सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

विपक्षहीनता की ओर अग्रसर भारतीय राजनीति

हाल में हुए लोकसभा और फिर विधानसभा चुनावों के परिणामों से ऐसा परिलक्षित हो रहा है कि भारत की मुख्या विपक्षी पार्टी भाजपा के पास कोई ऊर्जा बची ही नहीं है. उसके पास न तो कोई मुद्दा है और न ही मुद्दा बना सकने का मदद ही बचा है. जिससे भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में विपक्षहीनता की स्थिति एक बार फ़िर उत्पन्न होती जा रही है. दुनिया के किसी भी विकसित देश को लें तो उनका तेज गति से विकास तभी संभव हो सका है जब विपक्ष भी मजबूत रहा हो. स्वतंत्रता के बाद तीस सालों तक विपक्ष  लगभग गायब रहा और भारत में एकदलीय लोकतंत्र जैसी स्थिति बनी रही जिसकी परिणति रही आतंरिक आपातकाल और ७४ का जनांदोलन. तो क्या देश फ़िर से उसी ओर बढ़ रहा है? अगर यह सच है तो निश्चित रूप से विकसित हो रही यह प्रवृत्ति देशहित में नहीं है. देश में भी उन्हीं राज्यों का तेज विकास हुआ है जहाँ राजनीति के दो ध्रुव मौजूद हैं और सत्ता उनके बीच लगातार बदलती रही है. तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है. इतिहास गवाह है कि एकदलीय लोकतंत्र जैसी स्थितियां न तो साठ-सत्तर के दशक में राष्ट्रहित में थीं न आगे हीं देश को इससे फायदा होगा. और फ़िर भीषण महंगाई, मंदी और बेरोजगारी के इस और में विपक्ष में सक्रियता की कमी और भी साल रही है. परिस्थितियां जनांदोलन के लिए पूरी तरह से अनुकूल है परन्तु भाजपा उसका नेतृत्व संभाल पाने की स्थिति में है ही नहीं. इससे देश और जनता को जो नुकसान उठाना पड़ रहा है उसके लिए कहीं-न-कहीं भाजपा का वर्तमान नेतृत्व दोषी है. हाल ही में नक्सल कार्रवाई ने जो गति पकड़ी है उसके पीछे भी कहीं-न-कहीं जनता के समक्ष मुंह बाये खड़ी विकल्पहीनता भी जिम्मेदार है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विकल्पहीनता भटकाव की ओर ले जाती है.

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