यह महंगाई जब मेरी जेब ढीली कर देती है,
कर देती है विवश मुझे खर्च में कटौती के लिए;
टूट जाते हैं सपने मेरे भी,
बिखर-बिखर जाता हूँ मैं छोटे बच्चे की तरह;
लेकिन यह दुष्टा तब और भी ज्यादा
दुःख देती है जब मैं देखता हूँ ;
कि मेरी थाली में घटने लगी है
दाल-सब्जी की मात्रा,
कहते हैं कि वक़्त सबकुछ सिखा देता है,
तो क्या वक्त के पास किफायत से जीना
सिखाने का और कोई तरीका नहीं है,
और फ़िर वक्त हम आमजनों को ही
क्यों सिखाने पर तुला हुआ है;
क्या वह भी डरता है हमारी तरह
सियासतदानों से;
जो हमें सिर्फ़ ठगने के लिए लेते हैं
आम आदमी का नाम,
और रहते हैं इस महंगाई में भी
लाख रुपए वाले कमरों में;
जो जमीन के बदले आकाशमार्ग से
विचरण करते रहते हैं,
और कहते हैं कि हमारी तरह वे
भी आम आदमी हैं;
क्योकि वे इकोनोमी क्लास
में उड़ते हैं,
मैं पूछना चाहता हूँ इन सियासतदानों से
कि कितने आम भारतीयों के पास लाख रुपए भी हैं
और कितनों ने छूकर भी देखा है कभी वायुयान को।
1 टिप्पणी:
लेकिन मनमोहन को तो महंगाई कम होती दिख रही है. इसीलिए तो कहते है-जा के पांव न फटे विवाई सो क्या जानें पीड़ पराई.
राजू, कोलकाता
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