यह अकेलापन न जाने मेरे लिए वरदान है या अभिशाप;
आजकल मेरी हालत अजीबोगरीब है,
मैं, सबकुछ समझते हुए भी कुछ भी नहीं समझ पा रहा हूँ,
और सबकुछ करते हुए भी कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ;
सिमटता जा रहा है मेरा दायरा,
मैं ख़ुद को समेटना शुरू कर दिया है कछुए की तरह;
तो क्या मैं ब्लैक होल बनता जा रहा हूँ?
जिसके निकट आने पर नष्ट हो जाएगा सबकुछ;
या फ़िर किसी सुपरनोवा विस्फोट की तैयार हो रही है पूर्वपीठिका,
प्रलय और सृष्टि के दो चरम बिन्दुओं के बीच पेंडुलम की भांति
झूल रहा है मेरा जीवन;
न विजयी, न पराजित, हतप्रभ, आश्चर्यचकित होकर देखता
हुआ वर्तमान को,
जो बनता जा रहा है अतीत;
मेरी ईच्छा-अनिच्छा की परवा किए बिना।
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