना चाहिए कि मुसलमान दूसरों के विश्वास का यहाँ तक कि इस्लाम के दूसरे सिलसिलों या पंथों का भी सम्मान नहीं कर पा रहे हैं और इसलिए मार-काट मचाकर अपने मत की श्रेष्ठता को जबर्दस्ती स्थापित करना चाहते हैं?
             मित्रों,वास्तविकता तो यह है कि न तो मुस्लिम समाज और न ही भारत के सत्ता प्रतिष्ठान मुसलमानों की असली जरुरत को समझ रहे हैं। सत्ता यह नहीं समझ पा रही है कि अगर कोई मुसलमान युवक देशद्रोही आतंकी कार्रवाई में लिप्त पाया जाता है तो उसको संरक्षण देने या बचाव करने से मुसलमानों का भला नहीं होनेवाला बल्कि अंततोगत्वा नुकसान ही होगा। आप किसी भी छोटे बच्चे को गोद से नहीं उतारिए जबकि उसकी उम्र चलना सीखने की हो। क्या आप उस बच्चे से वास्तव में प्यार करते हैं? क्या आप ऐसा करके उसको जीवनभर के लिए अपंग नहीं बना रहे हैं? ऐसा अक्सर देखा जाता है कि घर के जिस बच्चे को बेजा दुलार-प्यार देते हैं,बाँकियों को नीचा दिखाकर सिर पर चढ़ाते हैं वो बच्चा बिगड़ जाता है। इसी तरह अगर हम किसी बच्चे को सुबह से लेकर शाम तक सिर्फ टॉफी खिलाएँ तो न केवल उसके दाँत सड़ जाएंगे बल्कि उसका स्वास्थ्य भी खराब हो जाएगा। बटाला-हाऊस मुठभेड़ पर प्रश्न-चिन्ह लगाकर जेहादी आतंकियों के मनोबल को बढ़ाना,मजहब के नाम पर आरक्षण देना,बाँकी मजहबों से ईतर अंधाधुंध अतिरिक्त सरकारी सुविधाएँ देना,दंगा करने की खुली छूट देना,अरब देशों से मदरसों और मस्जिदों के निर्माण और संचालन के लिए अकूत धन की आमद की खुली छूट देना छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों के कुछ ऐसे ही कदम हैं जो अंततः मुस्लिम समाज को नुकसान ही पहुँचाएंगे। यदि इस्लाम का आतंक से कोई रिशता नहीं है या आतंकी मुसलमान हो ही नहीं सकते तो क्या कारण है कि इस्लामिक आतंकवाद का प्रश्न ऑर्गनाईजेशन ऑफ
इस्लामिक कोऑपरेशन की बैठकों में चिंता का विषय नहीं बनता?  क्या इस संस्था को इसका जवाब नहीं देना चाहिए और इसके खिलाफ आवाज भी नहीं उठानी चाहिए? इस्लाम आज शांति के बजाए खून-खराबी करनेवालों का मजहब क्यों बन गया है क्या इसका कोई सीधा उत्तर ऑर्गनाईजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन के पास है? वो कौन-सी ताकतें हैं जो दुनियाभर में जेहादी आतंकवाद के पक्ष में फंडिंग करती हैं क्या ऑर्गनाईजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन ने कभी इसका पता लगाने की कोशिश की?
                 मित्रों,पैगम्बर ए इस्लाम (स. अ.व.अ.) के उत्तराधिकारी और दामाद हज़रत अली(अ.स.) के अनुसार तो वतन से मोहब्बत ईमान की निशानी है तो फिर जो लोग शत्रु देशों के हाथों में खेलकर हमारे देश के निवासियों के खून के ही प्यासे हो रहे हैं क्या उनको मुसलमान माना या कहा जाना चाहिए? अभी देश में जिस तरह से आतंक का माहौल बन गया है वैसा माहौल तो आजादी के समय में भी नहीं था। क्यों मुसलमानों को गुजरात के दंगे तो नजर आते हैं,मुम्बई के दंगे तो नजर आते हैं लेकिन गोधरा की आग दिखाई नहीं देती,मुम्बई के बम-विस्फोट नजर नहीं आते? जब सीधी बात है कि जो आतंकी है वो मुसलमान हो ही नहीं सकता तो फिर वो कौन-से लोग हैं जो इनको अपने घरों में पनाह देते हैं? क्या ऐसे तत्त्वों की मदद करना गैर इस्लामी नहीं है? मैं पूछता हूँ कि क्या यही सब करने के लिए उन्होंने और उनके पूर्वजों ने 1947 में मुसलमानों के लिए बने नए मुल्क पाकिस्तान को ठुकराकर भारत को अपनी मातृभूमि स्वीकार किया था?मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ पटना में अपनी मौत मारे गए आत्मघाती आतंकवादी तारिक उर्फ एनुल के परिजनों को जिन्होंने यह कहकर उसकी लाश लेने और उसका अंतिम संस्कार करने से इन्कार कर दिया कि एक आतंकवादी उनका बेटा-भाई नहीं हो सकता। भारत और दुनिया के सारे मुसलमानों में अगर इसी तरह का जज्बा आ जाए तो वह दिन दूर नहीं कि जब इस धरती से इस्लामिक आतंकवाद का नामोनिशान ही मिट जाएगा।                  
                मित्रों,अगर ऐसा न हुआ और अगर मुस्लिम समाज आतंकवाद के खिलाफ आवाज नहीं उठाता है तो मेरा मानना है कि फिर उसको कोई हक नहीं है तब बुरा मानने या विरोध करने का जब कोई उसके मजहब को आतंकियों का मजहब कहता है। अगर मुस्लिम समाज अपनी आधी आबादी की बाजिब मांगों को कुचलने के लिए बमों और बंदूकों का सहारा लेता है तो उसे कोई अधिकार नहीं है कि वो खुद को तरक्कीपसंद कहे और तब आलोचक का विरोध करे जब उसके मजहब को दकियानूसी या कट्टर कहा जाता है। इसी प्रकार अगर मुस्लिम समाज आधुनिक शिक्षा और आधुनिक संचार उपकरणों के समुचित प्रयोग का विरोध करता है तो मेरा मानना कि उसे कोई हक नहीं है कि वो सरकार से नौकरियों में आरक्षण की मांग करे।

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

क्या खुर्शीद पाकिस्तान के विदेश मंत्री हैं?

मित्रों,काफी दिन हुए। हमारे गाँव में क्रिकेट का मैच हो रहा था। प्रतिद्वन्द्वी टीम बगल के गाँव की थी। गाँव की ईज्जत दाँव पर लगी थी। मैच अपने पूरे शबाब पर था और अंतिम ओवर प्रगति पर था कि हुआ यह कि गेंदबाज का मौसेरा भाई जो बगल के उसी गाँव का था अंतिम बल्लेबाज के रूप में पिच पर आया। गेंदबाज ने गेंद फेंकी। पहली ही गेंद पर बोल्ड। अंपायर ने भी ऊंगली उठा दी लेकिन गेंदबाज भाईचारे पर उतर आया और अंपायर से ही उलझ गया कि उसने तो नो बॉल फेंकी थी। अंपायर भी मरता क्या न करता मान गया। फिर तो ऐसा बार-बार हुआ,बार-बार हुआ। और इस प्रकार हमारे गाँव की टीम एक जीता हुआ मैच हार गई।
                मित्रों,कुछ ऐसा ही मैच इन दिनों भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहा है। पाकिस्तानी सेना की मदद से आतंकवादी बार-बार भारतीय सीमा में घुसपैठ कर रहे हैं। हमारे सैनिकों के सिर उनके सैनिक ट्रॉफी की तरह उतारकर ले जा रहे हैं लेकिन हमारे विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद कहते हैं कि पाकिस्तान को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए क्योंकि उनका मानना है कि पाक सैनिकों ने सिर काटा,गोलियाँ चलाईं,मगर किसी ने न देखा। पूरी दुनिया कह रही है यानि दर्शक कह रहे हैं, अमेरिका यानि अंपायर कह रहा है कि इन तरह की तमाम घटनाओं में पाक सेना का हाथ रहता है लेकिन गेंदबाज खुर्शीद कह रहे हैं कि बल्लेबाज को संदेह का लाभ मिलना ही चाहिए क्योंकि इसका वीडियो फुटेज तो उपलब्ध है नहीं। मैं नहीं जानता कि नवाज शरीफ खुर्शीद के किस तरह के रिश्तेदार हैं लेकिन इन दोनों के बीच कोई-न-कोई किसी-न-किसी तरह का मधुर रिश्ता तो जरूर है वरना कोई इस तरह मादरे वतन के प्रति यूँ ही बेवफा नहीं होता। खुर्शीद इतने पर ही रूक जाते तो फिर भी गनीमत थी लेकिन वे तो अपने मौसेरे भाई की तरफ से बल्लेबाजी भी करने लगे हैं। कहते हैं कि हमसे ज्यादा तो आतंकवाद का शिकार पाकिस्तान खुद है। जबसे वे विदेश मंत्री बने हैं पता ही नहीं चल रहा है कि वे भारत के विदेश मंत्री हैं या पाकिस्तान के। जब भी बोलते हैं तो भारत से ज्यादा पाकिस्तान के पक्ष में ही बोलते हैं। ऐसा वे क्यों कर रहे हैं,ऐसा करने के बदले उनको क्या मिल रहा है,का पता लगाना निश्चित रूप से भविष्य में हमारी जाँच एजेंसियों के लिए चुनौती भरा कार्य होगा। दुर्भाग्यवाश एक तरफ तो पाकिस्तान हमारे देश के कोने-कोने में हमारे बच्चों को गुमराह कर आतंकी बना रहा है,उसके हिन्दुस्तानी चेले गांधी मैदान से लेकर गेटवे ऑफ इंडिया तक पर मानव-रक्त बहाकर दिवाली मनाते फिर रहे हैं और खुर्शीद साहब हैं कि उसके ही गम में पागल हुए जा रहे हैं जैसे इन शेरों में शायर अमीर मीनाई हुए जा रहे थे-
वो बेदर्दी से सर काटें 'अमीर' और मैं कहूँ उनसे,
हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता।

शनिवार, 9 नवंबर 2013

झूठों का सरताज अरविन्द केजरीवाल

मित्रों,मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर टीम केजरीवाल के महत्त्वपूर्ण सदस्य व सर्वेक्षणवीर योगेन्द्र यादव भी इस बात को लेकर देश की जनता के बीच सर्वेक्षण करवाएँ कि देश में सबसे ज्यादा झूठ किस पेशे से संबंधित लोग बोलते हैं तो यकीनन देश की 99 प्रतिशत जनता यही कहेगी कि इस कला में राजनीतिज्ञ लाजवाब हैं। यह राजनीति ही है जिसने कथित रूप से पूरी तरह से सच्चे रहे मनमोहन सिंह को परले सिरे का झूठा व मक्कार बना दिया। नेताओं के प्रति यह घनघोर निराशा का भाव ही था जिसके चलते जब विकट सामाजिक कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल ने पिछले साल गांधी जयन्ती पर राजनीतिज्ञों को राजनीति सिखाने के लिए नई राजनैतिक पार्टी की स्थापना करने की घोषणा की तो जनता के एक बड़े वर्ग को काफी हर्ष हुआ। हालाँकि मेरे जैसे कुछ शक्की किस्म के इंसान अब भी ऐसे थे जो केजरीवाल पर आँख मूँदकर विश्वास करने के पक्ष में नहीं थे। (पढ़िए मेरा 17 अक्तूबर को लिखा गया आलेख http://brajkiduniya.blogspot.com/2012/10/blog-post_17.html)। इस शक की पीछे जो ठोस कारण था वो यह था कि राजनीति में उतरकर केजरीवाल ने न केवल अपने पुराने वादे को तोड़ा था बल्कि उनके ऐसा करने से उनके राजनैतिक गुरू अन्ना हजारे का दिल भी टूटा था। तब जनसामान्य के मन में यह सवाल उठा था कि क्या केजरीवाल ने सीधे-सादे अन्ना का दुरुपयोग किया और समय आने पर उनके दिल के टुकड़े-टुकड़े करके मुस्कुरा के सत्ता की राह में चल दिए? क्या अन्ना आंदोलन में अन्ना को आगे करके जनभावना को उभारना और बाद में उनके मना करने पर भी राजनीति में आ जाना उनकी सोंची-समझी रणनीति थी? हमारे जैसे कुछ भाइयों को यह भी लग रहा था कि केजरीवाल कांग्रेस के धनुष से छोड़ा गया वाण है जो चुनावों में भाजपा का वोट काटने के लिए छोड़ा गया है।
                                             मित्रों,अभी बमुश्किल एक साल ही बीते हैं और अरविन्द की कलई पूरी तरह से उतर गई है। आज उनको देखकर हर कोई यही कहता है कि या तो सालभर पहले का अरविन्द असली था या फिर आज का अरविन्द असली अरविन्द है क्योंकि दोनों अरविन्दों में मात्र एक साल में ही जमीन और आसमान का फर्क आ गया है। सालभर पहले जो अरविन्द सच्चाई का पुतला माना जाता था आज झूठ की फैक्ट्री में तब्दील हो चुका है। सालभर पहले जो अरविन्द वोट बैंक की राजनीति करनेवालों की लानत-मलामत करता था आज खुद ही वोट बैंक की राजनीति कर रहा है। सालभर पहले जिस अरविन्द को वंदे मातरम् कहने में गर्व महसूस होता था आज वो न तो भारतमाता का जयकारा लगाता है और न ही वंदे मातरम् का नारा ही क्योंकि उसे भय है कि उसके ऐसा करने से मुस्लिम मतदाता उसकी पार्टी से हड़क जाएंगे। मुस्लिम वोट बैंक को अपनी तरफ करने के प्रयास में वे कई-कई बार जामा मस्जिद दिल्ली के विवादास्पद ईमाम मौलाना बुखारी की परिक्रमा कर चुके हैं। हद तो तब हो गई जब उन्होंने बरेली दंगों के मुख्यारोपी तौकीर रजा से मुलाकात कर उनसे अपनी पार्टी के लिए समर्थन मांगा। अभी तक रजा कांग्रेस और सपा के लिए मुस्लिम मतदाताओं को प्रभावित करते आ रहे थे। मैं श्री केजरीवाल से पूछता हूँ कि अगर उनको कांग्रेस और सपा की नीतियों पर ही चलनी थी तो क्यों उन्होंने आम आदमी पार्टी की स्थापना की?
                मित्रों,इतना ही नहीं तौकीर रजा मामले में तो उन्होंने झूठ बोलने की प्रत्येक सीमा को मीलों पीछे छोड़ दिया। उनसे मिलने के बाद जब मीडिया में विवाद पैदा हो गया तो उन्होंने तत्काल कहा कि तौकीर साहब एक ईज्जतदार ईंसान हैं फिर जब उनसे पूछा गया कि उन पर तो बरेली में दंगा करवाने का आरोप है तो उन्होंने गुलाटी मारते हुए कहा कि आरोप तो है लेकिन कोर्ट ने अभी सजा नहीं दी है। उनका यह भी कहना था कि यह मुलाकात पूर्वनियोजित नहीं थी बल्कि अकस्मात् थी लेकिन तौकीर रजा ने स्वयं यह कहकर उनके इस दावे को झूठा साबित कर दिया कि केजरीवाल ने कई दिन पहले ही उनसे मुलाकात के लिए समय मांगा था। जब सरदार ही झूठ बोल रहा हो तो कारिंदे क्यों पीछे रहते? कुमार विश्वास जी अब निर्लज्जतापूर्वक यह कहते फिर रहे हैं कि तौकीर से तो उनसे पहले कांग्रेस और सपा ने भी सहायता ली थी। वाह,क्या तर्क है कि वो जो करते हैं वही हमने किया तो फिर आपने क्यों यह दावा किया था कि आप राजनेताओं को यह सिखाने के लिए राजनीति में आए हैं कि राजनीति कैसे की जानी चाहिए? इसी तरह जब केजरीवाल से इंडिया टीवी के कार्यक्रम आपकी अदालत में यह पूछा गया कि उन्होंने राशन माफिया सहित कई-कई दागियों को कैसे टिकट दे दिया तो उन्होंने इसकी जानकारी होने से मना कर दिया। आप ही बताईए कि जिस व्यक्ति को यह पता है कि स्विस बैंक में किस भारतीय के कितने पैसे जमा हैं उसे यह नहीं पता कि उसके किस उम्मीदवार के खिलाफ कौन-कौन से और कितने आपराधिक मामले चल रहे हैं?कौन मानेगा कि वे सच बोल रहे हैं?
                                           मित्रों,अब बात करते हैं उनपर लगाए गए इस आरोप की कि वे कांग्रेस के मोहरे हैं। इस बारे में सबसे पुख्ता प्रमाण मिला है इस खुलासे से कि जिस सर्वे को दिखा-दिखाकर अरविन्द ने पूरी मीडिया को दिग्भ्रमित करने के साथ-साथ पूरी दिल्ली में पोस्टर्स लगवा दिए और दावा करते फिरते हैं कि आप को 37 सीटें मिलेंगी उस सर्वे के पीछे कोई और नहीं बल्कि दिल्ली कांग्रेस का एक पदाधिकारी था। जैसा कि हम सब जानते हैं कि वो सर्वे आप के ही योगेन्द्र यादव ने किसी 'Cicero Associates' नाम की सर्वे फर्म से करवाया था। जब एक चुनावी विश्लेषक को शक़ हुआ कि आखिर आप के सर्वे के परिणाम बाकी बड़ी सर्वे कंपनियों जैसे कि सी-वोटर और एसी नेल्सन से इतने अलग क्यूँ आ रहे हैं तो उसने जांच शुरू की जिसमें पता चला कि यह फर्म (Cicero Associates) इतनी नई थी कि इसकी वेबसाइट मात्र 3 महीने पहले ही बनाई गई थी। जब आगे अनुसंधान किया गया तो पता चला इस फर्म का निदेशक है-'सुनीत कुमार मधुर' और पता है यह मधुर कौन है? दिल्ली कांग्रेस कमिटी का महासचिव। मतलब कि फर्जी फर्म, फर्जी सर्वे, फर्जी सर्वेक्षणकर्त्ता-सबके सब कांग्रेस के द्वारा खड़े किए हुए। ईधर-उधर से तो बहुत ख़बरें आती थी लेकिन अब इस खुलासे के बाद यह बात सप्रमाण साबित हो गई है कि केजरीवाल को किसी अन्य ने नहीं,बल्कि कांग्रेस पार्टी ने ही खड़ा किया है।
                                        मित्रों,यह तो हम पहले से ही जानते थे कि व्यवस्था-परिवर्तन की मांग करना और बात है और उसके लिए लंबा संघर्ष करना दूसरी लेकिन हम यह नहीं जानते थे अरविन्द केजरीवाल का एकमात्र उद्देश्य सत्ता पाना है। मुझे आज यह आलेख लिखते हुए अपार दुःख हो रहा है क्योंकि मैं कई-कई बार अरविन्द केजरीवाल का समर्थन इस उम्मीद में कर चुका हूँ कि कम-से-कम कोई एक राजनेता तो ऐसा है जो व्यवस्था-परिवर्तन की बात कर रहा है बाँकी तो सिर्फ सत्ता-परिवर्तन की बात करते हैं। भाइयों एवं बहनों,अन्ना का आंदोलन कोई छोटा-मोटा आंदोलन नहीं था बल्कि सन् 74 के बाद यह पहला ऐसा आंदोलन था जिसने पूरी व्यवस्था की चूलों को हिलाकर रख दिया था। अब क्या पता कि ऐसा व्यापक आंदोलन फिर से निकट-भविष्य में कभी हो भी या नहीं जबकि देश की हालत तो इस समय पहले से भी कहीं ज्यादा खराब होती जा रही है और दिन-ब-दिन एक और व्यवस्था-परिवर्तक आंदोलन की आवश्यकता बढ़ती ही जा रही है। लेकिन यह भी सही है कि आंदोलन होने से ज्यादा जरूरी है उसका परिणति तक पहुँचना। चाहे जेपी आंदोलन हो या अन्ना आंदोलन दुर्भाग्यवश दोनों को पलीता दोनों के चेलों ने ही लगाया और दोनों ही मामलों में ऐसा सत्ता-प्राप्ति के लिए कांग्रेस के इशारे पर किया गया।

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

काश हिन्दू भी वोट-बैंक होते!

मित्रों,जब भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव सिर पर होता है तब एक खास तरह के बैंक पर चर्चा तेज हो जाती है। जी हाँ,मैं वोट बैंक की ही बात कर रहा हूँ। भारत में वोट बैंक भी कई तरह के हैं और पिछले कई दशकों से उनमें से सबसे प्रमुख है मुस्लिम वोट बैंक। कहने को तो यह वोट-बैंक अल्पसंख्यक है लेकिन बकौल कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर यही वह वोट बैंक है जो भारत में शासक और विपक्ष का निर्धारण करता है। पूरा दुनिया में ईट हैप्पेन्स ऑनली इन ईंडिया। है न अजीब बात कि जो अल्पसंख्यक है वही निर्णायक है और जो बहुसंख्यक है वो मुँहतका,चुनाव से पहले भी और चुनाव के बाद में भी। क्या आप जानते हैं कि वर्तमान सरकार को देश और देशवासियों की चिंता क्यों नहीं है? क्योंकि सरकार बनाने में सक्षम जो मुख्य अल्पसंख्यक या तथाकथित अल्पसंख्यक है उसकी संस्कृति अभारतीय है,आयातित है,उसके लिए भारत एक निवास-स्थान मात्र है माता नहीं है,उसके अधिकांश अनुयायियों को भारत से ज्यादा सऊदी अरब से प्यार है,वो भारत की स्वतंत्रता के लिए कम खिलाफत प्रथा को बनाए रखने के लिए ज्यादा चिंतित रहता है,उसकी पितृ या मातृभूमि भारत नहीं सऊदी अरब है,उसको भारतभूमि की वंदना में वंदे मातरम् गाने या कहने में हिचक है फिर उसके बल पर चुनी जानेवाली सरकार क्यों कर भारत और भारतीयों की संस्कृति और हितों की चिंता करे? केंद्र सरकार तो सऊदी अरब की भक्ति में इस कदर अंधी हो गई है कि उसे सऊदी सरकार द्वारा भारतीय श्रमिकों के हितों के विरुद्ध कदम उठाने पर भी कोई आपत्ति नहीं होती जबकि इस नए तरह के आरक्षण से सबसे ज्यादा छँटनी भारतीय मुसलमानों की ही होनेवाली है और इससे देश में विदेशी मुद्रा की आवक में कमी आएगी सो अलग।
                          मित्रों,प्रश्न उठता है कि भारत में हिन्दुओं को वोट बैंक क्यों नहीं माना जाता जबकि उनकी आबादी देश की कुल आबादी की लगभग 80 प्रतिशत है? क्यों बहुसंख्यक होने पर भी राजनैतिक दलों को हिन्दुओं को खुश करने की वैसी चिंता नहीं है जैसी कि मुसलमानों के लिए है? कारण कई सारे हैं जिनमें से कुछ के लिए हमारा इतिहास जिम्मेदार है तो कुछ के लिए वर्तमान हिन्दू नेता। इतिहास या पूर्वज इसलिए क्योंकि हिन्दू धर्म में सदियों से अति अमानवीय जाति-प्रथा प्रचलित है। इस प्रथा में कुछ इस तरह की कमियाँ रहीं कि कुछ लोग जन्म लेते ही सबकुछ से स्वामी हो जाते थे और कुछ लोगों के पास कुछ भी नहीं रह जाता था। यहाँ तक कि वे भविष्य में अपनी योग्यता के बल पर भी कुछ प्राप्त नहीं कर सकते थे। यद्यपि ऋग्वैदिक काल में जन्म जाति का निर्धारक नहीं था लेकिन बाद में जाति-प्रथा इतनी कठोर होती गई कि व्यक्ति अपने पूर्वजों के पेशे से इतर कोई वृत्ति अपना ही नहीं सकता था चाहे इसके चलते उसका जीवन नारकीय ही क्यों न बन जाए। इन कारणों से हिन्दू या सनातन धर्म एक एकांगी धर्म रह ही नहीं गया और छोटे-छोटे जातीय हितसमूहों का अंतर्विभाजित समूह बनकर रह गया। इन्हीं परिस्थितियों में जब इस्लाम का भारत में आगमन और आक्रमण हुआ तो वंचितों का एक बड़ा हिस्सा उसके साथ हो लिया क्योंकि इस्लाम इस तरह के भेदभावों से पूर्णतया मुक्त था। आज भी भारतीय मुसलमानों का 90 प्रतिशत से भी ज्यादा बड़ा हिस्सा उन्हीं वंचित हिन्दुओं की संतानें हैं।
                           मित्रों,भारत में आधुनिकता के आगमन के बाद से ही हिन्दू धर्म में जातिप्रथा काफी तेजी से कमजोर होने लगी। तार्किकता और वैज्ञानिकता ने छुआछूत को लगभग मिटाकर ही रख दिया। ऋग्वैदिक काल के बाद पहली बार सभी हिन्दुओं के आर्थक,सामाजिक और राजनैतिक हित एक होने लग गए थे कि तभी मेरे ही सजातीय व 1989 में प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह की मंडल राजनीति ने हिन्दू जनमानस को बुरी तरह से बाँटकर रख दिया। उस बँटवारे की जड़ें इतनी गहरी थी कि आज 23 सालों के बाद भी हिन्दू धर्म में जातीय कटुता लगभग जस-की-तस है। कभी बिहार में माई समीकरण के प्रणेता लालू प्रसाद यादव ने 1995 के विधानसभा चुनावों के समय महनार की जनसभा में कहा था कि उनके मतदाता तो अविभाजित होकर मतदान करते हैं जबकि सवर्णों के मत तो सत्यनारायण भगवान के प्रसाद की तरह सभी राजनैतिक दलों में बँट जाते हैं। कुछ साल तक तो भारतीय राजनीति में सबसे निर्णायक भूमिका निभानेवाले यूपी-बिहार में अगड़ी जाति के हिन्दुओं को छोड़कर बाँकी पूरा-का-पूरा जनमत एकमत रहा लेकिन धीरे-धीरे विभिन्न हिन्दू पिछड़ी और दलित जातियों के मतों के अलग-अलग ठेकेदार उभरने लगे। 
                         मित्रों,इस प्रकार इस समय ठीक वही स्थिति हिन्दू मतों की हो गई है जो 1995 में बिहार में सवर्ण मतों की थी जबकि मुस्लिम इस मामले में पहले भी एकजुट थे और आज भी एकजुट हैं। अगर हम हिन्दुओं को राजनैतिक दलों की नीतियों को अपने सापेक्ष बनाना है तो एक होकर मत देना ही होगा। ऐसा कैसे संभव होगा मैं नहीं जानता क्योंकि कुछ राज्यों में कई राजनैतिक दल कुछ जातियों के वोटों के स्वाभाविक हकदार बन गए हैं। दुर्भाग्यवश ऐसे जातिआधारित राजनैतिक दलों का झुकाव भी अपनी जाति-विशेष से ज्यादा मुस्लिम मतों के प्रति ही ज्यादा है। इस समय भारत में भाजपा और शिवसेना को छोड़कर ऐसा कोई राजनैतिक दल नहीं है जिसकी पहली प्राथमिकता हिन्दू हित या हिन्दू मत हों। बल्कि बाँकी सारे राजनैतिक दलों का पहला उद्देश्य मुस्लिम मतों को पाना है और दूसरा उद्देश्य हिन्दू धर्म के किसी जाति-विशेष का मत प्राप्त करना। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी जिस पर कभी जिन्ना ने हिन्दुओं की पार्टी होने का आरोप लगाया था,भी इन दिनों मुस्लिम मतों के लिए मरी जा रही है और जैसे हिन्दू मतों से उसका कोई लेना-देना ही नहीं है।
                          मित्रों,भारत के सभी हिन्दुओं को यह अच्छी तरह से समझ लेना होगा कि जब तक वे एकमत होकर मतदान नहीं करेंगे,जब तक उनके आर्थिक,सामाजिक व राजनैतिक हित एक नहीं होंगे तब तक वे हाशिए पर ही बने रहेंगे। इतना ही नहीं तब तक भारत का विकास भी अवरुद्ध रहेगा क्योंकि हिन्दुओं के लिए भारत जमीन का एक टुकड़ा-मात्र नहीं है बल्कि अपनी माता से भी हजारों गुना बढ़कर भारतमाता है। जाहिर है कि जब हिन्दू भी एक वोट बैंक बन जाएंगे तभी जाकर उनको मान मिलेगा,उनके हितों को ध्यान में रखा जाएगा और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों द्वारा भारत को लूट का चारागाह समझ लेने की गुस्ताखियों का अंत हो सकेगा। याद रखिए-यूनाईटेड वी स्टैंड,डिवाईडेड वी फॉल।

बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

नीतीश कुमार हैं फेंकू नंबर वन

मित्रों,इन दिनों भाजपा के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हालत कुछ ऐसी ही है जैसी कि विराटनगर के मैदान में अर्जुन की थी। मोदी ने कुछ बोला नहीं कि सारे धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदार हिन्दू-अहिन्दू नेता एकसाथ टूट पड़ते हैं उनपर कि उन्होंने यह गलत बोला,वह गलत बोला,ये फेंका,वो फेंका। जबकि सच्चाई तो यह है कि फेंकनेवाले और झूठे वादे-दावे करनेवाले विपक्ष में ही ज्यादा हैं। इनमें से कई तो ऐसे भी हैं जिनका इस मामले में इस वसुधा पर जोड़ ही नहीं है।
                मित्रों,अगर कभी फेंकने का ओलंपिक कहीं हुआ तो निश्चित रूप से उसके सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित किए जाएंगे बिहार के निवर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी। यह श्रीमान् तो राज्य में सिर्फ वही कर देने के वादे और दावे करते फिरते हैं जो इनके बूते में ही नहीं है। जब ये विकास-यात्रा पर होते हैं तब धड़ल्ले से रास्ते में पड़नेवाले हर गाँव-शहर में थोक में शिलान्यास करते हैं और दिन के बदलने के साथ ही उनको भूल जाते हैं। ये कभी पटना में मेट्रो ट्रेन चलाते हैं तो कभी पटना के बगल में नया पटना बसाते हैं। अभी कुछ ही दिन पहले इन्होंने पटना से बख्तियापुर तक गंगा किनारे छः लेन की सड़क बनाने की योजना का शिलान्यास किया है जो शायद गंगा पर बिदूपुर और बख्तियारपुर के सामने बननेवाले दो महासेतुओं के साथ ही इसी शताब्दी में बनकर पूरी हो जाएगी। कभी इन्होंने राज्य के लोगों से वादा किया था कि आगे से संविदा पर बहाली नहीं की जाएगी लेकिन एक बार फिर जैसे ही दिन बदला,सूरज ने पूर्वी क्षितिज पर दस्तक दी नीतीश जी वादे को भूल गए। दिनकटवा आयोगों का गठन करने और इस प्रकार पटना उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को उपकृत कर निवर्तमान जजों को सुखद संकेत देने के मामले में सुशासन बाबू केंद्र सरकार से भी कई कदम आगे हैं। कदाचित् इन आयोगों का गठन ही इसलिए किया गया है कि इनकी रिपोर्ट कभी आए ही नहीं। फारबिसगंज न्यायिक आयोग,कुसहा बांध न्यायिक आयोग इत्यादि इसकी मिसाल हैं। बिहार में (कु)कर्मियों और अ(न)धिकारियों की भर्ती करने के लिए गठित बिहार लोक सेवा आयोग व बिहार कर्मचारी चयन आयोग इन दिनों सिर्फ नाम के लिए या उम्मीदवारों को धोखा देने के लिए परीक्षाएँ आयोजित करते हैं बाँकी सारी सीटें तो पर्दे के पीछे पैसे लेकर बेच दी जाती हैं। इसी प्रकार इन्होंने 2010 के चुनावों के समय वादा किया था कि अगली पारी में राज्य से भ्रष्टाचार को समूल नष्ट कर दिया जाएगा लेकिन हुआ मनमोहन-उवाच की तरह उल्टा और घूस की रेट लिस्ट में बेइन्तहाँ बढ़ोतरी हो गई। इन श्रीमान् के शासन में हर सरकारी दफ्तर-स्कूल-थाने भ्रष्टाचार के सबसे बड़े अड्डे बन गए हैं लेकिन ये फिर भी चाटुकार मीडिया द्वारा सुशासन बाबू कहे जाते हैं। कहने को तो राज्य में निगरानी विभाग है जो बराबर लोगों को घूस लेते रंगे हाथों गिरफ्तार भी करती है लेकिन आज तक शायद किसी रिश्वतखोर को इसने सजा नहीं दिलवाई है। रिश्वतखोर जब जेल से छूट कर आता है तो और भी ज्यादा ढिठाई से घूस लेने लगता है। इसी प्रकार इस विभाग ने दिखाने के लिए कुछ मकान जब्त भी किए हैं लेकिन जिस प्रदेश के कदाचित् 90 प्रतिशत मकान भ्रष्टाचार की देन हैं,जहाँ छतदार मकानवाला जमीन्दार चार-चार बार इंदिरा आवास का पैसा उठाता है और असली जरुरतमंद मुँहतका बना रहता है वहाँ एक-दो दर्जन मकानों को जब्त करने से भ्रष्टाचार का क्या उखड़ जानेवाला है आप सहज ही सोंच सकते हैं। राज्य में अफसरशाही की हालत इतनी खराब है कि छोटे-छोटे अफसर भी मंत्रियों तक की नहीं सुनते। तबादलों ने राज्य में उद्योग का रूप ले लिया है।
                         मित्रों,इस व्यक्ति ने मीडिया को अभूतपूर्व विज्ञापन द्वारा कृतज्ञ बनाकर पूरी दुनिया में यह झूठी अफवाह फैला दी है कि बिहार में कानून-व्यवस्था की स्थिति पूरी तरह से सुधर गई है जबकि सच्चाई तो यह है कि आज भी यहाँ रोजाना दर्जनों अपहरण होते हैं,बैंक लूट होती है। बिहार पुलिस का गठन ही मानों सिर्फ घूस खाने,जनता पर अत्याचार करने व बलात्कार करने के लिए हुआ है अनुसंधान करना और आतंकी कार्रवाई रोकना तो इसकी कार्यसूची में ही नहीं है। पहले बोधगया और अब पटना में आतंकियों ने सफलतापूर्वक बम फोड़े और बिहार पुलिस केंद्र से चेतावनी मिलने के बावजूद मूकदर्शक बनी रही और कदाचित् आगे भी बनी रहेगी। बनी भी क्यों न रहे जबकि मुख्यमंत्री ही आतंकियों को अपना बेटी-दामाद बताते हैं। मुजफ्फरपुर में अपने घर से 18 सितंबर,2012 की रात से अपहृत 11 वर्षीय लड़की नवरुणा का आज तक महान बिहार पुलिस सुराग तक नहीं लगा पाई है जबकि जाहिर तौर पर इसके पीछे उन स्थानीय भू-माफियाओं का हाथ है जिनको स्थानीय नेताओं व प्रशासन का वरदहस्त प्राप्त है।
                         मित्रों,भाजपा कोटे से पथनिर्माण मंत्री नंदकिशोर यादव के अथक परिश्रम से राज्य की सड़कें चिकनी क्या हुई,चंद्रमोहन राय की तत्परता से अस्पतालों और जलापूर्ति विभाग में सुधार क्या हुआ कि नीतीश जी ने मीडिया में विकास के बिहार मॉडल की हवा चला दी। जब विकास हुआ ही नहीं तो विकास का मॉडल कैसा? कई बार श्रीमान् ने उद्योगपतियों के साथ पटना में बैठकें की लेकिन पलटकर कोई उद्योगपति बिहार नहीं आया। जब राज्य के अधिकांश हिस्सों में सरकारी अधिकारी नक्सलियों को बिना लेवी दिए दफ्तरों में बैठ नहीं सकते तो फिर उद्योगपति उनसे कैसे निबटेंगे?
                                मित्रों,फिर एक दिन अचानक नीतीश जी ने यू-टर्न लिया और कहा कि राज्य का सुपर स्पीड में विकास तो हुआ है लेकिन उस विकास के कारण राज्य और भी ज्यादा पिछड़ गया है इसलिए उनके राज्य को विशेष राज्य का दर्जा मिलना चाहिए। कैसा विकास है यह जिसमें केवल शराब-विक्रय से प्राप्त आय ही बढ़ती है? हर मोड़,हर चौराहे पर कम-से-कम एक-एक शराब की दुकान। खूब पीयो क्योंकि इससे राज्य का विकास होगा। उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि अगर विशेष राज्य का दर्जा मिल भी गया तो उद्योगों के लिए जमीन कहाँ से लाएंगे या फिर उद्योग भी उनकी बातों की तरह हवा में ही स्थापित हो जाएंगे? पिछले कई वर्षों से स्कूली छात्र-छात्राओं को सिरिमान जी साईकिलें बाँट रहे हैं। मुखियों को शिक्षक बहाली का अधिकार देकर स्कूली शिक्षा का तो बंटाधार कर दिया और बाँट रहे हैं साईकिल और छात्रवृत्ति। क्या साईकिलें व पैसे पढ़ाएंगे बच्चों को?
                                         मित्रों,श्रीमान् ने भाजपा का दामन छोड़ा सीबीआई के डर से और भाजपा की पीठ में खंजर भोंककर उल्टे भाजपा पर ही विश्वासघात का आरोप लगा रहे हैं। बिहार में एक और नेता हुआ करते हैं लालू प्रसाद यादव जी। हवाबाजी में ये नीतीश जी से थोड़ा-सा ही कम हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में इन्होंने सीरियस मजाक करते हुए वादा किया कि अगर नीतीश साईकिलें बाँट रहे हैं तो मैं छात्र-छात्राओं को मोटरसाईकिलें दूंगा। इतना ही नहीं इन्होंने मुखियों द्वारा बहाल किए गए अयोग्य शिक्षकों को पुराने शिक्षकों जितना वेतनमान देने की भी घोषणा कर दी। अब इन्हीं से पूछिए कि मोटरसाईकिल और वेतन के लिए ये पैसा कहाँ से लाएंगे,चारा घोटाला फंड से या अलकतरा घोटाला निधि से?
                                         मित्रों,हमारे राष्ट्रीय युवराज का नाम भाई लोगों ने भले ही पप्पू रख दिया हो मगर सच्चाई तो यह है कि फेंकने में इनका भी कोई सानी नहीं है। अभी कुछ ही दिन पहले इन्होंने दिल्ली मेट्रो को शीला सरकार की देन ठहरा दिया जबकि यह परियोजना जापान सरकार के सहयोग से वाजपेयी सरकार द्वारा लाई गई थी। कई-कई बार ये पंचायती राज को अपने स्व. पिता की देन बता चुके हैं जबकि भारत में पंचायती राज 1993 में तब लागू किया गया जब केंद्र में नरसिंह राव जी की सरकार थी। इसी प्रकार ये सूचना क्रांति को भी अपने पिताजी की देन बताते हैं जबकि सूचना क्रांति को सर्वाधिक बढ़ावा तब मिला जब वाजपेयी प्रधानमंत्री और प्रमोद महाजन सूचना प्रौद्योगिकी एवं संचार मंत्री थे। इंतजार करिए लोकसभा चुनावों तक ये लाल किला और कुतुबमीनार को भी क्रमशः नेहरू और इंदिरा द्वारा निर्मित बताएंगे। इसी प्रकार केंद्र व उप्र की सरकारों में भी फेंकुओं की कोई कमी नहीं है। कोई 32 रुपए कमानेवाले को अमीर बता रहा है तो कोई दो रुपए में भरपेट भोजन कर लेता है तो कोई हजार रुपए में टेबलेट बाँट रहा है तो कोई घोटाले करके भ्रष्टाचार मिटाने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित कर रहा है तो कोई गरीबों की झोली से प्रति व्यक्ति प्रति माह 10 किलोग्राम अनाज छीनकर भोजन की गारंटी दे रहा है तो कोई गरीबों को कागज पर शिक्षा का अधिकार देने में लगा-भिड़ा है। काम शून्य सिर्फ हवाबाजी। जब भी आतंकी हमला हुआ तो उनींदी मुद्रा में बोल दिया कि किसी को भी नहीं बख्शा जाएगा और फिर सो गए,जब पाकिस्तान ने जवानों को मारा तो ऊंघते हुए कह दिया कि कड़े कदम उठाए जाएंगे और सो गए। जब चीन ने घुसपैठ की तो घुसपैठ होने से ही मुकर गए और चीन की एक दंडवत यात्रा कर ली। कहने को तो सेना के लिए बंदूक की गोली और टैंक का गोला तक नहीं है लेकिन प्रधानमंत्री के अनुसार हमारी सेना किसी भी खतरे से निबटने में सक्षम है। अर्थव्यवस्था रसातल में पहुँच चुकी है लेकिन प्रधानमंत्री औसत के आधार पर इसे राजग कार्यकाल से अच्छा सिद्ध कर रहे हैं। महँगाई तो न जाने कब से अगले सप्ताह से ही कम हो जानेवाली है। मैं पूछता हूँ कि अगर पटेल कांग्रेस के गौरव हैं तो क्यों उनको पूरी तरह से पार्टी द्वारा भुला दिया गया और तभी क्यों उनकी याद आई जब नरेंद्र मोदी ने उनकी विश्व की सबसे बड़ी व ऊँची प्रतिमा स्थापित करने की घोषणी की? छोटे युवराज अखिलेश यादव ने तो खेल के सारे नियम ही पलट दिए हैं। मुजफ्फरनगर में जो पीड़ित पक्ष है उसे ही जेलों में ठूस दिया गया है और जो व्यक्ति दंगों के दौरान अधिकारियों को कोई कार्रवाई नहीं करने के निर्देश दे रहा था अभी भी उप्र सरकार में कैबिनेट मंत्री ही नहीं सुपर चीफ मिनिस्टर बना हुआ है।
                                      मित्रों,अब आप ही बताईए कि वास्तव में बड़ा या सबसे बड़ा फेंकू कौन है? दरअसल राजनीति के मैदान में हर कोई फेंकू है और कुछ तो नीतीश की तरह ऐसे भी हैं जिनको कुछ करना आता ही नहीं है सिर्फ फेंकना आता है। अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि हमारे सभी राजनेताओं में सबसे बड़ा फेंकू कौन है-
हँस-हँस बोले मधुर रस घोले विरोधियों पर बदइंतजामी से उतारे खीस।
झूठ भी बोले सच से अच्छा का सखी मोदी ना सखी नीतीश।।

रविवार, 27 अक्टूबर 2013

धमाकों के बीज गूंजी शेर की दहाड़

मित्रों,बिहार भारत के इतिहास का पालना है। इतिहास गवाह है कि भारत में जब-जब परिवर्तन की आंधी चली है कम दबाव का क्षेत्र सबसे पहले बिहार में बना है। आज पटना के गांधी मैदान में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी की रैली थी। सुबह से ही मैदान में लोगों का आना शुरू हो गया। लेकिन देशविरोधी तत्त्वों का इरादा तो कुछ और ही था। वे तो दुनिया की अब तक की सबसे बड़ी महारैली में आनेवालों को उनके ही खून में नहा देना चाहते थे। एक-एक करके 8 बम फटे जिनमें 5 लोग मारे गए और 50 घायल हो गए। कुछ समय के लिए अफरातफरी भी मची लेकिन परिवर्तन के चिर साक्षी गांधी मैदान से कोई बिना अपने नेता को सुने कैसे वापस जा सकता था? जैसे ही नरेन्द्र मोदी मंच पर आए फिर से मैदान भर गया पहले से भी कहीं ज्यादा। ऐसा जीवट सिर्फ बिहारियों में ही पाया जाता है। देशविरोधियों के इरादे चाहे कितने भी खतरनाक क्यों न हों जनता तो सिर पर कफन बांधकर भाषण सुनने आई थी। इतना ही नहीं 5 विस्फोट तो रैली स्थल पर ही हुए फिर भी न तो जनता ने कोई भगदड़ ही की और न ही मैदान छोड़ा क्योंकि बिहारी मैदान मारने के आदी रहे हैं मैदान छोड़ना उनकी फितरत में ही नहीं है।
                       मित्रों,मैं नरेन्द्र मोदी जी को धन्यवाद देता हूँ और उनकी इस बात के लिए सराहना करता हूँ कि उन्होंने अपने भाषण में लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की। मैं उनका इसलिए भी आभारी हूँ क्योंकि उन्होंने रैली स्थल पर बम फटने के बावजूद अपने संबोधन को स्थगित नहीं किया और बेखौफ होकर जनसभा को संबोधित किया। संबोधन के समय उनके चेहरे की भाव-भंगिमा यह बता रही थी कि वे सचमुच गुजरात ही भारत के शेर हैं। जिस तरह जनता उनको जान हथेली पर लेकर सुनने के लिए डटी रही वह न सिर्फ उनकी लोकप्रियता का परिचायक है बल्कि उससे इस बात का भी पता चलता है कि देश-प्रदेश के मौजूदा हालात से जनता किस कदर उब चुकी है और किस हद तक परिवर्तन की आकांक्षी है। बिहार की धरती पर देश के विकास के दीवानों की वहाई गई खून की एक-एक बूंद बेकार नहीं जाएगी। उनकी शहादत,उनका लहू 2014 के लोकसभा चुनावों के समय पूरे जोश में बोलेगा,मतों के रूप में हुंकारेगा और तब जाकर इस रैली का हुंकार रैली नाम सार्थक सिद्ध होगा। यहाँ अंत में मैं सुशासन बाबू से पूछना चाहता हूँ कि कहाँ है उनकी कानून और व्यवस्था,कहाँ है उनका सुशासन? क्या सिर्फ दिन-रात सुशासन-2 की रट लगाने से ही प्रदेश में सुशासन आ जाएगा? वे कैसे मुख्यमंत्री हैं,किस बात के मुख्यमंत्री हैं जो रैली के दिन भी आतंकी हमलों को रोक नहीं पाए जबकि पहले से ही ऐसा होने की संभावना थी? क्या वे प्रधानमंत्री बन जाने पर इसी तरह से देश को चलाएंगे अगर किसी दिन सूरज पश्चिम से उग गया तो? क्या हम उनसे उम्मीद रखें कि वे इन हमलों के लिए दोषी अपने बेटियों-दामादों को गिरफ्तार करेंगे और सजा दिलवाएंगे?

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

आग से खेल रहे हैं छद्म धर्मनिरपेक्ष

मित्रों,हम सभी जानते हैं कि अलीगढ़ आंदोलन की कट्टर और अलगाववादी विचारधारा व 1909 के मोर्ले-मिंटो अधिनियम के मिलेजुले प्रभाव ने भारत का बँटवारा करवा दिया। कोई भले ही जिन्ना को भारत के बँटवारे के लिए दोषी माने लेकिन भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मोर्ले-मिंटो अधिनियम को ही भारत के बँटवारे के लिए दोषी मानते थे। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक इंडिया डिवाइडेड में उन्होंने लिखा है कि भारत का वास्तविक बँटवारा 14 अगस्त,1947 को नहीं किया गया बल्कि 1909 में ही तभी कर दिया गया जब मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग सामाजिक-राजनैतिक इकाई मानते हुए अंग्रेजों ने उनके लिए अलग निर्वाचन-क्षेत्र और निर्वाचक मंडल बनाने की घोषणा की। तभी से हिन्दू सिर्फ हिन्दुओं को और मुसलमान सिर्फ मुसलमानों को अपना प्रतिनिधि चुनने लगे।
                   मित्रों,आजादी के बाद भारतीय संविधान-निर्माताओं ने इतिहास से सबक लेते हुए संविधान में धर्म के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित कर दिया परन्तु मुसलमान वोट-बैंक पर गिद्ध-दृष्टि गड़ाए नेताओं ने सत्ता के लिए फिर से तुष्टीकरण का वही गंदा खेल खेलना शुरू कर दिया जो कभी अंग्रेज खेला करते थे। सबसे पहले पं. जवाहरलाल नेहरू ने इसकी शुरुआत की हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 को पारित करवाकर जिसके अनुसार आज भी मुसलमानों के लिए अलग दीवानी कानून हैं और हिन्दुओं के लिए अलग। फिर बाद में मुस्लिम मतों के अन्य दावेदार-हिस्सेदार भी सामने आए और इस तरह धोबी पर धोबी बसे तब चिथड़े में साबुन लगे कहावत चरितार्थ की जाने लगी। आज सारे छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी दलों व नेताओं में मुसलमानों को अन्य जनसमुदायों से ज्यादा अतिरिक्त सुविधाएँ देने की होड़-सी लगी हुई है। इन लोगों ने हिन्दू विद्यार्थी-मुस्लिम विद्यार्थी,हिन्दू गरीब-मुस्लिम गरीब,हिन्दू ऋण-मुस्लिम ऋण,हिन्दू बैंक-इस्लामिक बैंक,हिन्दू दंगाई-मुस्लिम दंगाई,हिन्दू दंगा पीड़ित-मुस्लिम दंगा पीड़ित,हिन्दू पर्सनल लॉ-मुस्लिम पर्सनल लॉ,हिन्दू आतंकी-मुस्लिम आतंकी,हिन्दू आतंकवाद-मुस्लिम आतंकवाद,हिन्दू अपराधी-मुस्लिम अपराधी की अलग-अलग श्रेणियाँ बना दी है और वही सब कर रहे हैं जो आजादी से पहले अंग्रेज भारत की एकता और अखंडता  को नुकसान पहुँचाने के लिए किया करते थे। दुर्भाग्यवश इस बार जिन्ना या सर सैयद अहमद खाँ मुसलमान नहीं हैं बल्कि हिन्दू हैं। एक मोर्ले-मिंटो ने एक झटके में उस सिन्धू-गंगा के पानी का बँटवारा कर दिया था जिसको सदियों तक इंसानी खून की नदियाँ बहानेवाली तलवारें भी अलग नहीं कर पाई थीं। फिर आज के भारत में तो न जाने कितने मोर्ले-मिन्टो मौजूद हैं जिससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले वक्त में इस देश से और कितने पाकिस्तान निकलनेवाले हैं।
                    मित्रों,इस तरह के बेहद निराशाजनक माहौल में गुजरात की सरकार बधाई और स्तुति की पात्र है जिसने इस बार बकरीद के दिन हिन्दुओं के लिए परमपूज्य गायों के गलों पर छुरियाँ फेरनेवाले 184 मुसलमानों पर पासा व अन्य धाराओं के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया है जबकि दिल्ली समेत सारी राज्य-सरकारें व केंद्र सरकार बकरीद के दिन गोहत्या की घटनाओं से जानबूझकर अनजान बनी रही। हम 18-11-2011 को ब्रज की दुनिया पर लिखे गए अपने आलेख यह कैसे और कैसी क़ुरबानी? में अर्ज कर चुके हैं कि दक्षिणी दिल्ली के बटाला हाऊस क्षेत्र में बकरीद के दिन मुसलमानों के घर-घर में गायें-बछड़े काटे जाते हैं और ऐसा होते हुए हमने अपनी आँखों से देखा है फिर भी शीला दीक्षित या सुशील कुमार शिंदे ने गोमाताओं को कटने से रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। इतना ही नहीं गुजरात कांग्रेस ने मुसलमानों पर गोहत्या के लिए कार्रवाई किए जाने की निंदा भी की है। क्या ऐसे लोग हिन्दू कहलाने के योग्य हैं? मैं भारत सरकार समेत सभी छद्म धर्मनिरपेक्ष दलों से जो रोगी को भावे वही वैद्य फरमावे के रास्ते पर चलते हुए मांग करता हूँ कि उनको मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग कर सुविधा देने की दिशा में सबसे महान कदम उठाने में तनिक भी देरी नहीं करनी चाहिए और मुसलमानों के लिए अलग से शरीयत आधारित मुस्लिम आपराधिक संहिता बना देनी चाहिए जिससे मुस्लिम अपराधियों व आतंकियों के साथ शरीयत के अनुसार न्याय हो सके। यथा-चोरी करने पर अंग-भंग,व्यभिचार-बलात्कार-हत्या करने पर सरेआम पत्थर मारकर मृत्यु-दंड इत्यादि।

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

दरिंदा बनता सिस्टम

मित्रों,रविवार को मध्य प्रदेश के दतिया में हुए हादसे की परतें जैसे-जैसे उधड़ रही हैं पुलिस का वीभत्स चेहरा सामने आ रहा है। दतिया जिले के रतनगढ़ माता मंदिर में मची भगदड़ के लिए तो लोग पुलिस को जिम्मेदार ठहरा ही रहे हैं, लेकिन भगदड़ के बाद पुलिस ने जो किया उसे सुन कर इंसानियत भी शर्मसार हो जाए। नवभारत टाइम्स के अनुसार प्रत्यक्षदर्शियों ने आरोप लगाया है कि पुलिस ने मरे पड़े कई लोगों के शवों और कुछ घायल लेकिन जिंदा बच्चों को उठाकर नदी में फेंक दिया। इन लोगों का कहना है कि इन्होंने इन बच्चों में कई को बचाया। ये भी बताया जा रहा है कि शवों को फेंकने से पहले पुलिस वाले शवों से जेवर और और पैसे निकालकर अपनी जेबें भर रहे थे। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक, शवों से जेवर उतारने के लिए पुलिस वालों में होड़ लगी हुई थी।
               मित्रों,अखबार के अनुसार हादसे की चश्मदीद रजुश्री यादव का कहना है, 'मैंने पुल पर श्रद्धालुओं को चिल्लाते हुए सुना कि पुलिस शवों और कुछ बच्चों को पानी में फेंक रही थी। मैंने खुद छह बच्चों को बाहर निकाला। इनमें से एक को मैंने नदी से निकाला।' ग्राम रक्षा समिति की सदस्य यादव का कहना है कि उन्होंने पांच बच्चों को उनके परिजनों को सौंप दिया है जबकि एक दो साल की बच्ची अभी भी उनके पास है। यादव के साथ उनके भतीजे कमल प्रजापति भी थे। उनका कहना है कि उन्होंने एक लड़के को डूबने से बचाया।   प्रत्यक्षदर्शी इंदेल अहीरवार का कहना है कि उसने पुलिसवालों को कई लाशों को गाड़ी में कहीं ले जाते देखा। उनका कहना है कि उन्होंने करीब 175 लाशें देखीं थीं। मध्य प्रदेश के ही भिंड की रहने वाली गीता मिश्रा ने स्थानीय संवाददाताओं से कहा, 'मैं भगदड़ के दौरान पुल पर ही थी। पुलिसवालों को 2 दर्जन से अधिक लोगों को नदी में फेंकते देखा।' हादसे में बाल-बाल बचे दमोह के रहने वाले 15 साल के आ‍शीष अहीरवार ने बताया कि जब वह अपने 5 साल के भाई का शव लेने गया तो पुलिस वालों ने उसे नदी में फेंक दिया। आशीष को गंभीर चोटें आई हैं। आशीष का कहना है, 'मैंने उनसे मेरे भाई की लाश देने की भीख मांगी लेकिन उन्होंने उल्टे मुझे ही नीचे फेंक दिया और बोले कि तुम्हें भी मर जाना चाहिए।'सबसे हैरान करने की बात है कि पुलिस ने सीधे-सीधे इस गंभीर आरोप से इंकार भी नहीं किया है। इस बारे में पूछे जाने पर डीजीपी नंदन कुमार दुबे ने कहा कि आरोपों की पड़ताल की जा रही है और अगर इनमें सचाई मिली तो कार्रवाई की जाएगी। रतनगढ़ माता मंदिर के पास बसई घाट पर सिंध नदी का पुल टूटने की अफवाह और फिर पुलिस लाठीचार्ज से मची भगदड़ में 115 लोगो के मरने की खबर है। लोग आशंका जता रहे हैं कि मरने वालों की संख्या 200 से ऊपर जा सकती है। बताया जा रहा है कि हादसे के वक्त वहां करीब 1.5 लाख लोग मौजूद थे। इस बीच इस हादसे के बाद दतिया के डीएम, एसपी, एसडीएम और डीएसपी को सस्पेंड कर दिया गया है।
                             मित्रों,जाहिर है कि इस दुर्घटना में सिर्फ शताधिक मानवों की ही मौत नहीं हुई है बल्कि उससे भी ज्यादा बेरहमी से मारा गया है मानवता को और हत्यारे कोई और नहीं हैं बल्कि वे लोग हैं जिनके कंधों पर इसकी रक्षा की जिम्मेदारी थी। क्या भविष्य में हमारे बच्चे बेखौफ और बेफिक्र होकर संकट के समय पुलिस अंकल से मदद की गुहार लगा सकेंगे? प्रश्न सिर्फ यह नहीं है कि इस घटना के लिए प्रदेश सरकार कहाँ तक जिम्मेदार है बल्कि असली प्रश्न तो यह उठता है कि अब तक हमारा जो सिस्टम सिर्फ भ्रष्ट था अब हम जनता के खून का ही प्यासा क्यों हो गया है या होने लगा है? जो व्यक्ति बिना वर्दी के दीन-हीन बना रहता है वही व्यक्ति वर्दी पहनते ही कैसे खूंखार दरिंदा बन जाता है? खामी कहाँ है या कहाँ-कहाँ है? क्या सिपाही-दारोगा की बहाली की प्रक्रिया भ्रष्टाचाररहित है? जो व्यक्ति पैसों से वर्दी खरीदेगा वो फिर उसका मूल्य तो वसूलेगा ही चाहे घूस खाकर वसूले या लाशों से गहने उतारकर। हम किसी भी परीक्षा के दौरान फिर चाहे वो परीक्षा चतुर्थवर्गीय कर्मचारी के लिए हो या आईएएस अधिकारियों के लिए उम्मीदवारों के ज्ञान की,जाति की या फिर घूस देने की क्षमता की जाँच करते हैं लेकिन उनकी ईमानदारी और ईंसानियत की कहीं जाँच नहीं होती। क्या सभी परीक्षाओं में उम्मीदवारों की ईमानदारी व ईंसानियत की जाँच नहीं की जानी चाहिए? मैं यह तो मानता हूँ कि लोकतंत्र में यथा प्रजा तथा राजा का नियम काम करता है लेकिन मैं यह नहीं मानता कि यथा राजा तथा प्रजा का नियम बिल्कुल ही बेअसर और बेकार हो गया है। बल्कि दोनों ही नियम अपनी-अपनी जगह आज भी प्रासंगिक हैं और हमेशा रहनेवाले हैं। गुजरात की पुलिस अगर ईमानदार है तो इसलिए क्योंकि वहाँ के मुख्यमंत्री ईमानदार हैं और उ.प्र.,दिल्ली,बिहार,मध्य प्रदेश की पुलिस अगर बेईमान है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वहाँ के मुख्यमंत्री ईमानदार नहीं है। मैं अगर ईमानदारी से कहूँ तो मैं खुद एक पत्रकार होने के बावजूद पुलिसकर्मियों के मुँह लगने से बचता रहता हूँ। अभी पाँच-छः दिन पहले ही बेगूसराय में बिहार पुलिस की रंगदारी और बर्बरता के शिकार अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर कई सम्मानों से सम्मानित प्रख्यात रंगकर्मी प्रवीण कुमार गुंजन तक हो चुके हैं और अस्पताल में भर्ती हैं।
               मित्रों,मैं वर्षों से कहता आ रहा हूँ कि हमारे देश के अधिकतर राज्यों की पुलिस बिल्कुल भी ईमानदार नहीं रह गई है और वास्तव में वर्दीवाले गुंडों का अघोषित संगठन भर बनकर रह गई है। क्या जरुरत हैं ऐसी लुटेरी-हत्यारी सरकारी संस्था की? हालात कैसे बदलेंगे यह हम सभी जानते हैं। जब तक हम नहीं बदलेंगे,तब तक समाज नहीं बदलेगा और जब तक समाज नहीं बदलेगा हालात भी नहीं बदलेंगे। अभी उपभोक्तावाद का दौर है जिसमें हम सभी आदमी ईंसान नहीं बल्कि उपभोक्ता बनकर रह गए हैं। कदाचित् अभी हमारा व हमारे समाज का और भी नैतिक पतन होना शेष है और वो समय आनेवाला है जब हम भारतीय सिर्फ यौन-संतुष्टि के पीछे भागनेवाले जानवर बनकर रह जाएंगे। उसके बाद की भविष्यवाणी मैं नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करना मेरी क्षमता के बाहर है।                          

शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

वर्तमान समय में जेपी की प्रासंगिकता


मित्रों,कल लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती थी और आज डॉ. राममनोहर लोहिया की पुण्यतिथि है। इस अवसर पर पूरे भारत ने उन दोनों को शिद्दत के साथ याद किया। जहाँ जेपी का नाम सामने आते ही हमलोगों को 1974 के आंदोलन का स्वतः स्मरण हो आता है वहीं लोहिया का नाम कानों में पड़ते ही एक ऐसे दूरदर्शी का अक्स आँखों में उभर आता है जिसने आजादी के तत्काल बाद ही भारतीय लोकतंत्र की खामियों को समझ लिया था। जहाँ लोहिया महान विचारक थे वहीं जेपी महान् कर्मयोगी। वास्तव में जेपी एक व्यक्ति नहीं आंदोलन थे। एक ऐसा आंदोलन जो सबकुछ बदल देना चाहता था। समाज,राजनीति और व्यवस्था सबकुछ। निरंकुश सत्ता ने तब 21 महीनों के लिए पूरे देश को एक विशाल जेलखाने में बदल दिया था। न तो जुल्मी ने ही हार मानी थे और न तो जेपी के अनुयायी दिवानों ने ही। एक तरफ एक बूढ़ा और बीमार व्यक्ति और दूसरी ओर अपार बलशाली केंद्र और राज्यों की कांग्रेसी सरकारें। उद्दाम नाजीवादी कांग्रेसी तूफान के सामने जलते हुए एक नन्हें से दिये के समान थे जेपी। फिर आया सन् 1977 का चुनाव और चमत्कार हो गया। तूफान हार गया था और दीपक जीत गया था।
                मित्रों,जनता पार्टी की सत्ता के कुछ ही महीनों में जेपी की समझ में यह आ चुका था कि वे अपने चेलों द्वारा ही ठगे गए हैं। जेपी जीतकर भी हार गए थे और भीतर तक टूट भी गए थे। सत्ता और कुर्सी के लिए जेपी की पार्टी जनता पार्टी में लठ्ठमलठ्ठा होने लगा जिससे सबसे ज्यादा घायल हुई थी खुद जेपी की अंतरात्मा। कुछ समय बाद ही जनता पार्टी के कथित समाजवादी और छद्मधर्मनिरपेक्षतावादियों ने आरएसएस को आतंकी संगठन घोषित कर स्यापा करना शुरू कर दिया। तब तक जेपी अपने धूर्त समाजवादी-धर्मनिरपेक्षतावादी चेलों की करतूतों और लोमड़ीपने को भलीभाँति समझ चुके थे इसलिए वे आरएसएस के समर्थन में चट्टान की तरह खड़े हो गए और सिंहनाद करते हुए कहा कि अगर आरएसएस आतंकी संगठन है तो वे भी आतंकी हैं। जेपी समझ चुके थे कि उनसे जनता पार्टी के गठन में गंभीर गलती हुई है लेकिन उनके पास भूल-सुधार करने के लिए पर्याप्त समय नहीं था और 8 अक्तूबर,1979 को उनका देहान्त हो गया। दुर्भाग्यवश तब केंद्र में कथित समाजवादी चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस समर्थित सरकार सत्ता में आ चुकी थी और जनता पार्टी की सरकार का पतन हो चुका था। संपूर्ण क्रांति का नारा महज नारा बनकर रह गया।
                                      मित्रों,फिर भी जेपी के एक सिद्धान्त के प्रति उनके चेलों की आस्था कमोबेश 1989 तक बनी रही। बीजेपी के उभार के बाद जेपी और लोहिया के गैरकांग्रेसवाद के नारे का स्थान गैरभाजपावाद ने ले लिया। आज लोहिया-जेपी के चेलों का इतना अधिक नैतिक पतन हो चुका है कि वे उसी इंदिरा की बहू की पालकी ढोने में लगे हैं जिसको कि जेपी और लोहिया ने कभी सिरे से नकार दिया था। आज वे भ्रष्टाचार के पंक में आकंठ डूबे हुए हैं और आज सोनिया की कांग्रेस भी इंदिरा की कांग्रेस के मुकाबले करोड़ गुना ज्यादा पतित है। आज की कांग्रेस ने चुनाव आयोग और सीएजी जैसी संवैधानिक व प्रतिष्ठित संस्थाओं को भी चहेते अफसरों के माध्यम से अपना गुलाम बना लिया है। बाबा रामदेव उपदेश दें तो चुनाव आयोग का डंडा और जब बुखारी या देवबंद फतवा जारी करे तो अंधा-बहरा आयोग अंधा-बहरा बन जाता है? सोनिया कांग्रेस ने न केवल जनता बल्कि अपराधियों को भी संप्रदायों में बाँट दिया है और तदनुसार उनके साथ अलग-अलग तरह का व्यवहार किया जा रहा है। क्या यही अनुच्छेद 14 में वर्णित समानता का अधिकार है?
                  मित्रों, आज जेपी-लोहिया के चेलों का न कोई सिद्धांत है और न ही कोई मूल्य सिर्फ सत्ता और पैसे के पीछे अंधी दौड़ में वे दौड़े चले जा रहे हैं। जेपी ने तो कभी न तो सत्ता चाही और न ही पैसा लेकिन उनके चेले उनके जीते-जी ही पथभ्रष्ट हो गए? भ्रष्टाचार करने और बचाव के लिए धर्मनिरपेक्षता का बुर्का पहन लेने में जेपी-लोहिया के चेलों ने चिर भ्रष्ट और तानाशाह कांग्रेस को भी मात दे दी है। संपूर्ण क्रांति अर्थात् व्यवस्था-परिवर्तन तो उनकी प्राथमिकता सूची में कभी था ही नहीं। न जेपी के जीते-जी और न ही मरने के बाद। जनता आपस में जातीयता,सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयता के मुद्दे पर आपस में कट-मर रही है और ये लोग प्रशासन को निर्देश दे रहे हैं कि जो हो रहा है उसे होने दो। दंगे सरकार खुद करती-करवाती है और पकड़कर जेलों में ठूंस देती है विपक्षी नेताओं को। कांग्रेस और जेपी-लोहिया के इन चेलों में कोई सांस्कृतिक और चारित्रिक अंतर रह ही नहीं गया है। कांग्रेस तो आजादी के बाद से ही फूट डालो और शासन करो की नीति पर चलती रही है परन्तु जेपी-लोहिया के चेलों का भी अब सत्ता-सुख पाने का यही मूलमंत्र बन गया है।
                         मित्रों,इस प्रकार हम पाते हैं कि जेपी और लोहिया आज पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक हो चले हैं। आज अगर वे जीवित होते तो यकीनन सिर्फ बातें नहीं कर रहे होते। कोरे सिद्धांत बघारना तो जेपी के स्वभाव में ही नहीं था इसलिए वे आज फिर से आंदोलन खड़ा कर रहे होते। इस बार जेपी इस पुनीत कार्य में अकेले नहीं होते बल्कि लोहिया भी उनके हमकदम होते कांग्रेस के खिलाफ और उससे भी कहीं ज्यादा अपने उन बगुला भगत चेलों के विरूद्ध जिन्होंने उनके आदर्शों को कालांतर में तिलाजलि दे दी और आज उसी कांग्रेस की देशलूटक और देशबेचक संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं जिसके खिलाफ कभी उन्होंने आवाज उठाई थी। आज अगर जेपी जीवित होते तो निश्चित रूप से ताल ठोंककर कह रहे होते कि अगर नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक और मुलायम-सोनिया-नीतीश धर्मनिरपेक्ष हैं तो मैं भी सांप्रदायिक हूँ।

सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

सावधान मोदीजी यू टर्न लेना मना है

मित्रों,बात कई सौ साल पुरानी है। हमारे गाँव में एक चौबेजी रहा करते थे। उनको पुरोहिती का कामचलाऊ ज्ञान था लेकिन वे अपने आपको किसी महापंडित से कम नहीं समझते थे। एक दिन उन्होंने सोंचा कि वे चौबे क्यों कहलाते हैं उनके जैसे महाज्ञानी को तो कायदे से छ्ब्बे कहा जाना चाहिए। सों अपनी बड़ी-सी तोंद को संभालते हुए पंडितजी पहुँच गए काशी पंडितों की सभा में और रख दी अपनी मांग उनलोगों के सामने। सभा में आए हुए सारे पंडित आश्चर्य में पड़ गए कि वेद तो चार ही होते हैं फिर किसी को छब्बे की उपाधि कैसे दी जा सकती है? चौबे जी से जब पूछा गया कि वेद कितने होते हैं तो लगे बगले झाँकने। दंडस्वरूप चौबेजी के चौबे में से दो वेद कम कर दिए गए और बेचारे बन गए दूबे।
               मित्रों,ऐसा ही कुछ भारत के तत्कालीन लौहपुरूष लालकृष्ण आडवाणी के साथ भी हुआ था। आडवाणी जी ने मुसलमानों के वोट के लालच में पड़कर मो. अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बता दिया था और फिर प्रधानमंत्री बन पाना तो उनके लिए सपना बन ही गया वे भाजपा के और भारत के लौहपुरूष भी नहीं रह गए। दरअसल किसी भी राजनीतिज्ञ की एक छवि होती है और राजनीतिज्ञ जितना ही बड़ा होता है उसके लिए एकदम से यू-टर्न ले पाना उतना ही कठिन और खतरनाक होता है। जाहिर है कि तब आडवाणी जी ऐसा कर पाने में असमर्थ रहे थे और दुर्घटना के शिकार हो गए थे।
                            मित्रों,मैं भाजपा और तदनुसार भारत के वर्तमान लौहपुरूष श्री नरेन्द्र मोदी जी से निवेदन करना चाहता हूँ कि वे हरगिज वैसी गलती न करें जैसी गलती आडवाणी जी ने तब की थी। उनको अपनी छवि में बदलाव लाना ही है,विकासवादी और प्रगतिशील दिखना ही है तो अपनी गाड़ी की धीरे-धीरे मोड़ें एकदम से यू-टर्न हरगिज न लें। मैंने माना कि शौचालय मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम शौचालय के महत्त्व को उसकी बिना देवालय से तुलना किए बता ही नहीं सकते। शौचालय अगर शारीरिक और सामाजिक गरिमा के लिए जरूरी है तो देवालय मानव की नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति और उनको सचमुच का मानव बनाने के लिए अत्यावश्यक हैं इसलिए इन दोनों के बीच तुलना हो ही नहीं सकती। आप ही बताईए कि मात्र दस दिनों के अंतर पर स्वर्ग सिधारे दो महापुरूषों लाल बहादुर शास्त्री और डॉ. होमी जहाँगीर भाभा की महानता की तुलना कोई कैसे कर सकता है या फिर कोई कैसे महात्मा गांधी और मेजर ध्यानचंद के योगदान की तुलना कर सकता है?
                            मित्रों,मोदी जी को अपनी धर्मनिरपेक्षता को प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे एक आम हिन्दू की तरह जन्मजात धर्मनिरपेक्ष हैं और जो भी जन्मना हिन्दू राजनेता धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटते रहते हैं दरअसल वे शर्मनिरपेक्ष हैं धर्मनिरपेक्ष तो वे हैं ही नहीं। वे तो अपने भ्रष्टाचरण को छिपाने और जेल जाने से बचने भर के लिए फैजी टोपी का दुरूपयोग करते रहे हैं। जहाँ तक सबका मत प्राप्त करने का प्रश्न है तो जिस तरह भारत की जनता वर्तमान काल में अल्पसंख्यकवादी व देशद्रोही राजनेताओं द्वारा विभिन्न हितसमूहों में बाँट दी गई है वैसे में किसी भी दल को सबका मत मिल पाना प्रायः असंभव ही है। ऐसे में कहीं ऐसा न हो कि मोदी जी का हाल एकहिं साधे सब सधे सब साधे सब जाए वाला हो जाए और वे न तो ईधर को रह जाएँ और न ही उधर के बिल्कुल अपने राजनैतिक गुरू आडवाणी जी की तरह। एक और सलाह मैं उनको देना चाहूंगा कि वे जरुरत भर ही बोलें और जितना भी बोलें सोंच-समझकर बोलें तो यह उनके और देश के लिए भी अच्छा होगा क्योंकि हमारा अनुभव बताता है कि हम जितना ही ज्यादा बोलते हैं गलतियों की गुंजाईश उतनी ही ज्यादा होती है और मुँह से निकले हुए शब्द और धनुष से छूटे हुए वाणों को कभी भी वापस नहीं लिया जा सकता।

शनिवार, 5 अक्टूबर 2013

लालू को सजा न्याय या साजिश

मित्रों,भारतीय राजनीति के सबसे बड़े मशखरे लालू प्रसाद यादव को पाँच साल के कैद की कजा हो गई। कुछ लोग इसे ईंसाफ मान रहे हैं तो कुछ लोग साजिश लेकिन मैं समझता हूँ कि लालू को मात्र 5 साल की कैद और 25 लाख के जुर्माने की सजा होना न तो ईंसाफ है और न ही साजिश। अगर यह किसी साजिश का नतीजा होता तो घोटाले से संबंधित कई ट्रक कागजात पर उनके हस्ताक्षर कहाँ से आ गए? क्या वो हस्ताक्षर असली नहीं हैं? अगर वे सारे हस्ताक्षर असली हैं तो क्या लालूजी ने इन सब पर पूरे होशोहवाश में हस्ताक्षर नहीं किए हैं?
               मित्रों,लालूजी के समय सिर्फ पशुपालन विभाग में ही घोटाला हुआ हो ऐसा भी नहीं है। अलकतरा,मेधा,रजिस्ट्री,पुलिसवर्दी और बाढ़ राहत समेत लगभग सारे महकमों में जमकर घोटाले किए गए। क्या ये सारे घोटाले भी किसी विपक्षी दल की साजिश के परिणाम थे? क्या लालूजी के शासन में विपक्ष सरकार चला रहा था? लालूजी के शासनकाल में अपहरण उद्योग बिहार का एकमात्र उद्योग रह गया था और उनके साधू यादव वगैरह रिश्तेदारों की गुंडागर्दी भी चरम पर थी। उनके हाथों कब कौन आईएएस पिट जाएगा तब कोई नहीं जानता था। तो क्या उन अपहरणों और गुंडागर्दी के पीछे भी किसी की साजिश थी? लालू जी की बड़ी बिटिया मीसा भारती की शादी के समय साधू यादव के गुर्गों ने टाटा मोटर्स के शोरूम से सारी गाड़ियाँ और नाला रोड की फर्निचर दुकानों से सारे सोफे जबर्दस्ती उठा लिए थे। तो क्या इस जोर-जबर्दस्ती के पीछे भी किसी शत्रु का षड्यंत्र काम कर रहा था? जब लालूजी रेल मंत्री थे तब इसी साधू यादव ने पटना जंक्शन पर जबरन राजधानी एक्सप्रेस का प्लेटफॉर्म बदलवा दिया था। क्या शिल्पी-गौतम की हत्या भी विपक्ष की साजिश थी? फिर स्वनामधन्य साधू यादव ने सीबीआई को अपने खून का नमूना क्यों नहीं दिया? क्या साधू सिर्फ इसलिए कांग्रेस में शामिल नहीं हुए ताकि वे सोनिया से कहकर इस मामले की फाईल हमेशा-हमेशा के लिए बंद करवा सकें?
                मित्रों,अगर इन सारी गड़बड़ियों के पीछे कोई-न-कोई राजनैतिक साजिश थी तो यकीनन भारत के सारे नेता और सारे अपराधी निर्दोष हैं और वे सबके सब किसी-न-किसी गंदी साजिश की शिकार हुए हैं फिर चाहे वो टुंडा हो या भटकल या कोई और विनय शर्मा या राम सिंह। हद हो गई बेईमानी और बेशर्मी की। पहले एक राज्य के समस्त संसाधनों को खा गए और जब उसके लिए मामूली सजा हुई तो लगे साजिश का राग अलापने। उस दिन लालू जी की बुद्धि कौन-सा चारा चरने में लगी थी जब मोहरा फिल्म के निर्माण में चारा घोटाले का पैसा लगाया जा रहा था और जब उनकी आँखों के तारे डॉ. आरके राणा चारा घोटाले के पैसों से अपनी प्रेमिका को बॉलीबुड की स्टार नायिका बनाने का प्रयास कर रहे थे?
                              मित्रों,लालू के मामले में न्याय हुआ ही नहीं है सरासर अन्याय हुआ है। किसी भी भ्रष्टाचारी को जिसने सरकारी खजाने से भारी गबन किया हो सिर्फ जेल भेज देने भर से न्याय नहीं हो जाता। न्याय तो तब होता जब पूरे लालू परिवार की समस्त चल-अचल संपत्ति जब्त करके घोटाले की क्षतिपूर्ति की जाती। ये भी कोई बात हुई कि पहले दस-बीस पुश्तों के राज भोगने लायक माल खजाने से उड़ा लो और जीवन के अंतकाल में कुछ समय के लिए जेल खट लो। सवाल उठता है कि इससे भ्रष्टाचारी का बिगड़ा क्या? वो तो अकूत धन लूटने के अपने मूल उद्देश्य में कामयाब तो हो ही गया न? इसलिए मैं कहता हूँ कि लालू को और बिहार को न्याय तभी मिलेगा जब अन्य अभियुक्तों सहित उनकी और उनके परिवार की सारी चल-अचल संपत्ति उनसे छीन ली जाएगी और तत्कालीन भारत के सबसे बड़े घोटाले की क्षतिपूर्ति उससे की जाएगी।

बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

श्री मोदी चालीसा

मित्रों, मैंने यह चालीसा देशहित में लिखा है क्योंकि मैं समझता हूँ कि नरेंद्र मोदी इस समय भारत की जरुरत बन गए हैं। इस चालीसा को रचने का यह मतलब कतई नहीं है कि मैं नरेंद्र मोदी का अंधभक्त या अंधसमर्थक हो गया हूँ। जब-जब उन्होंने या उनकी पार्टी ने गलती की है और देशविरोधी कदम उठाया है मैंने विरोध किया है और आगे भी ऐसा करता रहूंगा परन्तु इस समय तो मेरा लक्ष्य मोदी जी को भारत का प्रधानमंत्री बनते हुए देखना है। तो आईए आप भी आनंद लीजिए श्री मोदी चालीसा का
       ***श्री मोदी चालीसा***
जय गणेश गिरिजासुवन,मंगल-मूल सुजान।
कहत ब्रजकिशोर सिंह तुम,देउ मोदी को वरदान।।
जय नरेन्द्र ज्ञान गुन सागर।
जय मोदी तिहुँ लोक उजागर।।
विकासदूत अतुलित साहस धामा।
हीराबेनपुत्र दामोदर सुतनामा।।
महावीर तुम पुराने संघी।
कुराज निवाड़ सुराज के संगी।।
गौर वर्ण विराज सुवेसा।
आँखन चश्मा कुंचित केसा।।
जनप्रदत्त विजयी ध्वजा विराजै।
कांधे भाजपाई अंगोछा साजै।।
अति ओजस्वी दामोदरनंदन।
तेज विकास हेतुजगवंदन।।
विद्यावान गुनी अति चातुर।
जनदुःखभार हरन को आतुर।।
प्रगति चरित्र सुनिबै को रसिया।
देशभक्त भारतीय जनता मनबसिया।।
स्वयंसेवक रूप धरि जनबीच जावा।
मुख्यमंत्री रूप धरि कच्छ बनावा।।
भीम रूप धरि दंगाई संहारे।
भारत माँ के काज संवारे।।
लाये सुराज जनविश्वास जियाये।
भारतजन हरषि उर लाये।।
देशभक्त सब कीन्हीं बहुत बड़ाई।
तुम सर्वप्रिय सब कर भाई।।
सहस वतन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि जनमत कंठ लगावैं।।
भागवतादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
राजनाथ जेटली सहित अहीसा।।
उद्योगपति कुबेर जहाँ ते।
कवि कोविद कहि सके कहाँ ते।।
सबपर तुम तपस्वी राजा।
जनता के सकल काज तुम साजा।।
तुम उपकार टाटा पर कीन्हा।
भूमि दिलाय जग को नैनो दीन्हा।।
तुम्हरी भक्ति करें अंबानी।
महिमा अमित न जाय बखानी।।
निरंकार है ज्योति तुम्हारी।
तिहूँ लोक फैली उजियारी।।
गांधीनगर में तुम्हीं विराजत।
तिहूँ लोक में डंका बाजत।।
दंगा नियंत्रण कीन्हीं क्षण माहीं।
की शांति स्थापना अचरज नाहीं।।
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।
सब सुख लहै तुम्हारी शरना।
तुम शासक काहूँ को डरना।।
आपन तेज सम्हारो आपै।
छद्मधर्मनिरपेक्ष हाँकते काँपै।।
अल्पसंख्यकवादी निकट न आवै।
नरेन्द्र मोदी जब नाम सुनाबै।।
साधु संत के तुम रखवारे।
जेहाद निकंदन भारत दुलारे।।
मनमोहन राहुल नृप अति अभिमानी।
सोनिया अघभार भारत अकुलानी।।
तुमपर आशा टिकी भारत को।
दस प्रतिशत पर लाओ विकास दर को।।
तुम बिन और न कोई सहाई।
विनती करत है भारत भाई।।
तिहुँ लोक में तिरंगा जब फहरी।
विश्वगुरू भारत को भविष्य तब सम्हरी।।
आशा तरंग उठि रहि भारत मन पावन।
बरस रहि मन में आशा को सावन।।
कांग्रेस बेच रही भारत को।
कोऊ न सुनै पुकार आरत को।।
हाहाकार मच्यो जग भारी।
सक्यो न जब कोउ संकट टारी।।
शत्रुनाश कीजौ तुम आकर।
देश निहाल होई तुमको पीएम पाकर।।
पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना।
तुम सम अधिक न जग में जाना।।
दियो आडवाणी तुमको सन्माना।
जग में छायो सुयश महाना।।
महिमा भूतल पर छाई है।
देशभक्तों ने लीला गाई है।।
गुजरात को तुमने कियो विकास।
मुख्यमंत्री बने चौथी बार।।
बनकर पीएम सम्हारो भारत को।
तुम बिन और सूझत नहिं हमको।।
जो कोई पढ़े मोदी चालीसा।
भारत को विकास को देवे दिशा।।
ब्रजकिशोर ने देशहित में रच्यो यह चालीसा।
देशरक्षा हेतु मोदी की होय जय-जय चहुँ दिशा।।

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

मोबाईल से बतियाएंगे,कांग्रेस को लतियाएंगे

मित्रों,माँ की बात मानकर अब तक सत्ता को जहर के समान समझनेवाले राष्ट्रीय पुत्र राहुल गांधी अब 2014 के संसदीय चुनावों में कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनने के लिए राजी हो गए हैं। इतना ही नहीं कल उन्होंने अपनी ऐतिहासिक चुप्पी तोड़ते हुए राजस्थान में अपना ऐतिहासिक भाषण भी दे डाला। परसों जो महाज्ञानी टेलीवीजन पर नरेन्द्र मोदी की वक्तृता-कला पर यह कहकर कटाक्ष कर रहे थे कि उनके भाषण में तथ्य भी था या नहीं अथवा इस प्रश्न पर मगजमारी कर रहे थे कि क्या अच्छा वक्ता अच्छा नेता भी होता है वही लोग अभी राहुल के भाषण में अलंकार,छंद,यति,गति,लक्षणा और व्यंजना की तलाश कर रहे हैं।
                मित्रों,भारत के लोकतांत्रिक राजतंत्र के सबसे बड़े प्रतीक,भारत के सबसे बड़े राजनैतिक परिवार के चश्मो चिराग राहुल गांधी कल के अपने भाषण में त्याग करने के लिए आतुर दिख रहे थे। दरअसल त्याग करना उनका खानदानी पेशा है। वर्ष 2004 में उनकी माँ ने भी त्याग किया था। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रिमोट से चलनेवाले एक यंत्र को बैठा दिया था और त्याग का फल भी प्राप्त कर लिया था। कदाचित् उसी फल को विदेशी बैंकों में जमा करने के लिए बेचारी को बार-बार बीमार होना पड़ता है। देश की अर्थव्यवस्था को जो राजरोग लगा है वह भी शायद उनके ही त्याग का और उसके फल का प्रतिफल है। मगर मैं जहाँ तक समझता हूँ कि राहुल जी दूसरी तरह के त्याग की बातें कर रहे थे। वे तो शायद जनता को यह बता रहे थे कि उन्होंने उनकी सेवा के लिए ही विवाह नहीं किया और 43 साल की बाली उम्र में भी कँवारे बने हुए हैं। पिछले सालों में राहुल जी जिस तरह विभिन्न महिलाओं के साथ भावपूर्ण मुद्रा में देखे जाते रहे हैं उससे तो यह नहीं लगता कि वे कँवारे भी हैं और ब्रह्मचारी भी बल्कि उससे तो यही लगता है कि वे आम खाने से मतलब रखते हैं पेड़ गिनने से नहीं। हो तो यह भी सकता है कि उन्होंने अमेरिका जैसे किसी दूरस्थ देश में शादी भी कर रखी हो और भविष्य में कभी पत्नी और बच्चों को जनता के सामने लाएँ वह भी तब जब त्याग करने या उसका दिखावा करने से कुछ भी लाभ होने की संभावना न रह जाए।
                        मित्रों,कल राहुल जी ने एक नारा भी दिया दो-चार रोटी खाएंगे,कांग्रेस को वापस लाएंगे। मुझे लगता है कि नारा देने में उन्होंने जल्दीबाजी कर दी। मोबाईल बँटने देते तब नारा देते कि दो-चार रोटी खाएंगे,मोबाईल से बतियाएंगे,कांग्रेस की लतियाएंगे। आश्चर्य में पड़ गए क्या? हमारे बिहार की जनता तो ऐसा ही करती है भाई। पैसा और सामान तो सबसे ले लेती है और सबसे कहती है कि हम तो आपको ही वोट देंगे और देती उनको ही है जिनको देना चाहिए सो बिहार में तो राहुल जी वाला नहीं मेरा वाला नारा चलनेवाला है।
                    मित्रों,राहुल जी के कल के भाषण में एक और बात स्पष्ट हो जाती है कि खाद्य सुरक्षा और भूमि-अधिग्रहण विधेयक उन्होंने ही पारित करवाया है। मैं तो समझता हूँ कि दूसरी पारी में मनमोहन सिंह ने बिल्कुल भी शासन किया ही नहीं माँ-बेटों ने ही देश को चलाया। पहली पारी में जरूर मनमोहन सिंह सक्रिय थे तो देश की हालत भी कोई बुरी नहीं थी। जबसे माँ-बेटे ने मनमोहन को पूरी तरह से निष्क्रिय कर स्वयं को सक्रिय किया है तभी से देश का बंटाधार हुआ जा रहा है। सारी जिम्मेदारी मनमोहन सिंह को दे दी और सारे निर्णय स्वयं लेने लगे। अभी-अभी दो-तीन दिन पहले अखबार में पढ़ने को मिला कि सरकार सोनिया गांधी के अमेरिका से लौटने का इंतजार कर रही है। लौटने के बाद वही निर्णय लेंगी कि डीजल,पेट्रोल और गैस के दाम कितने बढ़ाएँ जाएँ। जब सारे फैसले वही ले रही हैं तो यह मनमोहन क्या कागजात पर ढोराई सिंह की तरह सिर्फ अंगूठा लगा रहा है? अभी तो गर्भ से ही प्रधानमंत्री पद धारण करने की योग्यता धारण करनेवाले राहुल गांधी तो भारत में ही थे क्या वो इस बारे में स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकते थे? फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद कौन निर्णय लेगा वे या उनकी रहस्यमयी विदेशी यात्राओं वाली माँ जिसके निर्णयों ने भारत को मात्र पाँच सालों में सोने की चिड़िया से अंतर्राष्ट्रीय भिखारी बना दिया? जो काम आईएसआई कठिन परिश्रम करके भी 50 सालों में नहीं कर सकी वही काम इन्होंने मात्र 5 सालों में बड़ी ही आसानी से करके दिखा दिया।
                        मित्रों,जाहिर है कि राहुल प्रधानमंत्री बनें या न बनें देश की स्थिति में कांग्रेस के सत्ता में रहते हुए कोई बदलाव नहीं आनेवाला है। कांग्रेस के राज में देश की जो हालत अभी है वही या उससे भी बुरी हालत राहुल के प्रधानमंत्री बनने के बाद होनेवाली है। हम सब जानते हैं कि राहुल जी की पार्टी का चुनाव चिन्ह हाथ छाप है। पहले जहाँ उनकी पार्टी हर हाथ को काम देने के वादे करती थी आजकल हर हाथ को भीख देने की बात कर रही है-दो-चार रोटी। देश का खजाना तो खा गए रोजगार तो दे नहीं सकते तो वे अब जनता को ईज्जत की रोटी के स्थान पर भीख की रोटी ही दे सकते हैं। इस बार अगर कांग्रेस जीत गई और राहुल प्रधानमंत्री बन गए तो निश्चित रूप से 2019 के संसदीय चुनावों में वे नया नारा कुछ इस तरह बनाएंगे-लाशों को कफन ओढ़ाएंगे,कांग्रेस को चौथी बार जिताएंगे क्योंकि तब तो खजाने में भीख की रोटी देने लायक भी पैसा नहीं रहेगा। हाँ,सोनिया जी की विदेश-यात्राओं में कई गुना की बढ़ोतरी जरूर हो जाएगी।