गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

राम की तरह राम मंदिर भी बने आदर्श

मित्रों, 'राम’ भारतीय परंपरा में एक प्यारा नाम है. वह ब्रह्मवादियों का ब्रह्म है, निर्गुणवादी संतों का आत्माराम है, ईश्वरवादियों का ईश्वर है, अवतारवादियों का अवतार है. वह वैदिक साहित्य में एक रूप में आया है, तो बौद्ध जातक कथाओं में किसी दूसरे रूप में. एक ही ऋषि वाल्मीकि के ‘रामायण’ नाम के ग्रंथ में एक रूप में आया है, तो उन्हीं के लिखे ‘योगवसिष्ठ’ में दूसरे रूप में. ‘कम्बन रामायण’ में वह दक्षिण भारतीय जनमानस को भावविभोर कर देता है, तो तुलसीदास के रामचरितमानस तक आते-आते वह उत्तर भारत के घर-घर का बड़ा और आज्ञाकारी बेटा, आदर्श राजा और सौम्य पति बन जाता है. इस लंबे कालक्रम में रामायण और रामकथा जैसे 1000 से अधिक ग्रंथ लिखे जाते हैं. तिब्बती और खोतानी से लेकर सिंहली और फारसी तक में रामायण लिखी जाती है. 1800 ईसवी के आस-पास उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के मुल्ला मसीह फारसी भाषा के करीब 5000 छंदों में रामायण को छंदबद्ध करते हैं।
मित्रों, पिछले दिनों भारतीय संस्कृति की आत्मा उन्हीं राम के मंदिर को लेकर सोशल मीडिया पर सुझाव देनेवालों की भीड़ लगी रही. कोई कह रहा था कि वहां अस्पताल बनवा दो तो कोई कह रहा था स्कूल. लेकिन अभी भी बहुसंख्यक लोगों का मानना था कि वहां बने तो मंदिर ही बने. आखिर अयोध्या में रामलला का मंदिर नहीं बनेगा तो कहाँ बनेगा?
मित्रों, जैसा कि आप सभी जानते हैं कि अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण को लेकर पिछले कई दशकों से जमकर राजनीति हो रही है. पहले भाजपा कहती थी कि न तो दिल्ली में और न ही लखनऊ में हमारी सरकार है फिर हम क्या कर सकते हैं. आज दोनों की जगहों पर उसकी सरकार है फिर भी वो कह रही है कि हम कुछ भी नहीं कर सकते जो करेगा कोर्ट करेगा. बहाने पर बहाने. ऐसे में पता नहीं कि कब राम मंदिर बनेगा और कब रामलला को पक्का मकान मिलेगा. फिर भी मुझे पूरा यकीन है कि एक-न-एक दिन राम मंदिर बनेगा जरूर क्योंकि अब बहुत सारे मुसलमान भी खुलकर इसके पक्ष में आ रहे हैं.
मित्रों, राम मंदिर का निर्माण तो तय है पर यह जब भी बने मैं चाहता हूँ कि उसकी व्यवस्था कुछ उस तरह की हो जैसी अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और पटना के महावीर मंदिर की है. यानि उसकी आमदनी से उसके पुजारी गोल्डन बाबा बनकर गुलछर्रे न उडाएँ बल्कि उससे भूखों को भोजन और बीमारों को ईलाज मुहैय्या कराई जाए. गरीब बच्चों के लिए स्कूल खोले जाएँ. भिखारियों और बेसहारों के लिए धर्मशालाएं बनाई जाएँ. साथ ही इनसे जो भी लाभान्वित हों उनकी जाति-पाति और धर्म का ख्याल न रखा जाए. और यह सबकुछ निःशुल्क हो. मंदिर की तरफ से हो. मतलब कि इन सबका खर्च मंदिर प्रबंधन उठाए. मेरा मानना है कि यही राम की सच्ची भक्ति होगी क्योंकि हमारे राम गरीबों के राम हैं और रामचरितमानस के लेखक तुलसीदास का उनके प्रति सबसे प्रिय संबोधन गरीबनवाज है. गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं रघुबर तुमको मेरी लाज।
सदा सदा मैं सरन तिहारी तुमहि गरीबनवाज।। 
हम जानते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास का आधा जीवन भूख और प्यास से लडते हुए बीता। तुलसी कहते हैं                                               किसबी ,किसान -कुल ,बनिक,भिखारी, भाट ,
चाकर ,चपल नट, चोर,  चार,  चेटकी  
पेटको पढ़त,गुन गढ़त ,चढत गिरि ,
अटत गहन -गन अहन अखेटकी 
ऊंचे -नीचे करम ,धर्म -अधरम  करि
पेट ही को पचत ,बेचत बेटा- बेटकी 
'तुलसी ' बुझायी एक राम घनश्याम ही ते ,
आगि बड़वागिते बड़ी है आगि पेटकी
(अर्थात श्रमिक ,किसान ,व्यापारी ,भिखारी ,भाट ,सेवक,चंचल नट ,चोर, दूत और बाजीगर अर्थात हम सभी इस कलियुग में पेट के लिए ही सब कर्म कुकर्म कर रहे हैं -पढ़ते ,अनेक उपाय रचते ,पर्वतों पर चढ़ते और शिकार की खोज में दुर्गम वनों का विचरण करते फिरते हैं ..सब लोग पेट ही के लिए ऊंचे नीचे कर्म तथा धर्म -अधर्म कर रहे हैं ,यहाँ तक कि अपने बेटे-बेटी को बेच तक दे रहे हैं (दहेज़ ?) ----अरे यह पेट की आग तो समुद्रों की बडवाग्नि से भी बढ गयी है ;इसे तो केवल राम रूपी श्याम मेघ के आह्वान से ही बुझाया जा सकता है. )
मित्रों, आज भी हमारे देश में गरीबों की स्थिति कोई अच्छी नहीं है. आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब भारत में हैं. भूख, अभाव, कुपोषण, अशिक्षा, बेरोजगारी से देश की बहुसंख्यक जनता त्राहि-त्राहि कर रही है. इसलिए मैं चाहता हूँ कि क्या अच्छा रहे कि राम का मंदिर गरीबों की भूख मिटाए,उनके हर तरह के दुख दूर करे और भगवान राम के सबसे प्रिय भक्त तुलसीदास द्वारा दिए उनके नाम को सार्थक करे, राम की तरह राम का मंदिर भी मानवता के लिए आदर्श बने, प्रेरणास्रोत बने.

शनिवार, 22 दिसंबर 2018

बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर बुलंदशहर कांड

मित्रों, आपने भी विश्व इतिहास की किताबों में पढ़ा होगा कि दुनिया के विभिन्न देशों में विभिन्न विचारधाराओं के नाम पर क्या-क्या हुआ है. आप जानते होंगे कि १७८९ में फ़्रांस की क्रांति हुई थी. फ़्रांस में लोकतंत्र, स्वतंत्रता और समानता के नाम पर लाखों निर्दोष लोगों को सूली पर चढ़ा दिया गया. नरसंहार देखकर क्रांति समर्थक दार्शनिकों की आत्मा भी काँप उठी. १९१७ में रूस की क्रांति हुई और उसके बाद भी लेलिन और स्टालिन ने रूस में लाखों लोगों को क्रांतिविरोधी होने के आरोप में मौत के घाट उतार दिया. १९३३ में हिटलर जर्मनी का शासक बना तब महान और विश्वविजेता जर्मनी के नाम पर हजारों निर्दोष यहूदियों को तड़पा-तड़पा कर यातना शिविरों में मार दिया गया. फिर हुई चीन की क्रांति १९४९ में. माओ नामक सनकी ने इसके बाद  'ग्रेट लीप फॉरवर्ड' (Great Leap Forward) और 'सांस्कृतिक क्रांति' के नाम कई करोड़ चीनी किसानों की जान ले ली. यहाँ तक कि चिड़ियों, मच्छरों, मक्खियों और चूहों को मारने का राष्ट्रीय अभियान चलाया गया. देश में एक तरफ तो अकाल पड़ा हुआ था तो दूसरी तरफ माओ की सरकार अनाज का निर्यात कर रही थी.
मित्रों, इसी तरह की एक महान क्रांति इन दिनों उत्तर प्रदेश में चल रही है, हिंदुत्व क्रांति. उत्तर प्रदेश में जब योगी आदित्यनाथ की सरकार आई तो हमें लगा कि यह आदमी उत्तर प्रदेश को बदलकर रख देगा और उत्तर प्रदेश को वास्तव में उत्तम प्रदेश बना देगा. लेकिन बीच-बीच में लगातार ऐसी घटनाएँ घटती रहीं जो योगी सरकार के कानून के शासन की शान में बट्टा लगाती रही. कभी दयाशंकर सिंह पेट्रोल पम्प वाले को पीटता हुआ दिखा तो कभी कोई भाजपा नेता आईएएस-आईपीएस अधिकारी को धमकी देता हुआ नजर आया. मगर हद तो तब हो गई जब बुलंदशहर में गोकशी के बाद हुए हंगामे के बाद एक पुलिस अधिकारी अभय कुमार सिंह की हत्या कर दी गई और पुलिस हत्या के १९ दिनों के बाद तक भी मुख्य आरोपी बजरंग दल नेता योगेश राज को पकड़ नहीं पाई है. 
मित्रों, पुलिस की हालांकि इस बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि उसने कथित रूप से गोकशी करनेवाले लोगों को काफी तत्परता से पकड़ा है तथापि यह समझ में नहीं आ रहा कि पुलिस इंस्पेक्टर की नृशंसतापूर्वक हत्या करनेवाले लोग अब तक पुलिस की गिरफ्त से बाहर क्यों है? आपको याद होगा कि अखिलेश यादव के राज में भी सपा के गुंडे थानों पर शासन करते थे. अब भाजपा के राज में भी वही हो रहा है बस पार्टी बदल गई है. या तो गुंडे बदल गए हैं या फिर उन्होंने पाला बदल लिया है फिर दोनों के शासन में क्या फर्क रह गया? क्या इसे ही राम राज्य कहा जाता है? दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, राम राज्य काहू नहीं व्यापा. सूधो मन,सूधो वचन,सूधी सब करतूति। तुलसी सूधी सकल विधि रघुवर प्रेम प्रसूति। कहाँ है रामभक्त वाला शुद्ध मन? क्या अशुद्ध मन लेकर राम की सच्ची भक्ति संभव भी है? क्या यही है असली हिंदुत्व और हिन्दुत्ववादी क्रांति? 
मित्रों, अगर इस तरह हिंदुत्व में नाम पर अराजकता पैदा करने को क्रांति कहते हैं तो हमें नहीं चाहिए ऐसी फर्जी और लोगों को मूर्ख बनानेवाली क्रांति. हमें तो मानसिक क्रांति चाहिए. केंद्र में आज भाजपा की सरकार है और खुद भाजपा के प्रवक्ता अश्विनी उपाध्याय जनसँख्या नियंत्रण कानून समेत देश को दिशा देनेवाली कई सारी मांगें करते-करते थक गए लेकिन केंद्र की सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी. हमने खुद सरकार को कई बार दिशा दिखाने की कोशिश की है. मगर केंद्र सरकार अभी भी कांग्रेस की विफलताएं गिनाने में लगी है जबकि चुनाव सर पर खड़ा है. वो यह नहीं जानती है कि यह भारत है पाकिस्तान नहीं कि धर्म के नाम पर बहुसंख्यक वर्ग को बेवकूफ बनाया जा सके. आज पाकिस्तान कहाँ खड़ा है? भैसों की नीलामी हो रही है वहां. पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के सामने आने के बाद भी अभी लगता नहीं कि भाजपा यह समझ पाई है कि उसे करना क्या है? फर्जी क्रांति और उसके नाम पर हिंसा करनी है या सही मायनों में भारत को विश्वगुरु बनाना है? अगर बुलंदशहर भाजपा के सपनों के बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर है तो हमें नहीं चाहिए ऐसा बुलंद भारत, नहीं चाहिए, नहीं चाहिए.

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

कन्फ्यूजन में हनुमान जी

मित्रों, हमारा देश भी बड़ा विचित्र है. यहाँ जो जितना सीधा दीखता है वो उतना ही टेढ़ा होता है. कितनी बड़ी विडंबना है कि जो व्यक्ति यह कहकर राजनीति में आया कि वो राजनीति को साफ़-सुथरी करने आया है वह खुद राजनीति की सबसे बड़ी गंदगी बन गया, जो पार्टी यह कहती थी कि वो जाति की राजनीति नहीं करती बल्कि हिंदुत्व की राजनीति करती है उसने इन्सान तो इन्सान भगवान तक को गन्दी और घृणित जातीय राजनीति के कीचड़ में घसीट लिया है.
मित्रों, पहले इस पार्टी ने अम्बेदकर जी को भगवान बना दिया, फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससीएसटी एक्ट में दिए गए फैसले को पलट दिया, फिर प्रोन्नति में आरक्षण लागू कर दिया और अब आखिर में भगवानों को भी जाति में बांटना शुरू कर दिया. अपने दिव्यज्ञान का परिचय देते हुए इस पार्टी के एक बहुत बड़े नेता योगी आदित्यनाथ जी ने गहन शोध के बाद पता लगाया कि रामभक्त हनुमान जी बन्दर नहीं थे बल्कि दलित थे.
मित्रों, इसके बाद से तो बेचारे हनुमान जी की जान पर बन आई है. कोई उनको जाट बता रहा है तो कोई आदिवासी, कोई यादव तो कोई ब्राह्मण. एक ने तो धर्म की दीवारों को गिराते हुए उनको मुसलमान भी बता दिया. बेचारे हनुमान जी इसके बाद से जबरदस्त कन्फ्यूजन और गुस्से में हैं. भोले-भाले हनुमान जी समझ नहीं पा रहे हैं कि पहले उनके प्रभु राम को और अब खुद उनको क्यों वोट की गन्दी राजनीति का शिकार क्यों बनाया जा रहा है? सबसे पहले हनुमान जी जा पहुंचे अपने आराध्य प्रभु राम के पास फरियाद लेकर कि प्रभु त्राहिमाम. परन्तु वहां से बेचारे को निराशा हाथ लगी. राम जी ने चिरपरिचित मुस्कान के साथ अपनी विवशता प्रकट करते हुए कहा कि वत्स जब मैं अपने आपको राजनीति से बचा नहीं पा रहा हूँ तो तुमको कैसे बचाऊँ?
मित्रों, फिर हताश-निराश हनुमान जी पहुंचे अपनी माँ अंजना के पास. माँ बेचारी क्या कहती क्योंकि उनके समय में तो जाति-प्रथा थी ही नहीं फिर जातीय राजनीति तो दूर की बात थी. तबसे हनुमान जी जो खुद ही संकटमोचक कहलाते हैं, बड़े संकट में हैं कि वे करें तो क्या करें.
मित्रों, मुझे याद आता है कि जब मैं १९९४-९५ में कटिहार जिले के फुलवडिया चौक पर अपने कामत पर रहता था तब एक पंडित जी कोढा बाज़ार में सड़क पर हनुमान जी की मूर्ति रखकर आने-जाने वाले हर वाहन से चंदा मांगते थे. क्या धूप, क्या वर्षा और क्या सर्दी. मैं उनकी अटूट भक्ति देखकर अचंभित था. एक दिन मैंने श्रद्धावश उनसे कहा कि पंडित जी आपकी भक्ति देखकर मैं अभिभूत हूँ. पंडित जी के उत्तर ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया. उन्होंने कहा कि वे तो सिर्फ इसलिए मंदिर बनाने में लगे हैं ताकि उनकी आनेवाली पीढ़ियों का भविष्य सेटल हो जाए. मैं समझ क्या रहा था और सच्चाई क्या निकली. तबसे मैं जब भी किसी चौक-चौराहे पर हनुमान जी की मूर्ति या मंदिर देखता हूँ मुझे वो पंडितजी याद आने लगते हैं.
मित्रों, कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म अफीम की तरह है. लगता है कि हमारे देश के नेता काफी पहले धर्म का राजनैतिक महत्व समझ गए थे. तभी तो देश का धर्म में नाम पर बंटवारा हुआ और अब धर्म के नाम पर चुनाव जीते जाते हैं. किसी ने सच ही कहा है कि पहले राजनीति में धर्म था और अब धर्म में भी राजनीति घुस गई है. पता नहीं अब धर्म का और भारत देश का क्या होगा? हम तो हनुमान जी से दोनों हाथ जोड़ कर यही विनती कर सकते हैं कि हे प्रभु, हे संकटमोचक, देवानामप्रिय हमारे प्यारे देश की रक्षा करिए. नहीं तो अभी तो आपकी जाति को लेकर राजनीति हो रही है भविष्य में न जाने भगवान शंकर, विष्णु, ब्रह्मा, कुबेर, गणेश, कार्तिकेय, इंद्र, अग्नि, पवन, विश्वकर्मा, चित्रगुप्त आदि की जाति को लेकर भी तरह-तरह के दावे किए जाएंगे जैसे इन सबका जन्म प्रणाम-पत्र उन्होंने अपने ही हाथों से बनाया था. 

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

सज्जन दोषी तो कमलनाथ निर्दोष कैसे

मित्रों, महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाटक अंधेर नगरी आपने भी पढ़ा होगा मैंने तो मंचन भी किया है. उस नाटक में अन्याय और अराजकता की पराकाष्ठा दिखाई गई है. भारतेंदु ने एक ऐसे राज्य की कल्पना करते हुए तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत पर टिपण्णी की है जिसमें एक ही दाम पर सब्जी और मिठाई बिकती है. अपराधी की तलाश में हुक्म जारी किया जाता है कि सबसे मोटे-तगड़े व्यक्ति को पकड़कर फांसी दे दी जाए. तभी गुरुदेव के सुझाव पर कि फंदा किसके गले में सही बैठता है जांच लिया जाए राजा अपने गले की माप लेता है और खुद ही फांसी पर चढ़ जाता है.
मित्रों, बुरा मानो या भला हमारे देश में आज भी अंधेर नगरी वाले हालात बने हुए हैं. आज भी जनता को बस टके सेर भाजी टके सेर खाजा चाहिए भले ही उसे बाद में फांसी पर चढ़ा दिया जाए. हम पर जो पार्टी भयंकर अत्याचार करती है हम सबकुछ भुलाकर मुफ्त की चीजों के लालच में आकर फिर से उसे ही चुन लेते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो १९८४ के सिखविरोधी दंगों से प्रभावित सिख कैसे फिर से पंजाब में कांग्रेस की सरकार बना देते? और वो भी बार-बार. इतना ही नहीं इस पार्टी ने एक ऐसे व्यक्ति को जिसने उस समय दिल्ली के रकाबगंज गुरूद्वारे में लोगों को भड़काकर सिखों को जिंदा जला दिया न सिर्फ उस पर एफआईआर नहीं होने दिया बल्कि पिछले दिनों मध्य प्रदेश का मुख्य मंत्री भी बना दिया.
मित्रों, कल जब दिल्ली हाई कोर्ट ने इन्हीं दंगों के एक और आरोपी कांग्रेस के दिग्गज नेता सज्जन कुमार के खिलाफ फैसला दिया तब परिजनों और उनके वकीलों के साथ-साथ जज साहब भी भावुक होकर रोने लगे. मैं बार-बार कहता रहा हूँ कि इस देश को पुलिस की आवश्यकता ही नहीं है उसे समाप्त कर देना चाहिए. जब १९८४ के दंगे हो रहे थे, लोगों को जिंदा जलाया जा रहा था तब कहाँ थी दिल्ली पुलिस. दंगों के बाद दंगाइयों के खिलाफ क्यों एफआईआर दर्ज नहीं किया गया और जिनके खिलाफ दर्ज हुआ भी उनमें से किसी को भी अब तक सजा क्यों नहीं मिली? अभी भी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी बांकी है. पता नहीं वो एक बार फिर से सज्जन को सज्जन घोषित कर दे. यह भारत है यहाँ कुछ भी संभव है. यहाँ जज लोया को मरणोपरांत न्याय नहीं मिलता तो जनता को कहाँ से मिलेगा?
मित्रों, आप समझते हैं कि सज्जन कुमार को सजा नहीं मिलने और कमलनाथ को मुख्यमंत्री बना दिए जाने के लिए सिर्फ कांग्रेस पार्टी, पुलिस और न्यायपालिका जिम्मेदार हैं? नहीं इसके लिए सबसे ज्यादा हमलोग जिम्मेदार हैं क्योंकि हम लोग मुफ्तखोर हो गए हैं नाटक अंधेर नगरी के चेले की तरह. हम कर्जमाफ़ी के लालच में आकर अपने कातिलों को ही अपना मसीहा चुन लेते हैं. बार-बार चुनते रहिए, कटते रहिए, रोते रहिए और फिर से लालच में आकर चुनते रहिए, फिर से ..... आपकी मर्जी देश सिर्फ मेरा या राहत इंदौरी का थोड़े ही है आपका भी है.

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

राफेल मामले में फेल हुए राहुल

मित्रों, यकीन मानिए और मेरे आलेख गवाह हैं कि मैंने कभी भी राहुल गाँधी के राफेल को लेकर मचाए जा रहे शोर पर रंच मात्र भी यकीन नहीं किया. बल्कि हमेशा कहा कि राहुल और उनकी पार्टी चीन और पाकिस्तान के रिमोट से संचालित होकर इसलिए इस मामले में शोर मचा रहे हैं जिससे मोदी सरकार भारतीय सेना के सशक्तीकरण के महती कार्य को रोक दे. आज हमारे लिए प्रचंड ख़ुशी का अवसर है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी मोदी सरकार को यह कहते हुए कि राफेल डील में कोई गड़बड़ी नहीं हुई है हमारी आशंकाओं को सही साबित कर दिया है. अब तो हम इतना ही कह सकते हैं कि काश यह फैसला एक महीने पहले आ गया होता तो भारत के तीन बहुमूल्य राज्य चोरों के कब्जे में जाने से बच जाते. फिर भी हमें इस बात का संतोष है कि देर आयद मगर दुरुस्त आयद.
मित्रों, इन दिनों देश संक्रमण काल से गुजर रहा है. एक तरफ देश के सारे घोटालेबाज जमा हैं और दूसरी तरफ है राष्ट्रवादी सरकार जिसकी नीतियाँ गलत हो सकती हैं लेकिन नीयत नहीं. हालाँकि नीतियों को भी गलत नहीं होना चाहिए क्योंकि इनसे देश को गंभीर नुकसान हो सकता है और हो भी रहा है लेकिन कोई अगर इस पर ऐसे आरोप लगाए कि चौकीदार चोर है और वो भी आधारहीन हवा-हवाई घोटाले को लेकर जो हुआ ही नहीं तो सिवाय इसके और क्या कहा जा सकता है कि चोर मचाए शोर.
मित्रों, हमारे एक बहुत-बहुत दूर के गरीब चाचाजी के साथ एक बार ट्रेन में अजीबोगरीब घटना घटी. हुआ यूं कि एक पॉकेटमार ने जैसे ही उनकी जेब से बटुआ निकाला उन्होंने उसका हाथ पकड़ लिया. लेकिन पॉकेटमार भी कम सयाना न था. उसने उल्टे पॉकेटमार-पॉकेटमार चिल्लाते हुए चाचाजी को ही फंसाना चाहा. गजब तो यह कि यात्री भी उसके झांसे में आ गए और चाचाजी को ही पीटने पर उतारू हो गए. वो तो भला हो उस बटुए का जिसमें चाचाजी की मय परिवारसहित तस्वीर थी वर्ना बेचारे का तो तभी राम नाम सत्त हो जाता. खैर किसी तरह राम जी की कृपा से चाचाजी की जान बच गयी और फिर पॉकेटमार की बिना साबुन-पानी के जमकर धुलाई हुई.
मित्रों, मेरी इस कहानी का कतई सीधा-सीधा सम्बन्ध राहुल गाँधी और मोदी सरकार से है. मेरी कहानी में तो एक ही पॉकेटमार थे यहाँ तो महागठबंधन में उनकी पूरी फ़ौज ही है. तो क्या हम अपने जान से प्यारे देश को फिर से ५-१०-१५-२० सालों के लिए पॉकेटमारों के हवाले कर देंगे जिन्होंने अभी ५ साल पहले तक घोटालों की पूरी अल्फ़ाबेट ही तैयार कर दी थी? अभी तो चोर-पॉकेटमार और भी बहुत शोर मचानेवाले हैं क्योंकि उनको पता है कि हम कहानीवाले ट्रेन के यात्रियों की तरह बहुत भोले-भाले हैं.
मित्रों, मैं यह नहीं कहता कि मोदी सरकार में कोई कमी नहीं है लेकिन उन कमियों को दूर भी तो किया जा सकता है. पता नहीं क्यों मुझे अभी भी पूरा यकीन है कि मोदी सरकार अपने बचे-खुचे समय का पूर्ण सदुपयोग करेगी और हमारी निराशा को दूर करने के अथक और विराट प्रयास करेगी न कि सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस को गरियाने का काम करेगी. अगर अपने और ऊपरवाले पर अटल विश्वास हो तो इस सरकार के पास जितना भी समय शेष है उसी में यह वे सारे काम कर सकती है जो वो आज तक नहीं कर सकी या इस सरकार ने जानबूझकर अज्ञात कारणों से नहीं किए मगर जिनका होना देशहित के लिए अत्यंत आवश्यक है. फिर से गिनाना अगर जरूरी है तो यूं ही सही-अनुच्छेद ३७० समाप्त करना, समान नागरिक संहिता लागू करना, जनसँख्या नियंत्रण कानून बनाना, एससी-एसटी कानून को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार पूर्ववत करना, प्रोन्नति में आरक्षण को समाप्त करना और मायावती जी के सुझावों पर अमल करते हुए आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करना इत्यादि. माफ़ करिएगा लिस्ट अधूरी छोड़ रहा हूँ आपके भरोसे कि आपलोग इसे फुरसत में पूरा कर देंगे. फिलहाल तो लगाईए नारा चौकीदार चोर नहीं है चोर ही चोर हैं. चौकीदार चोर नहीं ........
मित्रों, अंत में मैं अपनी आदत से मजबूर होकर मोदी जी को मुफ्त में एक सलाह देना चाहूँगा कि कोई बात जब समझ में न आए तो किसी ज्ञानी मानव से जो उन मामलों का विशेषज्ञ हो सलाह ले लें क्योंकि देश कोई मरे हुए इन्सान या जानवर की लाश नहीं है जिस पर कोई चीर-फाड़ कर तजुर्बा करे. देश की जान जा सकती है, देश नीम बेहोशी में जा सकता है यार.

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

अप्रत्याशित नहीं हैं चुनाव परिणाम

मित्रों, ५ राज्यों के चुनाव परिणाम सामने आ चुके हैं. पांच में से तीन में पहले भाजपा सरकार थी. अब जो आसार नजर आ रहे हैं उनसे ऐसा लगता है कि भाजपा पांच में से किसी भी राज्य में सत्ता में आने नहीं जा रही अलबत्ता वे तीन राज्य जहाँ कि उसकी सत्ता थी वहां भी जनता ने उसे पैदल कर दिया है. तथापि इन चुनाव परिणामों में कई ऐसे गहन संकेत छिपे हुए हैं जो २०१९ में नरेन्द्र मोदी सरकार की वापसी की संभावनाओं को धूमिल कर रहे हैं. संक्षेप में अगर हम कहें कि यह भाजपा की कम मोदी की हार ज्यादा है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.
मित्रों, मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैंने अनुभव किया है कि लोग नरेन्द्र मोदी सरकार के प्रदर्शन से काफी नाराज़ हैं और वे किसी भी कीमत पर उसे हराना चाहते हैं. अभी दो दिन पहले मैंने एक समाचार पढ़ा कि एक किसान ने मध्य प्रदेश में १५०० किलो ग्राम प्याज बेचा और मंडी तक बोरियां लाने का खर्च काटकर उसके पास मात्र १० रूपये बचे. आप इस खबर से सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि देश में किसानों और खेती की स्थिति क्या है और किसानों की आय दोगुनी करने के मोदी के दावे कहाँ तक सच हैं. जिस किसान की कई महीने की सारी मेहनत मिट्टी में मिल गई उससे भाजपा कैसे वोट की उम्मीद कर रही थी ये तो वही जाने.
मित्रों, मोदी सरकार कहती है कि पिछले ५ सालों में देश में गरीबी तेजी से घटी है और हर मिनट ४४ लोग गरीबी रेखा से ऊपर आ रहे हैं. जहाँ तक मैं समझता हूँ ये सारे आंकड़े फर्जी और झूठे हैं. सच्चाई तो यह है कि जिन संपन्न लोगों के नाम पिछली सरकार के समय गलती से बीपीएल की सूची में दर्ज हो गए थे इस सरकार ने उनके नाम हटा दिए हैं इसलिए गरीबी अचानक बहुत कम होती दिखाई दे रही है. सच्चाई तो यह भी है कि नोटबंदी के बाद से ही गरीबों का जीवनयापन पहले से भी कहीं ज्यादा कठिन हो गया है. सच्चाई तो यह भी है कि ऐसी आंकड़ेबाजी से विश्वबैंक खुश हो सकता है भारत का गरीब और बेरोजगार नहीं जो कमरतोड़ महंगाई और बढती बेरोजगारी से परेशान है.
मित्रों, मैं कई बार मोदी जी से करबद्ध विनम्र प्रार्थना कर चुका हूँ कि वित्त मंत्री बदलिए लेकिन उनके लिए न जाने क्यों नेशन फर्स्ट के स्थान पर जेटली फर्स्ट हो गया है. वित्त मंत्रालय ऐसा मंत्रालय है कि अगर उसका सही तरीके के सञ्चालन न किया गया तो वो अकेले पूरे देश को तंगो तबाह कर सकता है क्योंकि जब सरकार की जेब में पैसा ही नहीं होगा तो वो विकास क्या खाक करेगी. नंगा नहाएगा क्या और निचोडेगा क्या. अभी तो रिजर्व बैंक के गवर्नर ने ही इस्तीफा दिया है अभी तो भाजपा सांसदों की भगदड़ मचनी बांकी है. देश मंदी की चपेट में जाएगा सो अलग फिर बदलते रहना आधार वर्ष और हेरा-फेरी करते रहना जीडीपी के आंकड़ों में. नाच न जाने आँगन टेढ़ा. जेटली को अर्थशास्त्र की एबीसीडी भी आती है?
मित्रों, मैं २०१४ से ही मोदी जी को चेताता आ रहा हूँ कि मंत्रिमंडल में ईमानदार और योग्य लोगों को रखो न कि चापलूसों को लेकिन वे सुन ही नहीं रहे. जो अनुभवी लोग थे उनको पहले ही उन्होंने जबरदस्ती मार्गदर्शक मंडल में डाल कर रिटायर कर दिया. हद तो यह है कि वे इस मार्गदर्शक मंडल से मार्गदर्शन भी नहीं ले रहे सिर्फ अपने मन की कर रहे जैसे कि हर महीने के अंतिम रविवार को अपने मन की बात करते हैं और जनता के मन की बात से उनका कोई सरोकार ही नहीं रह गया है. मैं पूछता हूँ कि जब एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट ने आवश्यक बदलाव किए तो क्या आवश्यकता थी उससे छेड़-छाड़ करने की? अब भुगतो-न तो एससी-एसटी का वोट मिला और न ही सवर्णों का जो भाजपा के परंपरागत समर्थक माने जाते रहे हैं.
मित्रों, मैं पूछना चाहता हूँ कि पिछले ५ सालोँ में मोदी जी ने एक बार भी प्रेस कांफ्रेंस क्यों नहीं किया? क्या वे मीडिया को वाहियात मानते हैं? क्यों डरते हैं वे मीडिया से जबकि उनका सीना तो ५६ ईंच का है?
मित्रों, मैं पहले ही कह चुका हूँ कि यह मोदी जी की व्यक्तिगत हार है लेकिन चुनाव परिणाम यह भी बताते हैं कि जनता अभी भी कांग्रेस को लेकर असमंजस में है. वो इसलिए क्योंकि उसने कांग्रेस को जिताया जरूर है लेकिन प्रचंड बहुमत नहीं दिया है बल्कि साधारण बहुमत दिया है. दूसरी तरफ भाजपा को हराया जरूर है लेकिन उसका सूपड़ा साफ़ भी नहीं किया है. इसलिए मैं समझता हूँ कि अभी संभावनाएं समाप्त नहीं हुई हैं बशर्ते मोदी अबसे से भी हिम्मत दिखाएँ. वैसे भी मैं नहीं समझता कि उनके सामने और कोई चारा भी है क्योंकि अगर वे अपने काम काज में सुधार नहीं करते तो २०१९ में हार तो अवश्यम्भावी है ही.

रविवार, 2 दिसंबर 2018

मनमोहन सिंह का सर्जिकल स्ट्राइक

मित्रों, हमारे गाँव में एक बच्चा था. पढने-लिखने में भोंदू मगर बात बनाने में होशियार. जाहिर है कि घर के लोग उससे परेशान रहते थे. एक दिन पढाई के लिए बहुत दबाव पड़ने पर उसने कहा कि जब घर के सारे लोग सो जाएंगे तब वो पढ़ेगा. कल होकर उसके पिता ने पूछा कि रात तूने पढ़ा क्यों नहीं. उसने कहा आपको पता कैसे चला. पिता ने कहा कि मैं रजाई में जगा हुआ था. बेटे ने तुरंत कहा कि मैंने तो कहा था कि जब सब सो जाएँगे तब मैं पढूंगा.
मित्रों, मेरी इस हास्यास्पद कहानी का सीधा-सीधा सम्बन्ध राहुल गाँधी के उस बयान से है जिसमें उन्होंने कहा है कि मनमोहन सिंह ने भी पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक किया था लेकिन किसी को इसके बारे में पता नहीं है. पता नहीं कि मनमोहन को भी इस बारे में पता है या नहीं है. शायद सेना को भी पता नहीं होगा कि उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक किया है क्योंकि राहुल गाँधी फरमा रहे हैं कि इसके बारे में किसी को पता ही नहीं है.
मित्रों, जब मनमोहन सिंह १९९१ में वित्त मंत्री बने थे तब भी उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक किया था. फिर प्रधानमंत्री बने तब भी किया. वो इस तरह कि सेना का आधुनिकीकरण रोक दिया. सीमावर्ती इलाकों में सड़कों,रेल लाइनों और हवाई अड्डों का निर्माण रोक दिया. यहाँ तक कि जम्मू और कश्मीर में सीआरपीएफ के जवानों को डंडे लेकर ड्यूटी करने के लिए मजबूर किया गया ताकि उनकी हत्या करने में कांग्रेस के हितैषी आतंकवादियों को किसी तरह की परेशानी न हो. सेना को न तो बुलेट प्रूफ जैकेट दिए और न ही नाईट विजन यन्त्र.
मित्रों, मुबई का आतंकी हमला तो आपको भी याद होगा जब कांग्रेस पार्टी ने आरएसएस पर यह हमला करवाने के आरोप लगाए थे. वो तो भला हो तुकाराम का कि उसने जान देकर भी कसाब को पकड़ लिया वरना पता ही नहीं चलता कि इसके पीछे उसी पाकिस्तान का हाथ है जिसके हाथों में कांग्रेस का हाथ है. वैसे अगर राहुल गाँधी चाहें तो दिल्ली और मुंबई की २००५ और २००८ की आतंकी घटनाओं को कांग्रेस सरकार के सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में गिना सकते हैं. हम वादा करते हैं कि हम उनको कुछ नहीं कहेंगे. उन पर हँसेंगे भी नहीं.
मित्रों, मनमोहन सरकार के समय तो कांग्रेस नेताओं के ड्राइंग रूम तक कश्मीर के आतंकवादियों की सीधी पहुँच थी, इनके नेता आज भी बार-बार चुनाव जीतने में सहायता मांगने पाकिस्तान जाते हैं और लौटकर बड़े गर्व से कहते हैं कि उनको तो स्वयं राहुल गाँधी ने भेजा था, इनके नेता याकूब की फांसी रुकवाने के लिए रात के २ बजे सुप्रीम कोर्ट पहुँच जाते हैं और इन्होंने किया था सर्जिकल स्ट्राइक? झूठ की भी एक हद होती है. इनके झूठ पर तो शायद शर्म को भी शर्म आ रही होगी.
मित्रों, वैसे हमें यह देखकर ख़ुशी भी हो रही है कि राहुल गाँधी अब जमकर झूठ बोलने और नाटक करने लगे हैं जबकि हम उन्हें मंदबुद्धि समझते रहे. निश्चित रूप से यह उनके मानसिक विकास का परिचायक है. तो क्या अब हम उनकी तुलना अपने गाँव के उस बच्चे से कर सकते हैं जिसकी चर्चा हमने पहले पैराग्राफ में की है? जरूर जवाब दीजिएगा. आपके जवाब का इंतजार रहेगा.

बुधवार, 28 नवंबर 2018

कांग्रेस का मुस्लिम घोषणापत्र

मित्रों, अगर कोई मुझसे पूछे कि भारत का सबसे ज्यादा नुकसान किसने किया है तो मेरा बस एक ही जवाब होता है कि छद्म धर्मनिरपेक्षता की राजनीति ने. असल में लालू, मुलायम, माया, नवीन, नायडू, जया, करुणा, ज्योति, अजीत, सुरजीत, केजरीवाल, चौटाला और कांग्रेस पार्टी का जो एजेंडा रहा है, जो राजनीति रही है वो धर्मनिरपेक्ष रही ही नहीं है बल्कि हिंदुविरोध और मुस्लिम तुष्टिकरण की रही है. है न अद्भुत? बहुसंख्यक को अपमानित करो, हाशिए पर डाल दो और जो अल्पसंख्यक हैं उनको देश का मालिक-सर्वेसर्वा बना दो. फिर भी कहो कि लोकतंत्र तो बहुमत से चलता है.
मित्रों, आपको याद होगा कि भारत के पिछले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लाल किले से अपने पहले संबोधन में कहा था कि भारत के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है. क्यों होना चाहिए उनको पहला हक़? आज मोदी को कम बोलने की सलाह देनेवाले मनमोहन क्या बतलाएँगे कि उन्होंने ऐसा क्यों नहीं कहा था कि भारत के संसाधनों पर सबका बराबर हक़ है? जिस कॉम ने सैंकड़ों सालों तक एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार लेकर कश्मीर से लेकर तमिलनाडु और बलूचिस्तान से लेकर असम तक धर्म के नाम पर हिन्दुओं पर अनंत अत्याचार किए क्यों होना चाहिए देश के संसाधनों पर उनका पहला हक़, क्यों? 
मित्रों, मैं बताता हूँ क्यों? क्यों कांग्रेस पार्टी ऐसा चाहती है? क्योंकि कांग्रेस पार्टी को नेहरु के समय से ही हिन्दुओं और हिन्दू धर्म से नफरत है. अभी मुझे १९४६ का एक अख़बार पढने का मौका मिला जिसमें जवाहर लाल नेहरु धमकी दे रहे थे कि अगर भारत धर्मनिरपेक्ष घोषित नहीं हुआ और हिन्दू राष्ट्र घोषित हुआ तो वे प्रधानमंत्री के पद से त्यागपत्र दे देंगे. फिर देश का बंटवारा हुआ ही क्यों? क्या देश का बंटवारा धर्म के नाम पर नहीं हुआ था? और क्या नेहरु ने उस रक्तरंजित बंटवारे को रोकने के लिए कुछ किया था?
मित्रों, फिर भी मैं मानता हूँ कि भारत ने धर्मनिरपेक्षता की घोषणा करके ठीक किया लेकिन क्या नेहरु के समय से ही कांग्रेस और मुसलमान एक दूजे के लिए बने हुए नहीं हैं? जो मुसलमान १५ अगस्त १९४७ से पहले १६ अगस्त १९४६ को प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस के समय से ही कोलकाता से सियालकोट तक जिन्ना के आह्वान पर हिन्दुओं के खून की नदियाँ बहा रहे थे क्या वे इस तारीख के बाद अचानक हिन्दुओं से अगाध प्रेम करने लगे? कांग्रेस भी समझती थी और समझती है कि ऐसा नहीं है और न ही हो सकता है. देश का धर्म के आधार पर बंटवारा करनेवाले मुसलमान आजादी के बाद से अगर चुप हैं तो वो उनकी मजबूरी है और इससे ज्यादा और कुछ नहीं. जिस दिन उनकी आबादी ५० प्रतिशत से ज्यादा हुई उस दिन न तो हिन्दू रहेंगे और न ही हिंदुस्तान रहेगा. हाँ, कांग्रेस पार्टी जरूर रहेगी. इसलिए मैं भारत सरकार से अविलम्ब जनसँख्या नियंत्रण कानून लाने की मांग करता हूँ.
मित्रों, अभी राहुल गाँधी एक तरफ तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में भगवा पहनकर और अपना दत्तात्रेय गोत्र बतलाकर मंदिर में भगवान और हिन्दुओं की आँखों में धूल झोंकने का प्रयास कर रहे हैं तो वहीँ दूसरी ओर तेलंगाना में उनकी पार्टी का घोषणापत्र मुस्लिम घोषणापत्र बनकर रह जाता है जिसमें उनकी पार्टी सिर्फ मुस्लिमों के लिए सात घोषणाएं करती हैं, इन्द्रधनुषी-सतरंगी घोषणाएं. पार्टी ने अपने घोषणापत्र में मस्जिदों और चर्च को मुफ्त बिजली, इमाम और पादरियों को हर महीने तनख्वाह देने सहित कई लुभावने वादे किए हैं। घोषणापत्र के मसोदे के मुताबिक कांग्रेस ने सत्ता में आने पर उर्दू को राज्य की 'दूसरी आधिकारिक भाषा' बनाने और सरकारी आदेश इस भाषा में भी जारी किए जाने का वादा किया है। इसके साथ-साथ कांग्रेस ने मुस्लिम फाइनेंस कॉर्पोरेशन के तहत मुस्लिम युवाओं को सरकारी ठेके हासिल करने में मदद दिलानेल और आरक्षण देने की बात भी कही है। इसके साथ ही मुसलमानों को घर बनाने के लिए 5 लाख रुपए की वित्तीय सहायता और गरीब छात्रों को विदेश जाकर पढ़ाई करने के लिए 20 लाख रुपए का लोन देने की बात कही गई है। विशेष रेसिडेंशियल स्कूलों और सरकारी अस्पतालों में मुस्लिमों को तवज्जो के अलावा वक्फ बोर्ड को न्यायिक शक्ति दी जाएगी। इतना ही नहीं राज्य में मस्जिदों के सभी इमाम को हर महीने छह हजार रुपए का वेतन देने का वादा भी किया गया है.
मित्रों, मैं इस घोषणापत्र को देखकर आश्चर्यचकित हूँ कि यह भारत की एक पार्टी का घोषणापत्र है न कि पाकिस्तान की किसी राजनैतिक पार्टी का. इन घोषणाओं का विश्लेषण करिए फिर समझ में आ जाएगा कि कांग्रेस के दिलो-दिमाग में क्या है. बांकी विघटनकारी वादों के अलावे वक्फ बोर्ड को न्यायिक शक्ति देने तक का वादा उसने किया है. फिर तो भारत में अदालतें भी दो तरह की हो जाएंगी. कुछ इसी तरह की मांगें जो इस घोषणापत्र में हैं आजादी से पहले मुस्लिम लीग कर रही थी और इसी कांग्रेस पर हिन्दुओं की पार्टी होने के झूठे आरोप लगा रही थी क्योंकि कांग्रेस न तो तब हिन्दुओं की पार्टी थी और न ही अब है. बल्कि उसने तब भी हिन्दुओं का इस्तेमाल किया और आज भी कर रही है.
मित्रों, अगर आपने मोदी पर नोटा का सोंटा चलाने की सोंच रखी है तो अब तेलंगाना का कांग्रेस का घोषणापत्र पढ़कर आपकी ऑंखें खुल जानी चाहिए. मैं अपने बारे में तो पहले भी कह चुका हूँ कि अगर मुझे राहुल और मोदी के बीच चुनना पड़े तो हजार बार मोदी को ही चुनूँगा क्योंकि राहुल हिन्दुओं को सिर्फ धोखा दे सकता है उनसे प्रेम नहीं कर सकता क्योंकि हिन्दुओं से प्रेम तो उसके कथित पूर्वज कथित हिन्दू नेहरु के खून में ही नहीं था. 
मित्रों, इस आलेख का अंत मैं गजानन माधव मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता अँधेरे में की चंद पंक्तियों के साथ करना चाहूँगा हालाँकि इन पक्तियों का अपने आलेखों में प्रयोग मैं पहले भी कर चुका हूँ. तो गौर फरमाईए एक बार फिर और एक बार फिर कांग्रेस के खिलाफ वोट देकर इन चुनावों को कांग्रेस पार्टी की अंतिम यात्रा में बदल दीजिए, बना दीजिए इन चुनावों को और हरेक चुनाव को शोभायात्रा कांग्रेस नामक मृत-दल की.
कर्नल, बिग्रेडियर, जनरल, मॉर्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,
उनके चित्र समाचारपत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं
भई वाह!
उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण
मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमाजी उस्ताद
बनता है बलबन
हाय, हाय !!
यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय।
भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ उभर आया है,
छिपे हुए उद्देश्य
यहाँ निखर आये हैं,
यह शोभायात्रा है किसी मृत-दल की।
विचारों की फिरकी सिर में घूमती है

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

बिहार में नाली या नाली में बिहार

मित्रों, बिहार! नाम तो आपने भी सुना होगा. भारत का गौरव. भारतीय इतिहास का मुकुटमणि. लेकिन वर्तमान में भारत का सबसे बीमार राज्य. जहाँ हर चुनाव में विधायक बदल जाते हैं,गठबंधन बदल जाते हैं, निजाम बदल जाते हैं, सत्ता बदल जाती है मंत्रियों के नाम बदल जाते हैं बस नहीं बदलती तो बिहार की तस्वीर और तक़दीर.
मित्रों, मुझे याद आता है १९९५ का विधानसभा चुनाव. स्थान कोढ़ा,कटिहार. अटल जी मेरी आँखों के सामने भाषण दे रहे हैं. उम्मीदवार हैं मेरे घनिष्ठ अरविन्द कुमार महाराणा. अटल जी अपने खास अंदाज में बताते हैं कि बिहार की सड़कें उनको बहुत कष्ट देती हैं. यहाँ पता ही नहीं चलता कि सड़कों में गड्ढे हैं या गड्ढों में सड़कें. जनता तालियाँ बजाती है और यह अटल वाक्य तत्कालीन बिहार का प्रतीक बन जाता है.
मित्रों, फिर वक़्त बदलता है. सरकार बदलती है. तारीख बदल जाती है और कैलेंडर पर दर्ज होता है १७ नवम्बर,२०१८. पटना के पुनाई चक में १० साल का दीपक दिन के २ बजे अपने पिता के लिए दोपहर का खाना ले जा रहा है. तभी रास्ते में एक आवारा गाय भड़क जाती है और उसे मारने के लिए दौड़ती है. बचने के लिए वो भागता है और खुले हुए में मेनहोल में गिर जाता है. सड़क पर ठेला लगानेवाले गुड्डू को जब पता चलता है कि उसका इकलौता बेटा नाली में गिर गया है तो वो बेतहाशा दौड़ता हुआ आता है. एक बेहद गरीब परिवार के दीपक दीपक को बुझने के बचाने के लिए सरकारी प्रयास सरकारी लापरवाही और जानी-पहचानी देरी के साथ शुरू होता है. आज तीन दिन हो जाते हैं लेकिन दीपक का पता नहीं चलता. पता चलता है तो बस इस बात का कि पटना नरक निगम के पास नालियों का नक्शा ही नहीं है और पता इस बात का भी चलता है कि दशकों से इन नालियों की सफाई हुई ही नहीं है. यह भी पता चलता है कि बिहार में शराबबंदी नीतीश कुमार नाम के महाढोंगी नेता का ढोंग है क्योंकि नाली से क्विंटल में शराबबंदी के बाद की शराब की बोतलें बरामद होती हैं.
मित्रों, पटना में मेनहोल का खुला होना,गायों का आवारा विचरण करना और नालियों की सफाई नहीं होना कोई नई बात नहीं है. नई बात यह है कि पहले यह पता नहीं चलता था कि बिहार में सड़कों में गड्ढे हैं या गड्ढों में सड़कें अब बिहार में सरकार सतह से ढाई गज जमीन के नीचे पहुँच चुकी है और यह पता नहीं चल रहा कि बिहार में नाली है या नाली में बिहार.
मित्रों, सब कुछ अस्त-व्यस्त. सब कुछ अस्त हो चुका है. न कहीं सरकार और दूर-दूर तक न कहीं सरकार का नामो-निशान. अभी उसी पटना में जो सिपाही विद्रोह हुआ उसके बारे में आपने भी पढ़ा-सुना होगा. सिपाही विद्रोह पटना में पहले भी हो चुके हैं, १८५७ में. मगर यह १८५७ के पटना के दानापुर के सिपाही विद्रोह की तरह गौरवमयी नहीं था बल्कि बेशर्मों द्वारा शासित हो रहे बिहार को शर्मशार करनेवाला था. महिला सिपाहियों से छुट्टी के बदले ईज्जत मांगी गई थी, सर्वस्व मांगा गया था.
मित्रों, बिहार में सुशासन १९९० से ही बेघर है जब यहाँ लालू जी मुख्यमंत्री बने थे. २००५ से लालू जी के मुंहबोले छोटे भाई का राज है मगर असलियत यह है कि लालू-राबड़ी का शासन इनसे कहीं अच्छा था. आज के बिहार में हर जगह अराजकता,भ्रष्टाचार,अनाचार,अत्याचार है और है हर तरफ घनघोर निराशावादी अँधेरे का साम्राज्य. सृजन घोटाले और मुजफ्फरपुर कांड में तो खुद मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री भी शक के कटघरे में हैं. सवाल है कि नाली से कैसे बाहर आएगा बिहार, कैसे निकलेगा बाहर, कौन बाहर निकालेगा इसे और कैसे? क्या बिहार खुद नाली से बाहर निकलना चाहता भी है?

रविवार, 18 नवंबर 2018

पांच राज्यों के चुनाव और देशद्रोही कांग्रेस पार्टी

मित्रों, इन दिनों भारत के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं. चारों राज्यों में भाजपा और कांग्रेस में मुकाबला है. आरोप-प्रत्यारोपों का दौर जारी है. इन दिनों सौभाग्यवश भाजपाइयों की तरफ से बदजुबानी नहीं हो रही मगर कांग्रेस की ओर से उटपटांग बयानों की जैसे बाढ़ आई हुई है. कभी शशि थरूर तो कभी कमलनाथ और कभी नवजोत सिंह सिद्धू. कमलनाथ महिलाओं के खिलाफ बयान दे रहे तो सिद्धू को जैसे पता ही नहीं है कि गोधरा में ट्रेन को भाजपाइयों ने नहीं कांग्रेसियों ने जलाया था.
मित्रों, इस बीच एक और घटना ने देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है और वह है पंजाब में आतंकी घटना. विदित हो कि इन दिनों पंजाब में कांग्रेस पार्टी की सरकार है. फिर ऐसा क्यों है कि जो पंजाब पिछले १० सालों से शांत था कांग्रेस की सरकार आते ही वहां आतंकी घुसपैठ होने लगी? वैसे भी कांग्रेस का पाकिस्तान-प्रेम सर्वविदित है. तो क्या हम उम्मीद रखें कि जिन-जिन राज्यों में निकट भविष्य में कांग्रेस की सरकार बनेगी उन सभी राज्यों में पाकिस्तान-समर्थित आतंकवादी घटनाएँ देखने को मिलेंगी?
मित्रों, बांकी मोर्चों पर भले ही मोदी सरकार का रिकॉर्ड उतना अच्छा नहीं रहा हो मगर इसे आतंकवाद और माओवाद पर लगाम लगाने में सफलता जरूर मिली है. इन दिनों जिस तरह कश्मीर में आतंकवाद से लड़ा जा रहा है ऐसे अगर १९९० के दशक में लड़ा गया होता तो कदाचित वहां आतकवाद पैदा ही नहीं हुआ होता फलने-फूलने की तो बात ही दूर रही.
मित्रों, इन चुनावों में कांग्रेस ने जो घोषणापत्र जारी किए हैं उनसे उसकी वैचारिक दीनता ही प्रदर्शित हो रही है. यह फ्री में देंगे तो वह फ्री में देंगे. बस इससे आगे कुछ भी नहीं. क्या फ्री में सबकुछ दे देने और कर्ज माफ़ कर देने से किसानों की स्थिति सुधर जाएगी? अगर ऐसे सुधरनी होती तो बहुत पहले सुधर गयी होती और वे हवाई जहाज से चल रहे होते न कि आत्महत्या कर रहे होते.
मित्रों, इन दिनों राफेल डील को लेकर कांग्रेस काफी मुखर है जबकि सरकार द्वारा इस मामले में ज्यादातर सवालों का जवाब दिया जा चुका है और ऐसा लगता है कि कुल मिलाकर वैसी कोई गड़बड़ी इस मामले में हुई नहीं है जैसा कि आरोपों में साबित करने की कोशिश चल रही है. बल्कि प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस नहीं चाहती कि भारत की सेना मजबूत हो और चीन के आगे ताल ठोंककर खडी हो. इन दिनों मालदीव और श्रीलंका से भी हमारे लिए उत्साहजनक समाचार आ रहे हैं जिससे हिंदमहासागर में भारत को घेरने की राहुल गाँधी के प्रिय चीन की कुत्सित मंशा को आघात लगा है. मोदी की पाकिस्तान नीति भी शानदार रही है जिससे पाकिस्तान आज दुनिया में नीलामी पर चढ़े देश के रूप में जाना जाता है.
मित्रों, नोटबंदी और जीएसटी का जहाँ तक सवाल है तो इनके दुष्परिणाम भी रहे और सद्परिणाम भी. इनसे विकास दर घटी और बेरोजगारी बढ़ी तो वहीँ कर वसूली और कर दाताओं की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई. भ्रष्टाचार और कालेधन के मोर्चे पर भी यह सरकार अब तक सफल नहीं दिख रही. फिर भी देश का विश्वास अभी भी भाजपा में ही है क्योंकि देश का कुछ भला करेगी तो भाजपा ही करेगी कांग्रेस तो सिर्फ घोटाले कर सकती है और इसके साथ ही चीन-पाकिस्तान और कश्मीरी आतंकवादियों के साथ गलबहियां भी. एक मंदबुद्धि और पोप के पीडी से हम उम्मीद भी क्या कर सकते हैं?

शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

योगी बनें 2019 में प्रधानमंत्री

मित्रों, इन दिनों देश के हालात कैसे है और मोदी सरकार जिस तरह काम कर रही है किसी से छिपी नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि केंद्र में सरकार नाम की चीज ही नहीं है। अधिकतर मंत्री या तो अयोग्य है या फिर योग्यतानुसार उनको मंत्रालय ही नही दिया गया है।
मित्रों, वास्तविकता तो यह भी है केंद्र सरकार मोदी नहीं चला रहे पूर्व (शेयर) दलाल अमित शाह चला रहे हैं। अब तो हालात ऐसे हैं कि मोदी के आगमन पर शाह कई बार खडे भी नही होते। समझ मेंं नहीं आता कि शाह से मोदी इतना डर क्यों रहे हैं या उन पर इतना निर्भर क्यों हैं या इतना भाव क्यों दे रहे हैं? यहाँ तक कि पहली बार राज्य सभा में आए शाह की सीट तमाम प्रोटोकॉलों को दरकिनार करते हुए प्रधानमंत्री की बगल मेंं निर्धारित कर दी गई है।
मित्रों, अरूण जेटली को आप भी जानते होंगे। कोई जीतकर भी मंत्री नहीं बना और उनको चुनाव हारने के बावजूद वित्त मंत्री बना दिया गया जबकि इस आदमी को अर्थव्यवस्था की एबीसीडी भी नहीं आती। इस बीमार आदमी को अर्थव्यवस्था को बीमार बना देने के बाद भी न जाने क्यों वित्त मंत्री बनाए रखा गया है? यह आदमी इन दिनों रिजर्व बैंक से उलझा हुआ है। सूत्रों की माने तो यह आदमी पहले से खस्ताहाल हो चुके बैंकोंं पर भाजपा के मित्र अरबपतियों को लोन देने का दबाव डाल रहे हैं चाहे खजाना खाली ही क्यों न हो जाए।
मित्रों, क्या आपको याद है कि मोदीजी ने कौन-कौन से वादे किए थे? दुर्भाग्यवश उनके सारे वादे जुमले साबित हो चुके हैं।
जनता ने एक सच्चे देशभक्त को वोट दिया था पर वो तो पिछडी और गंदी सोंचवाला मूर्तिवादी-जातिवादी नेता निकला। जनता के बीच रहते हुए हमने महसूस किया है कि निराश और स्तब्ध जनता ने उनको सबक सिखाने का मन बना लिया है। ऐसे में अगर 2019 के चुनावों में भाजपा ने पीएम पद का उम्मीदवार नहीं बदला तो हिंदुत्ववादी शासन का फिर से देश से अंत हो जाएगा और भविष्य में पता नहीं फिर कब ऐसा अवसर आए और इस बीच हिंदुओं के साथ कैसे-2 अन्याय किए जाएं।
मित्रों, इसलिए बेहतर होगा कि भाजपा उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को 2019 के चुनावों में अपना पीएम उम्मीदवार बनाए। मेरी नजर में तो तमाम खामियों के बावजूद वे सबसे बेहतर विकल्प हैं। वैसे अगर आपकी नजर में भाजपा के भीतर कोई और बेहतर विकल्प है तो बताईए। मगर जहाँ तक मैं हवा के रूख और जनता के मन और मिजाज को समझ रहा हूँ मोदी को अगले चुनावों में पीएम पद का उम्मीदवार नहीं बनाया जाना चाहिए क्योंकि मोदी देश और पार्टी दोनों के लिए हानिकारक हैं।


गुरुवार, 1 नवंबर 2018

कुत्ते का मांस खानेवाला ब्राह्मण

मित्रों, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु बड़े ही गर्व से कहा करते थे कि
I am English by education, a Muslim by culture, just born as a Hindu by accident”? किसी ने भी पंडित जी को कभी पूजा-पाठ करते या मंदिर जाते नहीं देखा. उनकी बेटी इंदिरा मंदिर तो गई थीं पर चुनावी जरूरतों के कारण। कदाचित वो नास्तिक धीं क्योकि वे शपथ भी ईश्वर की नहीं लेती थी. फिर उसके खानदान से हम क्या उम्मीद रखें?
मित्रों, अभी कुछ साल पहले ही इंदिरा और फिरोज का पोता राहुल गाँधी कहा करता था कि जो हिन्दू मंदिर जाते हैं वे लड़कियां छेड़ने जाते हैं. इतना ही नहीं उसी पार्टी की सरकार ने हिन्दुओं के खिलाफ एक कानून बनाने का प्रयास भी किया जिसके तहत दंगे होने पर सिर्फ हिन्दुओं को ही दोषी माना जाता. फिर ऐसा क्या हुआ कि वही राहुल जनेऊधारी ब्राह्मण बनकर मंदिरों के चक्कर लगाने लगा? कई बार इस तरह के विवाद भी इस बीच उत्पन्न हुए कि राहुल ने मंदिर जाने से पहले मांस खाया था. मुझे लगा कि यह झूठ होगा और बेवजह यह विवाद खड़ा किया जा रहा है परन्तु अब लगता है कि खाया भी होगा क्योंकि वो आदमी इन दिनों मध्य प्रदेश में जीत सुनिश्चित देखकर खुलेआम ऐतिहासिदक नगरी इंदौर में हॉट डॉग यानि कुत्ते का मांस खोजता फिर रहा है उसके लिए मंदिर की पवित्रता क्या मायने रखती है? वो तो गोमांस खाकर मंदिर जाता होगा क्योंकि मंदिर जाना उसके लिए एक औपचारिकता से ज्यादा कुछ नहीं. मंदिर जाना उनकी मजबूरी है जैसे रावण के लिए साधू बनना मजबूरी थी. हद तो यह रही कि मांस भक्षण के बाद यह कलयुगी रावण यह कहता है कि वो राष्ट्रवादी है हिंदूवादी नहीं जबकि वास्तविकता तो यह है कि वो न तो राष्ट्रवादी है और न ही हिन्दू, वो एक बहुरुपिया ठग है. जिस व्यक्ति को राष्ट्र की संस्कृति से कोई कोई लगाव, कोई प्रेम नहीं बल्कि महान सनातन संस्कृति से घनघोर घृणा हो,जो मानसिक रूप से पूर्णतया विदेशी हो वो राष्ट्रवादी हो ही नहीं सकता.
मित्रों, इस सन्दर्भ में मैंने पहले भी कहा है कि राहुल और रावण में कोई अंतर नहीं है. रावण भी जब सीता माता का अपहरण करने गया था तब साधू के वेश में गया था परन्तु क्या ऐसा करने से रावण मूलतः राक्षस नहीं गया था? सच्चाई तो यही थी कि रावण ने साधू वेश का छल के लिए दुरुपयोग किया. वह एक राक्षस था और मरते दम तक राक्षस ही रहा.
मित्रों, राहुल के साथ भी यही बात है. राहुल भी मरते दम तक अहिंदू था और अहिंदू रहेगा. नेहरु तो फिर भी जन्मना हिन्दू थे. राहुल तो जन्मना भी अहिंदू है क्योंकि उसका बाप जन्मना पारसी था और उनकी माँ जन्मना ईसाई है और वो भी पोप की नगरी की. राहुल तो by education, by culture aur by born हर तरीके से अहिंदू है और अहिंदू रहेगा बस जिस तरह से कुछ देर के लिए रावण साधू बन गया था उसी तरह से ये भी कुछ क्षणों के लिए हिन्दू बन गया है. जैसे ये हमसे हमारा सबकुछ छीन लेगा ये फिर से रावण की तरह अपने असली रूप में आ जाएगा इसलिए इस बहुरूपिए राक्षस से सावधान रहने की जरुरत है अन्यथा फिर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत. वैसे भी अगर मुझे मोदी और राहुल में से हजार बार किसी एक को चुनना पड़े तो मैं हजार बार मोदी को ही चुनूँगा क्योंकि राहुल को चुनने से देश, धन और धर्म तीनों के विनाश का खतरा है जबकि मोदी को वोट देने से धन चला भी जाए पर देश और धर्म निश्चित रूप से सुरक्षित रहेंगे.

शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

क्या मोदी मजबूत प्रधानमंत्री है?

मित्रों, अगर आपने मोदी सरकार के काम करने के तरीके को देखा होगा तो जरूर गौर किया होगा कि इस सरकार में सारे मंत्री हरफनमौला हैं. रक्षा विभाग से जुडा मामला हो तो वित्त मंत्री जवाब देते हैं और जब वित्त मंत्रालय से जुडा मामला आता है तो उत्तर कानून मंत्री देते हैं. इसी प्रकार जब मुद्दा विदेश मंत्रालय से सम्बंधित हो तो जवाब गृह मंत्री देते हैं. अब हम इसे अतिशय जिम्मेदारी से काम करना कहें या फिर इसे गैर जिम्मेदारी का नाम दें? वैसे अगर यह मंत्रिमंडल की जगह क्रिकेट टीम होती तो जरूर विश्वकप जीत चुकी होती लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं. शायद इसलिए मोदी जी की सरकार विकास, नेशन फर्स्ट, देश बदल रहा है जैसे शब्द बोलना जैसे भूल ही गई है और वो सिर्फ और सिर्फ जातीय समीकरणों को साधने में जुटी हुई है.
मित्रों, हरफनमौला बनने की यही संक्रामक बीमारी शायद अजित डोभाल जी को लग गई है. आपने भी अजित डोभाल जी का नाम तो सुना ही होगा. मज्बूजी के प्रतीक डोभाल जी हैं तो भारत सरकार के सुरक्षा सलाहकार लेकिन वे इन दिनों इस तरह भाषण देने लगे हैं जैसे वे बहुत बड़े नेता हों. उनका देश की जनता से कहना है कि देश को अगले १० वर्षों तक मजबूत सरकार की जरुरत है. कदाचित वे यह कहना चाहते हैं कि अगले १० सालों तक मोदी को ही भारत का प्रधानमंत्री रहना चाहिए. मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या यह बताना कि जनता को किसको वोट देना चाहिए बतौर भारत का सुरक्षा सलाहकार डोभाल जी के कर्तव्यों में शामिल है? अगर नहीं तो वे किस हैसियत से ऐसा कर रहे हैं? पहले के किसी भी सुरक्षा सलाहकार ने तो ऐसा नहीं किया. तो क्या उनको अपनी ड्यूटी मालूम नहीं थी?
मित्रों, इसके साथ ही मैं श्रीमान जासूस जी से पूछना चाहता हूँ कि वे आखिर किस आधार पर यह कह रहे हैं यह सरकार एक मजबूत सरकार है? क्या सिर्फ प्रचंड बहुमत मिल जाने से कोई सरकार मजबूत कहलाने की अधिकारिणी हो जाती है? फिर तो राजीव गाँधी की सरकार को भारत की सबसे मजबूत सरकार कहा जाना चाहिए लेकिन देश में शायद ही कोई ऐसा मानता हो. क्या डोभाल जी ऐसा मानते हैं कि सिर्फ अपने कैडर का राज कायम कर देने से कोई सरकार मजबूत हो जाती है? फिर तो पश्चिम बंगाल की वो साम्यवादी सरकार जिसने बंगाल को साम्यवाद के नाम पर बर्बाद करके रख दिया को सबसे मजबूत सरकार कहा जाना चाहिए.
मित्रों, डोभाल जी से पूछा जाना चाहिए कि जिस तरह मोदी नेपाल, मालदीव और श्रीलंका में फेल हुए हैं क्या उससे साबित होता है कि मोदी मजबूत प्रधानमंत्री हैं? क्या इन दिनों सीबीआई जिस तरह से काम कर रही है वह मोदी जी सरकार की मजबूती का परिचायक है? या फिर जिस तरह पेट्रोल के दाम आसमान छू रहे हैं
उससे पता लगता है कि मोदी जी मजबूत राजनेता हैं? न तो देश की शिक्षा व्यवस्था, न ही पुलिस व्यवस्था, न ही स्वास्थ्य व्यवस्था, न ही भ्रष्टाचार, न ही न्याय व्यवस्था और न ही नौकरशाही में मोदी जी कोई बदलाव ला पाए. ये सारी चीजें वैसी-की-वैसी हैं जैसी अंग्रेजों के समय थी फिर डोभाल जी किस आधार पर कह सकते हैं कि मोदी जी मजबूत नेता हैं? अभी-अभी उनके गृह राज्य गुजरात में हिन्दीभाषियों पर हमले हो रहे थे और मोदी जी मौन साधना में लीन थे क्या ये मजबूती के लक्षण हैं? साल में २ करोड़ रोजगार तो दिए नहीं और नौजवानों को पकौड़े तलने को बोल रहे क्या इसलिए मोदी को मजबूत मान लेना चाहिए? देश को कमजोर करनेवाली आरक्षण व्यवस्था को मोदी सरकार ने मजबूत किया है तथा सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी एक्ट में जो समुचित व न्यायसंगत बदलाव किए गए थे उनको समाप्त कर उसे फिर से अन्यायपूर्ण और एकतरफा बना दिया है क्या इसलिए मोदी को मजबूत मान लेना चाहिए? पिछले चार सालों में मोदी मस्जिद और दरगाहों से तो हो आए लेकिन राम जन्मभूमि एक बार भी नहीं गए फिर मोदी कैसे मजबूत प्रधानमंत्री हैं? प्रधानमंत्री को शायद खुद पता नहीं कि प्रधानमंत्री वे हैं या अमित शाह जो उनके मंत्रियों के साथ-साथ अब सुप्रीम कोर्ट को आर्डर देने लगा है और आप कहते हैं कि मोदी जी मजबूत प्रधानमंत्री हैं? या फिर जो दुग्गल साहब की तरह रोज-रोज नए-नए रोल करता हो कभी पटेल, कभी अम्बेदकर तो कभी गाँधी और कभी सुभाष का तो उसे मजबूत मान लेना चाहिए, फिर तो अभिनेताओं को सबसे मजबूत नेता मान कर प्रधानमंत्री बना देना चाहिए? जवाब का इंतज़ार रहेगा डोभाल जी.

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

सीबीआई में सर्जिकल स्ट्राइक की आवश्यकता

मित्रों, एक जमाना था कि प्रधानमंत्री भी सीबीआई के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करते थे. याद आता है मुझे वो जमाना जब लालूजी जनता दल के अध्यक्ष हुआ करते थे. उन दिनों देश के प्रधानमंत्री थे देवगौड़ा. लालू जी चारा घोटाले में फंस गए. उन्होंने प्रधानमंत्री से मुलाकात के समय माँगा. जब वे मिले तो देवगौड़ा ने स्पष्ट रूप से कह दिया आई कैन नॉट डू अनिथिंग. बाद में गुजराल ने भी अपने प्रधानमंत्रित्व काल में यह कहकर कुछ भी करने से मना कर दिया कि यह प्रधानमंत्री की गरिमा के खिलाफ होगा. और इस प्रकार किंग मेकर लालूजी को दिल्ली में अपनी सरकार होने के बावजूद जेल जाना पड़ा। 
मित्रों, बाद में जब मनमोहन की सरकार आई तो उसने भी ब्याज दर कम करने के मामले में आरबीआई से कुछ भी कहने से मना कर दिया. लेकिन न जाने क्यों मोदी सरकार को किसी भी संस्था की स्वायत्तता मंजूर ही नहीं है. पहले नोटबंदी के समय भाईयों एवं बहनों करके आरबीआई की स्वायत्तता को खतरे में डाला और अब सीबीआई में हस्तक्षेप करके उसकी स्वायत्तता को भी समाप्त कर रहे हैं. वैसे मैं यहाँ स्पष्ट कर दूं कि पहले भी सीबीआई का दुरुपयोग हुआ है अन्यथा माया, मुलायम, टाइटलर, साधू यादव, पप्पू यादव आदि आज आजादी के साथ राज भोग नहीं रहे होते.
मित्रों, मैं कहता हूँ कि इन दिनों भी सीबीआई में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा. वो तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी नहीं चल रहा लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से रात के पौने दो बजे सीबीआई के निदेशक को हटाया गया उसे किसी भी तरह से यथोचित नहीं ठहराया जा सकता. कदाचित यही काम दिन के उजाले में भी किया जा सकता था. अब बात निकली है तो स्वाभाविक तौर पर दूर तलक जाएगी और जा भी रही है. जितने मुंह उतनी बातें.
मित्रों, मैं अपने पिछले कई आलेखों में इस बात का जिक्र कर चुका हूँ कि मेरी नजरों में सीबीआई जो मनमोहन के समय पिंजरे का तोता थी इस सरकार के समय वो मरा हुआ तोता हो गई है. हालात इतने बुरे हो चुके हैं कि लोग मानने लगे हैं कि किसी मामले को दबाना है तो सीबीआई को दे दो. स्वाभाविक है कि ऐसे में रिश्वतखोरी भी हो रही होगी और पैसों का लेन-देन भी. मुझे नहीं लगता कि इन रिश्वतखोरी में सिर्फ खाकी ही अपनी मुट्ठी गरम कर रही होगी और खादी के हाथ कुछ नहीं आता होगा. मतलब कि कुछ-न-कुछ तो ऐसा गड़बड़झाला जरूर हो रहा है जिसके कारण बाज से तोता बना यह पक्षी बिलकुल ही मरे के समान व्यवहार कर रहा है. सवाल उठता है कि किसकी शह पर नंबर दो अस्थाना नंबर एक अलोक वर्मा के आदेशों की लगातार अवहेलना कर रहे थे? क्या उनको ऐसा करने का अधिकार भी था? किसके कहने पर सीवीसी ने वर्मा के खिलाफ पक्षपात किया? आखिर अस्थाना इतना शक्तिशाली क्यों है? क्योंकि वो गुजरात कैडर का है और प्रधान सेवक जी की सेवा में रह चुका है?
मित्रों, सवाल उठता है कि जिस तरह रात के पौने दो बजे सीबीआई पर सर्जिकल स्ट्राइक किया गया क्या वो शुद्ध मन से किया गया है या फिर उसकी आवश्यकता थी और क्या आगे सीबीआई फिर से अपने वही रुतबा प्राप्त कर पाएगी जो एक समय उसकी थी. मुझे नहीं लगता कि ऐसा होनेवाला है क्योंकि सीबीआई सहित पूरी नौकरशाही की लगाम इन दिनों जिन लोगों के हाथों में है उनका मन साफ़ नहीं है. वे भी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह सिर्फ इसका इस्तेमाल करना चाहते है अपने निजी स्वार्थों के लिए. देशहित, देशहित को तो उन्होंने कब का कचरे के डिब्बे में फेंक दिया है. वैसे जो विकल्प हैं उनसे तो देशहित की उम्मीद करना ही बेवकूफी होगी क्योंकि उनके शब्दकोश में यह शब्द कभी था ही नहीं. निश्चित रूप से मोदी देश की जनता की आखिरी उम्मीद थे लेकिन उन्होंने भी निराश किया है. कम-से-कम सीबीआई के मामले में तो जरूर. हमें तो लगा था कि जब मोदी सत्ता में आएंगे तो सीबीआई को उतना ही शक्तिशाली बनाएँगे जितनी अमेरिका में एफबीआई है परन्तु हुआ इसका उल्टा. 

रविवार, 7 अक्तूबर 2018

आशिफाओं को समर्पित कविता

इन दिनों
जब भी मैं खिडकियों से बाहर झांकता हूँ,
तो पाता हूँ कि हवा पेड़ों को झंकझोर रही है,
और कह रही है मानों
यूं कि मैं तुम्हें जगा रही हूँ
फिर भी तुम सो रहे हो?
तुम इस तरह कैसे सो सकते हों?
तभी मुझे खुद की स्थिति पर दया आने लगती है
यूं कि मैं भी तो सदियों से सोये हुए और
आज सोशल मीडिया में खोये हुए
लोगों को पिछले कई सालों से
जगा ही तो रहा हूँ
लेकिन लोग जाग नहीं रहे.

इन दिनों भारत के मुक्ताकाश मंच पर
जेसिका लाल हत्याकांड का जीवंत मंचन
हो रहा है,
एक साथ हजारों स्थानों पर
बलात्कार हो रहे हैं, हत्याएं हो रही हैं
लेकिन पोस्टमोर्टेम करनेवाले डॉक्टर से लेकर
जाँच करनेवाले पुलिसवाले तक बता रहे हैं कि
न तो कहीं किसी का रेप हुआ
और न ही कहीं किसी की हत्या ही हुई.
पीडिता जमीन पर चलती हुई पैदल-पैदल
पांव फिसलने से गिर पड़ी
जिससे कुल्हाड़ी से काटने जैसा घाव लग गया;
या सिर में जो सुराख़ थी वो १९६५ की भारत-पाकिस्तान
की लडाई में गोली के लगने से हुई है शायद;
हमारे देश में ट्रेन लेट हो सकती है,
डाक लेट हो सकती है
तो क्या गोली लेट नहीं हो सकती?

इन दिनों भारत के कई महान नेता बता रहे हैं कि
रेप में दुष्कर्मियों की कोई गलती नहीं,
गलती है तो लड़कियों की जो कम कपडे पहनती हैं
खासकर उन लड़कियों की ज्यादा;
जो पालने में झूलते समय सिर्फ डाईपर पहने रहती हैं.
सिर्फ डाईपर.

रविवार, 30 सितंबर 2018

राफेल और राहुल गाँधी

मित्रों, हो सकता है कि आप भी कुछ महीने पहले तक राफेल नाम से नावाकिफ रहे हों. मैं था और नहीं भी था. क्योंकि मेरे लिए तब राफेल का मतलब राफेल नडाल से था आज भी है लेकिन कम है. अब आपकी तरह मेरे लिए भी राफेल का मतलब एक लड़ाकू विमान ज्यादा है जो दुनिया में सबसे उन्नत श्रेणी का है, जो एक साथ हवा से जमीन, हवा और जल पर कहीं भी हर तरह से अस्त्र से हमले कर सकता है और हमले का जवाब भी दे सकता है. अर्थात यह एक ऐसा विमान है जिसको खरीदना वायु सेना के लिए अत्यावश्यक था. फिर विवाद है कहाँ?
मित्रों, विवाद है इसके दाम में और अनिल अम्बानी को इसका ठेका दिलवाने में. जहाँ तक मैं समझता हूँ कि पिछले दिनों आज तक चैनल पर जिस तरह से इसके मूल्य को लेकर रिपोर्ट आ चुकी है कि यह यूपीए के मुकाबले १० प्रतिशत कम दाम पर ख़रीदा गया है इस विवाद को समाप्त ही कर देना चाहिए. नैतिकता का यही तकाजा भी है. वैसे भारत सरकार ने भी फ्रांस की सरकार से इसके दाम उजागर करने की अनुमति मांगी है.
मित्रों, अब विवाद बचता है कि इसके ठेके में अनिल अम्बानी कैसे घुसे? इस बात पर मैं शुरू से मोदी सरकार की आलोचना करता रहा हूँ कि वो सरकारी कंपनियों की कीमत पर पूंजीपतियों को बढ़ावा दे रही है जिससे बचा जाना चाहिए था. वैसे शोध का विषय यह भी है कि अनिल इसमें कब घुसे.
मित्रों, आपको कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों को कोई अंतर दीखता है क्या? मुझे तो वाजपेयी के ज़माने में भी नहीं दिखा था और आज भी नजर नहीं आता. हो सकता है कि अगर कांग्रेस की सरकार होती तो अनिल अम्बानी की जगह मुकेश होते, लेकिन होते.
मित्रों, अब बच गया सबसे बड़ा सवाल कि राहुल इस मामले को इतना उछाल क्यों रहे हैं? मैं जबसे दिल्ली में मनमोहन की सरकार थी तभी से देखता आ रहा हूँ कि कांग्रेस को हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान से नफरत की हद तक लगाव है. आईएएस की परीक्षा में अंग्रेजी अनिवार्य नहीं थी मनमोहन सरकार ने किया. इसी तरह से कांग्रेस ने हिन्दू-विरोधी सांप्रदायिक दंगा विधेयक पारित करवाने का प्रयास किया. साथ ही भगवा आतंकवाद को न सिर्फ हवा में परिकल्पित किया बल्कि विश्वव्यापी जेहादी आतंकवाद से ज्यादा खतरनाक साबित करने की भरपूर कोशिश भी की. इसी तरह कई बार उसने चीन और पाकिस्तान का इस तरह से पक्ष लिया कि भारतीयों को शक होने लगा कि मनमोहन भारत के प्रधानमंत्री हैं या चीन-पाकिस्तान के? तब रोजाना कहीं वायुसेना के विमान गिर रहे थे तो कहीं नौसैनिक जहाज डूब रहे थे. शक होता था कि सरकार जान-बूझकर तो जहाज गिरा और डूबा नहीं रही है जिससे भारत की सेना चीन-पाकिस्तान के आगे कमजोर हो जाए?
मित्रों, तब कश्मीरी आतंकियों की पहुँच सोनिया-मनमोहन के ड्राईंग रूम तक थी और सीआरपीएफ के जवानों हाथों से से राइफल लेकर डंडा थमा दिया गया था. चाहे कोई गंगा में भी घुसकर क्यों न बोले मैं यह मान ही सकता कि कोई आरएसएस का कार्यकर्ता प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर देश की सुरक्षा के साथ समझौता करेगा. (मैंने वाजपेयी के ज़माने में भी ताबूत वाले आरोपों पर थोडा-सा भी यकीं नहीं किया था.) फिर चाहे वो कसम खानेवाले संत या महासंत ही क्यों न हो राहुल की तो औकात ही क्या?
मित्रों, आपको क्या लगता है कि राहुल बार-बार चीन के दूतावास में क्यों जाते हैं या उनकी मां पिछले दिनों रूस क्यों गई थी? मुझे तो आज भी शक होता है कि ये मां-बेटे हिंदी-हिन्दू-हिंदुस्तान के खिलाफ आज भी कोई-न-कोई खिचड़ी अवश्य पका रहे हैं. माना कि पेट्रोल के दाम बढ़ गए हैं लेकिन इन्टरनेट सहित बहुत-सी वस्तुएं आज यूपीए सरकार के मुकाबले सस्ती भी हैं. फिर पेट्रोल पर कोहराम क्यों? जहाँ तक ईरान का सवाल है तो यह वही देश है जिसने कांग्रेस सरकार का तो खूब लाभ उठाया लेकिन कश्मीर के मुद्दे पर कभी भारत का साथ नहीं दिया. इसी तरह से हमें बचपन से पढाया जा रहा है कि रूस हमारा मित्र है. अगर है भी या रहा भी है तो कांग्रेस पार्टी का मित्र रहा है भारत का नहीं. जब चीन हम पर चढ़ आया था तब तो उसने हमारी मदद नहीं की और आज भी नहीं करेगा. क्योंकि आज भी वो हमारे सबसे बड़े शत्रु चीन का सबसे बड़ा दोस्त है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि रूस में ही हमारे एक प्रधानमंत्री की हत्या को चुकी है और उसमें वहां की तत्कालीन सरकार की भी संदेहास्पद भूमिका थी. साथ ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के गायब होने में भी रूस का हाथ रहा है और ऐसा करके भी उसने कांग्रेस पार्टी के साथ ही मित्रता निभाई थी.
मित्रों, इस प्रकार हम पाते हैं कि राहुल के राफेल राग के पीछे कोई-न-कोई भारत-विरोधी साजिश है. जिन लोगों ने कभी रिमोट से केंद्र में सरकार चलाई उनका खुद का रिमोट कहीं-न-कहीं चीन-पाकिस्तान-रूस में है और वो वहीं से संचालित भी हो रहे हैं. साथ ही हम मोदी सरकार से हाथ जोड़कर विनती करने हैं कि वो राफेल से सबक लेते हुए देश का सब कुछ पूँजी से हवाले न करे क्योंकि पूँजी ही सबकुछ नहीं है और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को फिर से मजबूत और स्थापित करे इसी में उसकी भी भलाई है और देश की भी.

शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

अमित शाह की मोदी भक्ति

मित्रों, हर साल की भांति इस साल भी भारत के प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी जी का जन्मदिन १७ सितम्बर को था. उस दिन सुबह जब दैनिक जागरण पलटा तो देखा कि उसमें भाजपा अध्यक्ष अमित भाई शाह का एक आलेख प्रकाशित है. शीर्षक था नए भारत का निर्माण करती भाजपा. मगर जब पढ़ा तो पता चला कि उसमें आदरणीय प्रधान सेवक जी का स्तुति गान किया गया है. 
मित्रों, श्रीमान अमित शाह ने फ़रमाया है (वैसे आजकल वे फरमाते कम हैं भरमाते ज्यादा हैं) कि प्रधानमंत्री जी ने हाल ही में लाखों आशा, आंगनवाड़ी और एएनएम कार्यकर्ताओं के साथ संवाद किया और उनको बताया कि वे देश के लिए कितनी महत्वपूर्ण हैं. साथ ही उनका मानदेय बढ़ाने की घोषणा भी की. अमित भाई को लगता है कि इससे उनको बेहतर काम करने का प्रोत्साहन मिलेगा. 
मित्रों, आपके इलाके में आंगनबाडियों की हालत क्या है मुझे नहीं पता लेकिन मेरे इलाके में तो इनकी हालत ऐसी है जैसी कि सरकार का सारा पैसा नालियों में बह रहा हो. मैंने १८ जनवरी, २०१५ को भ्रष्टाचार की बाड़ी आंगनबाड़ी योजना शीर्षक से एक ब्लॉग इस उम्मीद में लिखा था कि प्रधान सेवक जी मेरे आलेख को पढेंगे और इस दिशा में ठोस कदम उठाएंगे लेकिन आज मुझे यह लिखते हुए घोर निराशा हो रही है कि मोदी सरकार ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया बल्कि कदम उठाया सिर्फ वोट बैंक मजबूत करने की दिशा में.
मित्रों, अमित भाई फरमाते हैं कि पीएम मोदी तकनीकी प्रयोग से मोबाइल एप के माध्यम से अक्सर समाज के गुमनाम नायकों तक पहुंचते हैं और उन्हें यह जरूर बताते हैं कि देश के लिए वे बहुत महत्वपूर्ण हैं और राष्ट्र निर्माण में उनका अतुलनीय योगदान है। स्वास्थ्यकर्मियों से पहले शिक्षकों तक भी वह इसी माध्यम से पहुंचे और समाज में उनके योगदान के लिए आभार जताया। उन्होंने भाजपा के विभिन्न मोर्चो के कार्यकर्ताओं और दूसरे लोगों से भी बातचीत की। प्रधानमंत्री मोदी की इस विशेषता को अमित भाई तब से देखते रहे हैं जबसे उनको उनके सान्निध्य में कार्य करने का अवसर मिला।
मित्रों, तथापि मैं जिन मोदी जी को जानता हूँ वे लोगों को बड़े ही तरीके से चने के झाड़ पर चढ़ाकर बेवकूफ बनाते हैं. हो सकता है कि अमित भाई इस मामले में मोदी जी से २० पड़ते हों इसलिए उन्होंने बनने के बदले उनको बनाया हो. मुझे याद आता है कि कई साल पहले इन्ही अमित शाह ने मोदी जी के वादों के बारे में कहा था कि वे तो चुनावी जुमले थे. तो क्या अमित भाई बताएंगे कि मोदी कब जुमले बोलते हैं और कब नहीं? अब तो बता देते चुनाव फिर से माथे पर है.
मित्रों, अमित भाई फरमाते हैं कि पीएम मोदी के चार वषों के कार्यकाल में कई बेहतरीन और अनुकरणीय कार्य हुए हैं। बड़े स्तर पर सोचना और फिर उसे जमीनी स्तर पर लागू करने की उनकी क्षमता बेजोड़ है। यह उनका ही चिंतन और दर्शन है कि समाज के अंतिम व्यक्ति के लिए कई योजनाएं शुरू हुईं। जैसे देश के प्रत्येक परिवार के पास एक बैंक खाता। आज जनधन योजना के तहत 32 करोड़ से अधिक बैंक खाते खोले जा चुके हैं। वह गरीब महिलाओं के जीवन को धुएं से मुक्त करना चाहते थे। यही सोच उज्ज्वला योजना का आधार बनी जिसके तहत गरीब महिलाओं को पांच करोड़ से अधिक गैस कनेक्शन मुफ्त दिए गए। निश्चित रूप से मोदी जी ने लोगों के खाते खुलवाए जो सब्सिडी और अन्य लाभों को सीधे लोगों के खातों में पहुँचाने के लिए आवश्यक भी था लेकिन मोदी जी शायद आज भी इस मुगालते में जी रहे हैं कि सिर्फ इतना कर देने से ही दिल्ली से चले १०० पैसे में से पूरा-का-पूरा लाभार्थियों तक पहुँचने लगे हैं जबकि सच्चाई यह है कि गरीबी के मारे लोगों को तब तक कई सारी सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता जब तक वे कमीशन के रूप में रिश्वत की मोटी रकम अधिकारियों और जिम्मेदार लोगों तक पहुंचा नहीं देते. मोदी जी जो भूतपूर्व गरीब हैं को बखूबी पता होगा कि गरीबी और भ्रष्टाचार एक दुष्चक्र के दो पहलू हैं. गरीब जब तक गरीब रहेगा घूस देना उसकी मजबूरी होगी और जब तक वो घूस देता रहेगा वो गरीब ही रहेगा. एलपीजी वितरण के क्षेत्र में जरूर भ्रष्टाचार कम हुआ है इससे इंकार नहीं किया जा सकता. लेकिन सच्चाई यह भी है कि आज भी गरीबों के लिए बैंक से लोन प्राप्त करना चाँद-तारों की सैर करने के बराबर है. मैंने अपनी आँखों से देखा है कि बैंकों ने किस तरह मुद्रा लोन स्थापित व्यवसायियों को देकर खानापूरी की है और नए कारोबारियों को मायूस किया है.
मित्रों, अमित भाई फरमाते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा पर कोई विवाद नहीं है और इसे उनके कई विरोधी भी स्वीकार करते हैं। मगर शायद अमित भाई भूल गए हैं कि कुछ इसी तरह के तर्क एक समय मनमोहन सिंह जी को लेकर भी बड़ी शान और बेशर्मी से दिए जाते थे.
मित्रों, अमित शाह के अनुसार आयुष्मान भारत जैसी योजना स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बहुत बड़ी गेमचेंजर साबित होने वाली है। जबकि सच्चाई यह है कि यह योजना भारत सरकार की सरकारी स्वास्थ्य सेवा के स्वास्थ्य को सुधारने की दिशा में विफलता को ही उजागर करता है और इसका असली लाभ गरीबों को नहीं बल्कि स्वास्थ्य सेवा देने के नाम गरीबों को लूटनेवाले उन पूंजीपतियों को होगा जिनके निजी अस्पताल हैं.
मित्रों, अपनी अंतिम पंक्ति में अमित भाई फरमाते हैं कि आज न्यू इंडिया की ‘कैन डू’ यानी ‘कर सकते हैं’ की भावना हर तरफ गूंज रही है। बेशक गूँज रही है लेकिन साथ-साथ 'मोदी जी यू कांट डू' की भावना भी हर तरफ गूँज रही है और गूँज रही है कि मोदी जी आप भी देशप्रेमी नहीं कुर्सी प्रेमी निकले, अमीरों के हाथों गरीबों के वोटों का सौदा करनेवाले निकले.
मित्रों, मेरा इस आलेख को लिखने का उद्देश्य कतई अमित शाह जी को नीचा दिखाना नहीं है. बल्कि राजनीति के भक्तिकाल के महाकवियों से विनम्र निवेदन करना है कि आँखें बंद कर मोदी जी की स्तुति करना बंद करें और सरकार की कमियों को स्वीकार भी करें जिससे उनको समय रहते दूर किया जा सके. क्योंकि प्रथमतः तो मानव जीवन बारम्बार नहीं मिलता और द्वितीय भारत का प्रधानमंत्री बनने का अवसर भारत की जनता बार-बार नहीं देती.

रविवार, 16 सितंबर 2018

भारत में अमीरों का,अमीरों द्वारा और अमीरों के लिए शासन

मित्रों, हमारे बिहार में एक कहावत काफी प्रचलित है कि हर बहे से खर खाए बकरी अंचार खाए अर्थात जो बैल दिनभर हल में जुतता है वो घास खाता है और जो बकरी दिनभर बैठी रहती है वो अंचार यानि स्वादिष्ट खाना खाती रहती है. आप कहेंगे कि यह तो अंधेर है और जहाँ ऐसा हो उसे अंधेर नगरी कहा जाना चाहिए. जी हाँ श्रीमान हमारा देश इन दिनों अंधेर नगरी ही तो है. जो लोग दिनभर काम कर रहे हैं, उनके हाथ खाली हैं और जो कुछ नहीं करते उनको बैंकों से हजारों करोड़ यूं ही पॉकेट खर्च के लिए दे दिए जाते हैं. कहने को तो ग्रामीण मजदूरों यानि मजबूरों के लिए मनरेगा योजना चल रही है लेकिन अगर जाँच हो तो पता चलेगा कि उसका बारह आना पंचायत का प्रधान, वार्ड सदस्य आदि खा जाते हैं इसके बावजूद कि मजदूरी यानि मजबूरी खाते में जाती है. इतना ही नहीं इट्स हप्पेंस ओनली इन इंडिया कि जो योग्य हैं वे ८० प्रतिशत अंक लाकर भी अयोग्य हैं और जो अयोग्य हैं वे शून्य प्रतिशत अंक लाने पर भी योग्य हैं. इसी तरह सिर्फ और सिर्फ भारत में जो दलित धनवान हैं वे गरीब हैं और जो सवर्ण गरीब हैं वे सत्ता की नजरों में महाधनवान हैं. दुनिया के किसी अन्य देश में ऐसा होता है क्या? जातिवादी राजनीति करके राज भोगनेवालों ने तो अब क्रिकेट टीम में भी जातीय आरक्षण की मांग कर दी है. देखना है कि परम देशभक्त मोदी सरकार इस मांग को कब पूरा करती है और कब संसद से इस आशय का कानून पारित करवाती है. वैसे ऐसा वो करेगी जरूर.
मित्रों, पिछले दिनों मुझे दो तरह के परम ज्ञान प्राप्त हुए हैं. हम बचपन से ही पढ़ते आ रहे हैं, आपने भी पढ़ा होगा कि अब्राहम लिंकन ने कहा था कि लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन होता है और भारत में भी लोकतंत्र है. लेकिन जबसे परम तपस्वी विजय माल्या जी ने खुलासा किया है कि हजारों करोड़ लेकर भागने से पहले उन्होंने भारत के वित्त मंत्री अरुण जेटली जी से गहन विचार-विमर्श किया था और जबसे सीबीआई ने कहा है कि उसने गलती से माल्या को माल लेकर भागते समय ढील बरती थी तबसे मेरी समझ में आ गया है कि लिंकन की परिभाषा भले ही अमेरिका के लिए सही हो भारत के लिए सफ़ेद झूठ से ज्यादा कुछ और नहीं है. तथापि भारतीय लोकतंत्र की दो अनूठी विशेषताएं हैं-पहली भारत में अमीरों का,अमीरों द्वारा और अमीरों के लिये शासन है और दूसरी भारत में भ्रष्टों का,भ्रष्टों द्वारा और भ्रष्टों के लिए शासन है,बांकी सब भाषण है। कहने को तो भारत में सारे लोग समान हैं पर कुछ लोग ज्यादा समान हैं इसलिए उनके पास ज्यादा सामान है और उनका ज्यादा सम्मान है। नहीं समझे तो निश्चित रूप से आप भी मूर्खिस्तान के निवासी हैं।
मित्रों, आपको याद होगा कि अटल जी की सरकार ने सरकारी नौकरों का यानि देश के नौकरों का यहाँ तक कि देश पर जान देनेवालों सीमा सुरक्षा बल और सीआरपीएफ के जवानों का भी पेंशन समाप्त कर दिया था। मगर क्या देश के मालिकों का यानि माननीयों का पेंशन समाप्त हुआ? नहीं न, क्यों? क्योंकि वे बकरी हैं बैल नहीं। इसी तरह आजकल धीरे-धीरे कोयला खदानों सहित पूरा देश अमीरों को सौंपा जा रहा है, राष्ट्रीयकरण को पलट दिया गया हैै, केेंद्र सरकार भी संविदा पर नियुक्ति कर रही है देश के मजदूूूर यह गाकर अपने मन को तसल्ली दे रहे हैं कि हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मांगेंगे एक बाग़ नहीं एक गाँव नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे। उधर अमीरों की सरकार उनको मेहनतकश से भिखारी  बनाती जा रही है. यहाँ तक कि अब पूरी दुनिया में अन्याय से लड़नेवाले पत्रकारों को भी भारत में उनका हक़, नया वेतनमान नहीं मिलता और सरकार इस दिशा में अनजान-तटस्थ बनी रहती है. फिर दूसरे लोगों को कौन न्याय दिलाए और कहाँ से मिले. जिनका भरपूरा बैंक बैलेंस है जनता भी उनके लिए बस वोट बैंक है. बैंक बैलेंस के बल पर वोट ख़रीदे और बेचे जाते हैं जैसे बोहराओं के वोट पिछले दिनों ख़रीदे गए और खरीदने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री खाली पाँव उनके दर पर चलकर गए. अब तो चुनाव आयोग भी कह रहा है कि चुनावों में काले धन के दुरुपयोग को रोकने के लिए वर्तमान कानून पर्याप्त नहीं हैं. अर्थात उस संवैधानिक बेचारे को भी पता है कि देश में पैसों से बल पर चुनाव लडे और जीते जाते हैं यानि देश में अमीरों का ………(कितनी बार एक ही बात को दोहराया जाए) लेकिन वो भी कुछ नहीं कर सकता. जब वो संवैधानिक संस्था होकर कुछ नहीं कर सकता तो हम क्या कर सकते हैं? क्रांति???

शनिवार, 8 सितंबर 2018

गौ से गे तक मोदी सरकार

मित्रों, जबसे मोदी सरकार आई है बहुतेरों का गाय पालना और गाय लेकर रास्तों से गुजरना मुश्किल हो गया है. हालाँकि सच यह भी है खुलेआम होनेवाली गौहत्या में भी कमी आई है. पहले जो लोग लूट-हत्यादि असामाजिक कार्यों में संलिप्त थे अब उन्होंने गौरक्षक दल बना लिए हैं और पैसे लेकर मवेशियों से भरे ट्रक पास कराने लगे हैं. मैं यह नहीं कहता कि इस काम में लगे सारे-के-सारे लोग ऐसे ही हैं लेकिन ऐसे लोगों की मौजूदगी से इन्कार भी नहीं किया जा सकता.
मित्रों, मुझे उम्मीद थी कि मोदी सरकार गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करेगी और सारे विवादों पर लगाम लगा देगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उल्टे गोवा के भाजपाई मुख्यमंत्री ने घोषणा कर दी कि उनके राज्य में गौमांस की कमी नहीं होने दी जाएगी. मुझे यह भी उम्मीद थी कि मोदी की हिन्दुत्ववादी सरकार बछड़ों के कल्याण के लिए कोई-न-कोई योजना जरूर लाएगी लेकिन यह भी नहीं हुआ. साथ ही मुझे उम्मीद थी कि मोदी सरकार संविधान की धारा ३७० को समाप्त करने की दिशा में भी कदम जरूर उठाएगी.
मित्रों, लेकिन मोदी सरकार ने धारा ३७० को समाप्त करने के बदले सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से आईपीसी की धारा ३७७ को ही समाप्त करवा दिया. दरअसल राम और कृष्ण की भूमि भारत में समलैंगिकता को कानूनी बनाने से संबंधित एक याचिका पर जब सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार से उसका मंतव्य पूछा तो महान हिन्दुत्वादी सरकार ने कह दिया कि हमारा इस बारे में कोई मंतव्य है ही नहीं आप जो चाहे निर्णय ले सकते हैं और इस तरह मुक़दमे को एकतरफा हो जाने दिया. कल को कोई सुप्रीम कोर्ट में वेश्यावृत्ति को वैधानिक बनाने की याचिका डाल देगा और मुझे पूरी उम्मीद है कि तब भी पूछे जाने पर हमारी महान हिन्दुत्ववादी मोदी सरकार का कुछ ऐसा ही जवाब होगा. मुझे बेसब्री से इंतजार है उस वक़्त का जब धीरे-धीरे अपने देश में मोदी सरकार की कृपा से कोई भी गर्हित कर्म-कुकर्म अवैध रह ही नहीं जाए.
मित्रों, मैं जब सोंचता हूँ कि क्या वही सब करने के लिए हमने मोदी का प्राणार्पण से समर्थन किया था जो उनकी सरकार इन दिनों कर रही है तो मुझे खुद पर शर्मिंदगी होती है. मैं जानता हूँ कि भाजपा प्रवक्ता ऐसा भविष्य में कह सकते हैं कि आपने तो केवल ३७० समाप्त करने को कहा था हमने तो ७ बढाकर ३७७ को समाप्त कर दिया क्योंकि वे इनदिनों कुछ भी बोलने लगे हैं. यहाँ तक कि वे मोदी को देश का बाप कहने लगे हैं.
मित्रों, मैं आपसे पूछता हूँ कि १९४२ के मुकाबले हमारे देश में बदला क्या है अर्थव्यवस्था के आकार के सिवा? यह तक कि संविधान के ३९५ अनुच्छेदों में से २५० से अधिक अंग्रेजों द्वारा १९३५ में बनाए गए भारत सरकार अधिनियम से लिए गए हैं. देश के लिए संसदीय प्रणाली पिछले ३५ सालों में अभिशाप बन चुकी है. यह कहते-कहते कि भारत को अध्यक्षीय शासन-प्रणाली की अविलम्ब सख्त जरुरत है मेरा गला बैठ चुका है. भारत की न्याय-व्यवस्था, पुलिस प्रणाली और कानून आज भी अंग्रेजों वाले हैं जिसका विकास अंग्रेजों ने भारत को लूटने के उद्देश्य से किया था. हमने १९८४ के बाद पहली बार किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत दिया था तो इसलिए दिया था ताकि वो ५ साल बाद यह बहाना न बना सके कि उसके पास तो बहुमत ही नहीं था. लेकिन हम देख रहे हैं कि भारत की न्यायिक और पुलिस प्रणाली को बदलने की दिशा में तो मोदी सरकार ने कुछ नहीं ही किया शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी उसकी उपलब्धियां शून्य बटा सन्नाटा है. देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि देश में इस समय भी मैकाले की औपनिवेशिक शिक्षा-नीति के तहत शिक्षा दी जा रही है.जबकि सरकार को इन मुद्दों पर काम करना चाहिए था वो मशगूल है जाति-जाति और आरक्षण का गन्दा खेल खेलने में जिसके लिए अब तक लालू, मुलायम, मायावती जैसे घिनौने चेहरे बदनाम थे.
मित्रों, कुल मिलाकर मोदी सरकार को करना कुछ और चाहिए था और वो कर कुछ और रही है. पता नहीं समलैंगिकता को कानूनी घोषित करवाने के पीछे उसकी क्या मजबूरी थी जो वो गौ कल्याण करने के बजाए गे कल्याण कर बैठी. अब तो देश में स्थिति ऐसी आनेवाली है कि मर्दों की ईज्जत भी सुरक्षित नहीं रह जाएगी औरतों की तो पहले से ही सुरक्षित नहीं है. अब माता-पिता अपने बेटों से भी कहेंगे कि बेटा दिन रहते घर लौट आना.
फ़िलहाल तो हम मोदी सरकार के लिए बतौर ग़ालिब इतना ही कह सकते हैं कि
बंद कराने आये थे तवायफों के कोठे मगर,
सिक्कों की खनक देखकर खुद ही मुजरा कर बैठे.

शनिवार, 1 सितंबर 2018

मोदी सरकार के ४ साल के गड्ढे

मित्रों, न जाने क्यों यह मेरा कैसा दुर्भाग्य रहा है कि जब भी मैंने दिल से किसी नेता को चाहा है और तन-मन और धन से सहयोग देकर जिताया है तो एक वाजपेयी जी को छोड़कर बाद में हमारे साथ धोखा ही हुआ है. मुझे याद आता है २०१४ का चुनाव जब मैंने नरेन्द्र मोदी की तुलना विवेकानंद और अब्राहम लिंकन से करते हुए देश की जनता से इनको मत देने की अपील की थी. दरअसल उनकी बातें ही इतनी दमदार होती थी कि कोई भी उन पर यकीं कर ले. भाषा और भाषण-शैली भी उतनी ही जानदार जितना शानदार कथ्य.
मित्रों, तब हमने मोदी के हरेक भाषण को चाहे वो ५६ ईंच सीनेवाला भाषण हो, हर व्यक्ति को १५ लाख देनेवाला भाषण हो, देश से चलता है की संस्कृति को चलता करने वाला भाषण हो या गरीबों को त्वरित न्याय देने के वादे वाला भाषण हो, देश से गरीबी और भ्रष्टाचार का नामोंनिशान समाप्त करने वाला भाषण हो, रूपये और मनमोहन सिंह की आयु में आगे निकलने की होड़ वाला भाषण हो, महंगाई पर व्यंग्य करनेवाला भाषण हो, पेट्रोल के मूल्य की आलोचना करनेवाला भाषण हो या नेशन फर्स्ट की बात करनेवाला भाषण हो या फिर कांग्रेस के ६० साल के गड्ढों को भरनेवाला भाषण हो मैंने जम्मू-कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक उनके दिए हरेक भाषण को तत्क्षण अपने से ब्लॉग पर प्रकाशित किया.
मित्रों, परन्तु बड़े ही खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि मोदी की सरकार चाल और चरित्र के मामले में कहीं से भी मनमोहन सरकार से बेहतर साबित नहीं हुई है. जब चाल और चरित्र ही सही न हो तो चेहरे की बात करना वैसे ही बेमानी हो जाता है.
मित्रों, शायद आपको याद हो कि एक गाना २०१४ के चुनावों में काफी प्रसिद्ध हुआ था मेरा देश बदल रहा है और अब हालत यह है कि सरकार यह बता ही नहीं पा रही कि देश में करेंसी नोटों के बदलने के सिवा और क्या बदला है. देश की आर्थिक स्थिति को देखकर तो रोना आता है. जिस नोटबंदी को मोदी जी ने आर्थिक स्वच्छता अभियान कहा था उसकी जो रिपोर्ट आरबीआई ने जारी की है उससे यह पता चलता है कि मोदी सरकार ने मच्छर को मारने के लिए तोप चला दिया जिससे आर्थिक गतिविधियों को बेवजह गहरा धक्का लगा. मोदी सरकार बार-बार जीडीपी के आंकडे दिखाती है लेकिन वो यह नहीं बताती कि जीडीपी वृद्धि में से ८२ प्रतिशत देश के सबसे अमीर १० प्रतिशत लोगों की जेबों में जा रहा है. इस समय व्यापार घाटा ऐतिहासिक ऊंचाई पर ४८ प्रतिशत पर और रूपया ऐतिहासिक गहराई में ७०+ पर है. इसी तरह से बरसात में जैसे नदियों का जलस्तर खतरे के निशान को पार कर जाता है उसी तरह से पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस के मूल्य भी खतरे के निशान को पार कर चुके हैं. मोदी यह भी नहीं बता पा रहे कि योजना आयोग को समाप्त क्यों किया गया और उसकी जगह जो नीति आयोग लाया गया उसकी नीतिगत उपलब्धियां क्या है. अभी कल-परसों ही सरकार द्वारा गठित विधि आयोग ने कहा है कि देश को अभी समान नागरिक संहिता की आवश्यकता नहीं है. ऐसा उसने किसके इशारे पर कहा है मैं समझता हूँ कि यह बताने की भी आवश्यकता नहीं है. जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे पर सुप्रीम कोर्ट में केंद्र के जवाब का इंतजार है लेकिन सरकार के मौजूदा रूख को देखते हुए उम्मीद है कि वो भी तुष्टिकरण करनेवाला ही होगा. असम के घुसपैठियों के खिलाफ यह कागजी सरकार सिर्फ कागजी कार्रवाई करती रहेगी या उनको बाहर भी निकालेगी यह भविष्य बताएगा वैसे मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो पाने की कोई उम्मीद भी है.
मित्रों, कहाँ तो मोदी ने वादा किया था कि उनके प्रत्येक कदम देशहित में होंगे और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का पुनरोद्धार किया जाएगा वहीँ एक साल में ही २०१६-१७ में सार्वजनिक क्षेत्र को ३०००० करोड़ रूपये का घाटा हुआ है. दुनियाभर में तेल निकालने में झंडे गाड़ चुकी ओएनजीसी मुंह ताक रही है और देश में पेट्रोल के ब्लॉक न जाने क्या ले-देकर वेदांता को दिए जा रहे हैं. राफेल सहित तमाम रक्षा सौदे संदेह के घेरे में हैं लेकिन सरकार कुछ भी बताने को तैयार नहीं है जबकि इन मामलों में उसे अविलम्ब श्वेत-पत्र जारी करना चाहिए और देश की जनता को विश्वास में लेना चाहिए. इसी तरह से पार्टी फंड में आनेवाले चंदों की जानकारी को इस सरकार ने नया कानून लाकर और भी गुप्त कर दिया है जबकि वादा पूर्ण पारदर्शिता लाने का था.
मित्रों, नेशन फर्स्ट तो अब सुनने में भी नहीं आता फिर देखने में कहाँ से आए? केंद्र सरकार पूरी तरह से इस जुगाड़ में लगी हुई है कि कैसे अगला चुनाव जीता जाए. कभी वो एससी-एसटी से सम्बद्ध सुप्रीम कोर्ट के न्यायपूर्ण और विवेकसम्मत फैसले को पलटती  है तो कभी कहती है कि अगली जनगणना में जातीय आंकड़े जारी किए जाएंगे. मतलब यह कि उन लोगों को अब देश की कीमत पर कुर्सी चाहिए जो यह कहकर सत्ता में आए थे कि हमारी प्राथमिकता में देश सर्वोपरि होगा. कहाँ तो हम समझे थे कि मोदी सरकार जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून लाएगी और कहाँ ये जातीय जनगणना के माध्यम से जनसंख्या बढ़ाकर सरकारी अभियान को पलीता लगाने वाले लोगों को ईनाम और इस अभियान में बढ़-चढ़कर भाग लेनेवालों को दंड देने जा रही है। जैसे ही इस जनगणना की रिपोर्ट सामने आएगी पिछड़ी जाति की गन्दी राजनीति करनेवाले भ्रष्ट नेता जनसँख्या के आधार पर आरक्षण की मांग शुरू कर देंगे और इस प्रकार फिर से देश में १९९० के दशक जैसा विषाक्त वातावरण व्याप्त हो जाएगा. कुल मिलाकर, कहाँ तो मोदी कहते थे कि उनको कांग्रेस सरकारों द्वारा ६० साल में किए गए गड्ढों को भरना है और कहाँ खुद उनकी सरकार ने सिर्फ ४ सालों में इतने गड्ढे कर दिए हैं कि अब उनको भरने में आनेवाली सरकारों को ६० साल लग जाएंगे बशर्ते वे शुद्ध मन से भरने के प्रयास करें और पहले से बने गड्ढों को और गहरा न करें.

रविवार, 19 अगस्त 2018

सिर्फ नारों से नहीं होगी भारत की जय

मित्रों, जब भी स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस आता है हमारे भीतर देशभक्ति का सोडा वाटर जैसा जोश उमड़ने लगता है. इधर दिन गुजरा और उधर जोश गायब. इन दो दिन हम खूब नारे लगाते हैं भारत माता की जय. मानों हमारे नारे लगाने से ही भारत माता की जय हो जाएगी और हमारा देश दुनिया का सिरमौर बन जाएगा. अगर ऐसा होता तो आज हमारा देश शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, प्रति व्यक्ति आय, परिवहन आदि प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ा हुआ नहीं होता. चीन और भारत की एक समय एक बराबर जीडीपी थी आज उनकी हमारी से चार गुना से भी ज्यादा है. क्योंकि चीन के लोग सिर्फ नारे नहीं लगाते बल्कि राष्ट्र और राष्ट्र निर्माण के प्रति सच्ची निष्ठा रखते हैं. हमारी तरह सिर्फ अधिकारों की बात नहीं करते बल्कि उससे कहीं ज्यादा निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं.
मित्रों, सिर्फ नारों से अगर देश का विकास होना होता तो बेशक हमारा देश सबसे आगे होता. हमारे-आपके घर के पास सड़क बनती है, स्कूल बनते हैं, शौचालय बनते है हम कभी यह देखने नहीं जाते कि निर्माण की गुणवत्ता कैसी है, इंजिनियर, ठेकेदार कोई अपने कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देता, अस्पतालों में मरीज जमीन पर पड़े-पड़े कराहते रहते हैं डॉक्टर और नर्स गायब रहते हैं, बैंकों में बिना कमिशन दिए लोन नहीं मिलता, जज घूस लेकर फैसला सुनाते हैं, शिक्षक पढ़ाते नहीं है, ट्रेनों में बेटिकट यात्रा करना वीरता मानी जाती है, अधिकारी दरिद्र को नारायण तो क्या इन्सान तक नहीं मानते. शोचनीय है कि जब हममें से कोई अपने कर्तव्यों का पालन करेगा ही नहीं तो देश चीन से कैसे टक्कर लेगा? उस पर तुर्रा यह कि हमें देश में हर चीज दुरुस्त चाहिए और मुफ्त में चाहिए. सडकों पर दुर्घटनाओं के शिकार तड़पते रहते हैं हम ध्यान तक नहीं देतेऔर लोग आते-जाते रहते हैं क्योंकि मरनेवाला हमारा सगा नहीं होता, छेड़खानी होती रहती है लेकिन हम चुप रहते हैं क्योंकि लड़की हमारी कोई नहीं होती है. तथापि अगर हमारा कोई अपना इस तरह की परिस्थितियों में फंस जाता है तो हम इंसानियत की दुहाई देने लगते हैं कि लोगों ने अस्पताल क्यों नहीं पहुँचाया, छेड़खानी का विरोध क्यों नहीं किया?
मित्रों, कहने का तात्पर्य यह है कि हम निहायत स्वार्थी थे, हैं और रहेंगे. संकट जब तक हमारे अपनों पर नहीं आता, जब तक हम सीधे-सीधे प्रभावित न हों हम आखें मूंदे रहते है. हम बोलेंगे नहीं मौका मिलने पर जमकर भ्रष्टाचार भी करेंगे लेकिन हमें सरकारी सेवाएँ दुरुस्त और भ्रष्टाचारमुक्त चाहिए. आज सरकार सबकुछ निजी क्षेत्र के हवाले करती जा रही है, कल शायद हमारे पास स्वच्छ पानी पीने और स्वच्छ हवा में साँस लेने की भी आजादी नहीं रहेगी, सबकुछ बड़ी-बड़ी कंपनियों के हाथों में होगा लेकिन हम बेफिक्र है और इन्टरनेट पर व्यस्त हैं. अभी ही देश की ८० फीसदी से भी ज्यादा संपत्ति १० प्रतिशत सबसे धनी लोगों के पास है और सरकार की कृपा से अमीरी-गरीबी के बीच की खाई रोजाना बढती ही जा रही है. जैसे-जैसे सरकार विभिन्न क्षेत्रों से अपना हाथ खीचेगी, सरकारी प्रतिष्ठानों के साथ spoil and sell अर्थात पहले बर्बाद करो फिर बेच दो की नीति पर चलती रहेगी हमारे जीवन से जुड़े हर पहलू पर निजी क्षेत्र का कब्ज़ा बढ़ता जाएगा. हमारी आजादी खतरे में है और हम बेखबर हैं इन्टरनेट पर पर व्यस्त हैं. हमारे पास
रात के २ बजे तक कुछ भी सोचने का समय नहीं है.
मित्रों, जब तक हम इस तरह की सोंच रखेंगे हो ली भारतमाता की जय. तब तक तो भारत नीचे से ही नंबर एक आता रहेगा, तब तक चीन और पाकिस्तान हमें आंख दिखाते रहेंगे चाहे हम कितनी भी बड़ी सेना क्यों न खडी कर लें क्योंकि देश का बल सेना नहीं होती जनता होती है जनसामान्य की देश के प्रति निष्ठा होती है. तो मित्रों, संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों के साथ मौलिक कर्तव्यों को भी जानिए, उनका पालन करिए, सरकारी नीतियों के प्रति सजग रहिए और फिर लगाईए नारा-भारत माता की जय!

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

अच्छा हुआ कि अटल तुम चले गए

मित्रों, गीता कहती है जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। अर्थात पैदा हुए की जरूर मृत्यु होती है और मरे हुए का जरूर जन्म होता है. अटल जी भी हमारी तरह जीव थे, मानव थे इसलिए उनका मरना भी तय था. यह सही है कि आज देश में शोक की जबरदस्त लहर है लेकिन मैं समझता हूँ कि वे पिछले कई सालों से जिस तरह का कष्ट भोग रहे थे और जिस तरह की बीमारी से ग्रस्त थे उनका चले जाना ही ठीक था. हमारे देहात में कहा जाता है कि चलते-फिरते मौत आ जाए तो सबसे अच्छा. फिर हमें कैसे अच्छा लगता कि हमारा प्रिय, हमारा आदर्श शारीरिक यातना भोगे. वैसे मैं समझता हूँ अटल जी की बीमारी उनके लिए वरदान भी थी क्योंकि अगर वे आज स्वस्थ होते तो आज के राजनैतिक हालात और राजनैतिक संस्कृति से उनको अपार मानसिक पीड़ा होती जिससे वे रोजाना मर रहे होते. कम-से-कम अपने शव पर फूल चढाने आए स्वामी अग्निवेश की पिटाई से उनतको मरणान्तक पीड़ा जरूर होती.
मित्रों, वैसे मेरा मानना है कि अटल फिर आएँगे, फिर से जन्म लेंगे वादा जो किया है मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?  और भारत में ही जन्म लेंगे क्योंकि यही वह धरती है जहाँ जन्म लेने को देवता भी लालायित रहते हैं इसलिए उदास नहीं होईए. वैसे सच पूछिए तो उदास तो मैं भी हूँ, मेरी ऑंखें बार-बार भर आ रही हैं, मेरी लेखनी भी रो रही है हाथ बार-बार रूक जा रहे हैं लिखते-लिखते लेकिन नियति के आगे आप-हम सब बेबस हैं. कुछ कर नहीं सकते. कोई कुछ नहीं कर सकता. विश्वास नहीं होता कि जिनका भाषण सुनने के लिए हमने कई बार मीलों रेल और बस यात्रा की. जिनका प्रत्यक्ष भाषण सुनते हुए मन कभी नहीं थका और लगातार-उत्तरोत्तर लालची होता गया कि कुछ मिनट और यह स्वर कानों में पड़ता रहे, कुछ देर और, कुछ देर और, जिनको सामने देखकर सर गर्वोन्नत हो जाता था कि हमने उनको अपनी नंगी आँखों से देखा है वह मधुर छवि वही मधुर छवि हास्यम मधुरम, वाक्यम मधुरम, दृश्यम मधुरम अब हमारे आगे से जा चुकी है, दूर बहुत दूर.
मित्रों, मेरे पास उनके साथ निकाली गयी कोई तस्वीर नहीं है. मेरी उनसे कभी मुलाकात भी नहीं हुई लेकिन फिर भी हमेशा बालपन से ही मेरे मन में उनके प्रति स्वतःस्फूर्त श्रद्धा रही, प्रेम रहा, वो भी अनंत. मैं कल्पना करता कि क्या मैं उनकी शैली में भाषण कर सकता हूँ यद्यपि मैं जानता था कि उनके जैसा कोई दूसरा नहीं हो सकता और न ही उनकी तरह वक्तृता कर सकता है. उनके भाषणों को सुनना मेरी दीवानगी थी. हम कई दिन पहले से इंतजार करते कि आज वो बोलनेवाले हैं. उनको जुमले नहीं आते थे न ही उनको अपने ऊपर कोई अभिमान था. वे सवालों से डरते नहीं थे बल्कि उनका मजा लेते. कोई काम उनसे नहीं होता तो जनता से सीधे माफ़ी मांग लेते कि हमने नहीं हुआ, कभी बहाना नहीं बनाया, उनका शरीर क्रमशः जवान और बूढा जरूर हुआ लेकिन उनका दिल हमेशा एक बच्चे का रहा, सीधा और सच्चा. किसी की बडाई करनी है तो करनी है और किसी की आलोचना करनी है तो करनी है लेकिन मर्यादा का बिना उल्लंघन किए, मीठे शब्दों में.
मित्रों, मुझे याद है कि जब वे २००४ में चुनाव हारे थे तब हमने दो दिनों तक खाना नहीं खाया था लेकिन आज मैं खाना खाऊंगा क्योंकि वो मरा नहीं है मुक्त हुआ है एक ऐसी लाईलाज बीमारी की यातना से जिसमें आदमी जिंदा लाश बनकर रह जाता है. अभी कुछ दिन पहले महनार में जब मैं प्रसिद्ध साहित्यकार प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन से मिलने गया था जो इसी बीमारी से ग्रस्त थे और अपनी सुध-बुध खो बैठे थे तब मैंने उनके लिए भी ईश्वर से यही प्रार्थना की थी कि हे प्रभु इस महामानव को मुक्त कर दे. यद्यपि मुझे लगता है कि ईश्वर तो अटल जी को वर्षों पहले ही अपने पास बुला लेना चाहता था लेकिन यह करोड़ों देशवासियों का अटल प्यार ही था जो भगवान को भी बार-बार सोंचने पर मजबूर कर देता था और हाथ रोक लेने को बाध्य कर देता था. अटल तुम अपनी तरह के अकेले थे न कोई तेरे जैसा हुआ है न होगा, अलविदा मेरे बालकृष्ण....
मित्रों, अंत में मैं जयपुर निवासी शिव कुमार पारिक का आभार प्रकट करना चाहूँगा जिन्होंने १९५७ से अंतिम साँस तक हमारे प्रिय नेता की छाया की तरह साथ रहकर पूर्ण निस्स्वार्थ भाव से सेवा की.

सोमवार, 13 अगस्त 2018

क्या भारत में अघोषित आपातकाल है

मित्रों, इस साल न जाने क्यों भाजपा व संघ परिवार से जुड़े लोगों ने आपातकाल पर खूब चर्चा की। चर्चा करने में कोई हर्ज भी नहीं है। चर्चा होनी चाहिए। जब चुनाव नजदीक हो तो कांग्रेस शासन की ज्यादतियों पर और भी जोर-शोर से चर्चा होनी चाहिए। तथापि विचारणीय यह भी है कि इस चर्चा का उद्देश्य क्या है.
मित्रों, वर्तमान भारत में अभिव्यक्ति की आजादी की जो स्थिति है और जिस तरह से मोदी सरकार ने विरोधी स्वरों को दबाना शुरू कर दिया है उससे तो मुझे ऐसा लगता है और ऐसा लगने में मैं कोई बुराई भी नहीं मानता कि इस सारी कवायद का उद्देश्य मानो यह दिखाना है कि हमने अब तक वैसा कुछ नहीं किया है या उस हद तक मीडिया को जलील नहीं किया है जैसा कि इंदिरा जी ने किया था. मोदी सरकार शायद कलमवीरों को यह दिलासा देना चाहती है कि हमने  आपको सिर्फ बाधित किया है जेल तो नहीं भेजा. हमने अघोषित रूप से आपातकाल लगाया है उसकी घोषणा तो नहीं की.
मित्रों, २३ अप्रैल २०१४ को एबीपी न्यूज़ को दिए इंटरव्यू  क्या आपने देखा मोदी का अब तक का सबसे कठिन ईंटरव्यू? में मोदीजी से पूछा था कि क्या आप भविष्य में हमारे साथ भी सख्ती बरतेंगे तो मोदी जी ने हँसते हुए कहा था कि यह आपके व्यवहार पर निर्भर करेगा. कदाचित मुझे लगता है कि मीडिया को दबाने की कोशिश १९७५ से पहले और १९७७ के बाद कभी बंद ही नहीं हुई. हाँ, बांकी की सरकारों ने जो परदे के पीछे से किया और कर रही है इंदिरा जी ने खुलेआम किया. हम इतिहास की किताबों में पढ़ते हैं कि वर्नाकुलर प्रेस एक्ट,१९७८ अमृत बाज़ार पत्रिका को दबाने के उद्देश्य से लाया गया था लेकिन आपको किसी ने नहीं बताया होगा कि मोदी सरकार न्यूज़ पोर्टल्स को नियमित करने के लिए जो एक्ट लाने जा रही है वो वायर न्यूज़ पोर्टल को नियंत्रण में लाने के लिए लाने जा रही है.
मित्रों, अभी पुण्य प्रसून वाजपेयी को जिस तरह से पहले मास्टर स्ट्रोक का प्रसारण बाधित करके तंग किया गया और बाद में चैनल से ही चलता कर दिया गया और वे चैनल पर जिस तरह के आरोप लगा रहे है उनको देखते हुए आप कैसे इस बात की कल्पना भी कर सकते हैं कि देश में मीडिया आजाद है? कार्यक्रम मोदी सरकार के खिलाफ भले ही हो आप उनमें न तो मोदी का नाम ही लेंगे और न ही मोदी के फूटेज ही दिखाएंगे. हद हो गयी यार. यद्यपि मैं वाजपेयी जी का कटु आलोचक रहा हूँ लेकिन फिर भी यह गौर करने वाली बात है कि जब इतने बड़े पत्रकार के साथ चैनल ऐसा कर सकता है कि नाचो मगर पांव में रस्सी बांधकर तो फिर सरकार विरोधियों का अंतिम ठिकाना न्यूज़ पोर्टल ही तो बचता है.
मित्रों, जहाँ तक हमारा और हमारे जैसे उद्दाम-निष्काम देशभक्तों का सवाल है तो हमें तो हर सरकार में दबाया गया है. एक समय हम भड़ास के दिग्गज लेखकों में से थे लेकिन २०१५ के चुनावों में नीतीश सरकार ने यशवंत जी को विज्ञापन की बोटी देकर वहां से हमें निष्कासित ही करवा दिया. आज भी विचारधारा और नीति के नाम पर मुझे कभी यहाँ तो कभी वहां लिखने से रोका जाता है. मुझे याद आता है कि प्रसिद्ध इतिहासकार लेनपुल ने दीने इलाही को अकबर की मूर्खता का स्मारक बताया था। कारण अकबर से इसके कारण एक साथ हिंदू और मुसलमान दोनों नाराज हो गए थे। हिंदू सशंकित थे कि अकबर उनका धर्म बदल रहा है तो वहीं मुसलमान इसलिए नाराज हो गए क्योंकि इस धर्म के प्रावधान इस्लाम और कुरान को नहीं मानते थे. लेकिन हम भी जिद के पक्के हैं हमें अकबर बनना तो मंजूर है लेकिन जाकिर नायक या प्रवीण तोगड़िया बनना कदापि मंजूर नहीं. अपना तो बस जिंदगी जीने का एक ही उसूल है कि चाहे कोई खुश हो चाहे गालियाँ हजार दे मस्तराम बन के जिंदगी के दिन गुजार दे. हमारे लिए कथनी और करनी दोनों में ही देश सर्वोपरि है और रहेगा. भारत माता की जय.

रविवार, 29 जुलाई 2018

सुशासन की सड़ांध मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड

मित्रों, मैंने काफी पहले ६ मार्च,२०१४ को ही अपने एक आलेख मेरी सरकार खो गई है हुजूर के द्वारा घोषणा कर दी थी कि बिहार में सरकार नाम की चीज नहीं रह गई है.
मित्रों, जब किसी राज्य में सरकार नाम की चीज ही नहीं रहे और राजदंड का किसी को भय ही नहीं रहे तो फिर उस राज्य में क्या-क्या हो सकता है आप दूर बैठे लोग इसका अंदाजा नहीं लगा सकते। हमने तो बिहार में इसे प्रत्यक्ष भोगा है और भोग रहे हैं. अगर हम नीतीश कुमार के २००५ से २०१० तक के शासन को निकाल दें तो पिछले २३ सालों से बिहार में सरकार है ही नहीं. जिसको जो मन में आए करे, खून-तून-बलात्कार सब माफ़. बस आपके पास पैसा और रसूख होना चाहिए.
मित्रों, कहने का मतलब यह कि बिहार में बहुत पहले से मेड़ खेत को खाने में लगा है, बहुत पहले से नैतिकता सिर्फ एक शब्द बनकर मृत्युशैय्या पर है, बहुत पहले से सीएम के लेकर चपरासी तक हर शाख पे उल्लू बैठा है लेकिन अब तो सुशासन के गड्ढे में गंदगी इतनी बढ़ गई है कि सड़ांध के मारे साँस तक लेना मुश्किल है.
मित्रों, अभी कुछ महीने पहले ही बिहार में अपनी तरह के एक अनोखे घोटाले का सृजन हुआ था नाम था सृजन घोटाला. आपने ऐसा कहीं नहीं देखा होगा कि सरकारी पैसे को किसी के निजी खाते में डाल दिया जाए और ऐसा दशकों तक होता रहे. जब मुख्यमंत्री-मंत्री-अधिकारी सबके-सब ऐय्याश और भ्रष्ट होंगे और दिन-रात ऐय्याशी में डूबे होंगे तो कुछ भी देखने को मिल सकता है, आश्चर्य कैसा?
मित्रों, तथापि अभी सुशासनी कालीन के नीचे छिपी जो गंदगी मुजफ्फरपुर में अनावृत हुई है उसने पूरी दुनिया के जनमानस को जैसे हिलाकर रख दिया है.  नाबालिग व अनाथ बच्चियों के लिए सरकारी अनुदान पर एनजीओ द्वारा संचालित बालिका गृह को कोठे में बदल दिया गया. न केवल एनजीओ सेवा संकल्प समिति के संचालक ब्रजेश ठाकुर ने बल्कि बिहार की समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा के पति चंदेश्वर वर्मा ने बच्चियों के मुँह में कपड़े ठूँसकर जब चाहा बलात्कार किया. अब तक मेडिकल जाँच में बालिका गृह में रह रहीं ४२ में से ३४ बच्चियों के साथ लगातार बलात्कार होने की पुष्टि हो चुकी है। इतना ही नहीं बाहर के लोग भी आकर यहाँ अपनी काम-पिपासा शांत करते थे और बच्चियों को इसके लिए बाहर भी भेजा जाता था।
मित्रों, मामला तो फिर भी दब जाता जैसे आज तक सुशासन बाबू दबाते आ रहे हैं लेकिन भला हो बिहार महिला आयोग की अध्यक्षा दिलमणि मिश्र का जिन्होंने बिना किसी दबाव में आए अपने कर्तव्यों को अंजाम दिया और दे रही हैं।
मित्रों, जब नीतीश ने दोबारा भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई तो मुझे लगा था कि दो-दो ईंजनों के चलते बिहार का तीव्र विकास होगा लेकिन ऐसा कुछ होता अब तक तो दिख नहीं रहा अलबत्ता बिहार दोगुनी गति से जरूर घनघोर अराजकता की ओर अग्रसर हो गया है. पता नहीं कब तक दिलमणि मिश्र को महिला आयोग में बनाए रखा जाता है. फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि वो जब तक इस कुर्सी पर हैं अबलाओं को न्याय मिलने की उम्मीद जिंदा है जिस दिन उनको हटा दिया जाएगा मामले का पटाक्षेप हो जाएगा. वैसे मेरा मानना तो यह है कि इन बच्चियों को व्यवस्था किसी भी तरह न्याय दे ही नहीं सकती. उन्होंने जो भोगा है उसे अब उनके मानसपटल से मिटाया ही नहीं जा सकता. सोंचने वाली बात तो यह भी है कि जब बिहार में बालिका गृह की ऐसी दशा है तो वहाँ की जेलों और थानों की हाजतों में बंद महिलाओं के साथ अधिकारी-कर्मचारी और नेता क्या कुछ नहीं करते होंगे? वैसे उन दरिंदों को जिनका नाम अभी तक इस मामले में आया है क्या सजा दी जाए? अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं तो यही कहूंगा कि बीच चोराहे पर इनको फांसी दी जाए। साथ ही बिहार का मुख्यमंत्री बदला जाए और किसी योग्य व्यक्ति को यह पद दिया जाए क्योंकि नीतीश कुमार अब न केवल महाबेकार हो चुके हैं बल्कि बिहार के लिए अतिशय हानिकारक भी साबित होने लगे हैं।

सोमवार, 23 जुलाई 2018

गोतस्करी के लिए दोषी कौन?

मित्रों, हम सभी जानते हैं कि हिन्दुओं के जीवन में गायों का क्या स्थान है? हमारे जनजीवन के बहुत सारे महत्वपूर्ण शब्द गौ से बने हैं यथा-गोत्र, ग्राम या गाँव, ग्वाला, गोस्वामी, गंवार, गोष्ठी, गोधुली, गौरी, गोरस, गोधूम, गौना, गोप, गोपिका, गोपाल आदि. गायों की रक्षा की जानी चाहिए और निश्चित रूप से की जानी चाहिए लेकिन कैसे? क्या हमें तलवार लेकर सडकों पर उतर आना चाहिए?
मित्रों, आपमें से बहुतों के पास गायें होंगी. मैं आपसे पूछता हूँ कि आप गायों को किस रूप में देखते हैं. क्या आप उनको माता मानते हैं या फिर धनार्जन का स्रोत मात्र समझते हैं? गायों के प्रति हमारी सोंच में पिछले कुछ दशकों में निश्चित रूप से फर्क आया है. अब हम गायों को माता नहीं मानते बल्कि धनोपार्जन के साधनों में से एक मानते हैं. गायों के बच्चे मर जाएँ तो जबरन सूई चुभोकर दूध दूहते हैं भले ही इससे गायों को कितना ही दर्द क्यों न हो या गायों के स्वास्थ्य पर दूरगामी प्रभाव ही क्यों न पड़े. गायें अगर दूध देना बंद कर दें तो मुझे नहीं लगता कि हम एक दिन भी उसे अपने खूंटे पर रखेंगे और हम उनको छोड़ देंगे भटकने के लिए, तिल-तिल कर मरने के लिए. भला ये कैसी गोभक्ति है? कई पशुपालक पटना जैसे शहरों में प्रत्येक दोपहर में दुधारू गायों को भी सड़कों पर छोड़ देते हैं जूठन और अपशिष्ट खाने के लिए. उनसे पूछिए कि यह कैसी गोसेवा है? इनमें से कई गायें तो पोलीथिन खाकर मर भी जाती हैं.
मित्रों, जब गाय बच्चा देती है तो हम भगवान से मनाते रहते हैं कि बाछी हो बछड़ा नहीं हो क्योंकि अब खेती ट्रैक्टर से होती है बैलों से नहीं. फिर भी अगर बछड़ा हो ही गया तो एक-दो साल अपने पास रखकर हांक देते हैं. क्या हम फिर पता लगाते हैं कि उनका क्या हुआ? वे कसाइयों के हाथों पड़ गए या किसी ने उनको जहर तो नहीं दे दिया? देश के बहुत सारे ईलाकों में किसान इन छुट्टा सांडों से बेहद परेशान हैं क्योंकि वे उनकी सारी फसलें चट कर जाते हैं. पालना है तो इन नर शिशुओं को भी पालिए अन्यथा गौपालन ही छोड़ दीजिए. हमने अपने बचपन में देखा है कि जब तक बैलों से खेती होती थी यही बैल महादेव के रूप में पूजित थे और आज यही बैल नोएडा-गाजियाबाद-दिल्ली के चौक-चौराहों पर जमा रहते हैं और अक्सर इनके पैरों से होकर कोई-न-कोई वाहन गुजर जाता है और फिर ये बेचारे रिसते घावों और सड़ते अंगों की अंतहीन पीड़ा झेलने को विवश होते हैं. कभी आपने इनकी आँखों से लगातार बहते हुए आंसुओं को देखा है,समझा है?
मित्रों, यह कैसा पुण्य है? आज के अर्थप्रधान युग में गोपालन पुण्य नहीं पाप है और इसे हमने और हमारे लालच ने पापकर्म बना दिया है.
मित्रों, कई बार तो इन छुट्टा बछड़ों को हिन्दू ही पकड़ लेते हैं और कसाइयों के हाथों बेच देते हैं. कई बार ग्रामीण पशु हाटों पर हम देखते हैं कि यादव जी, सिंह जी या महतो जी गाय खरीदने आते है ट्रक लेकर. परन्तु उनमें से कई वास्तव में कसाइयों के एजेंट होते हैं और आगे जाकर ट्रक और जानवर कसाइयों को सौंप देते हैं. अब आप ही बताईए कि क्या गोतस्करी के लिए अकेले मुसलमान जिम्मेदार हैं? क्या इसके लिए हम हिन्दू भी दोषी नहीं हैं?
मित्रों, मौका मिलते ही हम गोतस्करों पर हाथ साफ़ करने लगते हैं. कई बार तो उनको जान से भी मार देते हैं लेकिन क्या इससे तस्करी रूक जाएगी? जब तक हम अपनी सोंच नहीं बदलेंगे, गायों को वास्तव में गौमाता नहीं मानेंगे और बछड़ों को अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ना नहीं बंद करेंगे, फिर से बैलों से खेती करना शुरू नहीं करेंगे गौतस्करों को मारने-मात्र से तस्करी रूकनेवाली नहीं है. सोंचिएगा.
मित्रों, हमें एक और बात भेजे में उतार लेनी होगी कि हर मुसलमान गौ तस्कर नहीं होता कुछ गौपालक भी होते हैं. जब मेरे पिताजी पटना कॉलेज में पढ़ते थे तो साठ के दशक में पटना कॉलेज में इतिहास के प्रोफ़ेसर थे सैयद हसन अस्करी. आप चाहें तो गूगल पर भी उनको सर्च कर सकते हैं. मध्यकालीन भारत के जाने-माने विद्वान. वे विशुद्ध शाकाहारी थे और उन्होंने कई दर्जन गाय पाल रखी थी और पूरा वेतन गायों पर ही खर्च कर डालते थे. गायों से उन्हें बेहद प्यार था. साइकिल से कॉलेज आते भी करियर पर कटहल के पत्ते लेकर आते और रास्ते में जहाँ भी गाय दिख जाए खिलाने लगते. मुझे तो लगता है कि आज के माहौल में वे बेचारे भी कहीं भीड़ का शिकार हो जाते.

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

कांग्रेस के सेल्फ गोल

मित्रों, अभी-२ फुटबाल का महाकुम्भ समाप्त हुआ है. आप तो जानते हैं कि फुटबाल में कभी-२ खिलाडी गलती से अपने ही पाले में गोल मार बैठता है. इन दिनों भारत की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस के नेताओं में भी न जाने किस कारण से सेल्फ गोल यानि आत्मघाती गोल मारने की होड़-सी लगी हुई है. को बड छोट कहत अपराधू. यह प्रवृत्ति सिर्फ छुटभैय्ये नेताओं तक सीमित होती तो फिर भी गनीमत थी लेकिन जब पार्टी का अध्यक्ष भी इस कुकृत्य में सहयोग देने लगे तो न केवल आश्चर्य होता है बल्कि हँसी भी आती है.
मित्रों, सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस ने युद्ध के पूर्व ही हार मार ली है? या फिर भाजपा से कोई गुप्त समझौता कर लिया है कि तुम २०१९ जीत जाओ सिर्फ हमारे राजपरिवार को जेल मत भेजो? वर्ना क्या कारण थे कि ४ सालों में रोबर्ट वाड्रा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई या फिर नेशनल हेराल्ड मामला कछुए की गति से रेंगता रहा? क्यों कांग्रेस के सारे नेता आज भी राम मंदिर की खिलाफ लड़नेवाले पक्षकारों की तरफ से अदालत में पैरवी करते दिख रहे हैं जबकि उनको पता है कि इससे बहुसंख्यक जनता में पार्टी के प्रति नाराजगी बढेगी? मैं नहीं समझता कि चाहे कपिल सिब्बल हों या राजीव धवन बिना पार्टी आलाकमान की अनुमति के ऐसा कर रहे हैं? अगर इसके लिए पार्टी की अनुमति है तो इसका सीधा मतलब है कि आलाकमान ने २०१४ की हार के बाद आई एंटोनी रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में डाल दिया है और अगर नहीं है तो फिर धवन और सिब्बल पार्टी में बने हुए क्यों हैं?
मित्रों, पूर्व रक्षा मंत्री एंटोनी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कांग्रेस की हार के लिए जनता के बीच कांग्रेस की हिन्दूविरोधी छवि बन जाना जिम्मेदार था. यह नितांत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मणिशंकर, दिग्विजय, थरूर, सोज, नदीम जैसे नेताओं के अनर्गल प्रलापों के चलते तो पार्टी की वही छवि आज भी बनी हुई है और उस आग में घी देने का काम किया है स्वयं पार्टी अध्यक्ष राहुल गाँधी ने यह कहकर कि कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है और वे मंदिरों में जाने के लिए क्षमा मांगते हैं.
मित्रों, सवाल उठता है कि कांग्रेस पर तो १९४७ से पहले जिन्ना की मुस्लिम लीग हिन्दुओं की पार्टी होने का आरोप लगाती थी फिर कांग्रेस स्वयं मुस्लिम लीग बन सकती है? किसी पार्टी की विचारधारा में इतना विरोधाभासी परिवर्तन भला कैसे संभव है? क्या कांग्रेस को पता नहीं है उसकी मुस्लिम-तुष्टिकरण की नीतियाँ उसे २-४ सीटें भी नहीं दिला सकतीं और वो ४४ से ४ पर पहुँच जाएगी? सवाल तो यह भी है कि क्या राहुल गाँधी सचमुच ड्रग्स लेते हैं? अगर नहीं तो इसका अभी तक खंडन क्यों नहीं आया और सुब्रह्मण्यम स्वामी के खिलाफ मानहानि का मुकदमा क्यों नहीं किया गया? अगर हाँ तो फिर उनको कोई सुझाव देना ही बेकार है. लगे रहो राहुल बबुआ फिर तो लगे रहो अफीम खाकर कांग्रेस के अंतिम संस्कार में. पप्पूजी फिर तो असली गाँधी तुम्ही हो और महात्मा गाँधी के इस अधूरे काम को पूरा करोगे.

गुरुवार, 5 जुलाई 2018

मोदी जी को गुमशुदा आंकड़ों की तलाश

मित्रों, पिछले दिनों हमारे माननीय प्रधानसेवक जी ने दो महत्वपूर्ण बयान दिए हैं वैसे भी बेचारे शोले की बसंती की तरह बहुत कम बोलते हैं. पहले में उन्होंने कहा है कि किसी को दिखे या न दिखे देश बदल रहा है. तो पिछले दिनों हुआ ये कि एक स्कूल में परीक्षा में एक बच्चे ने सादी कॉपी जमा कर दी. जब उसे शून्य अंक प्राप्त हुए तो जा पहुंचा शिक्षक के पास तमतमाया हुआ और बोला कि किसी को दिखे या न दिखे मैंने तो कॉपी में न केवल सारे प्रश्नों के उत्तर दिए हैं बल्कि सही उत्तर दिए हैं. टीचर ने कहा वो कैसे तो उसने कहा कि पीएम भी तो यही कह और कर रहे हैं.
मित्रों, पिछले दिनों हमारे माननीय प्रधानसेवक जी ने अपना दूसरा बयान एक साक्षात्कार के दौरान दिया और कहा कि देश में पिछले ४ सालों में भारी संख्या में रोजगार गठन हुआ है लेकिन दुर्भाग्यवश उनके पास आंकड़े नहीं हैं. कदाचित उनका आशय इस बात से था कि वे खो गए हैं और मिल नहीं रहे हैं. गजब! हम तो समझे थे कि यह सरकार ही आंकड़ों और आंकड़ेबाजों की सरकार है और यह सरकार खुद ही आंकड़ों की तलाश में है. हमने वर्षों पहले तेजाब फिल्म में एक गाना देखा था-खो गया ये जहाँ, खो गया आसमाँ, खो गई हैं सारी मंजिलें, खो गया है रस्ता. लेकिन मैं ठहरा भावुक व्यक्ति. यूं तो मैं कॉलेज से छुट्टी नहीं लेता आखिर मोदीसमर्थक जो हूँ. जब मोदी जी छुट्टी नहीं ले रहे तो मैं कैसे ले सकता हूँ लेकिन लेने जा रहा हूँ क्योंकि मुझसे मोदी जी दुःख देखा नहीं जा रहा इसलिए मैं अगले हफ्ते बिहार जा रहा हूँ रोजगार के गुमशुदा आंकड़ों को तलाशने. वैसे मैं सुशासन बाबू को लाख-लाख धन्यवाद देना चाहूँगा कि उन्होंने भयंकर बेरोजगारी के दौर में बिहार के युवाओं को शराब की तस्करी के रूप में अच्छा रोजगार दे दिया है.
मित्रों, अभी-अभी सरकार ने फसलों के कथित न्यूनतम समर्थन मूल्य को ड्योढ़ा कर दिया है. कथित इसलिए क्योंकि वो वास्तव में अधिकतम विक्रय मूल्य है न्यूनतम नहीं. क्योंकि किसानों से उस दाम पर कोई फसल खरीदेगा ही नहीं तो वो दाम तो उनको मिलने से रहे.
मित्रों, इस सम्बन्ध में मुझे अपने बचपन का एक खेल याद आ रहा है. जिसमें दो बच्चे दोनों हाथों को ऊपर उठाए और पकडे खड़े हो जाते थे और हम ट्रेन की तरह आगे-पीछे खड़े होकर उनके दरवाजानुमा हाथों के बीच से गुजरते. तब हम उनसे कहते कि सिमरिया (बेगुसराय में है) पुल जाने दो. वो कहते दाम कौन देगा तो आगेवाला यह कहते हुए आगे निकल जाता कि पीछेवाला लड़का और इस तरह जो सबसे पीछे होता वो फंस जाता. तो मोदी जी से पहले भी कितनी सरकारें आईं और चली गईं और हम हैं कि उस पीछे आनेवाली सरकार का इंतजार ही कर रहे हैं जो न्यूनतम समर्थन मूल्य को वास्तव में धरातल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य साबित करके दिखाए. मैं समझता हूँ कि ऐसा वही प्रधानमंत्री कर पाएगा जिसके पास वास्तव में ५६ ईंच का सीना होगा न कि ५६ ईंच की जुबान.

बुधवार, 27 जून 2018

लोकतंत्र अमर रहे

मित्रों, यह हमारे लिए अतिशय गौरव का विषय है कि हम २१वीं में जी रहे हैं. मानवता चाँद पर तो पिछली सदी में ही पहुँच गया था अब वो मंगल पर जाने की तैयारी में है. लेकिन यह हमारे लिए अतिशय शर्म का विषय है कि हमारा समाज आज भी जातिभेद के दुष्चक्र से निकला नहीं है. हमें आए दिन ऐसी ख़बरें पढ़ने को मिलती हैं जिनमें इस तरह की घोर निंदनीय घटनाओं का जिक्र होता है-जैसे, बड़ी जाति के लोगों ने दलित दूल्हे को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया, दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार इत्यादि.
मित्रों, यह गंभीरतापूर्वक सोंचने का समय है कि हम अपने समाज को कहाँ ले जाना चाहते हैं? अस्पृश्यता या जातिभेद न केवल क़ानूनन अपराध है वरन मानवता के प्रति भी अक्षम्य अपराध है फिर जबकि साक्षरता का स्तर ७५ प्रतिशत को पार कर चुका है हमारा मानसिक स्तर इतना निम्न क्यों है?
मित्रों, हद तो तब हो गई जब जगन्नाथपुरी के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर में भारत के राष्ट्रपति के साथ बदतमीजी की गई. धक्का मारा गया और कोहनी मारी गयी. मैं सच्चाई नहीं जानता कि ऐसा करने के पीछे पंडे की क्या मंशा थी लेकिन अगर ऐसा इस कारण से किया गया क्योंकि वे दलित हैं तो फिर इस घटना की जितनी भी निंदा की जाए कम है. वैसे इस बात की सम्भावना कम ही दिखती है क्योंकि मेरे कई दलित मित्र पुरी जा चुके हैं और उनसे उनकी जाति नहीं पूछी गई. हालाँकिपंडों की रंगदारी मैं स्वयं अपनी आँखों से काशी और देवघर में देख चुका हूँ.
मित्रों, राष्ट्रपति का पद देश का सर्वोच्च पद होता है और पूरे देश का प्रतिनिधि होता है इसलिए उनका अपमान भारत का अपमान है, भारत की सवा सौ करोड़ जनता का अपमान है. सवाल यह भी उठता है कि क्या राष्ट्रपति की सुरक्षा-व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त है? अगर हाँ तो फिर यह घटना कैसे घट गई? अगर नहीं तो नहीं क्यों?
मित्रों, मेरा हमेशा से ऐसा मानना रहा है कि न तो कोई नीच है और न हो कोई महान है क्योंकि सब एक ही तरीके से जन्म लेते हैं. फिर अगर कोई ठाकुर यानि मेरी जाति का व्यक्ति घोड़ी पर चढ़ सकता है तो दलित क्यों नहीं चढ़ सकता? कई बार दलित महिलाओं को गरीबी के कारण दूसरों के खेतों में काम करना पड़ता है जिसका मालिक लोग नाजायज फायदा उठाते हैं जबकि ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए और उनको सोंचना चाहिए कि अगर ऐसा कुकर्म उनकी बहू-बेटियों के साथ हो तो उन पर क्या बीतेगी? इस दुनिया में मेरी नज़र में अगर कोई सबसे बड़ा पाप है तो वो है दूसरों की मजबूरियों का फायदा उठाना. वैसे मैं चाहता हूँ कि बलात्कारियों को जितनी क्रूर सजा दी जा सकती है दी जानी चाहिए और अच्छा हो कि उनको बीच चौराहे पर मृत्युदंड दिया जाए.
मित्रों, आज मुझे एक और खबर ने व्यथित कर दिया है. वो है भारत के प्रधानमंत्री द्वारा लोकतंत्र अमर रहे का नारा लगाना और लगवाना. क्या प्रधानमंत्री मोदी मानते हैं कि भारत में लोकतंत्र मर चुका है क्योंकि अमर रहे का नारा तो दिवंगत के लिए लगाया जाता है? या फिर हमारे प्रधानमंत्री को इतनी छोटी-सी बात का भी ज्ञान नहीं है? जब प्रधानमंत्री इस तरह की गलतियाँ करते हैं तो हमें खुद पर शर्म आती है कि हमने किसे चुन लिया. हमें नहीं चाहिए चौबीसों घंटे जागने वाला प्रधानमंत्री बल्कि हमें ऐसा प्रधानमंत्री चाहिए जो ज्ञानी,समझदार,ईमानदार और वास्तव में देश को अपना सबकुछ माननेवाला देशभक्त हो. जो मदारी की तरह लच्छेदार बातें भले ही न करे वादे पूरे करे. जो अपने मन की बात भी भले ही न सुनाए बल्कि जनता के मन की बात सुने. और प्रत्येक कदम पूरी तैयारी करने के बाद, पूरी तरह से सोंच-समझकर उठाए. जो अपनी उपलब्धियां गिनाए न कि विपक्ष की कमजोरियाँ, यानि वास्तव में सकारात्मक सोंच वाला हो. जो जितना पढ़ा हो उतने का ही दावा करे और ताल ठोंक कर करे. जो हवाई यात्रा पर जाते समय सबके साथ सीढियों पर चढ़ता हुआ नजर आए न कि अकेले जैसे पूरी विदेश नीति वो बिना सचिवों, उच्चायुक्तों और मंत्री के खुद अकेले ही चलाता हो.
मित्रों, एक समय हमने २०१४ के चुनाव परिणामों की तुलना फ़्रांस की राज्यक्रांति से की थी लेकिन यह नहीं बताया था कि फ़्रांस में क्रांति के नाम पर लाखों लोगों को सूली पर चढ़ा दिया गया था और भयंकर अत्याचार किए गए थे. एक तरह का भयानक आतंकराज रॉबस्पियर के नेतृत्व में स्थापित कर दिया गया था. खैर वर्तमान भारत तो क्या फ़्रांस में भी ऐसा संभव नहीं है तथापि समझ में नहीं आता कि हमसे गलती हुई तो कहाँ हुई? समझ में तो आज भी नहीं आता कि हमारे समक्ष सबसे अच्छा विकल्प क्या है. तमाम निराशाओं के बीच हमारे लिए सबसे बड़े सौभाग्य की बात तो यह है कि प्रधानमंत्री द्वारा लोकतंत्र अमर रहे का नारा लगाने के बावजूद भारत में लोकतंत्र जिंदा है भले ही हमारे देश में वो मूर्खों का, मूर्खों द्वारा, मूर्खों के लिए शासन बनकर रह गया हो.