शनिवार, 31 अक्टूबर 2009

जाति न पूछो बुद्धिजीवियों की

जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ यानि कि होश संभाला बराबर एक शब्द से पाला पड़ने लगा. न तो आज तक मैं उसका अर्थ ही समझ पाया हूँ और न ही परिभाषा जान पाया हूँ. भाइयों एवं बहनों वो शब्द था और है-बुद्धिजीवी. जहाँ तक शब्दार्थ की बात है तो इसका मतलब होता है-बुद्धि पर जीनेवाला यानि यानि बुद्धि की कमाई खानेवाला. अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि दुनिया में बुद्धिजीवियों का दायरा काफी बड़ा है. इसके अन्तर्गत वे सभी आ जाते है जो मेहनत का काम नहीं करते फ़िर भी कमा लेते हैं. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि शारीरिक मेहनत में लगे लोग बुद्धि से काम नहीं लेते. हाँ उस पर पूरी तरह निर्भर नहीं होते. लेकिन पत्रकारिता जगत में बुद्धिजीवी वे हैं जिनके आलेख या फीचर लगातार अख़बारों में छपते हों या फ़िर रेडियो-टी.वी. पर राय देने के लिए बुलाये जाते हों. बुद्धिजीवियों की कोई जाति नहीं होती उनकी अपनी अलग ही जाति है. शायद यही कारण है कि उन्हें पाला बदलने में कोई कठिनाई नहीं होती. सरकार बदली नहीं कि वे समाजवादी से मध्यमार्गी या हिंदूवादी बन जाते है. ऐसे ही लोगों को कभी महाकवि मुक्तिबोध ने शोषकों के साथ गर्भनालबद्ध कहा था. जिस देश में ऐसे सुविधाभोगी सत्ता से चिपके हुए बुद्धिजीवी मौजूद हों वहां न तो कोई आन्दोलन ही खड़ा करना संभव हो सकता है और न ही परिवर्तन आना या लाना ही आसन है.दुर्भाग्य से भारत में अभी ऐसी ही स्थिति है.मैं युवाओं से निवेदन करता हूँ कि वे इन यथास्थितिवादी बुद्धिजीवियों से सावधान रहें ताकि कालांतर में उन्हें खुद को ठगा हुआ महसूस न करना पड़े.

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

परेशानी का पर्याय भारतीय रेल

अभी कुछ ही समय पहले की बात है जब १३ जनवरी, २००९ को भारत के तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने जापानी बुल्लेट ट्रेन पर सवारी की घोषणा की कि भारत में भी बुल्लेट ट्रेन चलायी जायेगी.एक उम्मीद बनी मन में. लेकिन इस मुंबई-पुणे-अहमदाबाद बुल्लेट ट्रेन परियोजना के लिए अनुमानित ३,५५,३०० करोड़ रूपयों का इंतजाम कहाँ से होगा अब तक एक यक्ष-प्रश्न बना हुआ है. मन इसीलिए यह संदेह भी उत्पन्न होता है कि यह घोषणा कहीं राजनीतिक लफ्फेबाजी भर तो नहीं थी. वैसे भी अब लालू रेल मंत्री नहीं हैं. अटलजी की सरकार ने अधोसंरचना में सुधार को जिस तरह प्राथमिकता के आधार पर लिया था और जोर-शोर से काम शुरू किया था. मनमोहन सरकार में न तो जोर दिखाई दे रहा है और न ही शोर ही सुनाई दे रहा है. वक़्त मानों ठहर गया है और ठहर गया है भारत का विकास (इंडिया का नहीं). मैं अक्सर प्रत्येक भारतवासी की ओर से एक सपना देखा करता हूँ की मैं तीन-चार घन्टे में पटना से दिल्ली पहुँच जाऊँगा और अपना काम निपटाकर शाम में घर लौट भी आऊंगा. किसी भी देश के विकास का पहला कदम अधोसंरचना का विकास ही होता है. बिजली, पानी और यातायात की सुचारू व्यवस्था किये बिना किसी भी देश का विकास संभव नहीं है. जहाँ तक भारत की बात है तो कण-कण में व्याप्त भ्रष्टाचार को मिटाए बिना ऐसा हो नहीं सकता. इलाज है भ्रष्टचार के लिए मृत्युदंड की व्यवस्था की जाये और न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में व्यापक पैमाने पर सुधार किया जाये.अंत में मैं आपसे पूछता हूँ कि सिर्फ बुल्लेट ट्रेन चला देने से क्या भारत विकसित देशों की श्रेणी में आ जायेगा? बिलकुल भी नहीं इसके लिए तो बदलना पड़ेगा भारतीयों को अपनी नीति और नीयत को और मिटाना पड़ेगा फर्क कथनी और करनी का.

शर्मनाक हादसा

भारतीय वायु सेना के लिए विमान और हेलीकॉप्टर दुर्घटनाएं कोई नई बात नहीं है. आज ३० अक्टूबर को भी के हेलीकॉप्टर दुर्घटना हुई है. निस्संदेह इस तरह की घटनाएँ सेना के मनोबल के साथ-साथ उन पर देश के भरोसे को भी काम करती है. आखिर क्यों यह सिलसिला रूक नहीं रहा है. जब देश में ऐसा हो तो इसे हम घरेलू मामला मान सकते हैं. लेकिन अभी एकुआडोर में जिस तरह ध्रुव हेलीकॉप्टर ऐन परेड के समय ही मुंह के बल जमीन पर आ गिरा उससे भारत की अंतर्राष्ट्रीय साख निश्चित रूप से प्रभावित होगी. सेना में साजो-सामान की खरीद में व्याप्त भ्रस्ताचार कोई नई बात नहीं है न ही नयी है कुँतरोची सरीखे घपलेबाजों का बाइज्जत रिहा हो जाना. ऐसे में स्थितियों में सुधार की उम्मीद करना ही बेमानी है. हाँ एक बात तो निश्चित है कि इस तरह के हथियारों के बल पर हम चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध नहीं छेड़ सकते. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अब युद्ध में जीत-हार में सैनिक-संख्या से अधिक तकनीकी कुशलता मायने रखती है.

अंतहीन प्रतीक्षा

ज़िन्दगी मेरे साथ क्रूर जमींदार की तरह व्यवहार करती रही है;
करवाती रही है मुझसे दिन-रात बेगार और जमा-हासिल कुछ भी नहीं.
मैं करता रहा हूँ कड़ी मेहनत,
मैंने कभी मौसमी परेशानियों
सर्दी,गर्मी और बरसात की नहीं की फ़िक्र.

ज़िन्दगी मुझे बार-बार पढाती
रही गीता का श्लोक,
कि कर्म करते रहो मत करो
फल की चिंता;
जो तुम्हारे हाथों में है वही
तुम देखो,
बांकी का हिसाब-किताब
छोड़ दो मुझ पर;
और करते रहो सही वक़्त का इंतजार.

इसी तरह ढलती रहीं शामें,
कटती रही रातें;
निकलता रहा सूरज रोज
गुलाबी चादर ओढे;
लेकिन नहीं हुआ मेरा हिसाब
खाली रहे हाथ भन्नाता रहा दिमाग,
कहते हैं कि प्रतीक्षा की घड़ी
लम्बी होती है;
पर मैंने तो उसे अंतहीन होते देखा है.

बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

क्या फिर से पत्रिकाओं का जमाना वापस आ रहा है?

मैं एक मुकदमे के सिलसिले में अपने वकील से मिलने हाजीपुर कोर्ट की तरफ जा रहा था. आप सोंच रहे होंगे कि क्या मैं ऐसा-वैसा आदमी हूँ? अरे नहीं जमीन-जायदाद का मुकदमा है और दूसरा पक्ष चचेरा मामा है. खैर रास्ते में भेंट हो गई हिंदुस्तान अख़बार के हाजीपुर संवाददाता श्री सुरेन्द्र मानपुरी से. मानपुरीजी मेरे पिता की उम्र के हैं और पत्रकारिता विधा पर कई पुस्तकें लिख चुके हैं. एक चलता-फिरता पुस्तकालय. मुझे उनका स्नेह-पात्र होने का सौभाग्य प्राप्त है. आरम्भ में कुछ हल्की-फुल्की बातचीत शुरू हुई. धीरे-धीरे वार्तालाप ने गंभीर रूप अख्तियार कर लिया. मैंने  उनका ध्यान बिहार के समाचार-पत्रों के गिरते स्तर की ओर दिलाया, जिसे उन्होंने खुले हृदय से स्वीकार भी किया. साथ-ही उनका मानना था कि समाचार-पत्रों का युग अब समाप्त समाप्ति की ओर है और एक बार फ़िर पत्रिकाओं का जमाना आनेवाला है. मैंने पूछा वो कैसे तो उन्होंने प्रथम प्रवक्ता को इसका श्रेय देते हुए कहा कि इस पत्रिका ने गंभीर पाठकों के बीच अपनी गहरी पैठ बना ली है और स्टालों पर आने के साथ ही गायब हो जाती है. उनकी बातों ने मुझे भी सोंचने पर मजबूर कर दिया कि क्या वास्तव में प्रथम प्रवक्ता में वह स्थान प्राप्त करने की योग्यता है जो कभी धर्मयुग ने अर्जित किया था? प्रथम प्रवक्ता के संपादक रामबहादुर राय जी हैं जो हिंदी के वरिष्ठतम पत्रकारों में से एक हैं. यही कारण है कि प्रभाष जोशी आदि नामी-गिरामी पत्रकारों का सहयोग उन्हें सहज ही प्राप्त हो जाता है. स्वयं रामबहादुर जी बहुत अच्छे स्तंभकार हैं. लेकिन पत्रिका का झुकाव हिन्दुवाद की ओर आसानी से देखा जा सकता है और इसे हम पत्रिका की कमजोरियों में शुमार कर सकते हैं. साथ ही न ही पत्रिका में वह विषयगत विविधता है जो धर्मयुग में पाई जाती थी न ही सामग्रियों का स्तर ही वैसा है. साथ ही जिस समय मानपुरीजी ने यह टिपण्णी की थी उस समय इसका दाम कम करके ५ रूपया कर दिया गया था. अब जबकि फ़िर से इसका मूल्य १० रूपया कर दिया गया है तो देखना है कि इसकी बिक्री पर क्या असर पड़ता है?

सोमवार, 26 अक्टूबर 2009

विपक्षहीनता की ओर अग्रसर भारतीय राजनीति

हाल में हुए लोकसभा और फिर विधानसभा चुनावों के परिणामों से ऐसा परिलक्षित हो रहा है कि भारत की मुख्या विपक्षी पार्टी भाजपा के पास कोई ऊर्जा बची ही नहीं है. उसके पास न तो कोई मुद्दा है और न ही मुद्दा बना सकने का मदद ही बचा है. जिससे भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में विपक्षहीनता की स्थिति एक बार फ़िर उत्पन्न होती जा रही है. दुनिया के किसी भी विकसित देश को लें तो उनका तेज गति से विकास तभी संभव हो सका है जब विपक्ष भी मजबूत रहा हो. स्वतंत्रता के बाद तीस सालों तक विपक्ष  लगभग गायब रहा और भारत में एकदलीय लोकतंत्र जैसी स्थिति बनी रही जिसकी परिणति रही आतंरिक आपातकाल और ७४ का जनांदोलन. तो क्या देश फ़िर से उसी ओर बढ़ रहा है? अगर यह सच है तो निश्चित रूप से विकसित हो रही यह प्रवृत्ति देशहित में नहीं है. देश में भी उन्हीं राज्यों का तेज विकास हुआ है जहाँ राजनीति के दो ध्रुव मौजूद हैं और सत्ता उनके बीच लगातार बदलती रही है. तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है. इतिहास गवाह है कि एकदलीय लोकतंत्र जैसी स्थितियां न तो साठ-सत्तर के दशक में राष्ट्रहित में थीं न आगे हीं देश को इससे फायदा होगा. और फ़िर भीषण महंगाई, मंदी और बेरोजगारी के इस और में विपक्ष में सक्रियता की कमी और भी साल रही है. परिस्थितियां जनांदोलन के लिए पूरी तरह से अनुकूल है परन्तु भाजपा उसका नेतृत्व संभाल पाने की स्थिति में है ही नहीं. इससे देश और जनता को जो नुकसान उठाना पड़ रहा है उसके लिए कहीं-न-कहीं भाजपा का वर्तमान नेतृत्व दोषी है. हाल ही में नक्सल कार्रवाई ने जो गति पकड़ी है उसके पीछे भी कहीं-न-कहीं जनता के समक्ष मुंह बाये खड़ी विकल्पहीनता भी जिम्मेदार है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विकल्पहीनता भटकाव की ओर ले जाती है.

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

एकरूपता लाएं हिंदी अख़बार

हिंदी भारत की राजभाषा की अधिकारिणी होते हुए भी नहीं है जबकि हमें आजाद हुए ६ दशक बीत चुके हैं. हिंदी की इस दुर्गति में तथाकथित हिंदी सेवी अख़बारों का काम योगदान नहीं रहा है. सारे अख़बार स्टाइल शीट के नाम पर अपनी डफली अपना राग बजा रहे हैं. अभी दीपावली में कोई दिवाली लिख रहा था तो कोई दीवाली. इतना ही नहीं सारे अख़बारों के फांटों में भी एकरूपता का घोर आभाव है जिससे इन्टरनेट से सामग्री को सेव या कॉपी करना मुश्किल ही नहीं असंभव बन गया है. अंग्रेजी में इस तरह कि कोई समस्या नहीं है. आनेवाला युग इन्टरनेट का ही है और शब्दरूपों और फौंटों में विविधता से हिंदीभाषियों के लिए जहाँ भ्रम की या असमंजस की स्थिति पैदा होती है वहीँ अहिन्दीभाषी लोगों के लिए हिंदी सीख पाना दुरूह हो जाता है और इसलिए बेवजह हिंदी पर कठिन होने का आरोप लगाया जाता है. हालाँकि इन्टरनेट पर हिंदी में सामग्री उपलब्ध है लेकिन उन्हें भी एसएमएस की तरह रोमन में लिखना पड़ता है इस तरह हिंदी की-बोर्ड का प्रयोग ही हिंदी प्रेमी नहीं कर पाते अगर फौंटों में एकरूपता होती तो यह समस्या नहीं खड़ी होती. जहाँ तक बिहार के अख़बारों का सवाल है तो हम पत्रकार मात्रा डेढ़-दो सौ शब्दों से काम चलाते हैं और उनका भी सही प्रयोग नहीं कर पाते. अधिकांश अख़बारों में आगज़नी और अगलगी में कोई अंतर नहीं होता. शीर्षकों में ही गलतियों की भरमार होती है, वर्तनी सम्बन्धी भी और व्याकरणिक भी; फ़िर मुख्य भाग का तो भगवान ही मालिक है. ऐसा क्यों ही मैं इसका पोस्टमार्टम नहीं करना चाहता लेकिन इतना तो निश्चित है कि बिहार में अख़बार पढने से बच्चों की भाषा के बिगाड़ने का खतरा उत्पन्न हो गया है. अब आप ही बताईये क्या इसे हिंदी सेवा कहेंगे या हिंदी के विनाश का प्रयत्न. यह हिंदी के प्रति मित्रतापूर्ण नहीं बल्कि शत्रुतापूर्ण व्यवहार है.

आभिजात्यता के पोषक सिब्बल

केंद्र की यूपीए सरकार बात भले ही आम आदमी की करे उसके कई मंत्री आभिजात्यता के अंध समर्थक की तरह व्यवहार करते हैं. अभी विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर द्वारा इकोनोमी क्लास को मवेशियों का बाड़ा कहने का विवाद अभी थमा भी नहीं था कि उसके एक और मंत्री कानूनी दांव-पेंच में माहिर कपिल सिब्बल ने यह कहकर हंगामा खडा कर दिया है कि आईआईटी में फॉर्म भरने के लिए निर्धारित बारहवीं के प्राप्तांक को बढाकर ८०-८५ प्रतिशत किया जायेगा. निहितार्थ यह कि अब भारत के ग्रामीण क्षेत्रों से आनेवाले छात्र-छात्राएं इस परीक्षा से वंचित कर दी जाएँगी. राहुल गाँधी के शब्दों में अगर हम कहें तो अब केवल इंडिया से आनेवाले लोग ही इंजिनियर बनेंगे भारत में रहनेवाले लोगों के लिए इंजीनियरिंग में प्रवेश का यह राजपथ बंद हो जायेगा. अब यह तो कांग्रेस नेतृत्व को ही पता होगा कि आम आदमी की सरकार को आम आदमी के साथ होना चाहिए या आभिजात्य वर्ग के पक्ष में. अगर अब भी यह सरकार अपने को आम आदमी की सरकार कहती है तो इसे परले दर्जे की बेशर्मी ही कही जायेगी.

आलू, लालू और बालू

कभी बिहार के नीति-नियंता रहे लालू प्रसाद ने बिहार के बँटवारे के समय कहा था कि अब बिहार में सिर्फ तीन ही चीजें बचेंगी आलू, लालू और बालू. सत्ता सुख में डूबे लालू के दिमाग में शायद यह बात कहीं भी नहीं थी कि समय इतिहास रचने का अवसर किसी भी व्यक्ति को बार-बार नहीं देता. एक राज्य की तक़दीर बदलने के लिए १५ साल का वक़्त कोई कम नहीं होता.
अब जब भाग्य उनका साथ नहीं दे रहा है तो वे झूठ-सच का सहारा लेने को उतारू हैं. नीतिश जी को भी सत्ता में आये चार साल पूरे हो चुके हैं और चुनाव की आहट धीरे-धीरे निकट आती सुनाई दे रही है. बिहार ने इन चार सालों में बहुत-कुछ देखा है, बहुत कुछ बदला भी है लेकिन दुर्भाग्यवश आज भी बिहार हर मामले में भारत के राज्यों में नीचे से प्रथम है. ऐसा क्यों है? एक होशियार माने जानेवाले नेता के हाथों में नेतृत्व होने के बावजूद स्थितियां बदलने के बाद भी आकडे क्यों नहीं बदले? मेरा मानना है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि राज्य सरकार की नीयत के बारे में तो मैं कह नहीं सकता लेकिन निश्चित रूप से नीति ठीक नहीं रही. बात वह शिक्षा में सर्वांगीण सुधार की करती रही लेकिन बहाली में निर्धारित प्रक्रिया और मानदंडों का पालन सुनिश्चित नहीं करा पायी. इसी तरह नरेगा, आंगनबाडी आदि योजनायें बिहार में पूरी तरह विफल सिद्ध हुई. अब स्थिति सांप-छछूंदर वाली है. इन कर्मियों को न तो वह हटा ही सकती है और न ही रख ही सकती है. हटाने से भी जनता में नाराज़गी उत्पन्न होगी और न हटाने से भी. एक कालोनी में नालियां बनाने में ही चार साल ख़त्म हो गए और काम अभी भी ६० प्रतिशत के लगभग ही हुआ है. इन बातों से और बार-बार पुलिस द्वारा जुल्म ढाये जाने की खबरों से तो यही जाहिर होता है कि सरकार स्थानीय निकायों और प्रशासनिक अधिकारियों पर नियंत्रण नहीं रख पाई और जनादेश से मिले बहुमूल्य अवसर को गँवा बैठी. अब आनेवाले चुनाव में क्या होगा कोई भी इसका अनुमान नहीं लगा सकता.

रविवार, 18 अक्टूबर 2009

जब कदम ही साथ न दे

कभी फ्रेंच चिन्तक  रूसो ने कहा था कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है लेकिन दुनिया में आते ही जंजीरों में जकड़ जाता है. उसने तो ऐसा तत्कालीन फ्रांस के शासकों के शोषण से परेशान नागरिकों के बारे में कहा था. क्या हम परिस्थितियों के गुलाम हैं. अगर हर कोई ऐसा ही सोंचने लगे तो दुनिया का क्या होगा? मन कि यह हमारे हाथों में नहीं होता कि हम अमीर घर में पैदा होंगे या गरीब घर में. लेकिन बाद की स्थितियों का महत्व होता तो है पर इतना ज्यादा भी नहीं कि सबकुछ वही हो जाये और हमारी भूमिका सिर्फ मूकदर्शक की रह जाये. अगर हमारे पूर्वजों ने परिस्थितियों को ही सब कुछ मान लिया होता तो हम आज भी गुलाम होते. या फ़िर मानव आज भी बैलगाड़ी चला रहा होता. फ़िर भी इतना तो निश्चित है कि परिस्थितियां हमारे हाथों में नहीं होती. हमारे तों में होता है उनका सामना करना. साधन हमारे हाथों में होते हैं. शायद इसलिए गाँधी जी (मेरा मतलब महात्मा गाँधी से है न कि गाँधी-नेहरु परिवार के किसी सदस्य से) ने साधन की पवित्रता पर इतना जोर दिया था. बोए पेड़ बाबुल का जैसे हिंदी कहावत भी इसी ओर इशारा करते हैं. शेरदिल इंसान को परिस्थिति रूपी पिंजरा अपने भीतर बंद नहीं कर सकता. कई बार हमारे जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब हमें लगता है कि जैसे हम बंद गली के आखिरी मकान को भी पार कर चुके हैं और जीवन का अंत आ गया है. लेकिन जिन्दगी रूकती नहीं है. परिस्थितियों के निर्माण में कहीं-न-कहीं हमारी सोंच का, हमारे कर्मों का भी हाथ होता है. भगत और गाँधी का बचपन अलग-अलग माहौल में बीता और इसका प्रभाव हम उनकी सोंच और उनके कार्यों में देख सकते हैं. इनमें किसी को भी हम गलत नहीं ठहरा सकते. हाँ इतना निश्चित है कि गाँधी को जिस तरह व्यापक जनसमर्थन प्राप्त हुआ वैसा भगत को नहीं मिला और उन्हें जनता ने काफी हद तक अपराधी ही माना क्योंकि उनका मार्ग हिंसा का था और इतिहास गवाह है कि भारत में अशोक, अकबर जैसे शासकों को महान कहा गया अलाउद्दीन या गोरी को नहीं. मतलब यह कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी बुरी क्यों न हो विवेक से काम लें. मानव विवेकी जीव है और उसके जीवन में कभी विकल्पों का अकाल नहीं पड़ता. उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ते कार्याणि न मनोरथै. भले ही गली बंद हो कहीं न कहीं से जाने का मार्ग मौजूद अवश्य होता है थोड़ा लम्बा भले ही हो.

शनिवार, 17 अक्टूबर 2009

अंधेरे में डूबा एक शहर

कहने को तो शहर लेकिन शहरी सुविधाएँ नदारद। टूटी-फूटी और पगडण्डी जैसी पतली सड़कें और बिजली उसका तो यहाँ नाम लेना भी खतरे से खाली नहीं है। बिजली नहीं रहने से खफा जनता अगर हत्थे से उखड़ गयी तो आपको अप्रत्याशित रूप से हाजीपुर सदर अस्पताल की यात्रा करनी पड़ सकती है जो अराजकता के मामले में किसी भी सरकारी संस्थान से सहज ही टक्कर से सकता है। त्रेता युग के त्रिशंकु का नाम आपने सुना होगा। वे विश्वामित्र की कृपा से धरती और स्वर्ग के बीच में लटक गए थे। हमारा महान ऐतिहासिक शहर हाजीपुर भी पटना और मुजफ्फरपुर के बीच लटका हुआ है। सारी योजनायें या तो पटना के लिए बनती हैं या फ़िर मुजफ्फरपुर के लिए, हाजीपुर की तरफ़ निगाहें ही नहीं जाती। मानो दो-दो चिरागों के तले पसरे अंधेरे में खो जाना ही इसकी नियति है। कहने को तो राज्य के बिजली मंत्री वयोवृद्ध रामाश्रय बाबू वैशाली जिले जिसका मुख्यालय हाजीपुर है के प्रभारी मंत्री हैं और इस नाते उनका हाजीपुर आगमन बराबर होता रहता है। जब भी वे यहाँ पधारते हैं तो सिधारने के पहले लगभग हर बार जिले का बिजली का कोटा बढ़ाने का आश्वासन अपने मुखचन्द्र से दे जाते हैं लेकिन स्थिति ज्यों कि त्यों है। अब उनके आश्वासन भी अपना असर खोते जा रहे हैं। इस बार की जानलेवा गर्मी में जब मैं बाहर होता तो कड़ी धूप से भागा-भागा घर आता इस उम्मीद में कि कहीं मंत्रीजी के आश्वासन ने अपना रंग दिखा ही दिया हो और भरी दोपहरी में प्यारी-चंचला बिजली रानी से भेंट हो ही जाए। लेकिन घर में आते ही पाता कि बिजली रानी का तो कहीं अता-पता ही नहीं है तब ऐसा लगता कि जैसे किसी ने मेरे तपते जिस्म से बेवफा बिजली रानी का नंगा तार सटा दिया हो। अब जाड़ा आनेवाला है और बिजली बिना जाड़े की कल्पना मात्र से ही मुझे कंपकंपी हो रही है। जब हाजीपुर को पूर्व मध्य रेलवे का मुख्यालय स्थापित हुआ तो एक उम्मीद बंधी थी कि अब हाजीपुर के दिन बहुरेंगे लेकिन हुआ कुछ नहीं। वास्तव में बिहार में इतनी जड़ता आ चुकी है कि परिवर्तन की तमाम कोशिशें दम तोड़ जाती हैं। यह जड़ता यहाँ की सरकार में भी समायी हुई है. वैसे भी लोकतंत्र में अलोकप्रिय निर्णय लेना आसान नहीं होता। आधुनिक आन्ध्र के निर्माता चन्द्रबाबू नायडू का हश्र सबके सामने है। नीतीशजी की सरकार भी खतरा मोल लेना नहीं चाहती। यहाँ तक कि बिजली बोर्ड का विभाजन और निजीकरण करने की भी वह कोशिश नहीं कर पाई। इस तरह के डरपोक लोग न तो अच्छे शासक ही हो सकते हैं और न ही युगपुरुष। मरीज को कभी-कभी कड़वी दवा भी देनी पड़ती है और इस तथ्य से नीतीशजी से ज्यादा अच्छी तरह से शायद ही कोई और परिचित हो, आखिर वैद्यक उनका खानदानी पेशा जो ठहरा।

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

चिराग तले अँधेरा

कभी प्रजापति कहलाने वाले कुम्हार
के घर में अब नहीं जलता आवा,
और आवा की आग के साथ चूल्हे की आग
भी पड़ने लगी है ठंडी;
अब न तो दुर्गा पूजा और न ही दिवाली में
छोटू-छोटी खरीदते हैं मिट्टी के खिलौने,
और वातानुकूलित दुकानों से खरीदने लगे हैं
हाथी-घोड़े के साथ गुल्लक भी,
जो बोलते भी हैं और चलते भी हैं;
कुम्हारों के गरीब खिलौनों की तरह
चुपचाप मुंह नहीं ताकते रहते हैं।
कल का प्रजापति आज भुखमरी
का शिकार है,
उसके बच्चों को स्कूल जाना तो दूर
रोटी के साथ सब्जी तक नसीब
नहीं होती;
वे हाथ जो बनाते हैं दिए दिवाली में दूसरों के
घरों को रौशन करने के लिए,
ख़ुद उनका ही वर्तमान और भविष्य अंधेरे में है;
जो हाथ लक्ष्मी को रास्ता दिखानेवाले दीपक गढ़ते हैं,
उनके घरों से कब गुजरेगी लक्ष्मी की सवारी;
कब वे भरपेट भोजन कर सकेंगे,
और कब उनके बच्चे नए-नवेले
ड्रेस में स्कूल जा सकेंगे;
यह तो वही जाने जो पूरी कायनात को
गढ़ता है अपनी चाक पर।

अपने दामन में क्यों नहीं झांकते राहुल

कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी इन दिनों देशाटन पर निकले हुए हैं और विपक्षी दलों की सरकारों के खिलाफ जिस तरह बयान दे रहे हैं उससे उनकी अनुभवहीनता या बचपना ही झलकती है। पहली बात कि उन्होंने छत्तीसगढ़ सरकार पर नक्सालियों के खिलाफ विफल रहने का आरोप लगाया है। जबकि वहां की सरकार ने जिस तरह नक्सालियों के विरुद्ध आर-पार की लड़ाई छेड़ रखी है वह अनूठी है और इसमें जनता के साथ-साथ विपक्ष कांग्रेस के नेता महेंद्र करमा भी सरकार को सहयोग कर रहे हैं। पड़ोसी आन्ध्र प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है और नक्सली आज भी वहां बेलगाम हैं। झारखण्ड जहाँ की पवन धरती पर उन्होंने यह महान बयान दिया है उसकी दुर्गति किसी विपक्षी सरकार ने नहीं दी है। उसके लिए जिम्मेवार है कांग्रेस पार्टी और उसके सहयोगी। भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए झारखण्ड में पहले तो सिद्धान्तहीन उदाहरण पेश करते हुए कांग्रेस ने एक निर्दलीय विधायक को मुख्यमंत्री बना दिया। हद तो यह है कि अब उसी मधु कोडा को जेल भेजने की तैयारी चल रही है। मानो कांग्रेस का इस संस्थागत लूट-पाट में कोई हाथ ही नहीं है। एक निर्दलीय अकेले तो सरकार नहीं बना सकता है ना! अगर कांग्रेस महासचिव चाहते हैं कि कहीं भी विपक्ष की सरकार नहीं रहे चाहे तो उनके सामने लुटे-पुटे झारखण्ड का फार्मूला है ही। लेकिन फ़िर सिद्धांतों की बातें उन्हें नहीं करनी चाहिए यह अनैतिक तो है ही आपराधिक भी है क्योंकि ये पब्लिक है जो सब जानती है।

अति सर्वत्र वर्जयेत

बिहार के मुख्यमंत्री एक वैद्य के बेटे हैं और आयुर्वेद का कहना है कि अति सर्वत्र वर्जयेत। हर चीज की एक सीमा होती है। लालू-राबड़ी शासन में जहाँ प्रशासन को जन प्रतिनिधियों के समक्ष बौना बनाकर रखा गया, वहीं नीतिश ने सूत्र को ही पूरी तरह पलट दिया। कहने का मतलब यह कि अब प्रशासनिक अधिकारियों को पूरी छूट दे दी गयी। जनता के लिए न तो वो ठीक था न यह ठीक है। दोनों ही स्थितियां अतिवाद से प्रेरित हैं। अब स्थिति ऐसी है कि मुख्यमंत्री बोलते रहते हैं और अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। वर्तमान शासन में उनका व्यवहार निरंकुश सामंतों जैसा हो गया है और वे जब-तब मानवाधिकारों का उल्लंघन करने से भी नहीं चूकते।
मैं दो मामले आपके सामने पेश करना चाहूँगा- पहला मामला हाजीपुर से सम्बंधित है। २८ मई २००८ को स्थानीय गाँधी चौक पर सुनयना देवी नाम को एक महिला लीची बेच रही थी तभी ट्रैफिक हवालदार लक्ष्मण यादव ने उससे २०० लीची खरीदी और बिना पैसे दिए ही जाने लगा।इसका सभी फ़ुट पाथी दूकानदारों ने विरोध किया। बाद में उनका एक प्रतिनिधिमंडल एस पी पारसनाथ से मिलने भी गया लेकिन भेट नहीं हो सकी। बाद में सुनयना देवी और उसके एक निकट सम्बन्धी नरेश साह को झूठे मुक़दमे (मुकदमा सं २८९.०८) में फंसा दिया गया और नरेश साह को स्वास्थ्य थी नहीं होने पर भी गिरफ्तार कर लिया गया और जमकर पीटा गया जिससे उसकी मौत हो गयी। पुलिसिया सनक यहीं तक नहीं रुकी लाश को परिजनों को देने के बजाये गंगा में फेंक दिया गया। यहाँ तक कि पीड़िता के राज्य मानवाधिकार आयोग में जाने और मानवाधिकार आयोग से जवाब-तलब किए जाने के बाद भी हवलदार पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी।
दूसरी घटना ताजी है। अभी कल १५ तारिख की ही बात है। छपरा के पुलिस लाईन के पास राकेश नाम का एक युवक ठेले पर अंडा बेचता है। छपरा पुलिस के कुछ जवान उधार में अंडा देने की जिद करने लगे। धनतेरस का वास्ता देकर उसने मना कर दिया। नाराज पुलिस कर्मियों का कहर गरीब राकेश पर टूटा और उन्होंने ठेला उलटकर सारे अंडे फोड़ डाले और जमकर पीटा। नाराज होकर स्थानीय निवासियों ने छपरा-सोनपुर मार्ग एन. एच १९ को जाम कर दिया। बाद में इंसपेक्टर के आश्वासन के बाद जाम हटा लिया गया। अब देखना है कि इस मामले में कोई कार्रवाई होती है कि नहीं या मामला फाइलों में उलझकर रह जाएगा।
दो उदाहरण बिहार की वस्तु स्थिति की बानगी भर हैं। पहले जहाँ खादीवाले अंडे और लीची मुफ्त में उठाकर चल देते थे अब वही काम खाकी वाले कर रहे हैं। नीतिश जनता दरबार लगा रहे हैं लेकिन इन जनता दरबारों (डी एम द्वारा लगायेजानेवाले दरबारों सहित) से जनता को कोई खास लाभ इसलिए मिलता नहीं दीखता क्योंकि अधिकारियों की मानसिकता वही पुरानीवाली बनी हुई है। सरकारी तंत्र सी एम और डी एम के आदेशों को भी फाईलों में उलझाकर रख दे रहा है और जनता मूकदर्शक बनी हुई है। लेकिन चुनाव बहुत नजदीक है और राज्य सरकार को बेलगाम अधिकारियों पर जल्दी ही नियंत्रण पाना होगा अन्यथा जनता तो अपना जनादेश सुना ही देगी।

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009

बिहार सरकार : प्राइवेट कंपनी लिमिटेड

अगर आप मुझसे पूछें कि वर्तमान बिहार की सबसे बड़ी निजी कंपनी कौन-सी है तो मैं बेखटके कहूँगा बिहार सरकार और इस कंपनी के सीएमडी हैं नीतिश कुमार जी। जबसे इनकी सरकार बनी है कुछ अपवादों को छोड़कर जितनी भी बहालियाँ हुई हैं सब-की-सब संविदा यानि कांट्रेक्ट के आधार पर हुई हैं। अब सरकार क्या सोंचकर ऐसा कर रही है इसका सिर्फ़ अनुमान ही लगाया जा सकता है। शायद बँटवारे के बाद बिहार के पास इतने संसाधन ही नहीं हैं कि सरकार पुरानी सेवाशर्तों पर बहाली कर सके। या फ़िर सरकार समझती है कि इस भुक्खड़ राज्य में कामचलाऊ वेतन और शोषण परक शर्तों पर काम करने के लिए भी बहुत से लोग तैयार हो जायेंगे। अगर इसमें तनिक भी सच्चाई है तो फ़िर पूंजीपति व्यवसायियों और राज्य सरकार में कम से कम इस मामले में तो कोई अन्तर नहीं है। पहले सरकारी नौकरी में सामाजिक सुरक्षा प्राप्त होती थी। बुढापा आराम से कटने की गारंटी होती थी। अब न तो नौकरी स्थाई है न ही पेंशन मिलेगी। उस पर वेतन भी मामूली। न विश्वास हो तो सुनिए पंचायत शिक्षक या शिक्षामित्रों को मात्र चार-पॉँच हजार रुपए मासिक दी जाती है, वो भी कई-कई महीनों के बाद।
इस युग में जब खुदरा मूल्यों पर आधारित मुद्रास्फीति की दर नित-नयी उचाइयां छू रही है इतने पैसे में कैसे कोई परिवार सहित गुजारा कर सकता है। क्या नीतिश सरकार का कोई मंत्री इतने में गुजारा कर सकता है, गाड़ी, फ़ोन कुछ भी अगर फ्री न हो? बाहर से आए व्यवसायी चाहे वे मीडिया से ही जुड़े क्यों न हो अगर शोषण करते और कर भी रहे हैं तो हम राज्य सरकार के पास फरियाद लेकर जाते। अब जब राज्य सरकार ही ऐसा कर रही है तो हम तो यही कह सकते हैं-जायें तो जायें कहाँ समझेगा कौन यहाँ दर्द भरे दिल की दास्ताँ।

सोमवार, 12 अक्टूबर 2009

गाँधी अगर आज कहीं से आ जायें

गाँधी जयंती के दिन से ही मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है कि अगर आज महात्मा गाँधी कहीं से आ जाते तो उनकी क्या स्थिति होती और वे क्या करते? यह तो निश्चित है कि वे आज के भारत को देखकर खुश नहीं होते। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने तो क्षमा करना बापू तुम हमको वचन भंग के हम अपराधी कविता के द्वारा देश के हालत के लिए बापू से पहले ही माफ़ी भी मांग ली है। तो क्या बापू ने आत्महत्या कर ली होती? कदापि नहीं तब फ़िर उनके सामने क्या विकल्प थे? जहाँ तक मेरी कल्पना शक्ति की पहुँच है मुझे लगता है कि गाँधी ने आन्दोलन छेड़ दिया होता। उनकी मुख्य मांगें कुछ इस तरह होती-
इस संविधान में संशोधन कर इसमे जो भी खामियां दिखाई दे रही हैं उन्हें दूर किया जाए। जैसे वक़्त बीतने के साथ स्थापित हुए अभिसमयों को संहिताबद्ध किया जाए, विधान मंडलों के विशेषाधिकारों का संहिताकरण किया जाए, निदेशक तत्वों को क्रियान्वित किया जाए, राज्यों पर केन्द्र के बढ़ते नियंत्रण की प्रवृत्ति को रोका जाए, राज्यों को पर्याप्त वित्तीय अधिकार दिया जाए, न्यायपालिका को जवाबदेह बनाया जाए, अनुच्छेद ३७० को समाप्त किया जाए।
न्यापालिका, विधायिका और कार्यपालिका से भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त किया जाए। जनता द्वारा दिए गए कर
को सही तरीके से, सही जगह पर खर्च होना सुनिश्चित किया जाए।
शराब के उत्पादन और विक्रय को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया जाए।
तम्बाकू की खेती और प्रयोग को रोक दिया जाए।
भंग, गांजा, अफीम आदि मादक पदार्थों की खेती और उपयोग पर रोक लगा दी जाए।
जिन नेताओं पर किसी भी तरह के भ्रष्टाचार अथवा संज्ञेय अपराध का आरोप साबित हो गया हो उसे चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया जाए।
गरीबों के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित की जाए।
नेताओं, मंत्रियों पर होनेवाले सरकारी व्यय को कम किया जाए और इतना कर दिया जाए कि उनकी जीवन-शैली आम-आदमी के स्तर तक आ जाए।
मिश्रित खेती को बढावा दिया जाए जिसमें कृषि और पशुपालन साथ-साथ किए जायें।
१० श्रम-प्रधान कार्यों में बुद्धि-प्रधान कार्यों के सामान ही मजदूरी दी जाए जिससे श्रम की महत्ता स्थापित हो।
११ अपारंपरिक ऊर्जा पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाए जिससे ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों से मुक्ति मिल सके।
१२ सभी अधिकारियों, नेताओं और न्यायाधीशों के लिए साल में एक बार निर्धारित महीने में संपत्ति की घोषणा करना अनिवार्य बना दिया जाए।
१३ पारंपरिक चिकित्सा विधियों को प्राथमिकता दी जाए।
१४ अयोध्या, काशी और मथुरा में सर्वधर्म मन्दिर बनाया जाए।
१५ सेजों (स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन) को समाप्त कर उद्योगपतियों को दी जा रही छूट समाप्त की जाए।
१६ कुटीर उद्योगों और श्रमप्रधान पारंपरिक उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाए।
सरकार यदि इन मांगों को नहीं मानती तो गाँधी जनता से अनुरोध करते कि वह सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाये और सरकार को टैक्स देना बंद कर दे। लेकिन वर्तमान माहौल को देखते हुए ऐसा लगता है कि गाँधी के साथ सरकार बड़ी बेरहमी से पेश आती और शायद उनकी हत्या करवा दी जाती। जो विदेशी होने पर भी अंग्रेजों ने नहीं किया हमारे वर्तमान नेता उसे करने में तनिक भी नहीं झिझकते और हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते।
आज अगर गाँधी जीवित होते हो विजय माल्या राज्यसभा में नहीं बल्कि जेल में होता अथवा किसी और व्यवसाय में लगा होता। अम्बानी, टाटा आदि के पास धन का इस तरह संकेन्द्रण नहीं होता।
किसानों को आत्महत्या नहीं करनी पड़ती और वर्तमान केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई सदस्य मंत्रिमंडल में नहीं होते।

रविवार, 11 अक्टूबर 2009

टीस देती महंगाई

यह महंगाई जब मेरी जेब ढीली कर देती है,
कर देती है विवश मुझे खर्च में कटौती के लिए;
टूट जाते हैं सपने मेरे भी,
बिखर-बिखर जाता हूँ मैं छोटे बच्चे की तरह;
लेकिन यह दुष्टा तब और भी ज्यादा
दुःख देती है जब मैं देखता हूँ ;
कि मेरी थाली में घटने लगी है
दाल-सब्जी की मात्रा,
कहते हैं कि वक़्त सबकुछ सिखा देता है,
तो क्या वक्त के पास किफायत से जीना
सिखाने का और कोई तरीका नहीं है,
और फ़िर वक्त हम आमजनों को ही
क्यों सिखाने पर तुला हुआ है;
क्या वह भी डरता है हमारी तरह
सियासतदानों से;
जो हमें सिर्फ़ ठगने के लिए लेते हैं
आम आदमी का नाम,
और रहते हैं इस महंगाई में भी
लाख रुपए वाले कमरों में;
जो जमीन के बदले आकाशमार्ग से
विचरण करते रहते हैं,
और कहते हैं कि हमारी तरह वे
भी आम आदमी हैं;
क्योकि वे इकोनोमी क्लास
में उड़ते हैं,
मैं पूछना चाहता हूँ इन सियासतदानों से
कि कितने आम भारतीयों के पास लाख रुपए भी हैं
और कितनों ने छूकर भी देखा है कभी वायुयान को।

संभावनाओं को पुरस्कार : एक नया प्रचलन

अमेरिका के राष्ट्रपति को पुरस्कार देकर नोबेल पुरस्कार समिति ने एक नया प्रचलन शुरू किया है और वह है आनेवाले भविष्य में संभावित कार्यों के लिए पुरस्कार देने का प्रचलन। २० जनवरी को ओबामा ने शपथ ग्रहण किया और १ फरवरी पुरस्कार के लिए नामांकन का आखिरी दिन था। इन कुल जमा १२ दिनों में ओबामा ने सिवाय वायदे करने के और कुछ नहीं किया। फ़िर उन्हें उनकी कौन सी उपलब्धि देखकर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया ये तो चयन समिति के सदस्य ही जाने। अब तक तो दुनिया का यह कथित रूप से सबसे बड़ा पुरस्कार किए गए कार्यों के लिए दिया जाता था अब किए जानेवाले कार्यों की संभावनाओं के आधार पर भी दिया जाने लगा है। ओबामा को राष्ट्रपति बने अभी भी नौ महीने ही हुए हैं. पूरी दुनिया हैरान है कि इस दौरान उन्होंने ऐसा क्या कर दिया है कि वे इस पुरस्कार के लायक मान लिए गए? ओबामा को ख़ुद भी हैरानी हुयी है जो जायज भी है। कितनी बड़ी बिडम्बना है कि ओबामा जिस गाँधी को अपना प्रेरणा पुरूष मानते हैं वह गाँधी तो इस पुरस्कार के योग्य नहीं था और ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के १२ वें दिन ही बिना कुछ किए ही पुरस्कार के योग्य हो गए। गाँधी किसी पुरस्कार के मोहताज हों ऐसी बात भी नहीं है। गाँधी ने दुनिया को शान्ति और अहिंसा का जो अमूल्य संदेश दिया वह दुनिया को प्रेरित करता रहे यही उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है।

शनिवार, 10 अक्टूबर 2009

सौर ऊर्जा पर खर्च बढाये सरकार

विशेषज्ञों द्वारा देश में सौर ऊर्जा क्षेत्र में अपार संभावनाओं की बातें बार-बार करने के बावजूद न जाने क्यों भारत सरकार आँखें मूंदें बैठी है? जब फारूख अब्दुल्ला को अपारंपरिक ऊर्जा मंत्रालय का कार्यभार सौंपा गया था तब यह उम्मीद जगी थी कि देर से ही सही अब सरकार सौर ऊर्जा पर ज्यादा ध्यान देगी। लेकिन समय बीतने के साथ यह उम्मीद भी दम तोड़ने लगी है। जहाँ तक संभावनाओं का प्रश्न है तो आज ही आया वर्ल्ड इंस्टिट्यूट ऑफ़ सस्तेनाबल एनर्जी यानि वाईज के मुखिया जी एम पिल्लई का बयान काबिलेगौर है। उनका कहना है कि राजस्थान में बेकार पड़ी जमीन के १५ प्रतिशत हिस्से का ही अगर सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए उपयोग कर लिया जाए तो सवा चार लाख मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है। इतना ही नहीं राजस्थान में १६००० मेगावाट तक पवन ऊर्जा का भी उत्पादन किया जा सकता है। हमारे पड़ोसी चीन ने इस दिशा में कदम बढ़ा भी दिया है और २०२० तक ३० गीगा वाट पवन विद्युत और १.८ गीगा वाट सौर विद्युत उत्पादन की योजना बनाई है। (१ गीगा वाट =१ अरब वाट) हम सभी जानते हैं कि चीन और भारत दो सबसे तेज गति से विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाएं हैं और जाहिर सी बात है कि विकास की गति बनाये रखने में बिजली की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। फ़िर भी भारत सरकार न जाने किस बात का इंतजार कर रही है? जबकि देश में पहले से ही १२ प्रतिशत बिजली की कमी है। कोई भी ऐसे देश में क्यों निवेश करेगा जहाँ २४ घन्टे में सिर्फ़ १४-१५ घन्टे बिजली रहती हो? दूसरे शब्दों में अगर हम कहें हो विकास-दर की यह दौर बिजली उत्पादन बढ़ाने की दौर भी है सरकार को यह भी ध्यान में रखना चाहिए।

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

फिलिपिन्स से सीख लें भारतीय नेता

यह आपको अटपटा भी लग सकता है कि मैं विश्वगुरु रह चुके भारत को एक छोटे से देश से सीख लेने की सलाह दे रहा हूँ। बात ही कुछ ऐसी है। कुछ ही दिनों के अन्तराल में भारत और फिलिपिन्स दोनों ही देशों में बाढ़ आयी है. अभी भी स्थितियां संतोषजनक नहीं हैं। दोनों देशों के नेताओं ने इस बाढ़ के दौरान क्या किया? फिलिपिन्स की राष्ट्रपति ग्लोरिया मकापगल ने जहाँ पीडितों के लिए अपने भव्य महल के द्वार खोल दिए। हजारों लोगों ने राष्ट्रपति भवन में शरण ली। वहीं हमारे देश के नेता जमीन पर आकर सीधे तौर पर पीडितों की पीडा में सहभागी बनने के बजाये बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के हवाई सर्वेक्षण में लगे रहे। वास्तव में इससे जाहिर होता है कि हमारे नेता पूरी तरह हवा-हवाई बनकर रह गए हैं। न तो उन्हें जनता की वास्तविक स्थिति का ज्ञान है और न ही वे जानना चाहते हैं। जब जनता यूँ हीं हवा में उड़ते रहने पड़ ही वोट दे देती है तो फ़िर क्यूं बेवजह परेशान हुआ जाए। इस तरह हम भी इन हवाई नेताओं को समर्थन देने के दोषी हैं। हम जब अपनी सोंच बदलेंगे तब हमारे ये नेतागण भी आसमान से उतरकर जमीन पर आने को बाध्य हो जायेंगे।

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009

जातिवाद और बिहार

जाति न पूछो साधू की कहावत के बदले बिहार में अब जाति ही पूछो साधू की चरितार्थ हो रही है। अभी कुछ ही दिनों पहले जब खगडिया में नरसंहार की दुखद घटना हुई तो इसमें जातीय हिंसा के भी संकेत पाए गए। इस अवसर पर मुझे वर्षों पहले जब मैंने पूर्णिया पोलिटेक्निक में एडमिशन के लिया था तब पेश आयी दुश्वारियां याद आ गईं।
१९९४ का साल था जब पूरा बिहार आरक्षण समर्थक और विरोधी गुटों में बटा हुआ था। मुझसे मेरे सीनियर छात्रों ने सीधे तौर पर पूछा कि मैं यानि ब्रजकिशोर सिंह किस जाति से आता हूँ। वे जानना चाहते थे कि मैं कोइरी हूँ या राजपूत। बाद में वहां इस तरह की स्थितियां पैदा कर दी गयी कि मुझे पढाई अधूरी छोड़नी पड़ी। मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में किसी को भी जातीय आधार पर प्रताडित नहीं किया। मेरे दोस्तों में कई हरिजन भी हैं।
यह काफी दुखद है की मीडिया क्षेत्र में भी ऐसे लोग मौजूद हैं जिनकी रुचि लोगों की योग्यता में नहीं बल्कि जाति में ज्यादा है। हमें अगर स्थितियों को बदलना है तो अपने आप को अपने सोंच को बदला होगा। आशा है ब्लॉग के पाठक इस दिशा में आत्मशोधन के लिए अवश्य प्रयास करेंगे।

भ्रष्टाचार का विकेंद्रीकरण

७३ वें संविधान संशोधन द्वारा जब पंचायती राज विधेयक पारित किया गया तब कहा गया कि इससे
सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा। परन्तु व्यवहार में ऐसा देखा जा रहा है कि चाहे सत्ता का विकेंद्रीकरण भले ही नहीं हुआ हो भ्रष्टाचार का विकेंद्रीकरण जरूर हो गया है। बिहार के आज ८ अक्टूबर २००९ के सारे अख़बार पंचायतो में हो रहे घपले-घोटालों की खबरों से भरे पड़े हैं। मैं स्वयं देख रहा हूँ कि ९० प्रतिशत तक दी गयी राशि पंचायती राज प्रतिनिधियों कि जेब में चली जा रही है। मैं पंचायती राज का विरोधी नहीं हूँ लेकिन दी गई राशि का सदुपयोग हो रहा है या दुरूपयोग इसकी निगरानी करेगा कौन? बिना समुचित निगरानी की व्यवस्था किए भारी मात्रा में धन थमा देना और तेज विकास की उम्मीद करना दिन में सपना देखना है। अभी भी देर नहीं हुई है संसद को इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए निगरानी की व्यवस्था करनी चाहिए।

मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009

अकेलापन : वरदान या अभिशाप

यह अकेलापन न जाने मेरे लिए वरदान है या अभिशाप;
आजकल मेरी हालत अजीबोगरीब है,
मैं, सबकुछ समझते हुए भी कुछ भी नहीं समझ पा रहा हूँ,
और सबकुछ करते हुए भी कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ;
सिमटता जा रहा है मेरा दायरा,
मैं ख़ुद को समेटना शुरू कर दिया है कछुए की तरह;
तो क्या मैं ब्लैक होल बनता जा रहा हूँ?
जिसके निकट आने पर नष्ट हो जाएगा सबकुछ;
या फ़िर किसी सुपरनोवा विस्फोट की तैयार हो रही है पूर्वपीठिका,
प्रलय और सृष्टि के दो चरम बिन्दुओं के बीच पेंडुलम की भांति
झूल रहा है मेरा जीवन;
न विजयी, न पराजित, हतप्रभ, आश्चर्यचकित होकर देखता
हुआ वर्तमान को,
जो बनता जा रहा है अतीत;
मेरी ईच्छा-अनिच्छा की परवा किए बिना।