बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

क्या फिर से पत्रिकाओं का जमाना वापस आ रहा है?

मैं एक मुकदमे के सिलसिले में अपने वकील से मिलने हाजीपुर कोर्ट की तरफ जा रहा था. आप सोंच रहे होंगे कि क्या मैं ऐसा-वैसा आदमी हूँ? अरे नहीं जमीन-जायदाद का मुकदमा है और दूसरा पक्ष चचेरा मामा है. खैर रास्ते में भेंट हो गई हिंदुस्तान अख़बार के हाजीपुर संवाददाता श्री सुरेन्द्र मानपुरी से. मानपुरीजी मेरे पिता की उम्र के हैं और पत्रकारिता विधा पर कई पुस्तकें लिख चुके हैं. एक चलता-फिरता पुस्तकालय. मुझे उनका स्नेह-पात्र होने का सौभाग्य प्राप्त है. आरम्भ में कुछ हल्की-फुल्की बातचीत शुरू हुई. धीरे-धीरे वार्तालाप ने गंभीर रूप अख्तियार कर लिया. मैंने  उनका ध्यान बिहार के समाचार-पत्रों के गिरते स्तर की ओर दिलाया, जिसे उन्होंने खुले हृदय से स्वीकार भी किया. साथ-ही उनका मानना था कि समाचार-पत्रों का युग अब समाप्त समाप्ति की ओर है और एक बार फ़िर पत्रिकाओं का जमाना आनेवाला है. मैंने पूछा वो कैसे तो उन्होंने प्रथम प्रवक्ता को इसका श्रेय देते हुए कहा कि इस पत्रिका ने गंभीर पाठकों के बीच अपनी गहरी पैठ बना ली है और स्टालों पर आने के साथ ही गायब हो जाती है. उनकी बातों ने मुझे भी सोंचने पर मजबूर कर दिया कि क्या वास्तव में प्रथम प्रवक्ता में वह स्थान प्राप्त करने की योग्यता है जो कभी धर्मयुग ने अर्जित किया था? प्रथम प्रवक्ता के संपादक रामबहादुर राय जी हैं जो हिंदी के वरिष्ठतम पत्रकारों में से एक हैं. यही कारण है कि प्रभाष जोशी आदि नामी-गिरामी पत्रकारों का सहयोग उन्हें सहज ही प्राप्त हो जाता है. स्वयं रामबहादुर जी बहुत अच्छे स्तंभकार हैं. लेकिन पत्रिका का झुकाव हिन्दुवाद की ओर आसानी से देखा जा सकता है और इसे हम पत्रिका की कमजोरियों में शुमार कर सकते हैं. साथ ही न ही पत्रिका में वह विषयगत विविधता है जो धर्मयुग में पाई जाती थी न ही सामग्रियों का स्तर ही वैसा है. साथ ही जिस समय मानपुरीजी ने यह टिपण्णी की थी उस समय इसका दाम कम करके ५ रूपया कर दिया गया था. अब जबकि फ़िर से इसका मूल्य १० रूपया कर दिया गया है तो देखना है कि इसकी बिक्री पर क्या असर पड़ता है?

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