गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

अलविदा २०२० स्वागत २०२१

मित्रों, मुझे याद आ रहा है जब एक साल पहले २०२० की शुरुआत हो रही थी तब मैंने अपने ज्येष्ठ पुत्र भगत सिंह को मजाकिया लहजे में कहा था कि इसका तो नाम ही २०-२० है सो ये साल तो देखते-देखते चुटकियों में बीत जाएगा. मुझे तो क्या भारत में किसी को पता नहीं था कि यह साल इस तरह भयानक तरीके से बीतनेवाला है. मित्रों, होली तक तो सब ठीक था लेकिन फिर जैसे अचानक सबकुछ बदल गया. गाड़ियों का परिचालन बंद हो गया, फैक्ट्रियां बंद हो गई, स्कूल, दुकानें, मॉल सब बंद. सड़कों पर मजदूरों का सैलाब. हर कोई जहाँ भी था जल्दी-से-जल्दी अपने गाँव और घर पहुँच जाना चाहता था. हजारों लोग तो हजारों किमी पैदल चलकर घर गए. कई सारे मजदूर रेल की पटरी पर सोते हुए ट्रेन से कटकर मर गए. कई जेठ की दोपहरी में पैदल चलते-चलते मौत की गोद में सो गए. मित्रों, जाहिर है कि जब सब कुछ बंद था तो अर्थव्यवस्था की तो बाट लगनी ही थी. सो लगी. इस बीच चीन उसी चीन ने जिसने बड़े ही सोचे-समझे तरीके से दुनिया को कोरोना की आग में झोंक दिया था भारत-चीन सीमा पर घुसपैठ कर दी. मजबूरन भारत को भी अपनी सेना सीमा पर भेजनी पड़ी और कई सारे नए सियाचिन पैदा हो गए जो भविष्य में वर्षों तक भारत की जेब पर भारी पड़नेवाले हैं. मित्रों, बच्चे घर में बैठे-बैठे उब गए, हजारों नौकरीपेशा लोग जिनमें हजारों पत्रकार भी शामिल थे को या तो नौकरी से हाथ धोना पड़ा या फिर वेतन कटौती झेलनी पड़ी. दूसरी तरफ बहुत सारे व्यवसायियों के सामने जीवन-मृत्यु का प्रश्न खड़ा हो गया. एक तरह आमदनी का पूरी तरह बंद या कम हो जाना और दूसरी तरफ कमरतोड़ लगातार बढती महंगाई और बैंक की किश्तें. मित्रों, इन सबके बीच बस एक ही बात भारतीयों के लिए संतोषजनक थी और वो यह थी कि सिर्फ भारत ही नहीं चीन को छोड़कर पूरी दुनिया २०२० में परेशान रही. जर्मनी, इटली, स्पेन आदि देशों में तो शवों के ढेर लग गए जबकि भारत में अपेक्षाकृत कोरोना से मरनेवालों को संख्या कम रही. मित्रों, अब जबकि २०२० समाप्त होनेवाला है तब भी भारत में कई चीजें बंद हैं. बच्चे अभी भी घरों में ही कैद हैं. इस बीच इंग्लैण्ड में कोरोना का नया स्ट्रेन सामने आया है जो भारत में भी प्रवेश कर चुका है. उम्मीद करनी चाहिए कि इसका भारत पर कम-से-कम असर होगा और जल्दी ही भारत में जीवन और अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएंगे. निराशा का कोई कारण नहीं है क्योंकि मानवता इससे पहले इससे भी बुरा समय और दौर देख चुकी है. हम पहले भी जीते थे और इस बार भी जीतेंगे चीन, पाकिस्तान, तुर्की जैसे देशों, इस्लाम जैसे मजहब और माओवाद जैसी विचारधारा की मौजूदगी के बावजूद जीतेंगे. जरुरत है तो बस धैर्य बनाए रखने की. स्वागत २०२१. नए साल का,नया सबेरा, जब, अम्बर से धरती पर उतरे, तब,शान्ति,प्रेम की पंखुड़ियाँ, धरती के कण-कण पर बिखरे.

रविवार, 27 दिसंबर 2020

मनुस्मृति का मूल्यांकन

मित्रों, हम सभी जानते हैं कि सनातन धर्म किसी एक धर्मग्रन्थ के आधार पर नहीं चलता. साथ ही इसमें हमेशा-से एक लचीलापन रहा है अर्थात इसमें कभी कट्टरता नहीं रही है. फिर भी जब अंग्रेज भारत आए तो उन्होंने मनुस्मृति को उसी प्रकार हिन्दुओं का आधार-ग्रन्थ मान लिया जैसे कि दुनियाभर के मुसलमानों के लिए कुरान एक मात्र आधार-ग्रन्थ है. मित्रों, हमें मनुस्मृति का निष्पक्ष मूल्यांकन करने से पहले यह जान लेना चाहिए कि स्मृति होती क्या है. सनातन धर्म में कई सारी स्मृतियाँ हैं जो तत्कालीन समाज को व्यवस्थित करने के लिए लिखी गईं. तब लगातार विदेशी जातियों का भारत में आगमन हो रहा था. साथ ही वर्णसंकरता को रोकने और उससे उत्पन्न संतानों को जाति व वर्ण व्यवस्था में स्थान देने की चुनौती लगातार बनी हुई थी अतः समय-समय पर कई सारी स्मृतियों की रचना की गई जिनमें मनुस्मृति सबसे पुरानी मानी जाती है. मित्रों, वैसे तो लगभग सारे हिन्दू धर्म-ग्रंथों के साथ छेड़-छाड़ की गई है और मनुस्मृति भी अपवाद नहीं है लेकिन हम यहाँ उन अपवादों को परे रखते हुए उसी मनुस्मृति का मूल्यांकन करेंगे जो हमें आज भी प्राप्त है. खासकर हम यह देखेंगे कि मनुस्मृति में स्त्रियों और शूद्रों के बारे में क्या कहा गया है. मित्रों, भारतीय समाज में ऋग्वैदिक काल के बाद से ही स्त्रियों और शूद्रों को हमेशा हीन की श्रेणी में रखा गया है. तथापि हम पाते हैं कि मनुस्मृति में स्त्रियों को यह कहते हुए उत्तम स्थान दिया गया है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।। मनुस्मृति ३/५६ ।। अन्वय: यत्र तु नार्यः पूज्यन्ते तत्र देवताः रमन्ते, यत्र तु एताः न पूज्यन्ते तत्र सर्वाः क्रियाः अफलाः (भवन्ति) । जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं। शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् । न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।। मनुस्मृति ३/५७ ।। अन्वय: यत्र जामयः शोचन्ति तत् कुलम् आशु विनश्यति, यत्र तु एताः न शोचन्ति तत् हि सर्वदा वर्धते । जिस कुल में स्त्रियाँ कष्ट भोगती हैं,वह कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और जहाँ स्त्रियाँ प्रसन्न रहती है वह कुल सदैव फलता फूलता और समृद्ध रहता है । मित्रों, किन्तु जब वही मनु शूद्रों पर बात करते हैं तो काफी निर्मम प्रतीत होते हैं. मनु कहते हैं कि द्विकं त्रिकं चतुष्कं च पंचकंचशतं समं। मासस्य वृद्धिं गृह्याद्वर्णानामनुपूर्वशः ।। मनुस्मृति ८/१४२ ।। मित्रों, किन्तु जब वही मनु शूद्रों पर बात करते हैं तो काफी निर्मम प्रतीत होते हैं. मनु कहते हैं कि द्विकं त्रिकं चतुष्कं च पंचकंचशतं समं। मासस्य वृद्धिं गृह्याद्वर्णानामनुपूर्वशः ।। मनुस्मृति ८/१४२ ।। अर्थात ऋणदाता को चाहिए कि वह वर्णानुसार ब्राह्मण से दो प्रतिशत, क्षत्रिय से तीन प्रतिशत, वैश्य से चार प्रतिशत और शूद्र से पांच प्रतिशत ब्याज हर माह वसूल करे. इतना ही नहीं मनु कहते हैं कि अगर कोई शूद्र किसी द्विज जो अपशब्द कहे तो उसी जीभ काट लेनी चाहिए. साथ ही अगर कोई शूद्र किसी द्विज के नाम या जाति का उपहास करे तो उसके मुंह में दस अंगुल लम्बी तप्त लौह-शलाका डाल देनी चाहिए. यदि शूद्र दर्प में आकर द्विजों को धर्मोपदेश दे तो उसके मुंह और कान में खौलता हुआ तेल डाल देना चाहिए. शूद्र जिस अंग से द्विजों पर आघात करे उसका वह अंग कटवा देना चाहिए. मनुस्मृति ८/ २६९,२७०, २७१, २७८. मित्रों, इस प्रकार हम पाते हैं कि धर्म की अच्छी परिभाषा देने और वृद्धों, स्त्रियों और शिक्षकों को सम्मान देने सम्बन्धी सुन्दर सुभाषितों के बावजूद मनुस्मृति हिन्दू समाज के एक महत्वपूर्ण अंश शूद्रों के प्रति काफी निर्मम हैं. साथ ही मनुस्मृति से यह भी पता चलता है कि उस समय भी हिन्दू बड़े पैमाने पर मांस खाते थे भले ही खाने से पहले उनकी बलि दी जाए. मैं ऐसा बेहिचक कह सकता हूँ कि अगर मैं बाबा साहब की जगह होता तो मैं भी एक शूद्र होने के नाते मनुस्मृति को पसंद नहीं करता. हालांकि जैसा कि मैंने शुरुआत में ही कहा कि सनातन धर्म शुरू से ही काफी लचीला रहा है और हमेशा इसमें सुधार और विरोध की गुंजाईश रही है. स्वयं भगवान बुद्ध के समय भारत में वैदिक धर्म से ईतर ५ दर्जन के लगभग दर्शन और संप्रदाय प्रचलन में थे और उनके बीच कभी कोई हिंसक संघर्ष नहीं हुआ.

रविवार, 20 दिसंबर 2020

सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार का सुप्रीम झूठ

मित्रों, हम बचपन से ही पढ़ते आ रहे हैं कि भारत में जनसँख्या विस्फोट की स्थिति है जो लगातार भयावह रूप लेती जा रही है. गांवों और शहरों में खेत और बगीचे कंक्रीट के जंगल में बदलते जा रहे हैं. प्रदुषण खतरनाक स्तर तक पहुँच रहा है. बेरोजगारी चरम पर है. अपराध बढ़ रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार की मानें तो जनसँख्या-विस्फोट कोई समस्या ही नहीं है इसलिए भारत को जनसँख्या-नियंत्रण कानून नहीं बनाना चाहिए. मित्रों, विचित्र स्थिति तो यह है कि जनसँख्या नियंत्रण कानून बनाने से बचने के लिए केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ऐसा झूठ बोला है जिसको पांचवीं कक्षा का बच्चा भी पकड़ लेगा. दरअसल सरकार ने हमारे बड़े भाई अश्विनी उपाध्याय द्वारा जनसँख्या-नियंत्रण पर सुप्रीम कोर्ट दायर जनहित याचिका पर जबरदस्ती अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि चूंकि स्वास्थ्य संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्य सूची का विषय है इसलिए केंद्र सरकार जनसँख्या-नियंत्रण कानून बना ही नहीं सकती. जबरदस्ती इसलिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने उसे इस मुकदमे में पक्ष माना ही नहीं था. वास्तव में भारत के संविधान में जनसँख्या-नियंत्रण और परिवार नियोजन समवर्ती सूची में २० क में दर्ज है और समवर्ती सूची में दर्ज विषयों के ऊपर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं. साथ ही भारत के संविधान के अनुसार अगर संसद और विधानसभा दोनों एक ही विषय पर अलग-अलग कानून बनाती हैं तो संसद द्वारा निर्मित कानून ही मान्य होगा. मित्रों, समझ में नहीं आता कि भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के जिन अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखने के लिए हलफनामा तैयार करवाया उन्होंने कभी भारत का संविधान पढ़ा भी है या नहीं. भारतीय प्रशासनिक सेवा भारत की सर्वोच्च सेवा है और काफी योग्य लोग ही उसमें चयनित हो पाते हैं फिर उस स्तर का कोई अधिकारी ऐसी गलती कैसे कर सकता है? क्या स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्द्धन भी संविधान का क अक्षर नहीं जानते? और अगर जानते हैं तो फिर स्वास्थ्य मंत्रालय ने झूठ क्यों बोला? मित्रों, इतना ही नहीं स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने हलफनामे में कहा है कि चूंकि भारत की प्रति वर्ष जनसँख्या वृद्धि दर अब २ प्रतिशत के लगभग है इसलिए भी जनसँख्या-नियंत्रण कानून की जरुरत नहीं है. क्या स्वास्थ्य मंत्रालय ने कभी हिसाब लगाकर देखा है कि सवा अरब या डेढ़ अरब का २ प्रतिशत कितना होता है? लगभग ढाई या तीन करोड़. क्या यह छोटी संख्या है? क्या भारत जैसा गरीब देश जो दुनिया की १६ प्रतिशत जनसँख्या और मात्र २ प्रतिशत क्षेत्र धारण करता है इतनी बढ़ी जनसँख्या के लिए मूलभूत सुविधाएँ जुटा सकता है? कहाँ से आएँगे इतने स्कूल, घर और नौकरियां? मित्रों, ५६ ईंची मोदी सरकार तो दावे करती है कि वो देशहित में नीतियाँ बनाती है और उसके लिए नेशन फर्स्ट है तो फिर वो जनसँख्या-नियत्रण की अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी से पीछे क्यों भाग रही है? भारत का कोई अनपढ़ भी बता देगा कि भारत की सबसे बड़ी समस्या जनसँख्या-विस्फोट है. क्या इतनी-सी बात भी मोदी सरकार को पता नहीं है? हालाँकि यह सच नहीं है फिर भी अगर जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन राज्य सरकार का विषय होता तो क्या मोदी सरकार ने कभी राज्य-सरकार के विषयों पर कानून बनाया ही नहीं है? फिर कृषि कानून जिनको लेकर दिल्ली की सडकों पर धींगामुश्ती चल रही है वो क्या है? कृषि भी तो राज्य-सूची का विषय है. मित्रों, कुल मिलाकर केंद्र सरकार ने अपने सफ़ेद झूठ से भारत के लोगों को निराश किया है. एक उम्मीद जो मोदी जी और उनकी सरकार से थी कि वे भारत को विश्वगुरु बनाएँगे अब टूटती हुई लग रही है. मोदी सरकार को भी कदाचित सत्ता से मोह हो गया है और शायद वह भविष्य में ऐसा कोई ऐसा कदम नहीं उठाएगी जिससे वोट-बैंक पर बुरा असर पड़े भले ही उसकी कितनी भी आवश्यकता क्यों न हो?

बुधवार, 16 दिसंबर 2020

कुत्ते की पूँछ बिहार का प्रशासन

मित्रों,कुत्ता जितना वफादार जीव है उतना ही सीधा भी लेकिन उसकी पूँछ कहने की आवश्यकता नहीं बड़ी टेढ़ी होती है. टेढ़ी खीर कैसे टेढ़ी होती है हमने तो नहीं देखा लेकिन आज तक जहाँ भी कुत्ते को देखा है उसे टेढ़ी पूँछ वाला ही पाया है. यद्यपि मैंने कभी किसी को कुत्ते की पूँछ को नली में डालते हुए तो नहीं देखा लेकिन यह कहावत बिहार क्या पूरे भारत में मशहूर है कि चाहे कुत्ते की पूँछ को १२ बरस तक लोहे की नली में कैद कर दो वो सीधी नहीं होगी टेढ़ी ही रहेगी. मित्रों, एक अरसा हुआ तब मैं फुलवरिया कटिहार में रहता था. फुलवरिया चौक पर जब भी पुलिस की गाड़ी आती तो लोग कहते कुत्ते आ रहे हैं. मुझे लगा चूंकि लोगों की रक्षा करना पुलिस का काम है इसलिए कुत्ता कह भी दिया तो क्या हुआ हालांकि लोग पुलिस को कुत्ता हिकारत की दृष्टि से कहते थे. तब बिहार में लालूजी का शासन था. मित्रों, तब बिहार में आज के बंगाल की तरह ही कैडर राज था. राजद का कोई छुटभैया नेता भी थाना पर चला जाए तो पुलिस घबरा जाती थी. पुलिस के पास स्टेशनरी तक नहीं थी, पुलिस गाड़ी में तेल नहीं होता था. मतलब की तब नौकरशाही लोकशाही के सामने पूरी तरह से लाचार थी, विवश थी. मित्रों, फिर बिहार के सिंहासन पर नीतीश कुमार जी विराजमान हुए और इन्होंने नौकरशाही को खुली छूट दे दी. सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता भी तब थाने पर जाने से डरने लगे. नौकरशाही और लोकशाही के बीच आवश्यक संतुलन न तो लालू जी के समय थी और न ही नीतीश जी ने इसका ख्याल रखा. एक ने नौकरशाही को शून्य बना दिया तो दूसरे ने सीधे सौ जबकि होना तो यह चाहिए था कि नौकरशाही और लोकशाही को ५०-५० पर रखा जाता. मित्रों, हमने वर्ष २०१२ में अपने एक आलेख बेलगाम नौकरशाही के आगे लाचार नीतीश में कहा था कि नीतीश जी ने नौकरशाही को बेलगाम बनाकर जो गलती की थी उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं. मित्रों, पद पा लेना आसान है लेकिन शासन चलाना काफी कठिन. जब तक शासक की नीतियाँ सही नहीं होंगी कोई अच्छा शासन दे ही नहीं सकता. नीतीश जी की नीतियाँ गलत थीं भले ही उससे उनको और बिहार को अल्पकालिक लाभ हुए हों लेकिन बबूल का पेड़ कब तब काँटा देने से बचेगा? आज बिहार के प्रशासनिक अधिकारी कर्तव्यनिर्वहन नहीं करते सिर्फ कागजी खानापूरी करते हैं. सरकार भी सिर्फ कागज खाती है इसलिए उसे कागज खिलाया जा रहा है. जब लिपि सिंह इतना जघन्य और अक्षम्य अपराध करने के बावजूद निर्भय और सुरक्षित है तो फिर कोई प्रशासनिक अधिकारी क्यों सरकार से डरे? नौकरशाही को उसी तरह लोकशाही के पाँव तले होने चाहिए जैसे सिंह माता दुर्गा के क़दमों के नीचे होता है. राज्य के राजस्व मंत्री राम सूरत राय स्वयं स्वीकार कर रहे हैं कि उनका विभाग सबसे ज्यादा भ्रष्ट है लेकिन क्या स्वीकारोक्ति समाधान है या बन सकती है? मित्रों, रही बात बिहार पुलिस की तो बिहार में पुलिस है ही कहाँ? पुलिस का दो प्रकार का काम होता है-पहले अपराध को होने से पहले ही रोक देना और अपराध होने के बाद अपराधियों को पकड़कर दण्डित करवाना. बिहार पुलिस तो इन दोनों में से कोई भी काम कर ही नहीं रही है फिर काहे ही पुलिस? पुलिस तो बस थाने में बैठी रहकर कागजी काम करती है और रिश्वत खाती है. क्या मजाल कि किसी भी आम आदमी का कोई भी काम सीधे तरीके से हो जाए. ऐसे माहौल में मैं दावा करता हूँ कि आईजी तो क्या डीजीपी भी गश्ती करें तब भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा. मित्रों, बिहार में इन दिनों एक और खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई है. लोग निगरानी द्वारा रिश्वत लेते हुए पकडे जाते हैं और न्यायालय द्वारा फिर से बहाल कर दिए जाते हैं. इसी तरह से न्यायालय धड़ल्ले से अपराधियों को जमानत देती है. कुछ न्यायाधीश तो जमानत देने के लिए विख्यात हैं. जब तक न्यायालय प्रशासन का साथ नहीं देगा तब तक प्रशासन सबकुछ करके भी कुछ नहीं कर सकता. फिर बिहार में जनशिकायत का जो भी मंच है सही तरीके से काम नहीं कर रहा है ऐसे में जनता जाए तो कहाँ जाए? जब तक नौकरशाही नीतीश की सुनती थी जनता दरबार लगाया फिर फजीहत से बचने के लिए बंद कर दिया क्योंकि समाधान नहींं होता था। कुल मिलाकर जो चलता था वही चल रहा है और शायद चलता रहेगा चाहे नीतीश कुमार कितनी भी बैठकें कर लें. सरकार को चाहिए कि नई तकनीकी से लाभ उठाते हुए सबकुछ ऑटोमैटिक और ऑनलाइन कर दे और कोई उपाय नहीं है कुत्ते की दुम को सीधी करने का. हमने देखा है कि सिर्फ रजिस्ट्रीवाली जमीनों का ही ऑनलाइन नामांतरण हो रहा है कोर्ट के आदेश का नहीं हो पाता सरकार को इन विसंगतियों को भी दूर करना होगा.

गुरुवार, 10 दिसंबर 2020

डरपोक और पिलपिली मोदी सरकार

मित्रों, कहते हैं कि कथनी और करनी में भारी अंतर होता है. चमड़े की जीभ से इन्सान कुछ भी बोल जाता है, किसी भी तरह के दावे कर डालता है लेकिन उसकी हिम्मत की परीक्षा तब होती है जब उसका संकटों और परेशानियों से सामना होता है. मित्रों, आपलोगों को भी याद होगा कि जब २०१४ में लोकसभा चुनावों का प्रचार चल रहा था तब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी लगभग हर जनसभा में दावा करते थे कि उनका सीना ५६ ईंच का है अर्थात उनमें अपार साहस, हिम्मत और निर्णय लेने की क्षमता है. मित्रों, लेकिन भारत का प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही महीने बीते थे कि यह भ्रम टूटने लगा और अब पूरी तरह टूट चुका है. दरअसल हुआ यह था कि मोदी जी की सरकार ने भूमि अधिग्रहण सम्बन्धी कानूनों में बदलाव करने के लिए अध्यादेश जारी किया था. मगर जब उसका विपक्षी दलों ने बड़े पैमाने पर विरोध किया तब ५६ ईंची सरकार के हाथ-पांव फूल गए और उसे यू-टर्न लेना पड़ा. नवम्बर २०१६ में भी जब मोदी सरकार ने नोटबंदी की तब भी सरकार को रोज-रोज अपने निर्णयों पर पुनर्विचार करना पड़ा. मित्रों, इसी तरह देसी और विदेशी कालेधन पर प्रहार करने में भी मोदी सरकार पूरी तरह से विफल रही है. उल्टे माल्या, चौकसे और नीरव मोदी भारत के बैंकों को हजारों करोड़ का चूना लगाकर इसी मोदी सरकार के समय विदेश भाग गए. रोबर्ट वाड्रा आज भी आजाद है, राहुल-सोनिया भी जेल नहीं गए और प्रियंका गाँधी का हिमाचल में बना अवैध बंगला शान से खड़ा है. यह कैसी ५६ ईंची सरकार है जो सुशांत सिंह और नवरुना के कातिलों को नहीं पकड़ पाती? यह कैसी ५६ ईंची सरकार है जिसकी आँखों के सामने बंगाल और केरल में थोक में भाजपा कार्यकर्ताओं को मारा जा रहा है लेकिन यह अनुच्छेद ३५६ नहीं लगाती न ही अनुच्छेद ३५५ का प्रयोग कर राज्य सरकार को निर्देश देती है? मित्रों, अभी पिछले साल १५ दिसंबर को दिल्ली के शाहीन बाग़ में सीएए के बेवजह किए जा रहे विरोध में धरने की शुरुआत हुई. जल्दी ही विरोधियों ने पूरी सड़क को अपने कब्जे कर लिया. फिर क्या था पूरे भारत के बहुत-सारे मुस्लिम बहुल इलाकों में शाहीन बाग़ जैसे धरने की शुरुआत हो गई. यहाँ तक कि केंद्र सरकार राष्ट्रीय राजधानी में चल रहे कई सारे शाहीन बागों को भी खाली नहीं करवा पाई. फिर विरोधियों ने दिल्ली में दंगा शुरू कर दिया और इसके दौरान भी सबसे ज्यादा लाचार नजर आ रही थी दिल्ली पुलिस जो केंद्र सरकार के मातहत काम करती थी और करती है. वो तो भला हो कोविड-१९ का जिसके चलते स्वतः धरने समाप्त हो गए वर्ना न जाते क्या होता. मित्रों, इस समय भी दिल्ली में कथित किसान आन्दोलन चल रहा है और केंद्र की ५६ ईंची सरकार की हवा ख़राब हुई जा रही है. सूत्रों से पता चला है कि केंद्र सरकार एक बार फिर यू टर्न लेने के लिए तैयार हो गई है. केन्द्र सरकार की इन हरकतों को देखकर ऐसे लगता है कि यह सरकार भीड़ और सड़क जाम से बहुत डरती है और हर जायज-नाजायज मांग को मानने को तैयार हो जाती है. हमें ऐसे भी लग रहा है कि हमें भी जनसंख्या कानून, समान नागरिक संहिता, अल्पसंख्यक संशोधन कानून, अनुच्छेद ३० में संशोधन, पुलिस और न्यायिक सुधार कानून, नवीन भारतीय सिविल सेवा कानून, भ्रष्टाचार विरोधी सख्त कानून आदि के लिए दिल्ली की सडकों पर भीड़ जमा करके सड़क जाम करना होगा. जब यह सरकार दिल्ली की सडकों को भी खाली नहीं करवा सकती तो क्या खाकर पाकिस्तान और चीन से जमीन खाली करवाएगी? ज्यादा-से-ज्यादा यह नए सियाचिन पैदा कर सकती है. इससे ज्यादा कुछ नहीं.

सोमवार, 30 नवंबर 2020

फिर से आग से खेल रही है कांग्रेस

मित्रों, हमने इतिहास की किताबों में पढ़ा था कि १८५७ का स्वतंत्रता-संग्राम सैनिकों ने नहीं लड़ा था बल्कि वे सैनिक वर्दी पहने हुए किसान थे. १७९३ में जमींदारी और १७९४ में सूर्यास्त कानून के आने के बाद बंगाल, बिहार, उड़ीसा और पूर्वी उत्तर प्रदेश में लगान की दरें दोगुनी कर दी गयी थी जिससे किसान त्राहि-त्राहि कर उठे थे. सैनिक जब भी अपने घर जाते तो वहां की हालत देखकर उनके मन में क्रोध भर जाता जिसकी परिणति सैनिक-विद्रोह के रूप में हुई. मित्रों, आज भी देश के लिए जान न्योछावर करनेवाले लगभग सारे-के-सारे वीर किसानों के बेटे होते हैं. ऐसे में ऐसा कैसे संभव है कि किसान भारत माता की जय बोलने से मना कर दें और उसके बदले पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने लगें. जाहिर है कि इस समय दिल्ली में चल रहा किसान आन्दोलन के पीछे कोई साजिश है जिसके रचयिता देश को जलाना चाहते हैं. जिस तरह से इस आन्दोलन में कांग्रेस सहित पूरा-का-पूरा टुकड़े-टुकड़े गैंग सक्रिय है कथित आन्दोलन के प्रति वह भारत के जन-गण-मन की आशंकाओं को और भी गहरा करता है. मित्रों, हमें भूलना नहीं चाहिए कि १९७० के दशक में इसी कांग्रेस पार्टी ने अकाली दल पर कब्ज़ा ज़माने के लिए जरनैल सिंह भिंडरावाले को प्रोत्साहित किया था. अलगाववादी प्रवृत्ति का भिंडरावाले अवसर का लाभ उठाते हुए पाकिस्तान की गोद में जा बैठा था और भारतीय पंजाब को अलग देश बनाने के सपने देखने लगा. फिर पंजाब दो दशकों तक जलता रहा और उसकी आग में होलिका राक्षसी की तरह श्रीमती इंदिरा गाँधी भी जल गई. साथ ही हजारों की संख्या में निरपराध मारे गए जिनमें हिन्दू सबसे ज्यादा थे. मित्रों, एक बार फिर से कांग्रेस बेवजह आन्दोलन खड़ा करके पंजाब में अलगाववाद की आग भड़का रही है. बेवजह इसलिए क्योंकि पंजाब सरकार अक्टूबर में ही नए कानून बनाकर भारत सरकार द्वारा बनाए गए कृषि कानून को निष्प्रभावी बना चुकी है. फिर समझ में नहीं आता कि पंजाब की किसान क्यों आंदोलन कर रहे हैं. जाहिर है कि दाल में कुछ काला है और कांग्रेस टुकड़े-टुकड़े गैंग का हिस्सा बनकर चीन-पाकिस्तान से मोटी रकम वसूलने के चक्कर में है. मित्रों, तथापि कांग्रेस पार्टी इस बात को समझ नहीं पा रही है अथवा जानबूझकर ऐसे खेल खेल रही है जिससे पंजाब दोबारा जलने लगे और साथ में जल उठे पूरा भारतवर्ष. हाथरस कांड में कांग्रेस ने जिस तरह हिन्दुओं में फूट डालने के पाकिस्तानी और चीनी एजेंडे को पूरा करने की कोशिश की वह किसी से छिपी हुई नहीं है. जिस तरह से दिल्ली की मस्जिदों से आन्दोलनकारियों के भोजन और आवासन की व्यवस्था की जा रही है उससे यह खेल और भी खतरनाक हो जाता है. शायद कांग्रेस भूल गई है कि जिस इंदिरा गाँधी की हत्या को उसने महान शहादत का नाम देकर १९८४ का चुनाव जीता था वह खुद इंदिरा की लगाई आग का परिणाम था. कहने का तात्पर्य यह कि अगर पंजाब फिर से जलता है तो उसकी लपटें फिर से कांग्रेस को भी झुलसाएंगी.

शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

अंधेर नगरी मोदी राजा

मित्रों, भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी साहित्य में आधुनिकता का प्रवर्तक माना जाता है. भारतेंदु स्वयं एक बहुत बड़े नाटककार भी थे. उन्होंने अपने नाटक के माध्यम से देश में व्याप्त अनेकों समस्याओं को देश वासियों से समक्ष प्रस्तुत किया. ‘अंधेर नगरी’ उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यंग्य-नाटक है, जो सत्ता की विवेकहीनता का रूप सामने लाता है. अंधेर नगरी अंग्रेजी राज का दूसरा नाम है. ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ अंग्रेजी राज्य की अंधेरगर्दी की आलोचना ही नहीं, वह इस अंधेरगर्दी को ख़त्म करने के लिए भारतीय जनता की प्रबल इच्छा भी प्रकट करता है. अंधेर नगरी की प्रचलित लोककथा पर आधारित भारतेंदु के इस नाटक में उत्तर औपनिवेशिक चेतना की स्पष्ट झलक है. यह उपनिवेशवाद का प्रतिवाद है. भारतेंदु ने अंधेर नगरी को पश्चिमी साम्राज्य का रूप दिया है. भारतेंदु ने इस व्यंग्य के तौर पर अंग्रेजी साम्राज्य को अंधेर नगरी की संज्ञा दी है. अंधेर नगरी में भारतेंदु ने महंत के माध्यम से कहलाया है, “बच्चा नारायणदास, यह नगर दूर से बड़ा सुंदर दिखाई पड़ता है.” भारतेंदु दिखाना चाहते थे कि पश्चमी साम्राज्यवादी सभ्यता दूर से इतनी सुंदर दिखाई देती है, पर अंदर से क्या है. ये एक सभ्यता पर टिपण्णी करना चाहते थे, सिर्फ अंग्रेजी राज पर नहीं. भारतेंदु द्वारा अंधेर नगरी में चित्रित महंत विवेकशीलता का प्रतिक है. भारतेंदु ने महंत की ये विवेकशीलता एक गुरु के रूप में उद्धरित की है. अपने गुरु की आज्ञा न मानकर गोबरधनदास टके सेर मिठाई खाता है और चौपट राज्य की व्यवस्था में फंस जाता है. फांसी पर जब शिष्य को लटकाया जा रहा था तो उसने गुरू का स्मरण किया उन्होंने जो युक्ति सुझाई वही कारगर हुई यानी आज भी होगी। यानि गुरु के महत्त्व को भारतेंदु प्राथमिकता दी है और इस दृश्य के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि शिक्षा एवं ज्ञान के कारण ही हम बड़े-बड़े संकट से बच सकते हैं. भारतेंदु की वैचारिक दृष्टि सदा आम जनता के उद्धार के प्रति ही रही. अंग्रेजी साम्राज्य से मुक्ति और उनकी अंधेरगर्दी से छुटकारा ही उनकी रचनाओं का प्रमुख विषय रहा. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “भारतेंदु का पूर्ववर्ती काव्य साहित्य संतो की कुटिया से निकल कर राजाओं और रईसों के दरबार में पहुँच गया था. उन्होंने एक तरफ तो काव्य को फिर से भक्ति की पवित्र मंदाकिनी में स्नान कराया और दूसरी तरफ़ उसे दरबारीपन से निकल कर लोक-जीवन के आमने-सामने खड़ा कर दिया.” इसके आधार पर भारतेंदु ने अंधेर नगरी में दरबार के उपेक्षा की है और लोक जीवन का समर्थन किया है. मित्रों,भारतेंदु ने अंधेर नगरी के माध्यम से अपनी वैचारिक दृष्टि कानून व्यवस्था पर भी डाली है. क़ानूनी व्यवस्था का प्रतिनिधि राजा को सुनाई नहीं देता, वह ‘पान खाइए’ को ‘सुपरनखा आई’ सुनता है. जब कोई फरियादी उसके पास अपनी फ़रियाद लेकर आता है तो वह उसे अपनी बातो में उलझा कर न्यायिक प्रक्रिया को और लम्बा कर देता है. फरियादी की दिवार गिरने के कारण बकरी मर जाती है. वह न्याय के लिए राजा के पास जाता है लेकिन राजा की न्याययिक प्रक्रिया जाकर गोबर्द्धन दास को फाँसी किस सजा सुनाने पर रूकती है. क्योंकि फाँसी का फंदा उसी के नाप का था. कुछ ऐसा ही दृश्य मन्नू भंडारी द्वारा लिखित नाटक ‘उजली नगरी, चतुर राजा’ में देखने को मिलता जहाँ एक आदमी अपनी समस्या लेकर राजा से पास आता है तो राजा उसे अपनी बातों में उलझा कर बिना न्याय किये वापस भेज देता है. यह कहा जा सकता है कि सवा सौ साल पहले ही भारतेंदु ने वर्तमान की तस्‍वीर खींच दी थी. अंधेर नगरी के अंत में भारतेंदु अपनी बौद्धिकता का प्रमाण देते हुए महंत के माध्यम से चौपट राजा को फाँसी पर चढ़ा कर समाज में परिवर्तन के सुखद संकेत दिए हैं. अंत में भारतेंदु कहते हैं, “ जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज। ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥“ मित्रों, सवाल उठता है कि क्या आज भारतेंदु द्वारा यह प्रसिद्ध नाटक लिखने के डेढ़ सौ साल बाद देश अंधेर नगरी नहीं रहा? क्या भारत में राम राज्य आ गया है या स्थिति अंग्रेजों के समय से भी ज्यादा ख़राब हो गई है? क्या स्वतंत्र भारत की सरकारों ने भ्रष्टाचार को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है? क्या हमारी सरकार सचमुच भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहती है या फिर भ्रष्टाचार को समाप्त करने के प्रयास करने का नाटक मात्र कर रही है? मित्रों, वास्तविकता तो यही है कि चाहे तो केंद्र की मोदी सरकार हो या राज्यों की सरकारें किसी की भी प्राथमिकता सूची में देशोद्धार है ही नहीं. सबके सब सिर्फ ज्यादा से ज्यादा वोटबैंक बनाने और सत्ता प्राप्त करके के लिए मरे जा रहे हैं. केंद्र सरकार की सारी योजनाएं सिर्फ इस दृष्टिकोण से बनाई गई हैं कि उससे कितना वोट बढेगा. फिर चाहे वो जन धन खाता हो, उज्ज्वला योजना हो, स्वास्थ्य बीमा योजना हो, किसान सम्मान योजना या बिहार सरकार की नक़ल करके लाई गई हर घर नल का जल योजना. सच्चाई तो यह है कि आज भी बिना रिश्वत दिए जनता का कोई काम नहीं होता. पुलिस आज उससे भी सबसे ज्यादा अंधेरगर्दी करती है जितनी वो अंग्रेजों के ज़माने में करती थी. दिल्ली पुलिस तक महाभ्रष्ट है. पटवारी आज उससे भी ज्यादा रिश्वत खाता है जितनी वो अंग्रेजों के ज़माने में खाता था. हाकिम आज उससे भी ज्यादा भ्रष्ट है जितना वो अंग्रेजों के ज़माने में था. आज भी नेता आपस में मिलकर सुशांत सिंह मामले को रफा-दफा कर देते हैं. इन्साफ आज भी दूर की कौड़ी है जैसे भारतेंदु से समय था. अंग्रेजों के बारे में भारतेंदु ने कहा था कि भीतर भीतर सब रस चूसै बाहर से तन मन धन मूसै जाहिर बातन में अति तेज क्यों सखि साजन? नहीं अंगरेज। क्या हमारे आज के नेता अंग्रेजों से अलग हैं? हमारे प्रधानमंत्री दिन-रात भाषण देते रहते हैं लेकिन उससे क्या फर्क पड़ा है? केंद्र की भाजपा सरकार का कोई ठिकाना नहीं कि कब किस तरह की नीति की घोषणा कर दे भले ही सरकार की तैयारी कुछ भी नहीं हो. सरकार ने सत्ता में आने के १० दिन के भीतर विदेशों से काला धन लाने की बात कही थी आई क्या? भाजपा ने हर साल २ करोड़ लोगों को रोजगार देने की बात कही थी दी क्या? सरकार ने योजना आयोग को समाप्त कर दिया क्या लाभ हुआ? सरकार ने यूजीसी को समाप्त करने की बात कही है लेकिन उसके स्थान पर उच्च शिक्षा को देखेगा कौन और व्यय कौन उठाएगा? सरकार ने नेट की वैल्यू को कम करके पीएचडी की वैल्यू को बढ़ा दिया. फिर नेट की परीक्षा ली क्यों जा रही है? नेट की परीक्षा में तो फिर भी पारदर्शिता है लेकिन पीएचडी में जो मनमानी है और सेटिंग है उसको रोकने के लिए सरकार ने क्या किया है? आज कहने को ऑनलाइन सरकार है लेकिन नमो ऐप सहित किसी भी मंच पर जनता की शिकायतें नहीं सुनी जा रही है. जनता आज अंग्रेजों के ज़माने से भी ज्यादा लाचार है. मित्रों, अंग्रेज तो सात समंदर पार से आए थे इसलिए स्वाभाविक था कि हमारे देश को लूटकर धन सात समंदर पार ले गए लेकिन हमारे नेताओं ने क्या किया? क्या वे धन स्विस बैंक में नहीं ले गए? मोदी सरकार के समय माल्या, मेहुल चौकसे और नीरव मोदी बैंकों से भारी मात्र में ऋण लेकर सात समंदर पार भाग गए और मोदी सरकार मूक दर्शक बनी देखती रही ऐसे में क्यों नहीं यह समझा जाए कि मोदी सरकार ने ही उनको भगाया है? आज भी बैंक आम जनता को ऋण नहीं देती लेकिन अम्बानी-अडानी को हजारों करोड़ के कर्ज झटपट मिल जाते हैं. इतना ही नहीं आज एक-एक करके निजी बैंक बंद हो रहे हैं और उनमें जनता के खून-पसीने से कमाया गया पैसा फंस जा रहा है. किसी-किसी की जीवन भर की कमाई डूब जा रही है. मित्रों, देश के शुभचिंतक लगातार मांग कर रहे हैं कि सरकार जनसँख्या नियंत्रण कानून बनाए साथ ही भ्रष्टाचारियों के खिलाफ अमेरिका की तरह सख्त कानून बनाए, पुलिस को जनता के प्रति जिम्मेदार बनाया जाए, न्यायिक प्रणाली को त्वरित और जिम्मेदार बनाया जाए लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही बल्कि खुद भाजपा के कार्यकर्ता रोजाना बंगाल और केरल में मारे जा रहे लेकिन केंद्र सरकार उनकी जान बचाने के बदले किनारे पर खड़ी होकर शोर मचा रही है फिर अर्नब को कौन और क्यों बचाए. केंद्र सरकार कड़क सरकार के बदले कड़ी निंदा की सरकार बनकर रह गई है. आज राष्ट्रवाद का सौदा किया जा रहा है. केवल चीन-पाकिस्तान का शोर मचाकर चुनाव जीते जा रहे हैं जबकि देश की अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है. रेलवे, हवाई अड्डे निजी हाथों में सौंपे जा रहे हैं. जनता की आमदनी बढ़ाए बिना महंगाई बढ़ाई जा रही है. सिविल सेवा में नेताओं के भाई-भतीजों को सीधे भरा जा रहा है जबकि योग्य उम्मीदवार खाक छानते फिर रहे हैं. मोदी सरकार द्वारा किसी को भी किसी भी केंद्रीय विवि का कुलपति बना दिया गया है तो किसी को भी ओएनजीसी का स्वतंत्र निदेशक. मित्रों, अब बिहार की नवगठित सरकार को ही लें जिसे मोदी जी डबल ईंजन की सरकार कहते हैं. इसमें एक ऐसे व्यक्ति को शिक्षा मंत्री बना दिया जाता है जिस पहले से ही भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं. मंत्री को कार्यभार सँभालने के मात्र तीन घंटे के भीतर ही इस्तीफा देने को कह दिया जाता है. उधर मुख्यमंत्री के चमचे कहते हैं कि मुख्यमंत्री जी भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टोलरेन्स रखते हैं. फिर सवाल उठता है कि ऐसे भ्रष्ट को मंत्री बनाया ही क्यों? क्या ऐसी ही सरकार को डबल ईंजन की सरकार कहते हैं? अभी भी नीतीश सरकार में आठवीं पास मंत्री हैं. लोगों ने मोदी जी के नाम पर वोट दिया है तो क्या मोदी जी का यह कर्त्तव्य नहीं है कि वे मंत्रिमंडल में दागियों को शामिल करने से रोकें? खैर जब मोदी जी ही सुरेश प्रभु को हटाकर पीयूष गोयल को रेल मंत्री बनाते हैं, नचनिया-गवैया मनोज तिवारी और गिरिराज सिंह जिनको दो पंक्ति हिंदी लिखनी नहीं आती को मंत्री बनाते हैं तो वे क्या बिहार मंत्रिमंडल का गठन करवाएंगे. मित्रों, कुल मिलाकर आज भी भारत में अँधेर नगरी नाटक जैसे हालात हैं बल्कि हालात अंग्रेजी राज से भी ज्यादा ख़राब है. अँधा कानून है, बहरी और बडबोली सरकार है. सबकुछ उल्टा है कुछ भी सीधा नहीं है. भारतेंदु जहाँ नाटककार थे मोदी जी बहुत बड़े नटकिया हैं. कभी फौजी कपडा पहन लिया तो कभी पुजारी बन गए. भारतेंदु से भी पहले मुग़लकाल में ऐसी ही हालत को देखकर कभी तुलसीदास जी ने कहा था कि खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि, बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी। जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस, कहैं एक एकन सों, ‘कहाँ जाई, का करी?’

रविवार, 15 नवंबर 2020

इस्लाम, यूरोप और भारत

मित्रों, देखते-देखते कई साल बीत गए जब सितम्बर २०१५ में तुर्की के समुद्र तट के पास अयलान नामक मुस्लिम बच्चे की समुद्र किनारे तैरती लाश को देखकर पूरा यूरोप द्रवित हुआ जा रहा था. उस गलदस्रु भावुकता को देखकर तब हमने कहा था कि एक दिन ऐसा आएगा जब ये लोग पछताएंगे. और दोस्तों दुर्भाग्यवश वह दिन आ भी गया है. इस्लाम में सब जायज है नाजायज कुछ भी नहीं है यूरोप वाले कई सौ सालों तक क्रुसेड लड़ने के बाद भी इस सच्चाई को समझ ही नहीं पाए. शायद इस्लाम ने मृत बच्चे की लाश का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया. मित्रों, भावुकतावश यूरोप ने अपने दरवाजे मुस्लिम शरणार्थियों के लिए खोल दिए मगर जैसे ही उनके खाली पेटों में अनाज गया वे यूरोप वालों को चेतावनी देने लगे कि उनको शरियत के अनुसार चलना पड़ेगा. यूरोप में आज जगह-जगह जेहादी हिंसा हो रही है. वे गैर मुस्लिमों को मारने के लिए किसी भी वस्तु या वाहन को हथियार बना लेते हैं. उनका बस एक ही लक्ष्य है पूरी दुनिया में इस्लाम का साम्राज्य स्थापित करना. चूंकि उनकी आसमानी किताब सिर्फ हिंसा, लूट और बलात्कार की शिक्षा देती है इसलिए वे दूसरे धर्म के अनुयायियों के साथ मिलकर रह ही नहीं सकते. वे मानवों से अधिक मानवता के हत्यारे हैं. मित्रों, आज यूरोप के विभिन्न देशों में मस्जिदों में ताले लगाए जा रहे हैं. बहशी मुसलमानों को जेलों में ठूंसा जा रहा है. यह उसी यूरोप में हो रहा है जो दो दशक पहले तक यह मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत जेहादी हिंसा से परेशान है. बल्कि तब वो मुसलमानों के मानवाधिकारों की बात करते थे और कश्मीर पर भारत के विरोध में थे. तब उनको कश्मीरी हिन्दुओं की पीड़ा नजर नहीं रही थी जो अपने ही देश में शरणार्थी बना दिए गए थे और इस्लाम ने जिनका सबकुछ छीन लिया था. मित्रों, सवाल उठता है कि क्या भारत को यूरोप के अनुभवों से शिक्षा लेते हुए समय रहते ऐहतियाती कदम नहीं उठाने चाहिए? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस्लाम एक मार्शल कौम है और हम अहिंसावादी बनकर हरगिज उनका सामना नहीं कर सकते. सरकार को हिन्दुओं को सशक्त योद्धा बनाना होगा और अगर सरकार ऐसा नहीं कर सकती तो जनसँख्या नियंत्रण कानून को शीघ्रातिशीघ्र बनाना होगा. इस काम में जितनी देरी होगी भारत को उसकी उतनी ही बड़ी कीमत चुकानी होगी. इसके साथ ही मदरसों को बंद करना होगा और कट्टरपंथी मौलानाओं को जेलों में बंद करना होगा. पीएफआई जैसी इस्लामिक सेनाओं पर कठोरतम कार्रवाई करनी होगी. दिल्ली में दंगे करके और शाहीन बाग़ में धरना आयोजित करके इस्लाम ने भारत पर कब्ज़ा करने का प्रयोग शुरू भी कर दिया है. अगर देश में कोरोना नहीं आया होता तो कदाचित इस समय भारत गृहयुद्ध का सामना कर रहा होता.

गुरुवार, 12 नवंबर 2020

डर के आगे जीत है

मित्रों, बिहार का चुनाव परिणाम आ चुका है और ठीक वैसा ही रहा है जैसा कि हमारा अनुमान था. चुनाव के दौरान हमने प्रत्येक पूछनेवाले को यही कहा था कि नीतीश कुमार फिर से वापसी करेंगे और गिरते-पड़ते एनडीए को बहुमत आ जाएगा. हमने यह भी कहा था कि पहले चरण के मतदान पर मुंगेर गोलीकांड का असर रहेगा लेकिन बाद के दोनों चरणों में एनडीए पहले चरण में होनेवाले नुकसान की भरपाई कर लेगा और हुआ भी ऐसा ही है. मित्रों, एग्जिट पोल वाले हैरान होंगे कि ऐसा हुआ कैसे. दरअसल बिहार के मतदाताओं में आज भी लगभग आधे वे लोग हैं जिन्होंने लालू के जंगल राज को देखा है, भोगा है और वे कभी नहीं चाहेंगे कि बिहार को फिर से वही दिन देखने को मिले. बिहार की जनता ने लालू जी को कई अवसर दिए क्योंकि उन्होंने कहा था कि आगे से वे ठीक तरह से काम करेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. रेल मंत्री के रूप में लालू जी कुछ अलग नहीं कर पाए. बिहार में उन्होंने अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया और उस पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया जिसको शौचालय और सचिवालय का फर्क तक पता नहीं था. राबड़ी राज में विकास के सारे काम इसलिए रोक दिए गए कि कहीं घोटाला न हो जाए और लालू जी की तरह राबड़ी को भी जेल न जाना पड़े. १९९०-२००५ के कालखंड में बिहार से सारे व्यवसायी भाग गए, सरकारी और निजी चीनी मिलें बंद हो गईं और हजारों सालों में बिहार ने जो भी आर्थिक प्रगति की थी उसका सम्पूर्ण विनाश कर दिया गया. सामाजिक न्याय के नाम पर बिहार के अलावा कई अन्य प्रदेशों में भी शासक बदले लेकिन किसी ने भी उन प्रदेशों की अर्थव्यवस्था को इस तरह बर्बाद नहीं किया. पडोसी राज्य उत्तर प्रदेश इसका उदाहरण है. जब लालू राज के दौरान हम दिल्ली जाते थे तो देखते थे कि उत्तर प्रदेश के गाँव बिजली की दुधिया रौशनी में नहाए हुए हैं जबकि उस दौरान पूरा बिहार लालटेन की रोशनी के सहारे दिन काट रहा था. मित्रों, एग्जिट पोल वाले बिहार में इस बात को समझने में विफल रहे कि जो लोग शाम तक नीतीश सरकार को गरिया रहे थे उन्होंने भी सुबह में एनडीए वो वोट दिया. इनमें सबसे बड़ी संख्या सवर्णों की थी. साथ ही पिछड़े और दलित भी इसमें शामिल थे. सिर्फ यादवों और मुसलमानों ने एकजुट होकर महागठबंधन को वोट दिया. मैं यद्यपि प्रधानमंत्री मोदी जी की रैलियों के प्रभाव से भी इंकार नहीं कर रहा हूँ. पहले चरण के मतदान के बाद उन्होंने मोर्चा संभाला और लोगों को जंगलराज की याद दिलाई. साथ ही राम मंदिर, अनुच्छेद ३७०, उज्ज्वला योजना, किसान सम्मान योजना और बिहार में बन रहे पुलों-सड़कों का जिक्र कर फिजां ही बदल दी. मित्रों, इस बात से हमें कभी इंकार नहीं था कि टक्कर जोरदार है और ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है लेकिन दूसरे और तीसरे चरणों के मतदान ने बिहार को बचा लिया. हो सकता है कि तेजस्वी १० लाख नौकरियों के अपने वादे को पूरा कर भी देते लेकिन उसमें जमकर यादवों के पक्ष में धांधली की जाती इसमें कोई संदेह नहीं. और फिर से बिहार की कानून-व्यव्यस्था यादवों के हाथों में चली जाती जैसा कि लालू-राबड़ी के समय उन्होंने नंगा नृत्य किया था. मित्रों, बिहार के चुनाव परिणामों में कुछ खतरनाक संकेत भी हैं जैसे ओवैसी की पार्टी का बिहार विधानसभा में प्रवेश और कम्युनिस्टों की शानदार जीत. दोनों ही दलों का रवैया हिंदुविरोधी और तदनुसार भारत-विरोधी है. इन शक्तियों का मजबूत होना बिहार और देश के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है.

बुधवार, 14 अक्टूबर 2020

बिहार में का बा? बिहार में ई बा

मित्रन लोग, ई समय बिहार में चुनाव के प्रचार चल रहल बा धकाधक। जाहिर बा कि पक्ष-विपक्ष दून्नो तरफ से एक-दोसर पर दोषारोपण के तीर दागल जा रहल बा। विपक्ष मनोज वाजपेई के एगो गाना के आधार बना के पूछ रहल बा कि बिहार में का बा। जवाब में सत्ता पक्ष भी बता रहल बा कि बिहार में ई बा। बाकी हमहू त बिहारे में रहअ तानी से हमहू कुछ लिस्ट बनबले बानी कि बिहार में का बा। मित्रन लोग, सबसे पहले बिहार में भ्रष्टाचार बा। हम गर्व से कह सकअ तानी कि ई मामला में आपन बिहार पूरा देशे ना पूरा दुनिया में अव्वल बा। बिना पईसा देले बिहार सरकार के कऊनो दफ्तर में कोई काम ना होला। ईहां तक कि रवा बिहार में लुटा जाए के बाद जब पुलिस के भीडा ज ईब त उहो रवा के दुबारा लूट लिहें। एतने ना रवा के बिहार के बैंक में बिना दस पर्सेंट कमीशन देले लोनो ना मिली जबकि दिल्ली-उल्ली में लोन देबे खातिर बैंक उलटे परेशान रहेला। मित्रन लोग, बिहार में का बा में अगिला बारी बा बेरोजगारी के। उन्नीस सौ नब्बे से ले के आज तक बिहार में लालू-नीतीश यानि पिछड़ा लोग के शासन बा। ई दून्नो बिहार के लोगन के रोजगार देबे के खूब सपना दिखईलें। बाकी स्थिति में कऊनो बदलाव ना आईल। एतने ना बिहार में कौनो आपन रोजगार कईल भी आजकल अपन जान से खिलवाड़ करे के बराबर हो गईल ह। दोकान से घर तक रवा कब, कहां आऊर कईसे लुटा-मरा जाईब कोई नईखे जानत। मित्रन लोग, बिहार में बेबस किसान बा। बिहार में हजार दू हजार टन धान के खरीद करके डबल ईंजन के सरकार द्वारा एमएसपी के कर्त्तव्य पूरा कर लिहल जाता। अभी बिहार में लाखों टन मकई भईल ह बाकी सरकार एकरा के ना खरीदी। बिहार में पहिलहि से ऐग्रिकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी (APMC) नईखे। अब किसान समझे कि उ आपन उपज के का करिहें. बिहार के किसान के पास जिए के कोई रस्ता न ईखे फिर भी लोग जिअता। एक आमदी खेती करअता त घर के चार आमदी बाहर दिल्ली-गुजरात नौकरी करअतारें। मित्रन लोग, अगर रऊआ लोग लागता कि बिहार में खाली लालुए घोटालेबाज बाडन त रवा लोग भुलावा में बानी. ईहाँ हजारों लालू बाडन. आपन नीतीश कुमार भी लालू से कम नईखन. अंतर बस इतना बा कि ई भाजपा के साथे बाडन जेसे जेल के बाहर बाडन. सृजन घोटाला, दवा घोटाला जईसन केतना घोटाला इनकरो राज में हो चुकल बा. मित्रन लोग,बिहार में अशिक्षित शिक्षक बाडे उहो नीतीश कुमार जी के कृपा से. एकबार नीतीश जी पंचायत के मुखिया लोग के मास्टर बहाली के अधिकार दे देले रहलन. फिर त जे बहाली भईल कि पूछीं मत. केतना मास्टर अबहियो बिहार में नकली कागज पर काम कर रहल बाड़ें. बहुत के तअ एक्का से बीसका तक के पहाडा भी नईखे आवत. मित्रन लोग, बिहार में टिकट के बिक्री बा। ई घडी जेतना राजनैतिक पार्टी बिया जमके टिकट बेच रहल बिया. अब बिहार में गरीब आमदी चुनाव ना लड़ सकत. अब चुनाव बराबरी के लडाई ना रह गईल ह. मित्रन लोग, रऊआ लोग कहत होखब कि तब त बिहार के विकल्प के तलाश करे के चाहीं. त हम रवा के बता दीं कि बिहार के सबसे बड़ समस्या ई समय विकल्पहीनता ही बा. तेजस्वी जे लालू जी के बेटा बारें ई बार फिर से जमके क्रिमिनल सबके टिकट बांटले बारन। उ अईसन करके ई साबित कर देले बारें कि ई राष्ट्रीय जनता दल जनता दल न ईखे गुंडा दल बा। राष्ट्रीय गुंडा दल। मित्रन लोग, अगर रवा ई घडी बिहार में कऊनो पार्टी के प्रचार में आईल बानी त सचेत हो जाईं. बिहार में कानून व्यवस्था नईखे। सरकार लापता बिया. अपराधी के साथे-साथे रऊआ के बिहार के पुलिसो से बाच के रहे के पडी। न त बिना बाते के रवा लुटा जाईब आ उहो बिहार पुलिस के हाथे। फिर शिकायत कहाँ करब?

सोमवार, 12 अक्टूबर 2020

अपनी जान की सुरक्षा स्वयं करें

मित्रों, जब भी आप किसी बस में चढ़ते होंगे तो वहां लिखी हुई एक पंक्ति पर आपकी नज़र जरूर जाती होगी कि अपने सामान की रक्षा स्वयं करें. और इस तरह बस के स्टाफ आपके सामान की सुरक्षा से अपने आपको अलग कर लेते हैं. अब अगर आपका सामान बस में चोरी हो जाता है तो आप समझिए बस के स्टाफ तो यही कहेंगे कि हमने तो यह एक पंक्ति की इबारत मोटे-मोटे अक्षरों में लिखकर आपको पहले ही सचेत कर दिया था. आपने सतर्कता नहीं बरती तो हम क्या करें? मित्रों, इन दिनों पूरे देश में कानून-व्यवस्था की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है. कहीं हत्या हो रही, कहीं बलात्कार हो रहे, कहीं डाका पड़ रहा तो कहीं चोरी और ठगी हो रही लेकिन हमारे देश की पुलिस लगभग कुछ नहीं कर रही. कई बार तो लोग पहले से ही पुलिस को अपनी जान को किसी खास व्यक्ति से खतरा होने का आवेदन भी देते हैं लेकिन हमारी पुलिस कुछ नहीं करती बस हाथ-पे-हाथ धरे बैठी रहती है. और आवेदक की हत्या हो जाने के बाद झूठ बोल जाती है कि हमारे पास तो ऐसा कोई आवेदन आया ही नहीं था. पूरे भारत में पुलिस का एकमात्र काम जैसे घूस खाकर मुकदमों का अनुसन्धान करना और झूठ को सच और सच को झूठ बनाना रह गया हैं. मैं पहले भी अपने कई आलेखों में पुलिस के रवैये और काम करने के तरीकों पर सवाल उठा चुका हूँ. मैंने अपने नाम बिहार पुलिस, काम रंगदारी,रिश्वतखोरी,कत्ल,…? शीर्षक आलेख में २९ मार्च २०१३ को पुलिस द्वारा रंगदारी और वर्दी के दुरुपयोग सम्बन्धी कई घटनाओं को उजागर किया था. मैंने कहा था कि पुलिस एफआईआर दर्ज नहीं करती और अगर दर्ज कर भी लिया तो चोरी होने के एक महीने बाद घटनास्थल पर पहुँचती है. क्या तब तक चोर वहीँ पर बैठे होंगे? एटीएम फ्रॉड के मामले में पुलिस बिना कुछ किए छह महीने बाद केस बंद कर देती है. कई बार तो बलात्कार पीडिता को महिला थाने से डांट-फटकारकर भगा दिया जाता है. कई बार हत्या के मामले में पुलिस गिरफ़्तारी तक नहीं करती है चुपके से मामले को बंद कर देती है. उधर पीड़ित परिवार के आंसू रोते-रोते सूख जाते हैं, आँखें पथरा जाती हैं. फिर चाहे तो बहुचर्चित सुशांत सिंह मामला हो या पालघर या राजस्थान में पुजारी को जिन्दा जला देने की वारदात. मित्रों, ऐसा नहीं है कि सिर्फ राज्यों की पुलिस मनमाने तरीके से काम कर रही है बल्कि केंद्र सरकार के अधीन काम करनेवाली दिल्ली पुलिस भी इन दिनों स्वयं को जनता का सेवक नहीं बल्कि स्वामी समझने लगी है. तभी तो जब राहुल राजपूत की निर्मम पिटाई हो रही थी तब उसकी दोस्त द्वारा सूचित करने के बाद भी पुलिस घटनास्थल पर नहीं गई. बाद में पीडिता के मोबाईल का सिम तोड़ दिया क्योंकि उसने पुलिस के खिलाफ मीडिया में बयान दिया था. जब केंद्र सरकार की पुलिस का यह रवैया है तो जनता की रक्षा कौन करेगा? मित्रों, मेरा दिल्ली समेत सभी राज्यों की पुलिस से एक करबद्ध प्रार्थना है कि वे थानों में क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ की जगह जनता अपनी जान की सुरक्षा स्वयं करें लिखवा दें. वो क्या है कि जो थानों में होता है वहां वही लिखा रहे तो अच्छा रहेगा. फिर जनता जाने कि अंधेर नगरी में उसकी जान कैसे बचेगी? वैसे नहीं लिखवाने पर भी स्थिति तो जस-की-तस रहेगी.

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2020

बधाई हो बलात्कार हुआ है

मित्रों, आप सोंच रहे होंगे कि यह कैसा शीर्षक है? बलात्कार तो शर्मनाक घटना है फिर उसके लिए बधाई क्यों? दरअसल हमारे देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो प्रत्येक घटना को राजनैतिक तराजू पर तोलते हैं। कई बार इनकी भाषा चीन या पाकिस्तान की भाषा से भी मेल खाने लगती है। इन्हें हमेशा इंतजार होता है किसी ऐसी घटना का जिससे हिंदू समाज में फूट डाली जा सके। मित्रों, ऐसे राजनैतिक गिद्धों की तब बांछें खिल आती हैं जब इनको पता चलता है कि किसी दलित लड़की के साथ बलात्कार हुआ है और बलात्कारी सवर्ण है. इसमें भी एक शर्त है कि बलात्कार उत्तर प्रदेश में होना चाहिए. अगर बलात्कारी राजपूत हुआ तो सोने पे सुहागा. क्योंकि तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पर ऊंगली उठाने का सुनहरा अवसर मिल जाता है. तब योगी आदित्यनाथ योगी आदित्यनाथ नहीं रहते सीधे ठाकुर अजय सिंह बिष्ट हो जाते हैं. मित्रों, लड़की जीवित बच गई तो ठीक और अगर मर गई तो ज्यादा ठीक. फिर लाश पुलिस ने खुद जला दिया तो ठीक और लड़की के परिजनों को मिल गई तो ज्यादा ठीक. पहली स्थिति में पुलिस पर ज्यादती और मनमानी के आरोप लगाने का अवसर मिलता है वहीँ दूसरी अवस्था में शवयात्रा को हिंसक जुलूस में बदलने का सुनहरा मौका मिलता है जिससे जातीय दंगे भड़कने की शत प्रतिशत सम्भावना होती है. फिर क्या, फिर तो वोटों की फसल काटिए और राज भोगिए. मित्रों, ऐसा नहीं है कि बलात्कार सिर्फ उत्तर प्रदेश में होते हैं या सिर्फ राजपूत ही बलात्कार करते हैं. बल्कि बलात्कार तो पूरे भारत में हो रहे हैं और बलात्कारी किसी भी जाति और धर्म के हो सकते हैं. इसी प्रकार पीडिता भी किसी भी जाति या धर्म की हो सकती है. लेकिन जब तक उत्तर प्रदेश में कोई सवर्ण किसी दलित का बलात्कार न करे तब तक इन राजनैतिक गिद्धों की नजर में बलात्कार होता ही नहीं. तब तो विशुद्ध मनोरंजन होता है-वो वाला जिसकी चर्चा कभी मुलायम सिंह यादव जी ने की थी. हाथरस की पीडिता खुद कह रही थी कि उसके साथ अकेले संदीप ने सिर्फ मारपीट की लेकिन ये राजनैतिक गिद्ध फिर भी सामूहिक बलात्कार, दरिंदगी वगैरह शब्दों की रट लगे हुए हैं. मानों पीडिता को पता ही नहीं है कि उसके साथ हुआ क्या है मगर इनको सब पता है. मित्रों, उसी उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में मंगलवार को एक सचमुच का बलात्कार होता है जिसमें दो मुस्लिम युवक आरोपी होते हैं और पीडिता नाबालिग दलित होती है. उसके साथ सचमुच की दरिंदगी होती है और इस पैमाने पर होती है कि वो घर पहुँचने के चंद मिनट बाद ही दम तोड़ देती है लेकिन ये राजनैतिक गिद्ध तब उत्तर प्रदेश के आसमान पर नहीं मंडराते क्योंकि धर्मनिरपेक्ष हिंसा हिंसा न भवति? इसी तरह पिछले ४८ घंटों में बिहार में भी दो-दो बलात्कार की घटनाएँ हुई हैं लेकिन उनमें से एक में बलात्कारी दलित है और दूसरे में अति पिछड़ा इसलिए इन राजनैतिक गिद्धों के कुनबे में पूरा सन्नाटा पसरा है. एक धर्मनिरपेक्ष बलात्कार राजस्थान में भी हुआ है लेकिन उस पर भी सन्नाटा. देखना है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जी कब उत्तर प्रदेश और राजस्थान के धर्मनिरपेक्ष बलात्कारियों को बतौर ईनाम उनकी वीरता के लिए सिलाई मशीन देकर विभूषित करते हैं. मित्रों, तो इंतज़ार करिए उन सुनहरे पलों का जब फिर से उत्तर प्रदेश में किसी ठाकुर की किसी दलित से मारपीट होती है और उस घटना को सामूहिक बलात्कार में बदलने का महान व ऐतिहासिक अवसर आता है और जब इन राजनैतिक गिद्धों के मोबाइल पर मैसेज आता है कि बधाई हो बलात्कार हुआ है. फिर शोर, गुब्बार, हंगामा. तब तक अन्य प्रकार के बलात्कार होने दीजिए, कोई बात नहीं. मित्रों, आप सोंच रहे होंगे कि होना क्या चाहिए और हो क्या रहा है. होना तो चाहिए कि पूरा भारत मिलकर विचार करे कि बलात्कार को रोका कैसे जाए. अच्छा होता अगर इस विषय पर मंत्रणा संसद में होती. मगर ऐसा होगा क्या?

गुरुवार, 24 सितंबर 2020

बिचौलियों के पक्ष में लामबंद विपक्ष

मित्रों, सुदामा पांडे धूमिल हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर सरीखे कवियों में एक रहे हैं। उनकी कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति देखने को मिलती है. उनकी एक कविता जो देखने में काफी छोटी है देश के हालात को इतनी सटीकता और सुन्दरता से बयां करती है कि बस देखते ही बनता है. वह कविता है रोटी और संसद. कविता कुछ इस प्रकार है- रोटी और संसद एक आदमी रोटी बेलता है एक आदमी रोटी खाता है एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है मैं पूछता हूँ-- 'यह तीसरा आदमी कौन है ?' मेरे देश की संसद मौन है। मित्रों, मेरे, आपके और धूमिल जी के देश की संसद सचमुच इस प्रश्न पर ७३ साल तक मौन थी कि यह तीसरा आदमी कौन है लेकिन अब संसद ने मौन का परित्याग कर दिया है और किसानों को इस तीसरे आदमी के चंगुल से आजाद कर दिया है. लेकिन यह क्या सारे कथित किसानहितैषी दल किसानों की आज़ादी के विरोध में एकजुट हो गये हैं. इस सन्दर्भ में मुझे संस्कृत की एक कथा याद आ रही है. एक जंगल में एक तालाब था जिसमें बहुत सारी मछलियाँ थीं. तालाब के किनारे एक विशाल वृक्ष था जिस पर एक बगुला रहता था. एक बार बरसात न होने के कारण तालाब सूखने लगा. मछलियाँ घबरा गईं. बगुले ने मछलियों से कहा कि उसने थोड़ी ही दूर पर एक और तालाब देख रखा है जिसमें बहुत पानी है. अगर मछलियाँ चाहें तो वो बारी-बारी से उनको उस तालाब तक पहुंचा देगा. इस प्रकार रोज बगुला एक मछली को पंजे में दबाकर उड़ता और थोड़ी दूर स्थित एक पेड़ की डाल पर ले जाकर खा जाता. धीरे-धीरे तालाब की सारी मछलियाँ समाप्त हो गईं. लेकिन एक केकड़ा अभी भी बचा हुआ था. बगुले ने उसके सामने भी वही प्रस्ताव रखा. केकड़े को शुरू से ही बगुले पर शक था इसलिए उसने शर्त रख दी कि वो बगुले के पंजे में दबकर नहीं जाएगा क्योंकि उसे ऊंचाई से डर लगता है. बल्कि वो तो बगुले की गर्दन को पकड़ कर जाएगा. बगुला चूंकि लालच में अँधा था अतः तैयार हो गया. बगुला जैसे ही उस पेड़ के पास पहुँचा जहाँ उसने मछलियों को मारा था उसने केंकड़े से कहा कि अब तुम भी मरने के लिए तैयार हो जाओ. लेकिन केंकड़े ने तभी उसका गला ही काट दिया. मित्रों, इस समय विपक्षी दल भी खुद को बगुला और किसानों को मछली समझ रहे हैं. कृषि विधेयक में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे किसानों को हानि हो बल्कि उनको फसल कटने से पहले ही फसल की गारंटी मिलने वाली है लेकिन विपक्षी दल कृषि-क्षेत्र में व्याप्त बिचौलियों को बचाने के लिए गोलबंद हो गए हैं. एक अनुमान के अनुसार अगर अंतिम उपभोक्ता कोई कृषि-उत्पाद खरीदता है तो उसका मात्र १० से २३ प्रतिशत ही किसानों को मिलता है बांकी बिचौलिए ले उड़ते हैं. फिर क्या कारण है कि विपक्ष बिचौलियों के पक्ष में खड़ा है और दिखावा किसान हितैषी होने का कर रहा है. क्या कारण है कि आजादी के समय जो किसान मात्र साढ़े तीन क्विंटल गेहूं बेचकर एक तोला सोना खरीद लेता था लेकिन आज वही किसान ज्यादा फसल उपजाकर भी २० क्विंटल गेहूं बेचने के बाद भी एक तोला सोना नहीं खरीद सकता? किसने ऐसी व्यवस्था बनाई जिससे किसान आजादी के बाद एपीएमसी अर्थात the Agricultural Produce & Livestock Market Committee के बंधक बनकर रह गए? माल महाराज के मिर्जा खेले होली? मित्रों, आज यह कड़वा सत्य है कि देश के ९९ प्रतिशत युवा और ७६ प्रतिशत किसान खेती करना नहीं चाहते. आज़ादी के समय जो कृषि-क्षेत्र देश की जीडीपी में ५० प्रतिशत से ज्यादा का योगदान देता था पिछली सरकारों की गलत नीतियों के कारण आज १३ प्रतिशत योगदान कर पा रहा है. विपक्ष के पाखंड की पराकाष्ठा तो देखिए कि जिस कांग्रेस पार्टी ने अपने २०१४ और २०१९ के घोषणा-पत्र में एपीएमसी के शिकंजे से किसानों को आजाद करवाने के वादे किए थे आज वही इस कानून का सिर्फ इसलिए विरोध कर रही है क्योंकि उसे विरोध करना है. मित्रों, महाकवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है जो कुछ इस प्रकार है- १० बाई १० के कमरे में बैठा व्यापारी सोने का हो गया, मगर १० बीघा खेत में खड़ा किसान माटी का हो गया. सवाल उठता है है कि कोरोना जैसे विकट समय में भी देश की अर्थव्यवस्था को सहारा देनेवाला किसान कब तक माटी का होता रहेगा और कब तक बिचौलिए उसकी मेहनत पर मौज उड़ाते रहेंगे? आखिर विपक्ष क्यों किसानों को सोने का नहीं होने देना चाह रहा? एक सवाल किसानों से भी है कि आखिर किसान कब मछली के बदले केंकड़ा बनेगा?

सोमवार, 14 सितंबर 2020

रघुवंश प्रसाद सिंह को श्रद्धांजलि

 

मित्रों, रघुवंश प्रसाद सिंह को मैं तब से जानता हूँ जब मैं चार-पांच साल का रहा होऊंगा. वो मेरे पिताजी से दो बैच पीछे पढ़ते थे. पिताजी महनार हाई स्कूल में थे और रघुवंश बाबू महनार रोड स्टेशन स्थित चमरहरा हाई स्कूल में. मेरे पिताजी से उनकी तब की जान-पहचान थी. मेरे पिताजी की शादी तभी हो गई थी जब वो दसवीं में पढ़ते थे  और मेरा ननिहाल रघुवंश बाबू के पडोसी गाँव में था इस नाते भी रघुवंश बाबू हमारे लिए घर के आदमी थे, मामा थे. रघुवंश बाबू को जेपी आन्दोलन के दौरान पिताजी ने कई बार गिरफ़्तारी से बचाया था. थोडा बड़ा हुआ तो १९८५ में पिताजी सैनिक स्कूल की परीक्षा दिलवाने पटना ले गए तब भी हम रघुवंश बाबू के अगस्त क्रांति मार्ग स्थित मंत्री आवास पर रुके थे. उनकी पत्नी शाम में आकर हम लोगों से मिलती और बातें करती. उनका बड़ा बेटा भी मेरे साथ सैनिक स्कूल प्रवेश परीक्षा देने जाता था. तब रघुवंश बाबू अधिकतर अपने विधानसभा क्षेत्र बेलसंड में रहते. मैं सोंचता कि बेलसंड तो काफी विकसित होगा क्योंकि नेताजी हमेशा क्षेत्र में ही रहते हैं.उस मंत्री आवास की भी एक कहानी पिताजी सुनाते हैं जो उनको स्वयं रघुवंश बाबू ने कही थी. हुआ यह कि रघुवंश बाबू जनता पार्टी की सरकार में मंत्री बने और उनको वह आवास रहने को दिया गया. फिर १९८० में कांग्रेस की सरकार बन गई और रघुवंश बाबू मंत्री नहीं रहे. डॉ. जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री बने तो रघुवंश बाबू को आवास खाली करने की नोटिस दे दी गई. तब अद्भभुत प्रतिउत्पन्नमतित्व के धनी रघुवंश बाबू ने विधानसभा में जगन्नाथ मिश्र जी से कहा बाबा मंत्री पद तो ले लिए अब आवास भी ले लेंगे क्या? और वह आवास फिर से रघुवंश बाबू के पास ही रह गया.

मित्रों, फिर लालू जी आए और पूरे बिहार को जंगल में बदल दिया. तब रघुवंश बाबू लालूजी के साथ ही थे. उन्होंने कभी लालूजी का विरोध नहीं किया. मुझे लगता है कि रघुवंश बाबू सुविधावादी नेता थे. लालू के नाम पर उनको चुनाव जीतना था कोई लालू जी को रघुवंश बाबू के नाम पर जीतना तो था नहीं इसलिए जब तक रघुवंश बाबू जीतते रहे चुप रहे. इस बीच लालू जी ने अनगिनत पाप किए, हत्याएं करवाईं, बलात्कार करवाए, अपहरण करवाए, घोटाले किए. यहाँ तक कि अनपढ़ पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया लेकिन रघुवंश बाबू चुप रहे. दरअसल वे पिछलगुआ नेता थे. पहले कर्पूरी ठाकुर के पिछलगुआ रहे जो उनके नाना के गाँव के थे और बाद में लालू और लालू परिवार के. आगे बढ़कर नेतृत्व देने की उनमें न तो क्षमता थी और न ही हिम्मत. मुझे याद है कि १९९५ के विधानसभा चुनाव के बाद जब राजपूत जाति के लोग उनके पास किसी काम से गए तो उन्होंने यह कहकर उनसे मिलने से मना कर दिया था कि इनलोगों ने उनके दल को वोट नहीं दिया है. लगभग उसी कालखंड में  एक बार जवाहर बाबू जो एलएस कॉलेज में रघुवंश बाबू और रामचंद्र पूर्वे के सहपाठी रह चुके थे और महनार के आरपीएस कॉलेज में गणित के प्राध्यापक थे रघुवंश बाबू के पास अपने बेटे के लिए नौकरी मांगने गए. तब रघुवंश बाबू ने पास में सड़क पर नंग-धडंग खेल रहे बच्चे को दिखाकर कहा कि जवाहर हम तो चाहते हैं कि इस बच्चे को भी नौकरी दे दूं. बेचारे जवाहर बाबू शर्म से पानी-पानी हो गए. तब पिताजी भी जवाहर बाबू के साथ थे.

मित्रों, इसी बीच मेरी छोटी दीदी की शादी १९९६ में बेलसंड के नोनौरा गाँव में ठीक हुई. जब हम तिलक लेकर गाँव गए तो पता चला कि बेलसंड तो बिहार का सबसे पिछड़ा इलाका है. न तो कहीं पर सड़कें थीं और न ही बिजली. कच्ची सड़कों पर कई फुट मोटी धूल की परत. बागमती पर पुल के होने का तो सवाल ही नहीं था. तब मैंने सोंचा कि नेताजी तो हमेशा क्षेत्र में ही रहते थे फिर करते क्या थे क्षेत्र में रहकर.

मित्रों, बाद में रघुवंश बाबू सांसद और केंद्रीय मंत्री बने. मनरेगा लेकर आए जिसके माध्यम से हर साल हजारों करोड़ों की हेरा-फेरी होती है. गड्ढा खोदो और भरो. इस योजना ने किसानों का जीना मुहाल कर दिया. कृषि मजदूर मनरेगा में चले गए. मजदूरी बेतहाशा बढ़ गई. उधर राजद की लगाम लालू जी के हाथों से निकलकर उनके बेटों के हाथों में चली गई और रघुवंश बाबू जैसे लालू जी से भी सीनियर नेताओं की हालत वही हो गई जो जीजा के आने के बाद फूफा की हो जाती है. इधर पार्टी में पूछ नहीं रही और उधर जनता ने भी रिजेक्ट कर दिया. राजपूत उनके साथ थे नहीं पिछड़े भी मोदी के साथ हो लिए. उससे भी बुरा समय तब आया जब लालू जी के बड़े बेटे ने उनको एक लोटा पानी कह दिया. यहाँ मैं आपको बता दूं कि जिस रामा सिंह को लेकर सारा विवाद हुआ वो भी महनार के ही हैं और रघुवंश बाबू भी. रामा सिंह भी हमारे नजदीकी है और महनार स्टेशन के पास स्थित आरपीएस कॉलेज में पिताजी के विद्यार्थी भी रह चुके हैं. यहाँ हम यह भी बता दे कि रामा सिंह रघुवंश बाबू के चचेरे भाई रघुपति को कई बार महनार विधानसभा क्षेत्र में पटखनी दे चुके हैं. बाद में संयोगवश उनकी रघुवंश बाबू से भी टक्कर हो गयी जिसमें रघुवंश बाबू हार गए.

मित्रों, समय का फेर देखिए कि जिन राजपूतों को लालू और लालू परिवार अपना पक्का शत्रु समझते थे लालू के दोनों बेटों को इस बार विधानसभा पहुँचने के लिए उनका ही वोट चाहिए और वो वोट रामा दिलवा सकते हैं रघुवंश नहीं दिलवा सकते थे. सवाल उठता है कि रघुवंश अभी किस दल में थे. शायद किसी दल में नहीं. लेकिन जीवित रहते तो शायद जदयू में जाते. अंत में मैं कहना चाहूँगा कि उन्होंने जाते-जाते बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी को पत्र लिखकर किसानों का दिल जीत लिया है. उन्होंने पत्र में मांग की थी कि मनरेगा में संशोधन करके प्रावधान किया जाए कि मनरेगा के मजदूर न सिर्फ एससी-एसटी बल्कि सारे किसानों के खेतों में काम करें और भुगतान सरकार करे. अपने एक आलेख मन रे (सुर में) न गा यानी मनरेगा में हमने भी २०१० में इस आशय की मांग की थी. अगर रघुवंश बाबू की इस अंतिम इच्छा को लागू कर दिया जाता है तो निश्चित रूप से कृषि के क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी और किसान समाज हमेशा के लिए उनका ऋणी हो जाएगा.

मित्रों, अंत में मैं यह कहकर विराम चाहूँगा कि तमाम कमियों और गलतियों के बावजूद रघुवंश बाबू घनघोर ईमानदार थे इसमें कोई संदेह नहीं. और लालू जो भ्रष्टाचार के पर्याय हैं की पार्टी में रहकर भी ईमानदार थे ये उनके कद को और भी ऊंचा बनाता है. वो दौर राजनीति में गिरावट का था. लालू जी जबरदस्ती तो सत्ता में आए नहीं थे जनता ने उनको बार-बार चुना था. और उस गिरावट के दौर में भी रघुवंश बाबू गिरे नहीं अपने मूल्यों और सिद्धांतों को कम-से-कम व्यक्तिगत तौर पर बनाए रखा. रघुवंश बाबू श्रीकृष्ण तो नहीं लेकिन भीष्म पितामह तो थे. और दुर्योधनों के इस काल में भीष्म होना भी कोई कम बड़ी बात नहीं है. ऐसे महामानव को श्रद्धांजलि.

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

ईसाई मिशनरी हिंदुत्व के लिए खतरा


मित्रों, भारत में जब इसाईयत काआगमन हुआ तब भी उनके इरादे खतरनाक थे. इतिहास साक्षी है कि कालीकट के हिन्दू राजा जमोरिन ने बड़ी ही गर्मजोशी से १४९८ में वास्कोडिगामा का स्वागत किया था लेकिन वास्कोडिगामा जब दोबारा आया तो तोप लेकर आया और सीधे जमोरिन पर हमला बोल दिया. हजारों हिन्दुओं को मार दिया गया, हजारों को जबरन ईसाई बना दिया गया और इस कुत्सित कृत्य में उसका साथ दिया तथाकथित संत जेवियर ने जिसके नाम पर भारत में हजारों स्कूल हैं.  

मित्रों, कहने का तात्पर्य यह है कि मुसलमानों की ही तरह हिंदुत्व के प्रति ईसाईयों के मन में भी प्रारंभ से ही वैर था. बाद में जब अंग्रेजों ने पूरे भारत पर कब्ज़ा कर लिया तब भी लार्ड क्लाईव से लेकर लार्ड माउंटबेटन तक जितने भी गवर्नर, गवर्नर जनरल या वायसराय हुए सबके मन में भारत को ईसाई देश बना देने का सपना पल रहा था. भारत को अफ्रीका समझने वाले लार्ड कैनिंग ने तो ब्रिटिश सरकार को भेजे पत्रों में दावा किया था कि पचास साल बाद भारत में कोई हिन्दू नहीं बचेगा. लेकिन हमारे सनातन धर्म की जड़ें इतनी गहरी थीं कि ईसाई मिशनरी शासन में होते हुए भी हिंदुत्व का बाल भी बांका नहीं कर पाए.

मित्रों, फिर हमारा देश आजाद हुआ लेकिन दुर्भाग्यवश देश पर खुद को दुर्घटनावश हिन्दू कहनेवाले हिंदुविरोधी नेहरु और उसके परिवार का शासन कायम हो गया. फिर नेहरु के नाती राजीव गाँधी ने जो सिर्फ नाम का हिन्दू था एक रोमन कैथोलिक महिला से शादी कर ली. कहीं-न-कहीं इस महिला के दिमाग में भी वही सपना पल रहा था जो कभी लार्ड कैनिंग या जेवियर ने देखा था. फिर बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा और सोनिया को २००४ में भारत की बागडोर सँभालने का मौका मिला. सोनिया को सिर्फ ईसाई नेता पसंद थे. उनमें से कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने हिन्दुओं को धोखा देने के लिए नाम हिन्दुओं वाला ही रखा था लेकिन थे ईसाई. उन दस सालों में ईसाई मिशनरियों की मौज रही. पूरे जोर-शोर से धर्म-प्रचार, प्रलोभन और धर्मान्तरण का गन्दा खेल खेला गया. इस गर्हित कुकर्म में वामपंथियों और नक्सलियों ने भी उनका भरपूर साथ दिया. कई स्थानों पर तो ईसाई मिशनरियों और वामपंथियों ने मिलकर उद्योंग-धंधे भी बंद करवा दिए जिससे भारत को बारी आर्थिक क्षति भी हुई.

मित्रों, वो कहते हैं कि हर दिन की एक शाम भी होती है. तो वर्ष २०१४ में सोनिया शासन समाप्त हो गया और हिंदुत्व का शासन शुरू हुआ. फिर शुरू हुई एनजीओ की धड-पकड़. लेकिन अब ईसाई मिशनरियों ने भोले-भाले वनवासी हिन्दुओं को बरगलाने के लिए नए हथकंडे अपना लिए. अब ईसा मसीह भी कृष्णा और राम की वेश-भूषा में आ गए. 

मित्रों, यह बड़े ही हर्ष का विषय है कि भारत सरकार ने भारत में धर्मान्तरण करवाने वाले १३ बड़े ईसाई मिशनरी संगठनों की विदेशी फंडिंग रोक दी है. तथापि हवाला से पैसा आने का खतरा अब भी बना रहेगा. ऐसे में यह जरुरी है कि कानून बनाकर हिन्दू धर्म से धर्मान्तरण को अपराध घोषित किया जाए और हमारे जो भाई-बन्धु ईसाई बन गए हैं उनको वापस हिन्दू धर्म में लाया जाए. हमारे लिए एक-एक हिन्दू महत्वपूर्ण है. याद रखिए स्वामी विवेकानंद ने कहा था-एक हिंदू का धर्मान्तरण केवल एक हिंदू का कम होना नहीं, बल्कि एक शत्रु का बढ़ना है। साथ ही हिन्दू-संगठनों को सर्वहारा वर्ग को वो सब उपलब्ध करवाना होगा जो उनको ईसाई मिशनरी उपलब्ध करवाते हैं.

बुधवार, 2 सितंबर 2020

जीडीपी में गिरावट अप्रत्याशित नहीं

 

मित्रों, केंद्रीय सांख्यिकी मंत्रालय ने सोमवार को जीडीपी के आंकड़े जारी कर दिए हैं जिसमें यह नकारात्मक रूप से 23.9 फ़ीसदी रही है. भारतीय अर्थव्यवस्था में इसे 1996 के बाद ऐतिहासिक गिरावट माना गया है और इसका प्रमुख कारण कोरोना वायरस और उसके कारण लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन को बताया जा रहा है. निश्चित रूप से यह भारत के लिए बड़ा झटका है और इससे 2025 तक अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन (खरब) डॉलर की इकोनॉमी बनाने का सपना अब पूरा होता नहीं दिख रहा है. जीडीपी पिछले चार दशकों में पहली बार इतनी गिरी है और बेरोज़गारी अब तक के चरम पर है. विकास के बड़े इंजन, खपत, निजी निवेश या निर्यात ठप्प पड़े हैं. ऊपर से यह है कि सरकार के पास मंदी से बाहर निकलने और ख़र्च करने की क्षमता नहीं है. यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि
भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में सबसे बुरी तरह बिगड़ी है. अमरीका की अर्थव्यवस्था में जहां इसी तिमाही में 9.5 फ़ीसदी की गिरावट है, वहीं जापान की अर्थव्यवस्था में 7.6 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.

मित्रों, अर्थव्यवस्था के आंकड़ों के मामले में भारत की तस्वीर कुछ अलग है क्योंकि यहां अधिकतर लोग ‘अनियमित’ रोज़गार में लगे हैं जिसमें काम के लिए कोई लिखित क़रार नहीं होता और अकसर ये लोग सरकार के दायरे से बाहर होते हैं, इनमें रिक्शावाले, टेलर, दिहाड़ी मज़दूर और किसान शामिल हैं. अर्थशास्त्री मानते हैं कि आधिकारिक आंकड़ों में अर्थव्यवस्था के इस हिस्से को नज़रअंदाज़ करना होता है जबकि पूरा नुक़सान तो और भी अधिक हो सकता है. 130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश की अर्थव्यवस्था कुछ ही सालों पहले 8 फ़ीसदी की विकास दर से बढ़ रही थी जो दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक थी. लेकिन कोरोना वायरस महामारी से पहले ही इसमें गिरावट शुरू हुई. उदाहरण के लिए पिछले साल अगस्त में कार बिक्री में 32 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई जो दो दशकों में सबसे अधिक थी. सोमवार को आए आंकड़ों में उपभोक्ता ख़र्च, निजी निवेश और आयात बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. व्यापार, होटल और ट्रांसपोर्ट जैसे क्षेत्र में 47 फ़ीसदी की गिरावट आई है. एक समय भारत का सबसे मज़बूत रहा निर्माण उद्योग 39 फ़ीसदी तक सिकुड़ गया है. सिर्फ़ कृषि क्षेत्र से ही अच्छी ख़बर आई है जो मानसून की अच्छी बारिश के कारण 3 फ़ीसदी से 3.4 फ़ीसदी के दर से विकसित हुआ है. 2019 में भारत की जीडीपी 2900 करोड़ की थी जो अमरीका, चीन, जापान और जर्मनी के बाद दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी. हालांकि, कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारत की अर्थव्यवस्था 10 फ़ीसदी छोटी हो जाएगी. भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना वायरस की मार से पहले ही कमज़ोर हालत में थी लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लॉकडाउन में मैन्युफ़ैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन जैसे उद्योगों पर बड़ा असर डाला और व्यावसायिक गतिविधियां तकरीबन ठप्प पड़ गईं. आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने इंटरव्यू के दौरान बेहद विश्वास से कहा था कि आरबीआई कमज़ोर आर्थिक स्थिरता या बैंकिंग प्रणाली को महामारी के झटके से बचा सकता है, इसमें अगले स्तर का आर्थिक प्रोत्साहन दिए जाने का अनुमान लगाया गया है. 

मित्रों, कई लोग अर्थव्यवस्था की बुरी हालत के लिए सीधे तौर पर भारत सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं जबकि वास्तविकता कुछ और ही है. मोटे तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट के दो कारण हैं। पहला कोरोना और दूसरा चीन के साथ चल रहा तनाव। हम सभी जानते हैं कि जब कोरोना महामारी का वैश्विक विस्फोट हुआ तब भारत ने अर्थव्यवस्था पर जनता की प्राणरक्षा को तरजीह दी। देहात में कहावत है जिंदा रहेंगे तो बकरी चराकर भी रह लेंगे। भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं की जो स्थिति है उसमें पूर्ण लॉकडाऊन के सिवा सरकार के पास और कोई विकल्प भी नहीं था। जब कोरोना महामारी नियंत्रण में होगी और सबकुछ खुल जाएगा तो जीडीपी खुद ही दौड़ने लगेगी। दूसरी तरफ चीन पर हमारी अर्थव्यवस्था की निर्भरता के चलते भी जीडीपी पर बुरा असर पड़ा है। चीन हमारी इसी मजबूरी का फायदा उठाकर लद्दाख पर कब्जा करना चाहता है। जो चींजे या कच्चा माल भारत में पहले बनता था अब सस्ता होने के कारण चीन से आ रहा है। भारत को इस पर रोक लगानी होगी भले ही इससे तात्कालिक नुकसान हो। भारत सरकार ऐसा ही कर रही है इसलिए भी हमारी अर्थव्यवस्था दबाव में है। लेकिन यह दबाव या गिरावट तात्कालिक है क्योंकि जब सारी आर्थिक गतिविधियां ही रूक जाएगी तो अर्थव्यवस्था तो गिरेगी ही। फिर जब सबकुछ खुल जाएगा तो जीडीपी भी उडान भरने लगेगी. बस अगली तिमाही का इंतजार करिए.

बुधवार, 26 अगस्त 2020

मौत की ओर बढती कांग्रेस

 


मित्रों, वर्ष २०१४ का वाकया है. तब कांग्रेस जवाहरलाल नेहरु की १२५ जयंती मना रही थी. तब कांग्रेस बार-बार यह कह रही थी कि कांग्रेस का गौरवपूर्ण इतिहास है. तब मैंने कांग्रेस पार्टी को नसीहत देते हुए लिखा था कि कांग्रेस का इतिहास है इसलिए कांग्रेस अब इतिहास है  तब मुझे लगा था कि कांग्रेस मेरी सलाह पर कान देगी और खुद को बदलेगी. लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा हुआ नहीं. यह कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि उनके शीर्ष नेताओं का अहंकार उन्हें हम जैसे छोटे पत्रकारों की बातों पर ध्यान देने से रोकता है. 

मित्रों, यह बड़े ही प्रसन्नता का विषय है कि पहले कांग्रेस के बारे में जो सवाल हम पत्रकार उठाते थे अब वही सवाल उसके भीतर से भी उठने लगे हैं. कांग्रेस पार्टी के २३ बड़े नेताओं ने कांग्रेस नेतृत्व से नेतृत्व छोड़ने की मांग की है जिससे पार्टी के भीतर वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना हो सके. यह अलग बात है कि उनकी मांग को फ़िलहाल कांग्रेस नेतृत्व ने  नकार दिया है लेकिन इस तरह की मांग का उठना भी बड़ी बात है. 

मित्रों, आज की कांग्रेस पार्टी है क्या? यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की विडंबना है कि आज कांग्रेस पार्टी नेहरु परिवार की पैतृक या पारिवारिक संपत्ति बनकर रह गई है. उसमें वही होता है जो सोनिया गाँधी और उनके बच्चे चाहते हैं. कोई दूसरा प्रधानमंत्री तो बन सकता है लेकिन पार्टी अध्यक्ष नहीं बन सकता है. १९९९ से लेकर अब तक के २१ सालों में कांग्रेस के बस दो ही अध्यक्ष हुए हैं-माता सोनिया और पुत्र राहुल जबकि इस बीच भाजपा में ९ अध्यक्ष हो चुके हैं. कांग्रेस को देखकर ऐसा लगता ही नहीं कि हम किसी लोकतान्त्रिक देश में रहते हैं. बल्कि ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस पार्टी में राजतन्त्र चल रहा है जहाँ सिर्फ रानी और उसके बेटे-बेटियों को ही पार्टी-अध्यक्ष बनने का अधिकार है और वो भी जन्मसिद्ध. बांकी लोग सिर्फ आदेश बजाने के लिए हैं, गुलामी करने के लिए हैं. सोनिया परिवार ऑंखें मूंदे पार्टी के नेताओं के बीच रेवड़ी बाँट रहा है जिसके हाथ जो लग जाए. 

मित्रों, वैसे तो खिलाफत आन्दोलन के समय से ही कांग्रेस पार्टी की नीतियाँ हिन्दू विरोधी रही हैं लेकिन जबसे सोनिया गाँधी एंड फैमिली ने कांग्रेस का राजपाट संभाला है तबसे कांग्रेस पार्टी के हिन्दू विरोधी और देशविरोधी रवैये में लगातार आक्रामकता आई है. जब पार्टी सत्ता में थी तब उसने भगवान राम जो भारत के और भारतियों के ह्रदय में बसते हैं को ही उसने काल्पनिक बता दिया था. इतना ही नहीं पार्टी तब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ समझौता कर रही थी और चंदा प्राप्त कर रही थी. कहना न होगा बदले में भारत की पूरी अर्थव्यवस्था को उसने चीन के हवाले कर दिया. अभी जब भारत का चीन के साथ तनाव चल रहा है तब कांग्रेस पार्टी भारत सरकार और भारतीय सेना के खिलाफ ही शाब्दिक युद्ध छेड़े हुए है. इतना ही नहीं कश्मीर में वो फिर से धारा ३७० लागू करने की मांग कर रही है और ऐसे करते हुए वो भारत की नहीं बल्कि पाकिस्तान की राजनैतिक पार्टी दिख रही है. 

मित्रों, इसके बावजूद कुछ पत्रकार और बुद्धिजीवी बन्धु भारत सरकार और नरेन्द्र मोदी जी पर आरोप लगा रहे हैं कि वो कांग्रेस को पूरी तरह से समाप्त कर देना चाहते हैं. कांग्रेस अगर अपनी स्वाभाविक मृत्यु की ओर अग्रसर है तो उसके लिए भाजपा या प्रधानमंत्री कैसे जिम्मेदार हो गए? क्या कांग्रेस को मजबूत करना कांग्रेसियों के बदले भाजपा की जिम्मेदारी है? क्या चुनाव लड़नेवाला कोई उम्मीदवार जनता से यह कहेगा कि मुझे नहीं मेरे निकटतम प्रतिद्वंद्वी को वोट दीजिए और क्या उसका ऐसा करना ठीक होगा? नाच न जाने आँगन टेढ़ा. सारी नीतियाँ बहुसंख्यक विरोधी. कोई सलाह दे तो सुनना भी नहीं है और दोष विपक्षी का हो गया. अभी तो फिर भी ५० सीटें लोकसभा में आ रही हैं ऐसा ही चलता रहा और ऐसे ही चलते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब कांग्रेस बसपा और राजद जैसी पारिवारिक पार्टी की तरह शून्य सीटें प्राप्त करेगी और हमें भी उस दिन का बेसब्री से इंतजार होगा. वैसे मेरा बेटा मुझसे पूछ रहा है कि पापा कांग्रेस मरेगी तो भोज भी होगा क्या.

शनिवार, 8 अगस्त 2020

शम्बूक वध और सीता परित्याग की सत्यता

मित्रों, माता काली के महानतम भक्त रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि सारे ग्रन्थ जूठे और झूठे हैं. सबमें मनमाफिक संशोधन किए गए हैं. अब अगर रामकृष्ण कह रहे हैं तो वो सत्य तो होगा ही. वास्तव में हुआ भी यही है. हम जानते हैं कि पहले ग्रंथों को लिखने की सुविधा नहीं थी. तब पीढ़ी-दर-पीढ़ी ग्रंथों को कंठस्थ किया-कराया जाता था. ऐसे में गलतियों और भिन्नताओं की सम्भावना भी पूरी-पूरी रहती थी. बाद में जब ग्रन्थ लिखे जाने लगे तो इस कारण उनकी कई-कई प्रतियाँ हो गईं और विद्वानों के बीच समस्या उत्पन्न हो गई कि किस प्रति को प्रामाणिक माना जाए. यह अब सर्वमान्य तथ्य है कि पूर्व मध्य काल में भारतीय धर्म और राजनीति के इतिहास के साथ छेड़खानी की गई जिसके परिणामस्वरूप काफी भ्रम फैल गया। यह वही समय था जब उत्तर भारत में बौद्ध और जैन धर्म का बोलबाला था. बौद्धों और जैनों ने क्षत्रियों को चारों वर्णों में सबसे ऊपर कर दिया क्योंकि भगवान बुद्ध और महावीर क्षत्रिय थे जबकि हम जानते हैं कि वर्ण-व्यवस्था में क्षत्रिय ब्राह्मणों के बाद दूसरे स्थान पर आते हैं . जिस बुद्ध का पुनर्जन्म में विश्वास नहीं था उनके पूर्व जन्मों को लेकर जातक कथाओं की झड़ी लगा दी गयी.  जो बुद्ध और महावीर मूर्ति पूजा के घोर विरोधी थे उनकी जमकर मूर्ति पूजा होने लगी. इस काल में लगभग सारे हिन्दू ग्रंथों में जमकर छेड़छाड़ की गई. यहाँ हम आपको बता दें कि पहले रामायण 6 कांडों का होता था, उसमें उत्तरकांड नहीं होता था। बौद्धकाल में उसमें राम और सीता के बारे में झूठ लिखकर उत्तरकांड जोड़ दिया गया। उस काल में भी इस कांड पर विद्वानों ने घोर विरोध जताया था, लेकिन कालांतर में उत्तरकांड के चलते साहित्यकारों, कवियों और उपन्यासकारों को लिखने के लिए एक नया मसाला मिल गया और इस तरह राम को धीरे-धीरे बदनाम कर दिया गया। इसी बौद्ध काल में रामायण में शम्बूक-वध प्रकरण जोड़कर राम को न्यायी से अन्यायी राजा बना दिया गया.

मित्रों, आज राम को इन्हीं दो बातों के लिए बदनाम किया जाता है. पहला उन्होंने सीता का परित्याग कर दिया था. और दूसरा उन्होंने शम्बूक नामक शूद्र तपस्वी की हत्या कर दी थी. हद हो गई मिथ्यालाप की. राम ने सीता का परित्याग कर दिया था? इससे पहले यह प्रसंग भी जोड़ दिया गया कि राम ने सीता की अग्नि परीक्षा ली थी. डाल दो किसी स्त्री को आग में. क्या वो जीवित बचेगी? फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि सीता जी जीवित बच गईं? तात्पर्य यह कि पूरा प्रसंग ही असत्य और मनगढ़ंत है.  वाल्मीकि रामायण, जो निश्‍चित रूप से बौद्ध धर्म के अभ्युदय के पूर्व लिखी गई थी, समस्त विकृतियों से अछूती है। इसमें सीता परित्याग, शम्बूक वध, अग्नि परीक्षा आदि कुछ भी नहीं था। यह रामायण युद्धकांड (लंकाकांड) में समाप्त होकर केवल 6 कांडों का था। इसमें उत्तरकांड बाद में जोड़ा गया। शोधकर्ता कहते हैं कि हमारे इतिहास की यह सबसे बड़ी भूल थी कि बौद्धकाल में उत्तरकांड लिखा गया और इसे वाल्मीकि रामायण का हिस्सा बना दिया गया। हो सकता है कि यह उस काल की सामाजिक मजबूरियां रही हों लेकिन सच को इस तरह बिगाड़ना कहां तक उचित है? सीता ने न तो अग्निपरीक्षा दी और न ही पुरुषोत्तम राम ने उनका कभी परित्याग किया।

मित्रों, सवाल उठता है कि जिस सीता के बिना राम एक पल भी रह नहीं सकते और जिसके लिए उन्होंने विश्व के सबसे शक्तिशाली राजा से युद्ध लड़ा उसे वे किसी व्यक्ति और समाज के कहने पर छोड़ सकते हैं? राम को महान आदर्श चरित और भगवान माना जाता है। वे किसी ऐसे समाज के लिए सीता को कभी नहीं छोड़ सकते, जो दकियानूसी सोच में जी रहा हो? इसके लिए उन्हें फिर से राजपाट छोड़कर वन में जाना होता तो वे चले जाते। शोधकर्ता मानते हैं कि रामायण का उत्तरकांड कभी वाल्मीकिजी ने लिखा ही नहीं जिसमें सीता परित्याग की बात कही गई है। रामकथा पर सबसे प्रामाणिक शोध करने वाले फादर कामिल बुल्के का स्पष्ट मत है कि 'वाल्मीकि रामायण का 'उत्तरकांड' मूल रामायण के बहुत बाद की पूर्णत: प्रक्षिप्त रचना है।' (रामकथा उत्पत्ति विकास- हिन्दी परिषद, हिन्दी विभाग प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रथम संस्करण 1950) लेखक के शोधानुसार 'वाल्मीकि रामायण' ही राम पर लिखा गया पहला ग्रंथ है, जो निश्चित रूप से बौद्ध धर्म के अभ्युदय के पूर्व लिखा गया था अत: यह समस्त विकृतियों से अछूता था। यह रामायण युद्धकांड के बाद समाप्त हो जाती है। इसमें केवल 6 ही कांड थे, लेकिन बाद में मूल रामायण के साथ बौद्ध काल में छेड़खानी की गई और कई श्लोकों के पाठों में भेद किया गया और बाद में रामायण को नए स्वरूप में उत्तरकांड को जोड़कर प्रस्तुत किया गया। बौद्ध और जैन धर्म के अभ्युदय काल में नए धर्मों की प्रतिष्ठा और श्रेष्ठता को प्रतिपा‍दित करने के लिए हिन्दुओं के कई धर्मग्रंथों के साथ इसी तरह का हेर-फेर किया गया। इसी के चलते रामायण में भी कई विसंगतियां जोड़ दी गईं। बाद में इन विसंगतियों का ही अनुसरण किया गया। कालिदास, भवभूति जैसे कवि सहित अनेक भाषाओं के रचनाकारों सहित 'रामचरित मानस' के रचयिता ने भी भ्रमित होकर उत्तरकांड को लव-कुश कांड के नाम से लिखा। इस तरह राम की बदनामी का विस्तार हुआ।

मित्रों, हिन्दू धर्म के आलोचक खासकर 'राम' की जरूर आलोचना करते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि 'राम' हिन्दू धर्म का सबसे मजबूत आधार स्तंभ है। इस स्तंभ को गिरा दिया गया तो हिन्दुओं को धर्मांतरित करना और आसान हो जाएगा। इसी नी‍ति के चलते तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ मिलकर वे राम के विरुद्ध असत्य का अभियान चलाते रहते हैं. अब हम बात करेंगे शम्बूक प्रकरण की.  यह सर्वविदित है कि चौदह वर्षों के वनवास में अंतिम दो सालों को छोड़कर राम के बारह वर्ष आदिवासियों और दलितों के बीच बीते। शुरुआत होती है बालसखा व विद्यालय के मित्र रहे निषादराज गुह से मिलन से. फिर केवट प्रसंग आता है। इसके बाद चित्रकूट में रहकर उन्होंने धर्म और कर्म की शिक्षा ली। यहीं पर वाल्मीकि आश्रम और मांडव्य आश्रम था। चित्रकूट के पास ही सतना में अत्रि ऋषि का आश्रम था। इनमें से वाल्मीकि के बारे में माना जाता है कि वे मुसहर जाति से थे. राम उनके चरण-स्पर्श करते हैं और उनसे आशीर्वाद लेते हैं. बाद में वही वाल्मीकि रामायण की रचना करते हैं.

मित्रों, फिर सीता-हरण के बाद उनकी शबरी से भेंट होती है जो भील जाति की है. राम शबरी की जूठन भी बड़े ही प्रेम से खाते हैं. राम ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने धार्मिक आधार पर संपूर्ण अखंड भारत के दलित और आदिवासियों को मुख्यधारा में ला दिया था। इस संपूर्ण क्षेत्र के आदिवासियों में जहाँ राम ने अपना वनवास बिताया था, आज भी राम और हनुमान को सबसे ज्यादा पूजनीय माना जाता है। लेकिन अंग्रेज काल में ईसाइयों ने भारत के इसी हिस्से में धर्मांतरण का कुचक्र चलाया और राम को दलितों-आदिवासियों से काटने के लिए सभी तरह की साजिश की, जो आज भी जारी है।

मित्रों, इसी प्रकार तुलसीदासजी ने रामचरित मानस में समुद्र के मुख से कहलवाया है कि- 'ढोल गवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।' ऐसा श्रीराम ने अपने मुंह से कभी नहीं कहा। हो सकता है आज कोई लेखक अपनी किसी रचना में ऐसा राम से ही कहलवा दे. तुलसीदास द्वारा लिखे गए इस एक वाक्य के कारण राम की बहुत बदनामी हुई। कोई यह नहीं सोचता कि जब कोई लेखक अपने तरीके से रामायण लिखता है तो उस समय उस पर उस काल की परिस्थिति और अपने विचार ही हावी रहते हैं। फिर ऐसा समुद्र ने विनय भाव से कहा है. ठीक वैसे ही जैसे तुलसी अपने बारे में विनय भाव से कहते है-मो सम कौन कुटिल, खल, कामी? तो क्या तुलसी सचमुच महापतित थे या हो गए?

मित्रों, अब आप ही बताईये कि जो राम वनवास के चौदह में से बारह सालों तक दलितों-आदिवासियों के मध्य रहे और उनकी रक्षा की, जिस राम ने वाल्मीकि के चरण-रज माथे से लगाकर आशीर्वाद लिया, जिस राम ने शबरी के जूठन को भी निज माता का प्रसाद समझकर ग्रहण किया वही राम एक निर्दोष व्यक्ति को सिर्फ इसलिए मार डालेगे कि वो वेद पाठ कर रहा है जबकि वेदों की रचना में भी अनगिनत शूद्रों ने अपना योगदान दिया है. अथर्ववेद के रचनाकार महर्षि अथर्वा कौन थे? शूद्र ही तो थे. हद हो गई झूठ बोलने की और राम को बदनाम करने की. 

मित्रों, इसी प्रकार एक राम विरोधी कन्नड़ गायक तम्बूरी दासय्या जो कथा गाते हैं उसमें सीता को रावण की बेटी बताया गया है. हंसिये मत और हंसी को बचाकर रखिए. इस कथा में रावण जोर से छींकता है और उसकी छींक से सीताजी का जन्म होता है. इन्होने तो नया मेडिकल साईंस ही रच दिया. छींकने से बच्चा पैदा हो गया और वो भी एक पुरुष के. आगे से आप भी जब भी छींकें तो सचेत रहें. खासकर पुरुष. इसी प्रकार अगर कोई भर्ता को भ्राता पढ़-सुन ले और यह कहना शुरू कर दे कि राम और सीता तो भाई-बहन थे तो इसमें रामायणकार का क्या दोष?

मित्रों, अंत में मैं यह बताना चाहूँगा कि इतिहास की घटनाओं की सत्यता को प्रमाणित करना लगभग असंभव होता है. क्या हम जानते हैं कि सुभाष बाबू विमान-दुर्घटना में मरे थे या बच गए थे? क्या कोई बता सकता है कि शास्त्री जी की मृत्यु का क्या कारण था? इन घटनाओं की छोडिये इसी साल १४ जून को सुशांत सिंह राजपूत की मौत कैसे हुई क्या कोई बता सकता है? करनेवाले इतिहासकार भारत के बंटवारे की भी मनमानी व्याख्या कर रहे हैं और कह रहे हैं कि हिन्दुओं ने भारत का बंटवारा करवाया। मुसलमानों ने नहीं हिन्दुओं ने अलग देश की मांग की थी. हद हो गई उल्टा इतिहास लिखा जा रहा है. विकीपीडिया कहता है कि २०२० के दिल्ली के दंगे हिन्दुओं की सोंची-समझी रणनीति के तहत हुए.  ताहिर हुसैन दंगाई नहीं है पीड़ित है. शिक्षाविद मधु किश्वर विकिपीडिया पर अपनी जीवनी को बदलना चाहती हैं क्योंकि उनके बारे गलत-सलत लिखा हुआ है लेकिन बदल नहीं सकती क्योंकि विकिपीडिया को प्रमाण चाहिए। ये तो वही बात हो गई कि डॉक्टर ने मरीज को मरा हुआ बता दिया. मरीज उठ बैठा और चिल्लाया कि वो जीवित है. तब उसकी पत्नी ने उसे डांट लगाई चुप रहो तुम डॉक्टर से ज्यादा जानते हो क्या? अब आप ही बताईइ किसका सच सच है? पूर्णिमा जी का या विकिपीडिया का? पालघर की अफवाह सही थी या संत सही थे? कल कोई विकिपीडिया पर लिख दे कि बगदादी जैनी था इसलिए अहिंसा का पुजारी था, ओसामा बिन लादेन कृष्ण भगवान का भक्त और परम भगवत था जिसने गौ रक्षा के लिए हथियार उठाया था तो करोड़ों साल बाद लोग कदाचित इसे ही सच मानेंगे. 

मित्रों, कहने का मतलब यह कि राम ने सीता परित्याग और शम्बूक-हत्या (मैं इसे हत्या ही नहीं जघन्य हत्या मानता हूँ बशर्ते यह सत्य हो) सत्य है या नहीं इसका पता लगाना आज सम्भव नहीं है क्योंकि राम को हुए करोड़ों साल हो चुके हैं. ऐसे में एक ही रास्ता हमारे समक्ष बचता है कि जो-जो कर्म राम के स्वाभाव से मेल नहीं खाते उनको असत्य और चरित्र-हनन का निंदनीय प्रयास मान लिया जाए.

बुधवार, 5 अगस्त 2020

मंदिर निर्माण से राष्ट्र निर्माण की ओर प्रयाण


मित्रों, ब्रह्माण्ड नायक मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण के महती कार्य की आज भारत के प्रधानमंत्री परम आदरणीय नरेन्द्र मोदी के कर कमलों से शुरुआत हो चुकी है. इस पूरे कार्यक्रम के दौरान सबसे अच्छी बात यह रही कि सारे वक्ताओं ने जिनमें प्रधानमंत्री मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत भी शामिल थे, इस बात पर जोर दिया कि मंदिर निर्माण से भारत निर्माण की तरफ प्रयाण किया जाए. इसी दृष्टि को दृष्टिगत रखते हुए की दूसरे धर्मों को मानने वालों को भी समारोह में निमंत्रित किया गया था।

मित्रों, प्रधानमंत्री मोदी ने अपने प्रसिद्ध नारे सबका साथ सबका विकास समाहित करते हुए अपने मंत्रमुग्ध कर देनेवाले संबोधन में कहा कि राम सबके है और राम सबमें हैं. हिन्दू मन तो हमेशा से यही मानता रहा है कि संसार के सारे धर्मों और पंथों को माननेवालों का लक्ष्य एक ही ईश्वर है-तात्पर्य यह कि रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।। जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं। (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ११, श्लोक-२८)

मित्रों, कहने का तात्पर्य यह है कि भारत अनंत काल से ईश्वर की एकत्वता का प्रतिपादक रहा है. भले ही दूसरे धर्मवाले ऐसा मानें कि उसका ईश्वर अलग और सर्वश्रेष्ठ है हिन्दूं धर्म के अनुयायियों ने कभी उनके प्रति विद्वेष की भावना अपने मन में नहीं रखी और सदा-सर्वदा उनका तू वसुधैव कुटुम्बकम् में अटूट विश्वास बना रहा. न जाने कितने हूण, शक, कुषाण, यूनानी, ईरानी प्राचीन काल में भारत आए और भारतीय सनातन समाज ने उनको इस तरह अपने भीतर प्रेमपूर्वक समाहित कर लिया कि आज कोई नहीं बता सकता कि उनका मूल क्या था.

मित्रों, मोदी जी ने अपने भाषण में आगे कहा कि जहाँ तक राम का प्रश्न है तो राम भारत के कण-कण में हैं, हर मन में हैं और न सिर्फ भारत बल्कि इण्डोनेशिया, कम्बोडिया, लाओस, मलेशिया, ईरान में भी पूजित हैं. राम भारत की एकता का सबसे सशक्त साधन हैं, कारण हैं. वहीं आरएसएस के सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने अपने भाषण में कहा कि हमें अपने मन में भी राम का एक मंदिर बनाना है और उसमें राम के महान आदर्शों की स्थापना करनी है।
मित्रों, निश्चित रूप से आज भारत के इतिहास में नए अध्याय की शुरुआत हुई है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल की व्याख्या करते हुए कहा था कि अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था? आज उसी हताश जाति के मनोबल और आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना का दिन है. लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि हिन्दू कभी किसी को पराया नहीं मानता और न ही किसी का बुरा चाहता है बल्कि वो  तो भगवान से हमेशा प्रार्थना करता है कि सर्वे भवन्तु सुखिनः मोदी जी का आज का आह्वान इसी जीवन-सूत्र की पुष्टि करता है.  

मित्रों, कहने का आशय यह है कि मंदिर-निर्माण के साथ-साथ मोदी जी ने राष्ट्र-निर्माण का भी महान संकल्प लिया है. इस महान कार्य को वे अकेले नहीं कर सकते इसलिए हम सारे भारतवासियों को भी इसके लिए अनथक परिश्रम करना होगा. उनके हाथ मजबूत करने होंगे। इस समय भारत चारों तरफ से संकटों और चुनौतियों से घिरा हुआ है. कोरोना के कारण हमारी अर्थव्यवस्था बर्बाद हो चुकी है. रामजी के आशीर्वाद से उसे पटरी पर लाना  है और इस तरह से पटरी पर लाना है जिससे भारत एक बार फिर से दुनिया की सबसे बड़ी जीडीपी वाला विकसित राष्ट्र बन जाए. इसके साथ ही चीन को भी धूल चटाना है जिसकी सेनाएं इस समय हमारी सीमाओं पर खड़ी हैं. जय सियाराम, जय जय राम।

रविवार, 2 अगस्त 2020

५ अगस्त को समाप्त होगा मेरे राम का वनवास


मित्रों, यह बड़े ही हर्ष का विषय है कि ५ अगस्त से अयोध्या में मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के मंदिर का निर्माण शुरू होनेवाला है. हर्ष का विषय यह भी है कि मंदिर का शिलान्यास स्वयं भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी करने जा रहे हैं. यह हमारा दुर्भाग्य रहा कि जिस स्थान पर भगवान राम ने जन्म लिया उस स्थान पर ५०० सालों तक एक मस्जिद खड़ी रही और हम कुछ भी नहीं कर पाए. बार-बार हिन्दुओं और सिखों ने उसपर कब्ज़ा करने के प्रयास किए, शहीद हुए लेकिन सफल नहीं हो पाए.

मित्रों, बाबर के सेनापति मीर बांकी द्वारा राम मंदिर तोड़कर मस्जिद बना देना हिन्दू धर्म के पराभव का भी प्रतीक है. आत्मघाती जातिप्रथा के कारण सदियों तक हिन्दुओं की तरफ से सिर्फ राजपूत लड़ते, मरते और हारते रहे. जातिप्रथा और हमारी आपसी फूट के ही चलते पहले मुट्ठीभर अरबी-तुर्क-मंगोल-पठान और फिर बाद में कुछेक हजार अंग्रेजों ने विशालकाय भारतीय उपमहाद्वीप पर कब्ज़ा कर लिया और हिन्दुओं को सदियों तक उनकी गुलामी करनी पड़ी.

मित्रों, १९४७ में आजादी मिलने के बाद भी देश का दुर्भाग्य रहा कि देश की सत्ता ऐसे लोगों के हाथों में रही जिनका न तो हिन्दू धर्म में विश्वास था और न ही जिनकी राम में किंचित आस्था थी. वे लोग ऐसे लोग थे जिन्होंने सिर्फ हिन्दुओं को बेवकूफ बनाने के लिए अपने नाम के आगे पंडित लगा रखा था. यहाँ तक कि सोनिया-मनमोहन की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में लिखकर दे दिया कि राम तो कभी हुए ही नहीं, पूरी रामकथा ही काल्पनिक है.

मित्रों, जो राम भारत के जन-जन में, कण-कण में समाए हुए हैं. जो राम प्रत्येक हिन्दू के लिए उदाहरण हैं कि एक पुत्र को कैसा आचरण करना चाहिए, एक पति को किस तरह अपनी पत्नी की रक्षा करनी चाहिए, एक मित्र को किस तरह मित्र का ख्याल रखना चाहिए, एक शिष्य को किस प्रकार गुरु की सेवा करनी चाहिए और गुरु आज्ञा का पालन करना चाहिए, एक राजा को किस तरह अपनी प्रजा के सुख-दुःख में ही अपना सुख-दुःख मानना चाहिए और एक सेनापति को कैसे अपनी सेना के छोटे-से-छोटे सैनिक की चिंता करनी चाहिए उस राम को काल्पनिक बता दिया!  फिर ऐसे लोग कैसे राम मंदिर निर्माण का समर्थन कर सकते थे?

मित्रों, इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर हिन्दू एक नहीं होते तो अभी भी राम मंदिर का निर्माण नहीं हो पाता. खैर राम मंदिर से जुडी सारी बाधाएँ अब दूर हो चुकी हैं और ५ अगस्त से राम के भव्य मंदिर का निर्माण आरम्भ हो जाएगा. मंदिर निर्माण को लेकर दुनियाभर के हिन्दुओं के मन में जो उत्साह है वह वर्णनातीत है. तथापि मैं सोंचता हूँ कि अगर हिन्दू अपने मन-मंदिर में भी राम को स्थापित कर ले और राम के आदर्शों पर अमल करे तो यह भारत-भूमि निश्चित रूप से स्वर्गादपि गरीयसी हो जाए. हिन्दू समाज में व्याप्त हो रही अव्यवस्था और वासनासक्तता का अगर कोई ईलाज है तो वह राम हैं और केवल राम हैं.

मित्रों, कुछ लोगों के मन में मेरे राम को लेकर कुछ सवाल भी हैं. दरअसल गुप्त काल में हमारे सारे धर्मग्रंथों में कुछे लफंगों ने अपने मनमुताबिक प्रसंग और श्लोक डाल दिए. मैं वाल्मीकि रामायण में शम्बूक-वध  और सीता-निर्वासन को जोड़कर राम की छवि को मलिन करने के ऐसे सारे प्रयासों का विरोध करता हूँ. आश्चर्य है कि जो राम वाल्मीकि जो जन्मना मुसहर थे, के चरण-स्पर्श करते हैं और आशीर्वाद लेते हैं, निषादराज गुह को गले लगाते हैं और भीलनी शबरी की जूठन खाते हैं वे एक ऋषि की सिर्फ इसलिए कैसे हत्या कर सकते हैं कि वो वेदपाठ कर रहा होता है? जो राम जिस पत्नी के लिए दुनिया के सबसे शक्तिशाली राजा से भयंकर युद्ध करते हैं वही राम अपनी उसी पत्नी का परित्याग भला कैसे कर सकते हैं? जिसने भी वाल्मीकि रामायण में यह प्रक्षिप्त जोड़ा है उसने गर्हित कर्म किया है और उसके इस कुकर्म की जितनी भी निंदा की जाए कम है.

मित्रों, इसलिए मैं बार-बार कहता हूँ कि मेरा राम वो राम है जो तुलसीकृत रामचरितमानस में वर्णित है. मेरा राम निरा अहिंसावादी नहीं है बल्कि सिंहासन पर बैठते ही धरती को निशिचरहीन करने की प्रतिज्ञा धारण करनेवाला राम है. मेरा राम निषाद गुह का बालसखा है. प्रेम की प्रतिमूर्ति है. मेरे राम में कोई अवगुण नहीं है. मेरा राम तीनों लोकों का स्वामी होते हुए भी विनम्रता की साक्षात् प्रतिमूर्ति है,अभिमान तो उसको छू तक नहीं गया है. मेरे राम जितना उदार और उदात्त कोई दूसरा हो ही नहीं सकता. वह अहैतुकी कृपा करता है. मेरे राम का न तो अपना कोई सुख है और न ही अपना कोई दुःख है मेरे राम के लिए उनकी प्रजा का सुख ही सुख है और प्रजा का दुःख ही दुःख. मेरे ऐसे राम का भव्य मंदिर बन रहा है. निश्चित रूप से इससे ५०० वर्षों से हताश-निराश हिन्दू मन में असीम उत्साह का संचार होगा लेकिन जैसा कि मैं इस आलेख में एक बार पहले भी कह चुका हूँ कि कितना अच्छा होता कि सारे हिन्दू राम की अच्छाइयों को भी अपना लेते, अपने जीवन में उतार लेते. फिर पूरा हिन्दू-समाज सच्चे अर्थों में राममय हो जाता. खैर! फिलहाल तो जय श्रीराम के नारे लगाने का समय है. मेरे राम की घर वापसी जो हो रही है. मेरे राम का ५०० साल पुराना वनवास समाप्त हो रहा है. तो बंधुओं आईये हम सारे हिन्दू जाति-पाति, ऊंच-नीच, भेदभाव को सरयू की उफनती धारा में प्रवाहित करते हुए नारा लगायें-जय श्रीराम, जिससे पूरी धरती प्रकम्पित हो उठे, पूरा ब्रह्माण्ड डोलायमान हो जाए.

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

आज हमें अपने आप पर गर्व है


मित्रों, अगर आप मुझे नियमित रूप से पढ़ते हैं तो आपको याद होगा कि ऐसी ही कुछ पंक्तियाँ मैंने तब भी लिखी थीं जब २०१४ में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे. तब मैंने लिखा था कि छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी इसी तरह साल के अंत में हमने लिखा था कि भारतीय इतिहास का प्रस्थान विन्दु था 2014

मित्रों, तब मैंने वर्ष २०१४ के सत्ता परिवर्तन को १९४७ और १९७७ से भी बड़ी क्रान्तिकारी घटना बताया था. उससे भी पहले १५ अगस्त १९१३ को जब मोदी जी ने लालन कॉलेज, भुज से अपना ऐतिहासिक भाषण दिया था तभी मैंने भविष्यवाणी कर दी थी कि मोदी भारत के अगले प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं. और यह भी कहा था कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो भारत फिर से गुलाम हो जाएगा. उसी साल २ अक्तूबर को मैंने मोदी चालीसा लिखी थी और कहा था कि मोदी भारत के लिए वरदान हैं.

मित्रों, अगर हैं आज यह कहूं कि कल का दिन भी भारत के लिए ऐतिहासिक दिन था तो ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी. कल १८ साल बाद भारत में नए लड़ाकू विमान का आगमन हुआ. राफेल से पहले वर्ष २००२ में भारत ने वाजपेयी के समय रूस से सुखोई ख़रीदा था. बीच के समय में कांग्रेस पार्टी की सरकार सत्ता में थी और उसने भारतीय सेना को कमजोर करने की दिशा में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. अब जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई तभी से उसने नई पीढी के लड़ाकू विमान के लिए प्रयास शुरू किया. और तभी से कांग्रेस पार्टी के नेता पगलाए हुए से हैं. शायद उनको इस बात का मलाल है कि रक्षा-खरीद में उनको कमीशन मिलना बंद हो गया है. साथ ही कांग्रेस पार्टी का चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ गुप्त समझौता भी है जिसके चलते कांग्रेस पार्टी नहीं चाहती कि भारत चीन पर हावी हो.

मित्रों, राफेल के आ जाने के बाद अब भारत अपनी ही जमीन से चीन और पाकिस्तान के अंदरूनी ठिकानों पर हवाई हमले बोल पाएगा. इतना ही नहीं वो एक साथ चीन और पाकिस्तान से निबट सकेगा. भारत की इस महँ उपलब्धि से जहाँ कांग्रेस पार्टी को खुश होना चाहिए वहीँ उसका चेहरा कद्दू की तरह लटका हुआ है.

मित्रों, भारत के इतिहास में कल एक और ऐसी घटना घटी है जो आनेवाले समय में भारत को विश्व-गुरु बनाने की दिशा में सहायक सिद्ध होनेवाली है. कल भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति की घोषणा की है. यह शिक्षा-नीति मैकाले की शिक्षा-नीति को उलटकर रख देगी जो अब तक सिर्फ किरानियों का उत्पादन कर रही है. अब भारत की शिक्षा-प्रणाली किरानियों के बदले उद्यमी पैदा करेगी. क्योंकि अब किताबी ज्ञान से ज्यादा हुनर और ज्ञान पर जोर होगा. बच्चे मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करेंगे. साथ ही संस्कृत-शिक्षण पर भी बल दिया जाएगा. कहा भी गया है कि भारत की संस्कृति संस्कृत से है. इतना ही नहीं बीच में पढाई छोड़नेवाले बच्चों को भी प्रमाणपत्र दिया जाएगा. अब बच्चे जब चाहे तब स्ट्रीम भी बदल पाएँगे. कुल मिलाकर सिर्फ परीक्षा लेनेवाली शिक्षा-प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन होने जा रहा है जिसकी आवश्यकता आजादी के बाद से ही महसूस की जा रही थी.

मित्रों, आज सचमुच हमें अपने आप पर गर्व हो रहा है कि हमने दो-दो बार एक ऐसी सरकार को वोट दिया जो पूरी तरह से राष्ट्र पर समर्पित है और जिसका मानना है कि राष्ट्र रक्षासमं पुण्यं, राष्ट्र रक्षासमं व्रतम्, राष्ट्र रक्षासमं यज्ञो, द्रष्टो नैव च नैव च. वेल डन मोदी जी हमें आज आप पर भी गर्व है.

गुरुवार, 23 जुलाई 2020

भारतीय न्यायपालिका की प्रासंगिकता


मित्रों, बरसों पहले हिंदी फिल्म शिकार में एक गाना था-परदे में रहने दो पर्दा न उठाओ, पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा. दोस्तों, हमारी न्यायपालिका की गंदगी भी अब तक परदे के पीछे थी जिसे विकास दूबे कांड ने अकस्मात् सामने ला दिया है. दरअसल विकास दुबे एंकाउंटर की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट को पहली बार न्यायपालिका में खराबी नज़र आई है. सुप्रीम कोर्ट ने यह मान लिया है कि सिस्टम में गंभीर खराबी है। कहते हैं कि कोई बिल्ली अपनी ही गर्दन में कभी घंटी नहीं बांध सकती और कोई कभी अपने गिरेबान में झांकने की कोशिश नहीं करता. ठीक यही बात हमारे देश की न्यायपालिका पर भी लागू होती है.

मित्रों, अभी दो-तीन दिन पहले ही १९८५ में हुए एक बहुचर्चित हत्याकांड का फैसला आया है. जी हाँ, मथुरा जिला एवं सत्र अदालत को भरतपुर के पूर्व महाराजा किशन सिंह के पुत्र मानसिंह और उनके दो साथियों की फर्जी मुठभेड़ जो 11 फरवरी 1985 को हुई थी, में फैंसला सुनाने में 35 साल लग गए। अब तक सभी पुलिस वाले नौकरी से रिटायर हो चुके हैं. उनमें से ४ तो जिंदगी से भी रिटायर हो चुके हैं. अब जाकर कोर्ट ने दोषी पुलिसवालों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है जब उनका जीवन स्वतः समाप्त होनेवाला है. इस बहुचर्चित हत्याकांड की सुनवाई के दौरान 1700 तारीखें पड़ीं और 25 जिला जज बदले गए। वर्ष 1990 में यह केस मथुरा जिला जज की अदालत में स्थानांतरित किया गया था। कुल 78 गवाह पेश हुए, जिनमें से 61 गवाह वादी पक्ष ने तो 17 गवाह बचाव पक्ष ने पेश किए। 8 बार फाइनल बहस हो चुकी थी। इस सुनवाई के दौरान करीब 35 साल में लगभग 1000 से ज्यादा दस्तावेज पेश किए गए। मथुरा जिला कोर्ट ने पूर्व डीएसपी कानसिंह भाटी समेत 11 पुलिसवालों को दोषी करार देते हुए सजा सुनाई। कोर्ट ने तीन आरोपियों को बरी कर दिया। हत्या के 3 आरोपियों नेकीराम, सीताराम और कुलदीप की पहले ही मौत हो चुकी है। सबूतों के अभाव में आरोपी महेंद्र सिंह पहले ही रिहा किया जा चुका है।
 

मित्रों, ये तो हुई एक महाराजा को न्याय मिलने में हुई देरी की बात अब एक गरीब का भी उदहारण देख लीजिए. 13 जुलाई 1984 को कानपुर के एक डाकिये के खिलाफ 57 रुपया 60 पैसा गबन करने का एफआईआर दर्ज किया गया और निलम्बित कर दिया गया. 29 साल बाद 3 दिसम्बर 2013 को उसे निर्दोष पाया गया. मगर अफ़सोस, इतने सालों में पैसे की तंगी और 350 पेशियों पर आये खर्च से उसका गरीब परिवार दाने-दाने को मोहताज हो गया. इसी तरह 23 मई 1987 के चर्चित हाशिमपुरा केस का फैंसला 28 साल बाद मार्च 2015 में आया तथा 2 जनवरी 1975 के ललित नारायण मिश्र हत्याकांड का फैसला 40 साल बाद दिसम्बर 2014 में दोषियों को आजीवन कारावास की सजा के रूप में आया. कितने जिंदा बचे थे अभियुक्तों में से? बेहमई हत्याकांड जनवरी 1981 में हुआ. आज तक केस ट्रायल स्टेज में पड़ा है क्योंकि केस की मूल केस डायरी खो गई है।
 

मित्रों, ये कुछ उदाहरण उस सुप्रीम कोर्ट के लिए हैं जो सरकार से पूछ रही है कि विकास दुबे को उसके ऊपर कई दर्जन संगीन मामले होते हुए जमानत कैसे मिली. क्या सिर्फ पूछ लेने भर से सुप्रीम कोर्ट का कर्तव्य पूरा हो गया? क्या स्थितियां बदल गईं. पूछने की इतनी ही जल्दी थी तो जिन-जिन न्याय-मूर्तियों (?) ने विकास दूबे को जमानत दी थी उनको भी अगली तारीख पर तलब कर लिया होता। अदालत के अदर्ली, पेशकार से लेकर जज सब रोज़ बिकते हैं क्या सुप्रीम कोर्ट को नजर नहीं आता? एसी चैम्बरों में बैठकर पत्थरबाजों पर पैलेट गन न चलाने की हिदायत देना बहुत आसान है लेकिन वही न्याय-मूर्ति गर्दन झुका कर ये नहीं देख सकते कि उनकी अदालतों में क्या चल रहा है? जो जबान हिला कर ये नहीं पूछ सकते कि महाराष्ट्र के जज चश्मे नाक पर पहनते हैं या कहीं और जिससे कि उन्हें पालघर में निर्दोष, निरीह, वयोवृद्ध संतों की पुलिस-पब्लिक द्वारा संयुक्त रूप से की गई नृशंस हत्या नजर नहीं आती? कैसी हालत हो गई है कि एक जज से कुछ फुट की दूरी पर उसका पेशकार रिश्वत लेता है और जज को नहीं दिखता. फिर भी जनता को उम्मीद रहती है कि जज उसे न्याय देगा.

मित्रों, हम पूछते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को कब समझ में आएगा कि सिर्फ पुलिसिया सिस्टम नहीं बल्कि पूरा सिस्टम गड़बड़ है. जरुरत इस बात की है कि सर्वोच्च अदालत उसे देखे और सोचे कि हाशिमपुरा, हैदराबाद और कानपुर जैसे मुठभेड़ करने और पैलेट गन चलाने की जरुरत क्यों पड़ती है और क्यों आम आदमी को इन मुठभेड़ों से राहत महसूस होती है? और अगर मेरी बातों से माननीय न्याय-मूर्तियों के अहं को ठेस लगी है तो डाल दें मुझे भी जेल में. मैं समझता हूँ कि ऐसी अंधेर नगरी में जहाँ इन्साफ अमावस्या का चाँद बन गया हो, रहने से अच्छा है जेल में रहना. लेकिन एक बार मेरे इस सवाल पर गौर जरुर करिएगा माई-बाप कि आज के समय में जब एक क्लिक से बड़ा-से-बड़ा काम हो जाता है, क्या भारत में न्यायपालिका की कोई प्रासंगिकता या उपयोगिता रह गयी है?