जाति न पूछो साधू की कहावत के बदले बिहार में अब जाति ही पूछो साधू की चरितार्थ हो रही है। अभी कुछ ही दिनों पहले जब खगडिया में नरसंहार की दुखद घटना हुई तो इसमें जातीय हिंसा के भी संकेत पाए गए। इस अवसर पर मुझे वर्षों पहले जब मैंने पूर्णिया पोलिटेक्निक में एडमिशन के लिया था तब पेश आयी दुश्वारियां याद आ गईं।
१९९४ का साल था जब पूरा बिहार आरक्षण समर्थक और विरोधी गुटों में बटा हुआ था। मुझसे मेरे सीनियर छात्रों ने सीधे तौर पर पूछा कि मैं यानि ब्रजकिशोर सिंह किस जाति से आता हूँ। वे जानना चाहते थे कि मैं कोइरी हूँ या राजपूत। बाद में वहां इस तरह की स्थितियां पैदा कर दी गयी कि मुझे पढाई अधूरी छोड़नी पड़ी। मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में किसी को भी जातीय आधार पर प्रताडित नहीं किया। मेरे दोस्तों में कई हरिजन भी हैं।
यह काफी दुखद है की मीडिया क्षेत्र में भी ऐसे लोग मौजूद हैं जिनकी रुचि लोगों की योग्यता में नहीं बल्कि जाति में ज्यादा है। हमें अगर स्थितियों को बदलना है तो अपने आप को अपने सोंच को बदला होगा। आशा है ब्लॉग के पाठक इस दिशा में आत्मशोधन के लिए अवश्य प्रयास करेंगे।
1 टिप्पणी:
ब्रज भैया प्रणाम,
मैं ठीक हूँ और लगातार आपका ब्लॉग पढता रहता हूँ. आपकी मेहनत एक-न-एक दिन जरूर रंग लायेगी.
सौरभ
मुजफ्फरपुर
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