शनिवार, 19 दिसंबर 2009
सरकारी का विकल्प निजीकरण नहीं
जबसे भारत में उदारवाद की हवा चली है अधिकतर अर्थशास्त्री सार्वजनिक क्षेत्र की जगह निजी क्षेत्र को प्राथमिकता देने का समर्थन कर रहे हैं.लगातार सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों का विनिवेश किया जा रहा है.निजीकरण के समर्थकों का मानना है कि इससे कम्पनियों की व्यवस्था और प्रदर्शन में सुधार होगा और उपभोक्ताओं को भी अच्छी सेवा प्राप्त होगी.लेकिन यह सोंच एकपक्षीय है.निजी क्षेत्र अपने कर्मियों को सामाजिक सुरक्षा नहीं देते.जरूरत हुई तो रख लिया नहीं तो निकाल-बाहर कर दिया.साथ ही उनका देशहित से भी कुछ लेना-देना नहीं होता उनका एकमात्र लक्ष्य होता है मुनाफाखोरी.अब मोबाइल सेवा प्रदाता कम्पनियों को ही लें.एयरटेल और रिलायंस जैसी कम्पनियां ग्राहकों की अनुमति के बिना उनके नंबर पर नई-नई योजनाओं को लागू कर देते हैं और पैसे भी काट लेते हैं.यह कोई सुनी-सुनाई बात नहीं है.मैं यह निजी अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ.क्या इस तरह का व्यवहार उचित है?ग्राहक कहाँ-कहाँ और किन-किन के खिलाफ उपभोक्ता अदालतों में मुकदमा लड़ता फिरे?और फ़िर उपभोक्ता अदालतों की स्थिति भी तो अच्छी नहीं है.बिहार के अधिकतर जिलों में तो पूरी संख्या में न्यायाधीश हैं भी नहीं.अभी मंदी का शोर थमा नहीं है.पूरे भारत में मंदी के नाम पर निजी क्षेत्र ने लाखों लोगों को नौकरी से निकल दिया.सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में अभूतपूर्व संख्या में कर्मियों ने पीएफ से पैसे निकले हैं.लाभ हो तो मालिकों का और घाटा हो तो कर्मियों का.इसे और कुछ भले ही कहा जाए न्याय तो नहीं ही कहा जा सकता है.
शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009
अभागा राज्य झारखण्ड
छोटे राज्यों के पक्षधरों को उम्मीद थी कि भारत का रूर कहलानेवाला झारखण्ड अस्तित्व में आते ही विकास के मामले में देश के उन्नत राज्यों से टक्कर लेता दिखाई देगा.लेकिन एक कहावत है कि गेली नेपाल त साथे गेल कपार.आज इसी राज्य का पूर्व मुखिया भारतीय राजनीति का सबसे बदनुमा दाग बन गया है.उस मुखिया के राज्य के विकास की नीति का खाका भले ही नहीं रहा हो अपने आर्थिक विकास के लिए उसक पास योजना भी थी और इच्छाशक्ति भी.राज्य का खान मंत्री रहते हुए उसने अकूत धन-सम्पदा को जमकर लूटा.बिहार में जंगल राज कायम करनेवालों ने भी उनके इस काम में भरपूर सहयोग दिया.सत्ता में साझेदारी के लिए कांग्रेसी हाथ ने भी भ्रष्टाचारियों से हाथ मिला लिया और कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बनाकर इस गरीब राज्य को लूटा.एक बार फ़िर हमारे राजनेता गरीब बढाओ की नीति पर चलते दिखे.अब जब संविधान की शपथ लेनेवालों का ही यह हाल है तो फ़िर संविधान को मानने से ही इनकार करनेवालों की भूमिका तो राज्य की बर्बादी में गंभीर होनी ही है.
बुधवार, 16 दिसंबर 2009
चीन और भारत : दो समानांतर रेखाएं
चीन और भारत दुनिया की दो सबसे प्राचीन सभ्यताएं हैं.दोनों सभ्यताओं के बीच भले ही कभी-कभी कोई तिर्यक रेखा आ गई हो परन्तु दोनों का व्यवहार दो सामानांतर रेखाओं की तरह रहा है जो आपस में कहीं नहीं मिलतीं.चीन सदियों तक दुनिया से कटा रहा और रहस्यमय बना रहा.उसने हमेशा अपने को दुनिया की महानतम सभ्यता माना.भारत के लिए चीन पूरी तरह नहीं तो कूटनीतिक तौर पर जरूर आज भी रहस्यमय है.१९६२ के युद्ध के पूर्व एक तरफ तो चीन हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगा रहा था तो दूसरी ओर भारत पर हमले पर भी आमादा था.वर्तमान चीन सामाजिक अथवा आर्थिक दृष्टि से भले ही बदल गया हो भारत को लेकर उसका मिला-जुला रवैया अभी भी बदला नहीं है.जहाँ एक ओर वह भारत से विश्व व्यापार संगठन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मंचों पर समर्थन की अपेक्षा रखता है वहीँ अरुणाचल प्रदेश को लेकर शत्रुतापूर्ण रूख रखता है.हाल ही में जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को अन्य भारतीय नागरिकों से भिन्न वीजा जारी कर उसने जाहिर कर दिया है कि भारत को लेकर उसकी सोंच में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है.ज्यादा शक्तिशाली होने के कारण उसे संबंधों के निर्धारण का निर्बाध अधिकार भी प्राप्त है.
विचारधारात्मक अंतर-४० के दशक में चीन में माओत्से तुंग को वही स्थान प्राप्त था जो भारत में महात्मा गांधी को.दोनों ने अपने-अपने तरीके से अपने-अपने देशों का उद्धार किया.एक ने हिंसा का रास्ता अपना तो दूसरे ने अहिंसा का.एक का मानना था कि शक्ति बन्दूक की नली निकलती है वहीँ दूसरा शत्रुओं से भी प्यार करना सीखता था.माओ के बाद भी चीन की विदेश नीति में कोई ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है.कभी ओलम्पिक तो कभी स्थापना दिवस के बहाने अस्त्र-शास्त्र प्रदर्शन कम-से-कम यह तो नहीं ही दर्शाता कि वह दुनिया में अमन-चैन चाहता है.
चीन और भारत में शक्ति असंतुलन-जैसा कि सभी जानते हैं कि चीन आज दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है.वह जहाँ तीन ट्रिलियन डालर तक पहुँच चुका है वहीँ भारत का ट्रिलियन क्लब में अभी प्रवेश ही हुआ है (एक ट्रिलियन=१००० अरब).सीधे तौर पर अगर कहें तो चीन की अर्थव्यवस्था हमसे लगभग तीन गुना बड़ी है जबकि हमारी जनसंख्या में कोई ज्यादा अंतर नहीं है.चीन की अर्थव्यस्था के ज्यादा तेज गति से विकसित होने से दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय असंतुलन पैदा हो गया है.अब धन ज्यादा होगा तो सैन्य शक्ति भी ज्यादा होगी है.सामरिक दृष्टि से भी अगर हम देखें तो भारत उसके आगे कहीं नहीं ठहरता है.हमारे वायुसेना अध्यक्ष यह स्वीकार भी कर चुके हैं.चीन के पास १३००० किमी तक आक्रमण करनेवाली मिसाइलें हैं जिनका हमारे पास कोई जवाब नहीं है.वह भारत के किसी भी हिस्से पर अपने अंतरमहाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रों द्वारा हमला कर सकता है.चीन ने भारत-चीन सीमा के समानांतर सड़कों का भी निर्माण कर लिया है और हमें इस मामले में अभी शुरुआत करनी है.थल और वायु सेना के मामले में चीन हमसे कोसों आगे है ही नौसेना की दृष्टि से भी हिंद महासागर में उसकी बढती सक्रियता शुभ संकेत नहीं दे रहे.
तिब्बत का मुद्दा-तिब्बत को लेकर भारत का रवैया हमेशा से ढुलमुल रहा है.एक तरफ तो वह तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता है वहीँ दलाई लामा को अपने यहाँ शरण भी दी है.दलाई लामा और तिब्बती शरणार्थी बार-बार कुछ ऐसा करते रहते हैं जिससे चीन का नाराज होना स्वाभाविक है.यह तो तय है कि तिब्बत को अब चीन आजादी नहीं देगा.भारत को तिब्बती मेहमानों को साफ तौर पर बता देना चाहिए कि अगर भारत में रहना है तो हमारी शर्तों पर रहना होगा.
शासन व्यवस्था में अंतर-शासन व्यवस्था के मामले में भी चीन और भारत समानांतरता की स्थिति में हैं.चीन में जहाँ तानाशाही एकदलीय शासन व्यवस्था है वहीँ भारत के लोग लोकतंत्र का आनंद उठा रहे हैं.दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं.फायदे भी हैं और नुकसान भी. चीन में कानून नहीं है पर व्यवस्था है और भारत में कहने को तो कानून का शासन है पर व्यवस्था नहीं है.भारत में लोकतंत्र मजबूत स्थिति में तो है मगर मजबूर भी है.ईमानदार नेतृत्व अब पुस्तकों में मिलनेवाली बातों में शुमार हो गया है.१९४९ के पहले चीन में भी लोकतंत्र था और स्थितियां भी कुछ ऐसी ही थीं जैसी आज के भारत में है.
भारत के सामने विकल्प-चीन घुसपैठ में बढ़ोतरी कर लगातार भारत को उकसा रहा है.अब प्रश्न उठता है कि भारत के सामने कौन-से विकल्प उपलब्ध हैं!विकल्प ज्यादा हैं भी नहीं.कोई भी देश अपने से कई गुना शक्तिशाली पड़ोसी से दुश्मनी तो नहीं कर सकता. चीन की नीति भी भारत से सीधी लड़ाई की नहीं है.बल्कि वह भारत के विकास की मार्ग में बाधाएं उत्पन्न करना चाहता है.भारत को भी अपनी आर्थिक शक्ति बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए और ऐसा तब तक संभव नहीं है जब तक न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में व्यापक रूप से व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त न कर दिया जाए.साथ ही तब तक चीन से सावधान भी रहने की जरूरत है जब तक भारत उसकी बराबरी में न आ जाए और एक बराबर में बैठकर बातचीत करने लायक न हो जाए.तब तक तो हम चीन के बारे में यही कह सकते हैं-तौबा तेरा जलवा, तौबा तेरा प्यार, तेरा इमोशनल अत्याचार.
विचारधारात्मक अंतर-४० के दशक में चीन में माओत्से तुंग को वही स्थान प्राप्त था जो भारत में महात्मा गांधी को.दोनों ने अपने-अपने तरीके से अपने-अपने देशों का उद्धार किया.एक ने हिंसा का रास्ता अपना तो दूसरे ने अहिंसा का.एक का मानना था कि शक्ति बन्दूक की नली निकलती है वहीँ दूसरा शत्रुओं से भी प्यार करना सीखता था.माओ के बाद भी चीन की विदेश नीति में कोई ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है.कभी ओलम्पिक तो कभी स्थापना दिवस के बहाने अस्त्र-शास्त्र प्रदर्शन कम-से-कम यह तो नहीं ही दर्शाता कि वह दुनिया में अमन-चैन चाहता है.
चीन और भारत में शक्ति असंतुलन-जैसा कि सभी जानते हैं कि चीन आज दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है.वह जहाँ तीन ट्रिलियन डालर तक पहुँच चुका है वहीँ भारत का ट्रिलियन क्लब में अभी प्रवेश ही हुआ है (एक ट्रिलियन=१००० अरब).सीधे तौर पर अगर कहें तो चीन की अर्थव्यवस्था हमसे लगभग तीन गुना बड़ी है जबकि हमारी जनसंख्या में कोई ज्यादा अंतर नहीं है.चीन की अर्थव्यस्था के ज्यादा तेज गति से विकसित होने से दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय असंतुलन पैदा हो गया है.अब धन ज्यादा होगा तो सैन्य शक्ति भी ज्यादा होगी है.सामरिक दृष्टि से भी अगर हम देखें तो भारत उसके आगे कहीं नहीं ठहरता है.हमारे वायुसेना अध्यक्ष यह स्वीकार भी कर चुके हैं.चीन के पास १३००० किमी तक आक्रमण करनेवाली मिसाइलें हैं जिनका हमारे पास कोई जवाब नहीं है.वह भारत के किसी भी हिस्से पर अपने अंतरमहाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रों द्वारा हमला कर सकता है.चीन ने भारत-चीन सीमा के समानांतर सड़कों का भी निर्माण कर लिया है और हमें इस मामले में अभी शुरुआत करनी है.थल और वायु सेना के मामले में चीन हमसे कोसों आगे है ही नौसेना की दृष्टि से भी हिंद महासागर में उसकी बढती सक्रियता शुभ संकेत नहीं दे रहे.
तिब्बत का मुद्दा-तिब्बत को लेकर भारत का रवैया हमेशा से ढुलमुल रहा है.एक तरफ तो वह तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता है वहीँ दलाई लामा को अपने यहाँ शरण भी दी है.दलाई लामा और तिब्बती शरणार्थी बार-बार कुछ ऐसा करते रहते हैं जिससे चीन का नाराज होना स्वाभाविक है.यह तो तय है कि तिब्बत को अब चीन आजादी नहीं देगा.भारत को तिब्बती मेहमानों को साफ तौर पर बता देना चाहिए कि अगर भारत में रहना है तो हमारी शर्तों पर रहना होगा.
शासन व्यवस्था में अंतर-शासन व्यवस्था के मामले में भी चीन और भारत समानांतरता की स्थिति में हैं.चीन में जहाँ तानाशाही एकदलीय शासन व्यवस्था है वहीँ भारत के लोग लोकतंत्र का आनंद उठा रहे हैं.दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं.फायदे भी हैं और नुकसान भी. चीन में कानून नहीं है पर व्यवस्था है और भारत में कहने को तो कानून का शासन है पर व्यवस्था नहीं है.भारत में लोकतंत्र मजबूत स्थिति में तो है मगर मजबूर भी है.ईमानदार नेतृत्व अब पुस्तकों में मिलनेवाली बातों में शुमार हो गया है.१९४९ के पहले चीन में भी लोकतंत्र था और स्थितियां भी कुछ ऐसी ही थीं जैसी आज के भारत में है.
भारत के सामने विकल्प-चीन घुसपैठ में बढ़ोतरी कर लगातार भारत को उकसा रहा है.अब प्रश्न उठता है कि भारत के सामने कौन-से विकल्प उपलब्ध हैं!विकल्प ज्यादा हैं भी नहीं.कोई भी देश अपने से कई गुना शक्तिशाली पड़ोसी से दुश्मनी तो नहीं कर सकता. चीन की नीति भी भारत से सीधी लड़ाई की नहीं है.बल्कि वह भारत के विकास की मार्ग में बाधाएं उत्पन्न करना चाहता है.भारत को भी अपनी आर्थिक शक्ति बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए और ऐसा तब तक संभव नहीं है जब तक न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में व्यापक रूप से व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त न कर दिया जाए.साथ ही तब तक चीन से सावधान भी रहने की जरूरत है जब तक भारत उसकी बराबरी में न आ जाए और एक बराबर में बैठकर बातचीत करने लायक न हो जाए.तब तक तो हम चीन के बारे में यही कह सकते हैं-तौबा तेरा जलवा, तौबा तेरा प्यार, तेरा इमोशनल अत्याचार.
मंगलवार, 1 दिसंबर 2009
मुंबई को केन्द्रशासित प्रदेश बनाया जाए
मुंबई को आप किस रूप में जानते हैं?भारतवर्ष के सबसे बड़े शहर के रूप में या भारत की आर्थिक राजधानी के रूप में या सपनों के शहर के रूप में.या फ़िर उस शहर के रूप में जहाँ मनसे या शिवसेना के गुर्गों के शासन चलता है.या उस शहर के रूप में जहाँ आप बेधड़क होकर अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रयोग भी न कर सकें या जहाँ क्षेत्रीय आधार पर गरीब श्रमिकों पर अक्सर हमले होते रहते हैं.मुंबई में भारत के कुल औद्योगिक श्रमिकों का १०% रोजगार पाता है.मुबई भारत के आयकर में ४०% का,कस्टम ड्यूटी में ६०% का,केंद्रीय उत्पाद कर में २०% का,विदेश व्यापार में ४०% का और कॉरपोरेट कर में ४० हजार करोड़ रूपये यानि १० अरब डॉलर का भारी-भरकम योगदान करता है.जाहिर है हम मुंबई को भले ही सपनों के शहर के बदले डरावने सपनोंवाले शहर के रूप में याद करें मुंबई आज के भारत का दिल है.१६६८ में मात्र १० पौंड की लीज पर ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा लिया गया यह शहर आज जिस मुकाम पर है उसके पीछे है मुंबईकरों का खुला दिल, विभिन्न विचारों को तहेदिल से ग्रहण करने का हौसला.लेकिन आज मुंबई की कानून-व्यवस्था का भारी-भरकम बोझ उठाने में महाराष्ट्र की सरकार अपने को अक्षम पा रही है.२६/११ के हमले के समय पाया गया कि महाराष्ट्र पुलिस के पास न तो आतंकवादियों से निबटने लायक हथियार थे न ही सही गुणवत्ता का बुल्लेटप्रूफ जैकेट.इसलिए एनएसजी कमांडो को बुलाना पड़ा परन्तु इससे पहले ही मुंबई पुलिस के कई दर्जन जवान शहीद हो चुके थे.जबकि बृहन मुंबई नगरपालिका का बजट भारत के ९ राज्यों के बजट से ज्यादा का होता है.इतना ही नहीं आज मुंबई महाराष्ट्र के अतिमहत्वकांक्षी कुत्सित विचारों वाले राजनेताओं की गन्दी राजनीति का अखाडा बन गया है.ऐसे में मेरी समझ में भारत की जीडीपी में अकेले ५% की हिस्सेदारी रखनेवाले इस शहर को आतंकी हमलों और गन्दी राजनीति से बचाने का अब एक ही रास्ता बचा है और वो यह कि इसे दिल्ली की तरह केन्द्रशासित प्रदेश बना दिया जाए.यह विचार कोई नया भी नहीं है स्वयं जवाहरलाल नेहरु की भी यही दिलीख्वाहिश थी.आज मुंबई को निश्चित रूप से मनसे और शिवसेना की गुंडागर्दी और कांग्रेस की गन्दी राजनीति से बचाने की जरूरत है.आंकड़ों के अनुसार १९९४-९८ में मुंबई की आर्थिक वृद्धि दर जहाँ ७% थी १९९८-२००० के दौरान वह २.४% रह गई.जबकि इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था ५.६% की दर से आगे बढ़ रही थी.चूँकि बीएसई सहित सभी आर्थिक केंद्र मुंबई में स्थित हैं इसलिए जब भी मुंबई में अव्यवस्था उत्पन्न होती है तो नुकसान पूरे भारत की अर्थव्यवस्था को उठाना पड़ता है.केन्द्रशासित प्रदेश मुंबई में न तो कानून की कोई समस्या होगी न ही व्यवस्था की.तब भारत के सभी प्रान्तों से आये मजदूर, दुकानदार, उद्यमी, ड्राईवर या अधिकारी निर्भय होकर अपना काम करेंगे और भारत के विकास का यह ईंजन और भी तेज रफ़्तार में सरपट दौड़ेगा.
सोमवार, 30 नवंबर 2009
मांगना एक कला
आपने भी शायद गौर किया होगा आजकल हमारे राज्य बिहार की सरकार जो काम सबसे ज्यादा संजीदगी से करने में लगी है वह है मांगना.कभी वह केंद्र सरकार से बाढ़ का मुआवजा मांगती है तो कभी वह सूखा राहत चलाने के लिए रकम मांगती है.इतना ही नहीं पिछले चार सालों से राज्य सरकार केंद्र से बिजली मांग रही है और केंद्र है कि कुछ सुन ही नहीं रहा.शायद पहली बार सत्ता में आये सुशासन बाबू को अब तक मांगना नहीं आया.सत्ता में रहते हुए किसी से कुछ मांगना कोई साधारण काम भी नहीं है.वैसे भी मांगना अपने-आपमें एक कला है.भिखारी तो आपने बहुत सारे देखे होंगे.सब-के-सब एक-दूसरे से अलग होते हैं.सबके मांगने का तरीका भी अलग-अलग होता है.जो इस कला में जितना पारंगत होता है उसकी भीख के बाज़ार में उतनी ही ज्यादा की हिस्सेदारी होती है.यह तो हुई भीख मांगने की बात लेकिन जब बात भीख की जगह अधिकारों की हो तब.तब स्वर के साथ-साथ शब्दों का चयन भी बदल जाना चाहिए.अगर भीख की तरह अधिकार मांगे जायेंगे तो निश्चित रूप से मांग पूरी होने में शक की गुंजाईश रहेगी.नीतीशजी को सीखना चाहिए हाजीपुर के छटनीग्रस्त सफाई कर्मचारियों से जो अपने अधिकारों के लिए पिछले कई दिनों से अनशन पर बैठे हैं.नीतीशजी कह रहे हैं कि केंद्र उनकी मांगों पर कान नहीं दे रही है.नीतीशजी क्यों अनशन पर नहीं बैठते?क्यों नहीं उतरते सड़क पर चंद्रशेखर राव की तरह? क्या वे सचमुच अपनी मांगों के प्रति गंभीर हैं?अगर वे गंभीर होते तो निरीह अकिंचन की तरह याचना नहीं कर रहे होते बल्कि अहिंसक तरीके से ही सही रण कर रहे होते.लगता है वे सिर्फ मांगने के लिए मांग रहे हैं.उन्होंने इस महान कला के महत्व को अभी समझा नहीं है.
६ दिसंबर आ रहा है
हर साल ६ दिसम्बर आता है और बांकी तिथियों की तरह ही गुजर जाता है.१९९२ से पहले भी यह दिन साल में एक बार आता था लेकिन तब यह ख़ामोशी से गुजर जाता था.अब ऐसा नहीं होता.अब तो नवम्बर से ही आरोपों-प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो जाता है.यह साल तो फ़िर भी विशेष है.बाबरी-ढांचे के टूटने पर लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट अभी-अभी आई है.रिपोर्ट क्या आई है चूं-चूं का मुरब्बा कह लीजिये.खोदा पहाड़ निकली चुहिया.और पहाड़ को खोदा भी १७ सालों में.सारी-की-सारी बकवास है इसमें नहीं है तो सिर्फ यह कि ढांचे को तोड़ने का षड्यंत्र किसने रचा.जब यही पता नहीं लग पाया तो फ़िर क्या हासिल हुआ आयोग के गठन से. राजनीति के शिखर पर बैठे लोग चाहते ही नहीं थे कि किसी को भी इस मामले में सजा मिले.अंदरखाने ये सब मिले हुए हैं.मिली हुई नहीं है तो जनता.आखिर क्या कारण है कि आज तक किसी भी बड़े राजनेता को किसी भी मामले में सजा नहीं मिली?इनके आपस में मिले होने का इससे बड़ा क्या प्रमाण होगा? ६ दिसंबर जैसे-जैसे निकट आएगा राजनीति तेज होती जाएगी और ६ दिसंबर को चरम पर होगी.एक तरफ बहुसंख्यकवादी होंगे तो दूसरी तरफ अल्पसंख्यकवादी और इन दो पाटों के बीच पिस रही होगी भारत की भोली-भाली जनता.
रविवार, 29 नवंबर 2009
गरीब बढाओ परियोजना
नीतीश कुमारजी की आदरणीय सुशासनी सरकार ८०० महादलितों का चयन कर उनके बीच ४००० एकड़ भूमि का वितरण करेगी.इसके लिए सरकार जमीन का अधिग्रहण करने जा रही है.क्या योजना है एक गरीब से जमीन लेकर दूसरे गरीब लोगों में बाँटी जाएगी.१९७० के दशक से ही केंद्र सरकार कथित रूप से गरीबी को मिटाने का प्रयास कर रही है.बिडम्बना तो यह है कि भारत में सबसे ज्यादा गरीबी इसी दौरान बढ़ी जब इंदिराजी जी-जान से इसे मिटाने की कोशिश में लगी थी, भले ही कांग्रेस कुतर्कों के आधार पर इससे इंकार करें.चाहे इंदिराजी की सरकार रही हों या कोई अन्य केंद्र या राज्य की सरकार तब से किसी ने भी गरीबी मिटाने का सही मायने में प्रयास नहीं किया.असलियत तो यह है कि गरीबी घटाने के बदले सरकारें जो लोग ठीक-ठाक स्थिति में हैं उन्हें गरीबी रेखा से नीचे लाने में लगी हुई हैं.यही कारण है कि गरीबी नहीं मिटी गरीबों की तादाद जरूर बढ़ गई.जहाँ आजादी के समय लगभग ५०% आबादी गरीब थी आज ८०% आबादी २० रूपया प्रतिदिन से भी कम में गुजारा कर रही है. स्वयं केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब भारत में ही निवास करते हैं.हालांकि अधिकतर अर्थशास्त्री सरकार के गरीबी मापने के पैमाने को सही नहीं मानते और मानते हैं कि भारत के कम-से-कम आधे लोग गरीब हैं.जहाँ तक सुशासन बाबू का सवाल है तो उनका मानना है कि सीधे पैसा दे देने से गरीबी समाप्त हो जाएगी. लेकिन वह पैसा कितने दिन तक चलेगा?हाँ अगर वे गरीबी मिटाने के बदले सिर्फ चुनाव जीतना चाहते हैं तो हो सकता है कि उन्हें बांकी नेताओं की तरह यह लक्ष्य प्राप्त हो भी जाये.अच्छा हो कि निवेश आमंत्रित कर या सरकारी संसाधन से ही रोजगार के अवसर पैदा किये जाएँ.वैसे भी भारत के गरीब १९५० से ही नगद पाते रहे हैं.इसमें से कुछ रकम प्रशासनिक तंत्र सोख ले रहा है तो कुछ गरीबी मिटाने में सूख जा रही है.
शुक्रवार, 27 नवंबर 2009
मर्यादा और युगधर्म
मुहब्बत के बारे में किसी शायर ने क्या खूब कहा है-इस लफ्ज मुहब्बत का इतना-सा फ़साना है, सिमटे तो दिले आशिक फैले तो जमाना है.कुछ ऐसी ही बातें मर्यादा के बारे में भी कही जा सकती हैं. मर्यादा का प्रत्येक युग में महत्व रहा है भले ही उसकी सीमाएं युगधर्मानुसार बदलती रही हैं .रामायण काल में विष्णु का अवतार माने जानेवाले राम मर्यादा के प्रतीक भी थे, मर्यादा पुरुषोत्तम. वहीं महाभारत काल में श्रीकृष्ण का व्यवहार तत्कालीन युगधर्म के अनुरूप परिवर्तित हो गया है. हालांकि यहाँ भी महात्मा भीष्म मर्यादामूर्ति हैं .समय के साथ उस समय में जीनेवाले लोग भी बदल जाते हैं. रावण हालांकि राक्षस था फ़िर भी उसने कभी सीता के साथ अभद्र व्यवहार नहीं किया जबकि महाभारत काल में मानव होते हुए भी दुर्योधन अपनी ही भाभी का भरी सभा में चीरहरण करवाता है. दोनों कालों के युगधर्म में कितना अंतर है. एक काल में राक्षस भी मर्यादित और दूसरे में मानव भी अमर्यादित. अब गाँधी और लालू-नीतीश को लें. गाँधी का युग १०० साल पहले का था. आज के समय में हम गांधी को सफलता मिलने की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं. आज जो नेता उपलब्ध हैं जनता को उनमें से ही चुनना पड़ेगा. हाँ आज महात्मा भीष्म नहीं हो सकते ऐसा भी नहीं है लेकिन अगर वे आज होते भी तो जितने असहाय वे महाभारत काल में थे उससे भी ज्यादा असहाय होते, क्योंकि आज एक दुर्योधन से उन्हें नहीं निबटना पड़ता बल्कि आज तो दुर्योधनों और शकुनियों का ही बहुमत है. आज दिखावे का जमाना है. गेरुआधारी लोग भी आज दिखावा करने में लगे हैं. उनकी कथनी और करनी में भी एकरूपता नहीं है. दिखावा का तो मतलब ही होता है होने और दिखने में अंतर का होना. खूब बेईमानी करो और मंदिर में घंटा डोलाकर धर्मात्मा भी दिखो. यह है हमारा आज का युग धर्मं. आगे तो यह संकोच भी समाप्त हो जानेवाला है. फ़िर आप देखेंगे वासना का अनावृत नंगा रूप. आखिर यही सबकुछ तो आनेवाले युग का युगधर्म होने जा रहा है. फ़िर भी मर्यादा का हर युग में महत्व रहेगा; हाँ उसकी परिभाषाएं बदलती रहेंगी. तो क्या कर्मफल के सिद्धांतानुसार विधाता भी अपनी कसौटी बदलता रहेगा? नहीं श्रीमान जैसा करियेगा वैसा ही भरियेगा. हाँ, फलप्राप्ति का स्वरुप भले ही बदल जाये. नोबेल विजेता क्विस्त की कहानी नरक की ओर जानेवाली लिफ्ट के कथानक की तरह हो सकता है की शारीरिक के बजाये दंडस्वरूप मानसिक कष्ट हम ज्यादा मिलता हुआ देखें. यह सिर्फ कई संभावनाओं में से एक सम्भावना मात्र है. विधाता क्या सोंच रहा है कोई नहीं जानता-तेरे मन कछु और है कर्त्ता के कछु और.
मंगलवार, 24 नवंबर 2009
अधम खेती भीख निदान
यही कोई पच्चीस-तीस साल पहले की बात है.अगर आप भारत के किसी किसान से कहते कि मैं तुम्हे नौकरी दिलवा दूंगा तो वह खेती छोड़कर नौकरी करने को तैयार ही नहीं होता.तब तो हमारे किसान बड़ी शान से कहा करते थे उत्तम खेती मध्यम वान, अधम चाकरी भीख निदान.लेकिन आज हालात ऐसे हैं कि किसानों की खेती में अभिरुचि ही नहीं रह गई है.अभी कुछ ही दिन पहले की तो बात है जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान अपनी गन्ने की फसल को खेत में ही जलाने को उतारू हो रहे थे.आखिर ऐसा क्या हुआ कि कोई भी खेती करना नहीं चाहता.भले ही जब विकल्प न हो तब करने को तैयार हो जाएँ.आज प्रत्येक आधे घन्टे में एक किसान आत्महत्या कर रहा है.आजादी के समय भले ही अंग्रेजों ने लगान की दरें काफी ज्यादा रखी हो पर खेती घाटे का सौदा नहीं था.उस समय देश की ८० प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर थी.१९५०-५१ से ७०-७१ तक कृषि भारत की जी.डी.पी. में ५९ से ४८ प्रतिशत तक का योगदान कर रही थी.तब पूरे देश में नदियों पर बांध बनाकर सिंचित भूमि के क्षेत्रफल को बढ़ाने की कोशिशें की जा रही थी.लेकिन यह अजीबोगरीब तथ्य है कि जैसे ही देश में हरित क्रांति और आर्थिक विकास ने गति पकड़ी अर्थव्यवस्था में कृषि कि हिस्सेदारी घटने लगी और अब जी.डी.पी.में कृषि क्षेत्र का योगदान मात्र १७.२ प्रतिशत का रह गया है.हालाँकि कृषि की कम हिस्सेदारी को विकसित अर्थव्यवस्था का लक्षण माना जाता है.उदाहरण के लिए इंग्लैंड की जी.डी.पी. में २०%,अमेरिका में ३%,कनाडा में ४% और ऑस्ट्रेलिया में मात्र ५% योगदान कृषि का है.साथ ही कहीं इससे भी कम प्रतिशत लोग कृषि कार्य से जुड़े हैं यह भी उतना ही सच है. लेकिन भारत में स्थिति उल्टी है.हमारे यहाँ आज भी ७०% प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर हैं.जाहिर-सी बात है की १७.२% आय में ७०% लोग हिस्सेदार.जैसे-जैसे समय बीत रहा है किसानों की माली हालत ख़राब होती जा रही है.वह किसी नौकरीवाले के यहाँ अपनी बेटी की शादी नहीं कर सकता.दोनों की आर्थिक स्थिति में भारी अंतर जो पैदा हो गया है.फ़िर समाज के दूसरे पेशे में लगे लोगों के आगे खड़ा होने में भी उसे क्यों न शर्म आये?बिहार में कृषि की स्थिति तो और भी ख़राब है.जहाँ पंजाब के किसान १९९६-९७ में मात्र ५६.९ लाख हेक्टेयर जमीन से जो देश के कुल कृषि-क्षेत्र का मात्र ४.६ प्रतिशत था से देश के कुल कृषि उत्पादन का १०.८ प्रतिशत उपजा ले रहे थे वहीं बिहार ९०.६ लाख हेक्टेयर कृषि भूमि से यानि देश के ७.३ प्रतिशत कृषि-भूमि से मात्र ७.१% कृषि-उत्पादन पैदा कर पा रहा था.१९५१ और २००१ के बीच खाद्यान्नों के उत्पादन में ३१४% की वृद्धि हुई, तिलहनों में ३२०% की, गन्ने में ४१२% और रुई के उत्पादन में ३००% की वृद्धि हुई.अकेले गेहूं के उत्पादन में ही १०८३% की आश्चर्यजनक वृद्धि देखी गई.वृद्धि नहीं देखी गई तो खेती पर आश्रित लोगों की संख्या में कमी में.जबकि इस बीच सेवा क्षेत्र का जी.डी.पी. में योगदान ५३.२% और उद्योग का २९.६% हो गया.आंकड़ों से जाहिर है कि हिस्सेदारी में कृषि की हिस्सेदारी को जो क्षति पहुंची उससे वास्तविक लाभ हुआ सेवा क्षेत्र को.जबकि उद्योग क्षेत्र कमोबेश वहीं-का-वहीं बना रहा.सेवा क्षेत्र ऐसा क्षेत्र है जिसमें रोजगार की गुंजाइश बहुत कम होती है.२००२ में जब कृषि उत्पादन सरप्लस पर था हम ९० डालर प्रति टन की दर से गेंहूं का निर्यात कर खुश हो रहे थे.अपनी गलत नीतियों के चलते मात्र सात सालों में हमारी आत्मनिर्भरता समाप्त हो गयी और आज हम २५० डालर प्रति टन की दर से गेहूं आयातित करने को बाध्य हैं.जरूरत है एक बार फ़िर से कृषि को प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर लाने की.एक लम्बे समय से सिंचित क्षेत्र को बढ़ाने में बड़ा निवेश नहीं किया गया है.सरकार को समझना चाहिए कि किसानों को सड़क तो चाहिए लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण उसके लिए पानी है.साथ ही पशुधन आधारित जैविक कृषि की ओर हमें वापस लौटना पड़ेगा.मोटे अनाज जो कम पानी में भी उपजते थे उनकी खेती को भी प्रोत्साहित करना पड़ेगा.और सबसे जरूरी बात यह कि बाजार और किसान के बीच से बिचौलियों की मौजूदगी को समाप्त करना पड़ेगा.कहना न होगा कि पिछले पचास सालों में हम ऐसा करने में पूरी तरह विफल रहे हैं.
आज भी कायम है भारत में द्वैध शासन
१९१९ ई. में अंग्रेजों ने भारत में द्वैध शासन लागू किया था.इसके जरिये प्रांतीय शासन को दो भागों में बाँट दिया गया था.इसके जरिये सरकारी विभागों को दो भागों में विभाजित का दिया गया-आरक्षित और हस्तांतरित विषय.आमदनी वाले विभागों राजस्व और वित्त को तो सीधे तौर पर गवर्नर के अन्तर्गत रखा गया वहीँ खर्च वाले सभी विषय जनप्रतिनिधियों को दे दिए गए.इससे देश में काफी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो गयी.जनता द्वारा सीधे तौर पर चुने गए प्रतिनिधि जनकल्याण और विकास सम्बन्धी काम तो करना चाहते थे लेकिन गवर्नर पैसा ही नहीं देता था.आजादी के बाद भी उस कांग्रेस ने इस द्वैध शासन को बनाये रखा जो १९१९ से ही इसका विरोध करती आ रही थी.आज भी आमदनी यानि राजस्व का ज्यादातर हिस्सा तो केंद्र के पास चला जाता है और राज्य सरकार के पास जो आय के साधन संविधान द्वारा दिए गए हैं वे उनके व्यय को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.ऐसे में सबसे जटिल स्थिति तब उत्पन्न होती है जब राज्य और केंद्र में अलग-अलग दलों की सरकार हो.राज्य धन मांगते रहते हैं और केंद्र कान पर ढेला देकर सोया रहता है.पिछले ६० सालों में योजना आयोग संविधानेतर संस्था होते हुए भी इतना शक्तिशाली होकर उभरा है कि इसके उपाध्यक्ष के पद को वित्त मंत्री से भी ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाने लगा है.मैं इसका विरोध नहीं करता कि केंद्र के पास ज्यादा अधिकार रहे लेकिन राज्यों के बीच कर-राजस्व का अथवा योजना आयोग द्वारा योजना मद में राशि का बंटवारा जरूरत के और राज्य सरकार के काम-काज के आधार पर होना चाहिए न कि इस आधार पर कि वहां पर अपनी पार्टी की सरकार है या दूसरी पार्टी की.बिहार सरकार बार-बार केंद्र से प्रत्येक वर्ष आनेवाली प्राकृतिक आपदाओं से निबटने के लिए पैसे मांग रही है और केंद्र सरकार बड़ी बेशर्मी से उसकी मांग को अनसुनी कर दे रही है.बिहार में लगभग चालीस साल तक कांग्रेस की सत्ता रही है.उस समय केंद्र में भी कांग्रेस ही सत्ता पर काबिज थी.फ़िर भी बिहार को योजना आयोग द्वारा राष्ट्रीय औसत से काफी कम प्रति व्यक्ति योजना राशि दी गयी.परिणाम यह हुआ कि आजादी के समय प्रति व्यक्ति आय में सबसे अगली पंक्ति में खड़ा बिहार १९६१ आते-आते नीचे से दूसरे और १९७१ तक सबसे आखिरी स्थान पर पहुँच गया.बीच में बिहार में वर्षों तक जंगल राज कायम रहा.आज जब बिहार की सरकार कुछ अच्छा करना चाहती है तब केंद्र पैसा ही नहीं दे रहा है.इथेनोल आधारित उद्योग अगर बिहार में स्थापित होता है तो इससे बिहार के साथ-साथ पूरे देश, पूरी दुनिया को फायदा होगा.फ़िर भी केंद्र सरकार बिहार को परेशान करने के उद्देश्य से बिहार में इथेनोल आधारित उद्योगों की अनुमति नहीं दे रही है.जबकि इससे बिहार का कायाकल्प हो सकता है.लगता है सरकार भी लाठी की ही भाषा समझती है.किसान जब दिल्ली पहुँच कर डेरा डाल देते हैं तब केंद्र सरकार नींद से जागती है.बिहार को भी शायद कुछ ऐसा ही करना पड़ेगा तभी देश को १९१९ से कायम द्वैध शासन से मुक्ति मिलेगी.पहले भी बिहार चाहे असहयोग आन्दोलन रहा हो या भारत छोडो आन्दोलन या फ़िर सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन देश का मार्गदर्शन करता रहा है.
शनिवार, 21 नवंबर 2009
सुशासन के नाम पर
कभी फ्रांस की राज्यक्रांति के बाद हुए भीषण रक्तपात से विचलित होकर वहां के लेखकों-दार्शनिकों ने भींगे स्वर में कहा था कि हे माता प्रजातंत्र हमें माफ़ करना क्योंकि तेरे नाम पर न जाने क्या-क्या पाप किये जा रहे हैं.आजकल बिहार में भी सुशासन के नाम पर क्या नहीं हो रहा है.कभी कुसहा में कोसी तटबंध को सुशासन के नाम पर टूटने दिया जाता है तो कभी थाने में नशे में धुत्त दरोगा पत्रकार को ही पीट डालता है.कभी उसी सरकार को हम ५० पत्रकारों को सरकारी आवास देने की घोषणा करते देख सकते हैं.कभी मुखियों को शिक्षक बहाली में मुख्य भूमिका दे दी जाती है तो कभी उन्ही शिक्षकों को मेधा परीक्षा देने के लिए बाध्य कर दिया जाता है.कभी तो कहा जाता है कि परीक्षा में फेल होनेवाले शिक्षकों को नौकरी से निकाल दिया जायेगा तो कभी कहा जाता है कि निश्चिन्त होकर परीक्षा दीजिये आपकी नौकरी सुरक्षित है.दुनिया में परीक्षाओं के इतिहास में पहली बार ९९.५ प्रतिशत परीक्षार्थी उत्तीर्ण घोषित किये जाते हैं. सब कुछ सुशासन के नाम पर.सुशासन के नाम पर अति अयोग्य शिक्षकों को योग्यता का प्रमाणपत्र दिया जाता है. कभी सूचना के अधिकार के पालन में कथित सफलता के नाम पर जमकर ढोल पीटा जाता है तो अगले ही पल सूचना के अधिकार अधिनियम में बदलाव कर इसकी हत्या ही कर दी जाती है.शायद आर.टी.आई. आवेदनकर्ताओं को प्रताड़ित करने में मिली अपार सफलता को सरकार पचा नहीं पाई. कभी कोशी की बाढ़ में अपना परिजन खो देनेवालों को मुआवजे की घोषणा की जाती है तो कभी कहा जाता है कि डूबने-बह जानेवालों की लाश दिखाओ तभी मुआवजा मिलेगा.सब कुछ सुशासन के नाम पर.कभी सरकार के कल्याण मंत्रालय का प्रधान सचिव लोगों को चूहे खाने के लिए प्रोत्साहित करता है तो कभी किन्नरों को प्रसूति गृह की सुरक्षा के लिए नियुक्त करने का प्रस्ताव रखता है.यूं बहुत पहले पितामह मार्क्स ने सत्ता की परिभाषा करते हुए कहा था कि जिस दिन राज्य समाप्त हो जाएगा, वही असली सत्ता होगी। मार्क्स का यह सपना बिहार न जाने कब से पूरा कर रहा है। बिहार में राज्य समाप्त हो चुका है–सिर्फ राजा नीतीश कुमार बचे हैं।सुशासन के राष्ट्रीय प्रतीक बिहार के बारे में पटना हाईकोर्ट ने कहा है कि बिहार में सत्ता नाम की कोई चीज ही नहीं है। अब यहां पर नीतीश कुमार की सुशासनी सरकार एक समिति बना सकती है कि सत्ता की परिभाषा क्या है।भ्रष्टाचार बिहार में अंतरराष्ट्रीय उद्योग भी है। अच्छा कदाचारी वही माना जाता है जो नकल कर ले और किसी को पता भी न चले। अच्छे भ्रष्टाचारी की भी यही पहचान होती है।यह भी खबर आई है कि बिहार के भिखारी बिहार सरकार से ज्यादा बेहतर ढंग से अपना काम काज करते हैं। सुशासन सरकार के बनने के बाद ही बिहार के भिखारियों ने 2006 में ही भिखमंगा समाज बना लिया था।इनकी कमाई बिहार के दैनिक वेतन भोगी मजदूरों से भी ज्यादा है। बिहार में दैनिक वेतन भोगी को 81 रूपए रोज मिलता है। जबकि भिखारी डेढ़–दो सौ रुपए रोज कमाता है। आशा की जा रही है कि बिहार सरकार को जब केंद्र सरकार से बिजली और धन की भीख मांगने से फुरसत मिल जाएगी तो वह भिखारी कल्याण आयोग का गठन कर ही लेगी।कभी सुशासन कहता है कि जे.पी. आन्दोलन में भाग लेनेवालों को पेंशन दी जाएगी तो कभी कहा जाता है कि पेंशन सिर्फ उन्हें ही दी जायेगी जिन्होंने कम-से-कम एक महीना जेल में बिताया हो.खुद को भ्रष्टाचार का जानी-दुश्मन कहनेवाली सरकार राहत घोटाले के आरोपी गौतम गोस्वामी के इलाज का खर्च उठाती पाई जाती है.मुख्यमंत्री अपने श्रीमुख से निर्भीक पत्रकारिता का गुणगान करते हैं तो दूसरी ओर बिहार सरकार का जन संपर्क विभाग अपने वेबसाइट पर चेतावनी देता है कि कोई भी समाचार पत्र-पत्रिका, जो कि स्वीकृत सूची में शामिल होने की अनिवार्य पात्रता रखते हैं, को स्वीकृत सूची में शामिल किया जाना समिति के लिए बाध्यकारी नहीं होगा.साथ ही कहता है कि किसी मीडिया संस्थान का काम अगर राज्य हित में नहीं है तो उसे दिए जा रहे विज्ञापन रोके जा सकते हैं.उसे स्वीकृत सूची से किसी भी वक्त बाहर किया जा सकता है. अब सवाल उठता है कि मीडिया संस्थान का काम राज्य हित में है या नहीं ये कौन तय करेगा? जन संपर्क विभाग में तैनात सरकारी बाबू या भ्रष्टाचार में लिप्त नेता?कभी सरकार कहती है कि नवनियुक्त शिक्षकों को पेंशन और अनुकम्पा लाभ नहीं मिलेंगे तो कभी आनन-फानन में सरकार घोषणा करती है कि ये दोनों सुविधाएँ शिक्षकों को दी जाएँगी.बंटाईदारी कानून पर तो सुशासन की स्थिति अजीबोगरीब है. कभी सरकार कहती है कानून लागू होगा तो कभी कहती है नहीं होगा.सरकार के मुखिया जब-तब विकास यात्रा पर निकलते हैं.गेहूं कटवाकर गाँव में शिविर लगवाते हैं. गाँव में रूकते हैं. कैबिनेट की मीटिंग करते हैं.थोक के भाव में शिलान्यास करते हैं.लाखों रूपये इन सब ताम-झाम में खर्च किये जाते हैं.पर काम शिलान्यास से आगे नहीं बढ़ता.क्षुब्ध होकर जनता शिलान्यास का शिला-पट्ट ही उखाड़ फेंकती है.सुशासन केंद्र से सूखा के नाम पर १०१५२ करोड़ रूपए की मांग करता है और एक सप्ताह बीतते-बीतते इसे संशोधित कर २३ हजार करोड़ माँगा जाता है.और यह सब होता है सुशासन के नाम पर.दस साल पहले साइकिल पर चलनेवाला मुखिया अब बोलेरो और स्कॉर्पियो पर चल रहा है लेकिन सरकार कान में तेल डाले सोई रहती है.पैसा दे दिया न भाई अब सुशासन कहाँ तक देखें कि पैसा किस तरह खर्च किया जा रहा है. मार्च से पहले सब खर्च हो जाना चाहिए.फंड लैप्स हुआ तो खैर नहीं चाहे पूरा पैसा सरकार के खाते से निकलकर मुखियाजी के खाते में ही क्यों न पहुँच जाए.
शुक्रवार, 20 नवंबर 2009
जनसरोकार से कटती राजनीति
कहते हैं कि जब अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गिरफ्तार किया गया था तो लखनऊ में एक कुत्ता तक नहीं भूंका था.कुछ ऐसा ही हुआ जब बिहार में सरकार ने जनता से सूचना के अधिकार को लगभग छीन लिया.बेवजह के मुद्दों पर गला फाड़ कर चिल्लानेवाले राजनेताओं ने आर.टी.आई. जैसे जनता से जुड़े मुद्दे पर एक बयान तक देना भी उचित नहीं समझा.लगता तो ऐसा है जैसे हमारे राजनेता चाहे वे किसी भी दल से सम्बद्ध हों उनका जनसरोकार से कुछ लेना-देना रह ही नहीं गया है.कोई भी राजनीतिक दल जनता को इस तरह का कोई अधिकार देना नहीं चाहता इससे तो यही लगता है.कुछ दिन पहले जब कानून में बदलाव की चर्चा शुरू हुई थी तब राजद नेता रामकृपाल यादव ने विरोध जरूर किया था परन्तु अब जबकि कानून बदलने को कैबिनेट की मंजूरी मिल चुकी है न जाने क्यों वे भी पूरी तरह खामोश हैं.
गुरुवार, 19 नवंबर 2009
सोनपुर मेले का बदलता स्वरुप
दुनिया परिवर्तनशील है.सबकुछ पल-पल बदलता रहता है.समाज बदल रहा है और साथ-साथ बदल रहा है सांस्कृतिक परिदृश्य.दुनिया की सबसे पुरानी भारतीय संस्कृति अगर आज भी कायम है तो इसके पीछे जो शक्ति है वह है इसकी नमनीयता.लेकिन पहले जहाँ सांस्कृतिक परिवर्तन की गति धीमी थी अब वह काफी तेज हो गई है.कल मैं विश्वप्रसिद्ध सोनपुर पशु मेले में घूमने गया था.हाजीपुर और सोनपुर जुड़वाँ शहर हैं और दोनों के बीच में हजारों साल से अनवरत प्रवाहित है सदानीरा नारायणी गंडक.बचपन में जब १९८४-८५ में मैं माँ-पिताजी के साथ मेले में जाता था तब एक चाकू जरूर खरीदता था जिससे अपने ननिहाल जगन्नाथपुर में जहाँ मैं रहता था में कभी बांस का तीर-धनुष बनाता तो कभी शीशम का डंडा तो कभी ताड़ का बैट.इतना ही नहीं तब हथिसार से लेकर घुडसाल और मवेशी बाजार तक में भारी भीड़ रहती थी. लेकिन आज मेला घूमते हुए मुझे भारी निराशा हुई.हाथी और घोड़े तो मेला से गायब थे ही और मवेशी भी नाममात्र के थे.वैसे भी कृषि कार्यों में पशुओं की जरुरत समाप्त हो जाने के चलते कोई भी अब मवेशी पालना नहीं चाहता.हाँ, चाकू सहित लोहे के सामान और मिट्टी की सीटी जरूर जहाँ-तहां बिकते हुए नजर आये. स्थिति देखकर मेरे मन में यह बात आई कि क्या इस मेले के अब भी पशु मेला कहा जा सकता है? अब जबकि यह पशुमेला रहा ही नहीं तब फ़िर इसका एशिया या दुनिया का सबसे बड़ा पशुमेला होने का तो प्रश्न ही नहीं.हाँ, गर्म कपड़ों की दुकानों और गलियों में जिस तरह की भीड़ थी वह शायद इसे दुनिया का सबसे बड़ा मेला साबित करने के लिए काफी हो.विधान-सभा चुनाव के लिए एक साल से भी कम समय शेष रह जाने के कारण हाजीपुर से लेकर सोनपुर तक पूरे मेले में जगह-जगह राजनैतिक दलों के बैनर लगाये गए थे.मेले में ज्यादातर दुकानें कपड़ों की थी.पहले जहाँ एक-दो थियेटर वाले ही मेला में आते थे इस बार आधा दर्जन से भी ज्यादा थियेटर आये हुए थे.अगर मैं कहूं कि सोनपुर मेला का मतलब अब थियेटरों का मेला हो गया है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी.
बुधवार, 18 नवंबर 2009
बिहार में शांतिपूर्ण मौत को प्राप्त हुआ सूचना का अधिकार
मैंने कई दिन पहले ही आशंका व्यक्त की थी कि बिहार सरकार इस गरीब प्रदेश में सूचना के अधिकार को शांतिपूर्ण मौत देने की साजिश रच रही है. बड़े ही दुःख की बात है कि कैबिनेट ने भी इस पर अपनी मुहर लगा दी है.अब एक आवेदन पर एक ही सूचना प्राप्त की जा सकेगी यानि पूर्णता में अगर सूचना चाहिए तो १००-२०० रूपये जेब से निकालने पड़ेंगे. क्या सरकार है? गरीब राज्य की सरकार!दूसरी ओर राजस्व संग्रह के दृष्टिकोण से देंखें तो इससे केवल कुछ करोड़ सालाना से ज्यादा राशि इकट्ठी नहीं होगी. तो फ़िर सरकार के इस कदम का क्या उद्देश्य है? उद्देश्य है अकर्मण्य प्रशासनिक अधिकारियों को इसकी चपेट में आने से बचाना.लेकिन जनता तो अब निरुपाय हो ही गई न. एक सवाल तो सिर्फ अपीलीय प्राधिकार का पता पूछने में ही समाप्त हो जायेगा फ़िर वांछित प्रश्न कैसे पूछे जा सकेंगे?दूसरे शब्दों में कहें तो अब उस बिहार में सूचना का अधिकार नख-दन्त विहीन हो गया है जहाँ की जनता पूरे देश में नौकरशाही से सबसे ज्यादा परेशान है.अब बिहार में एक तरह से यह अधिकार समाप्त हो गया है. कौमा में चला गया है यह अधिकार. अच्छा होता यदि इस कानून को समाप्त ही कर दिया जाता. वैसे भी किसी को हमेशा के लिए पंगु बनाकर जीवित रखने से तो मौत दे देना ही अच्छा होता है. चाहे मामला व्यक्ति का हो या कानून का. केंद्र ने २००५ में आर.टी.आई. के माध्यम से जो तोहफा दिया था बिहार की सुशासनबाबू की सरकार ने समाप्त कर दिया है.अब जनता न तो अधिकारियों के क्रियाकलापों को नियंत्रित कर पायेगी न ही पंचायत और नगर निकाय के प्रतिनिधियों से सवाल ही कर पायेगी.जनता के अधिकार के इस शांतिपूर्ण अपहरण में शामिल इन षड्यंत्रकर्ताओं को ईश्वर सद्बुद्धि दें.
ओबामा ने दिखाया भारत को ठेंगा
जब ओबामा को नोबेल पुरस्कार दिया गया था तभी यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि अब ओबामा को दोहरे व्यक्तित्व से लड़ना पड़ेगा.एक तरफ होगा नोबेल-विजेता ओबामा तो दूसरी ओर राष्ट्रपति ओबामा.ओबामा की चीन यात्रा में निस्संदेह नोबेल विजेता ओबामा का पलड़ा भारी रहा. ओबामा की एशिया यात्रा से ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि ओबामा यथास्थितिवादी नीतियाँ अपना रहे हैं. वे नहीं चाहते कि चीन से तत्काल तनाव बढे भले ही उनकी यह नीति अमेरिका के लिए दीर्घकालीन रूप से नुकसानदेह हो.जिस तरह उन्होंने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया है उससे इस समय तो ऐसा लग रहा है कि अमेरिकी विदेश नीति पूरी तरह चीन-केन्द्रित हो गई है. क्लिंटन के समय से ही जो एशिया में भारत को महत्व देकर संतुलन साधने का प्रयास किया जा रहा था लगता है उसे तिलांजली देने का ओबामा प्रशासन ने पूरी तरह से मन बना लिया है.जाहिर है कि इस बदलाव का सबसे ज्यादा प्रभाव भारत पर पड़ेगा जिसके सम्बन्ध पहले से ही चीन के साथ तनावपूर्ण चल रहे हैं.तो क्या यह मान लिया जाये कि भारत के साथ धोखा हुआ है? हुआ तो है लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब भी एक कमजोर और एक शक्तिशाली के बीच संबंधों का निर्धारण होता है तो निर्णायक हमेशा मजबूत पक्ष ही होता है, कमजोर को तो सिर्फ अमल करना पड़ता है.अब भारतीय कूटनीतिकों को देखना चाहिए कि हमारे पास क्या विकल्प शेष हैं?
सोमवार, 16 नवंबर 2009
संवेदनहीनता की हद
हमारे प्रदेश बिहार सहित हमारे देश में डॉक्टर को भगवान माना जाता है जो अपने हुनर द्वारा मरीजों को एक नया जीवन देता है.लेकिन जब उन्हीं डॉक्टरों की संवेदनहीनता के चलते उस राज्य के हजारों मरीजों का जीवन खतरे में पड़ जाये जो अपनी गरीबी के लिए जाना जाता है तब कई सवाल खड़े हो जाते हैं.हड़ताल के अधिकार का गाँधी ने भी इस्तेमाल किया था. लेकिन डॉक्टरी का पेशा अन्य पेशों से इस मामले में अलग है कि इसका सीधा सम्बन्ध मानव-जीवन से है. मैं ये नहीं कहता कि डॉक्टरों को सम्मानित जीवन जीने का अधिकार नहीं है. लेकिन अपनी मांग रखने के लिए बिहार के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल पी.एम.सी.एच. के जूनियर डॉक्टर दूसरा रास्ता भी चुन सकते थे.हड़ताल के दौरान पिछले ७ दिनों में कम-से-कम ८० लोगों की अनमोल जिंदगियों का अंत हो चुका है. जिसे हम दे नहीं सकते हमें उसे छीनने का कोई हक़ नहीं है. हड़ताली डॉक्टरों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वे अपनी मेडिकल की पढाई पर जितना खर्च करते हैं सरकार का, समाज का उन पर उससे दस गुना ज्यादा पैसा खर्च होता है जो उन पर समाज का कर्ज होता है.इसी बिहार में और पी.एम.सी.एच. के ही मेडिसिन विभाग में शिवनारायण सिंह जैसे डॉक्टर भी हुए हैं जिन्हें उनकी निःस्वार्थ सेवा भावना के चलते गरीबों ने भगवान का दर्जा दिया.उनको गुजरे अभी २० साल भी नहीं हुए और हमारे डॉक्टर-मित्रों के आदर्श इस हद तक बदल गए कि इन्हें मरीजों की जिंदगी तक की परवा नहीं है.
दो महानों में महान समानताएं
आज जब सचिन अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में अपना २० साल पूरा होने के एक दिन बाद खेलने को उतरे तो दर्शकों/श्रोताओं को उम्मीद थी कि वे एक बार फ़िर यादगार पारी खेलेंगे. लेकिन जैसा कि ब्रेडमैन ने उनके बारे कहा था कि वे उन्ही की तरह खेलते हैं, सचिन भी उसी तरह ४ रन बनाकर आउट हो गए जैसे ब्रेडमैन अपनी अंतिम पारी शून्य पर आउट हो गए थे. निराशा तो हुई लेकिन यह हमारा सौभाग्य है कि यह सचिन की अंतिम पारी नहीं थी हालाँकि यह क्रिकेट के इन दो भगवानों के खेल में अद्भुत समानताओं को तो दर्शाता ही है. किन्ही दो व्यक्तियों की उपलब्धियों की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि हर व्यक्ति के जीवन की स्थितियां एक जैसी नहीं होती.हाँ, खेलों में हम कुछ हद तक ऐसा करने की छूट पा लेते हैं क्योंकि वहां तुलना के लिए हमारे पास उनका खेल-रिकार्ड उपलब्ध होता है.क्रिकेट भारी और अद्भुत अनिश्चितताओं का खेल माना जाता है और सचिन की आज की पारी का मात्र ४ रन पर सिमट जाना इसे सत्य साबित भी करता है. क्रिकेट के भगवान को हमारी ओर से अपना २० साल का कैरिअर पूरा करने के लिए बहुत-बहुत बधाई. साथ ही हम उम्मीद करते हैं वे आगे कई सालों तक इसी तरह खेलते रहेंगे और बैट रुपी सारंगी पर नई-नई धुनें छेड़ते रहेंगे. मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि मैं बहुत भाग्यशाली हूँ क्योंकि मैंने उन्हें टी.वी पर अनगिनत बार खेलते हुए लाइव देखा है.भले ही प्रत्यक्षतः उन्हें खेलता देखने का अवसर नहीं मिला हो. शायद भविष्य में मेरी यह ख्वाहिश भी पूरी हो जाये.
शनिवार, 14 नवंबर 2009
बीमार न्याय व्यवस्था को इलाज की जरूरत
भारतीय न्यायवस्था अंग्रेजों की देन है. जाहिर है अंग्रेज संगीतकारों से भारतीय शास्त्रीय गायन की जानकारी की अपेक्षा तो नहीं ही जा सकती. उनके द्वारा तैयार किया गया न्यायिक ढांचा लगातार बढ़ते आर्थिक शोषण को बनाये रखने की जरूरत पर आधारित था.स्पष्ट है कि स्वतंत्र भारत में इसे बदल देना चाहिए था.लेकिन हमारे अंग्रेजपरस्त राजनेताओं ने इसे बनाये रखा.भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लोकतंत्र, सर्वप्रभुत्व संपन्नता, समाजवाद और पंथनिरपेक्षता के पायों को मजबूत करने के लिए व्यक्ति की गरिमा बनाये रखने के उद्देश्य से आर्थिक और सामाजिक न्याय स्थापित करने का हम भारत के लोगों ने संकल्प व्यक्त किया है. आदर्श राज्य व्यवस्था का लक्ष्य आम आदमी को मिले न्याय में ही साकार होता है. उद्देशिका में कानून सम्मत न्याय की कल्पना की गई है.उच्चतम न्यायालय सर्वोच्च न्यायपालिका है. राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय अत्यंत महत्वपूर्ण न्याय केंद्र है. उन्हें परमादेश निकलने की उच्चतम न्यायालय के बराबर अधिकारिता है और वह भी ज्यादा व्यापक आधारों पर. उच्च न्यायालय के तहत कार्यरत जिलास्तरीय न्यायपालिका है जिसके न्यायाधीशों की नियुक्ति राज्य शासन द्वारा की जाती है. जिला स्तर की कनिष्ठ उपनाम से प्रसिद्द न्यायपालिका को न्याय व्यवस्था का असल बोझ उठाना पड़ता है. सिविल और दांडिक प्रकरणों में संवैधानिक पेंच नहीं होते और न ही ज्यादा विधिक दार्शनिकता ही होती है. गवाही के आधार पर तय किये जानेवाले ऐसे मामलों में न्यायाधीशों का हाथ बाँधता जाता है. राज्य की शासन व्यवस्था भी बहुत अधिक कारगर नहीं होती. इसलिए ऐसे प्रकरणों की संख्या लाखों-करोड़ों में अनगिनत और कठिनतर चुनौतियों में बदल जाती है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती.केंद्रीय बजट में न्यायपालिका का व्यय स्थायी योजना मद में नहीं है. आवश्यकतानुसार उसके लिए राशियों का आवंटन किया जाता है. यही कारण है कि न्यायपालिका में एक-तिहाई पद खाली है और जब इतने पद खाली रहेंगे तो जनता को समय पर न्याय कैसे मिलेगा?वास्तव में नेता-अधिकारी गठबंधन न्यायिक संस्थाओं को अधूरा, आंशिक और अल्पकालीन रखने में अपना लाभ समझ रहा है. अधीनस्थ न्यायपालिका में नियुक्तियां राज्य सरकारों के जिम्मे है. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्तियों में पहले मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों की चलती थी. अब उच्चतम न्यायालय का चलता है. उच्च नयायालय के न्यायाधीश का पद देश में ऐसा अकेला पद है जिसके लिए कोई प्रतियोगी परीक्ष नहीं होती. सिफारिश का भी पता तब चलता है जब नियुक्ति हो जाती है.सौ से अधिक संशोधन के बाद भी भारत के संविधान में अभी तक उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के चयन और उनकी नियुक्ति की विस्तृत प्रक्रिया का निर्धारण नहीं हो सका है.सम्बंधित अनुच्छेदों १२४ और २१७ में केवल इतना ही कहा गया है की सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के सन्दर्भ में राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति करेंगे.उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के मामले में लिखा गया है कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ ही मुख्यमंत्री और राज्यपाल इस प्रक्रिया को पूरा करेंगे.संविधान लागू होने के शुरूआती दशक के दौरान परिपाटियों और संवैधानिक मूल्यों का व्यापक तौर से आदर किया जाता रहा.इंदिरा गाँधी के समय यह सलाह-मशविरे की प्रक्रिया मुख्य न्यायाधीश को पसंद के न्यायाधीश के नाम की सूचना देने तक सीमित रह गई.उस समय कहा जाता था कि न्यायाधीशों के लिए विधि मंत्री को जानना जरूरी है न कि कानून के बारे में जानना.१९९३ में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने इस प्रक्रिया को पूरी तरह पलट दिया और एक झटके में नियुक्ति सम्बन्धी सारे अधिकार अपने हाथों में कर लिया. अब मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के पॉँच सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश निर्णय लेते हैं और राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेज देते हैं. इस तरह भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश बन गया जहाँ गोपनीयता की आड़ में न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं. नई प्रणाली में केवल सत्ता एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित हो गई. गोपनीयता की सख्त दीवार अब भी वर्तमान थी.कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पी.डी.दिनाकरन की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायलय में होने को लेकर बहस जारी है. लेकिन यह संकट काफी पहले से चल रहा है.
यह काफी हर्ष की बात है कि केंद्र सरकार न्यायपालिका में सुधार के लिया संसद के शीतकालीन सत्र में विधेयक लाने जा रही है.इसके माध्यम से न्याय में होनेवाले विलंब, न्यापालिका में कायम भ्रष्टाचार और नियुक्ति सम्बन्धी त्रुटियों को दूर करने का प्रयास किया जायेगा.
यह काफी हर्ष की बात है कि केंद्र सरकार न्यायपालिका में सुधार के लिया संसद के शीतकालीन सत्र में विधेयक लाने जा रही है.इसके माध्यम से न्याय में होनेवाले विलंब, न्यापालिका में कायम भ्रष्टाचार और नियुक्ति सम्बन्धी त्रुटियों को दूर करने का प्रयास किया जायेगा.
बच्चों का बचपन खो गया है कहीं
हमारे देश के बच्चों को न जाने क्या हो गया है?
अब वे नहीं गाते राष्ट्रीय गीत,
नहीं पढ़ते महान लेखकों की रचनाओं को;
यहाँ तक कि नहीं बात करते अपनी भाषा में;
हमारे देश के बच्चों को न जाने क्या हो गया है!
नहीं करते जगते-जगते वे माता-पिता को सिर नवाकर प्रणाम,
इसके बदले वे गुड मोर्निंग करते हैं;
यहाँ तक कि उन्हें नहीं पता कि गीता क्या है,
एक पुस्तक या फ़िर एक लड़की का नाम;
हमारे देश के बच्चों को न जाने क्या हो गया है!
अब वे बैठे रहते हैं कंप्यूटर पर दिन-रात,
या फ़िर मांजते हैं किसी ढाबे में बर्तन;
नहीं खेलते मैदानों में जाकर,
यहाँ तक कि अब वे पक्षियों को पहचान भी नहीं पाते
और कबूतर को बाज़ बताते हैं;
हमारे देश के बच्चों को न जाने क्या हो गया है!
आज बच्चे भूल गए हैं तितलियों के पीछे भागना,
खेतों से तोड़कर नहीं चूसते गन्ना
नहीं खाते चना-मटर की फलियाँ;
यहाँ तक कि नहीं तोड़ते ढेला चलाकर आम,
कहाँ गया इन बच्चों का बचपन
शायद खो गया है कहीं;
और पूछने पर मुझे कोई नहीं बता रहा है उसका पता.
अब वे नहीं गाते राष्ट्रीय गीत,
नहीं पढ़ते महान लेखकों की रचनाओं को;
यहाँ तक कि नहीं बात करते अपनी भाषा में;
हमारे देश के बच्चों को न जाने क्या हो गया है!
नहीं करते जगते-जगते वे माता-पिता को सिर नवाकर प्रणाम,
इसके बदले वे गुड मोर्निंग करते हैं;
यहाँ तक कि उन्हें नहीं पता कि गीता क्या है,
एक पुस्तक या फ़िर एक लड़की का नाम;
हमारे देश के बच्चों को न जाने क्या हो गया है!
अब वे बैठे रहते हैं कंप्यूटर पर दिन-रात,
या फ़िर मांजते हैं किसी ढाबे में बर्तन;
नहीं खेलते मैदानों में जाकर,
यहाँ तक कि अब वे पक्षियों को पहचान भी नहीं पाते
और कबूतर को बाज़ बताते हैं;
हमारे देश के बच्चों को न जाने क्या हो गया है!
आज बच्चे भूल गए हैं तितलियों के पीछे भागना,
खेतों से तोड़कर नहीं चूसते गन्ना
नहीं खाते चना-मटर की फलियाँ;
यहाँ तक कि नहीं तोड़ते ढेला चलाकर आम,
कहाँ गया इन बच्चों का बचपन
शायद खो गया है कहीं;
और पूछने पर मुझे कोई नहीं बता रहा है उसका पता.
शुक्रवार, 13 नवंबर 2009
टूटते-बिखरते परिवार
भारत के दो महाकाव्य सबसे प्रसिद्द रहे हैं-रामायण और महाभारत.कहना न होगा भारतीय संस्कृति पर इन दो महान ग्रंथों का जितना प्रभाव पड़ा है अन्य किसी पुस्तक का नहीं. एक में चारों भाई अपने दूसरे भाइयों के लिए बड़े-से-बड़ा त्याग करने को लालायित रहते हैं तो दूसरे में एक भाई के पुत्र किसी भी कीमत पर दूसरे भाई के पुत्रों को पैत्रिक संपत्ति पर अधिकार देने को तैयार नहीं है.कहने का अर्थ यह कि परिवार में टूटन की बीमारी महाभारत काल में भी मौजूद थी लेकिन आपवादिक रूप में. वर्तमान परिवेश को अगर देखें तो भारतीय समाज संयुक्त परिवार से एकल परिवार तक तो आ ही चुका है अब व्यक्तिवाद की ओर भी चल पड़ा है. अब प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजी जिंदगी है वो चाहे जैसे जिए. माँ-बाप उसमें हस्तक्षेप करने के अधिकारी नहीं हैं.स्थिति ऐसी हो गई है कि कई-कई पुत्र-पुत्रियों का लालन-पालन करनेवाले माता-पिता ज़िन्दगी की शाम में खुद को ठगा, तनहा और टूटा हुआ महसूस करते हैं.आये दिन दिल्ली में वृद्ध दम्पति की चोरों-डकैतों द्वारा हत्या कर लूट लेने के मामले सामने आ रहे हैं. माता-पिता दिल्ली में और बच्चे यूरोप-अमेरिका में. सर्वथा नई प्रवृत्ति, जो भारतीय वांग्मय के लिए हमेशा अजनबी थी.हम भारतीयों को तो अपनी परिवार संस्था पर बहुत नाज था. फ़िर अचानक ये कौन सी हवा चली कि शमां ही बदल गई.आज हर भारतीय के समक्ष दुविधा है कि परिवार के लिए त्याग किया जाये कि परिवार को ही त्याग दिया जाये.मैं मानता हूँ कि पैसा जरूरी है लेकिन जब अपनों का साथ ही नहीं होगा तो पैसा लेकर हम क्या करेंगे? पैसा भी तभी सुख देगा जब हमारे अपने हमारे साथ हों.
गुरुवार, 12 नवंबर 2009
मांझी जब नाव डुबोये तो उसे कौन बचाए
मेरा गाँव राघोपुर दियारे में पड़ता है. मुझे अक्सर नाव की सवारी करनी पड़ती है. मुझे तैरना नहीं आता. ऐसी भी बात नहीं है कि मैंने सीखने की कोशिश नहीं की लेकिन सफल नहीं हुआ. शायद मेरे प्रयास में ही कोई कमी रह गयी.तो मैं बात कर रहा था नाव से गंगा पर करने की.क्योंकि मुझे तैरना नहीं आता मैं पूरी तरह नाविक पर निर्भर रहता हूँ और मुझे विश्वास रहता है मांझी पर कि वह दुर्घटना की अवस्था में भी मुझे डूबने नहीं देगा. अब आप कल्पना करें कि किसी नाव को मांझी ही डूबाने पर उतारू हो जाये तब मेरा क्या होगा?कुछ ऐसी ही स्थिति हमारे देश की जनता की है. देश की नाव की पतवार इस समय है कांग्रेस पार्टी के हाथों में. महंगाई से जनता के हाथ-पांव फूल रहे हैं और कांग्रेस महंगाई को कम करने के बजाये बढ़ाने में जुटी है.पहले दिल्ली में बिजली को महंगा किया गया फ़िर बस का किराया बढा दिया गया और अब मेट्रो का किराया भी बढा दिया गया.इसी बीच भारत सरकार नियंत्रित मदर डेयरी ने दूध का दाम बढा दिया. वित्त मंत्री को चिंता है कि बजट घाटा को कैसे सीमा में रखा जाये.जबकि अमेरिका जैसा धनी देश मंदी के चलते घाटे की परवा किये बिना जनहित में लगातार कदम पर कदम उठाता जा रहा है. यही अंतर है अमेरिका और भारत के नेताओं में.हमारे यहाँ एक तरफ मंदी चल रही है तो दूसरी तरफ महंगाई यानि कोढ़ में खाज.क्या बजट घाटा जनता से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है? एक तरफ तो बड़े-बड़े उद्योगों को अरबों रूपये की सहायता दी जा रही है और दूसरी ओर इसके चलते बढ़ते घाटे को गरीब जनता के पैसों से पूरा करने की जुगत भिडाई जा रही है.इसे अगर आम लोगों की सरकार न कहें तो फ़िर किसे कहें! सरकार को अमेरिका से सीख लेने की जरूरत है कि कैसे मंदी से लड़ा जाता है.१९२९ से भी और २००८-०९ से भी. सरकार को सार्वजनिक व्यय बढ़ाना चाहिए, न कि खर्च कम करके बजट घाटे को कम करने की कोशिश.खर्च कम करना ही है तो मंत्री अपना खर्च कम करें आम आदमी की तरह ज़िन्दगी जीकर. गाँधी तो थर्ड क्लास डिब्बे में चलते थे और उन्हीं की विरासत सँभालने का दावा करनेवाली पार्टी के मंत्री १-१ लाख रूपए प्रतिदिन भाड़ावाले कमरों में रहते हैं और एसी वाले महलों में बैठकर योजना बनाते हैं घाटा कम करने की और महंगाई बढ़ाने की.
बुधवार, 11 नवंबर 2009
सूचना के अधिकार को बेअसर करने की बिहार सरकार की साजिश
सूचना का अधिकार,२००५ भारत के इतिहास में ऐसा पहला कानून है जिसके तहत प्रशासन को निर्धारित समयसीमा के भीतर काम पूरा करने के लिए जवाबदेह बनाने की कोशिश की गयी है.इसके द्वारा अफसरों-कर्मचारियों को एक निर्धारित समय-सीमा के भीतर सूचना देने को बाध्य किया गया है.अब तक बहुत-से अफसर-कर्मचारियों पर जुरमाना भी लगाया गया है. शुरू में तो सबकुछ ठीक रहा लेकिन बहुत जल्दी जब राजनेताओं के प्यारे नजदीकी अफसरों को भी इसने अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया तब वे ढूँढने लगे जनता के हाथ लगे इस बहुमूल्य हथियार को भोथरा बनाने का उपाय. केंद्र सरकार इस दिशा में पहले ही दो बार कोशिश कर चुकी है, लेकिन असफल रही है भारी विरोध के कारण. अब बारी है बिहार सरकार की जो इस मुद्दे पर अपनी सफलता का ढोल पीटती फ़िर रही है.बिहार सरकार अधिनियम में इस तरह से संशोधन की योजना बना रही है जिससे कि एक आवेदन पर अब एक ही सूचना मांगी जा सके. इसका परिणाम यह होगा कि इस अधिनियम की जान ही निकल जायेगी और यह अधिकार बस नाम का ही रह जायेगा. दूसरे शब्दों में अगर हम कहें कि क्या केंद्र और क्या राज्य सरकार दोनों इस महत्वपूर्ण अधिकार को शांतिपूर्ण मौत देने की फिराक में है. किसी एक मुद्दे पर सम्पूर्ता में सूचना चाहिए तो फ़िर भेजो १०-१५ आवेदन. किसके पास इतना पैसा होगा कि वह १००-१५० रूपये खर्च करेगा? बिहार सरकार ने पहले से ही अपील पर ५० रूपये का शुल्क लगा रखा है और बिडम्बना तो यह है कि अधिकतर बिहारी जनता को पता तक नहीं है कि अपील के आवेदन के साथ ५० रूपये का पोस्टल आर्डर भी भेजना है. परिणाम यह होता है कि लोग आवेदन को बिना शुल्क के भेज देते हैं और अपील ऐसे ही जाया हो जाती है.ऐसा खुद मेरे साथ भी हो चूका है.दूसरी ओर खुद बिहार सरकार भी नहीं चाहती कि जनता को इस बात का पता चले तभी तो आरटीआई सम्बन्धी बिहार सरकार की किसी भी होर्डिंग या विज्ञापन में आज तक इस तथ्य का जिक्र तक नहीं किया गया. कम-से-कम मैंने तो ऐसा ही पाया है.दूसरी ओर बिहार सरकार बार-बार दावे कर रही है कि इतने आवेदनों का निष्पादन किया गया या इतने लोगों ने सूचना प्राप्त की. अब सरकारी दावे का स्रोत क्या है ये तो वही जाने मुझे तो अपने एक दर्जन आरटीआई आवेदनों में से किसी में भी अपेक्षित सूचना प्राप्त नहीं हुई. दो मामलों में तो सूचना के एवज में मुझसे क्रमशः ३४४४६ और ७२८० रूपये की मांग भी की गई.आरटीआई को लेकर राज्य सरकार कितनी गंभीर है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक लम्बे अरसे से बिहार के मुख्य सूचना आयुक्त का पद खाली था और पटना उच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही इस पद को भरा गया. तब तक लंबित आवेदनों का अम्बार लग गया था और सरकार कान में तेल डाल कर पड़ी थी.खुद नवनियुक्त मुख्य सूचना आयुक्त के अनुसार इन १०००० मामलों के निबटने में ही कम-से-कम छह महीने लगनेवाले हैं.
लोकतान्त्रिक सोंच नहीं रखते भारतीय
भारत को आजादी मिले ६२ साल हो गए. एक देश के विकास की हिसाब से यह कालखंड भले ही ज्यादा लगता हो, लोकतंत्र के विकास की लिहाज से यह बहुत कम है.भारत के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े लोकतंत्र अमेरिका को अगर हम लें तो उसका लोकतान्त्रिक इतिहास सवा दो सौ साल से भी ज्यादा का है और इंग्लैंड का तो इससे भी कहीं ज्यादा का.भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे अच्छी बात यह है कि यहाँ सत्ता बल-प्रयोग के द्वारा नहीं मतदान द्वारा बदलती रही है.६२ सालों की इस यात्रा में भारतीय लोकतंत्र की कई कमजोरियां समय-समय पर उजागर होती रहीं हैं और स्वतः जनता द्वारा मत-प्रयोग के माध्यम से दूर भी होती रही हैं.इस दौरान एक कमजोरी बार-बार लोकतंत्र पर हावी होती दिखाई देती है.वह सबसे बड़ी कमजोरी है-हमारे भीतर लोकतान्त्रिक सोंच या मानसिकता का अभाव.हम आज भी राजतान्त्रिक सोंच रखते हैं. राजतन्त्र का सबसे बड़ा गुण है उत्तराधिकार का नियम. हमारे अधिकतर जनप्रतिनिधि ऐसे हैं जिनके माता-पिता कभी-न-कभी राजनीति में थे. एक अध्ययन के अनुसार हमारे देश की राजनीति को मात्र साढ़े पॉँच हजार परिवार संचालित कर रहे है.भारतीय जनता क्यों एक ही परिवार के उत्तराधिकारी को मत देकर जिता रही है? क्या बार-बार ऐसा करना भारतीय जनता की प्रजातान्त्रिक सोंच या मानसिकता को दर्शाता है?एक तरफ उत्तराधिकार की लम्बी परंपरा को धारण करनेवाली कांग्रेस पार्टी सत्ता में है और दिन-ब-दिन मजबूत होती जा रही है तो दूसरी ओर लोकतान्त्रिक गुणों को ज्यादा प्रखरता से धारण करनेवाली भाजपा पतन की ओर अग्रसर है. पूरा भारत राहुल गाँधी को सत्ता सौंपने के लिए क्यों व्याकुल हो रहा है? क्या भारत में योग्य राजनेताओं का अकाल पड़ गया है? राहुल ने अब तक ऐसा कोई भी काम नहीं किया है जिससे उन्हें सबसे योग्य कहा या माना जा सके. लगता है कि भारतीय जनता संभावनाओं के पीछे उसी तरह पागल है जैसे नोबेल पुरस्कार समिति ओबामा के पीछे पागल थी.दलितों के घर एक-दो बार ठहर लेने या भोजन कर लेने मात्र से वे प्रधानमंत्री पद अधिकारी हो गए ऐसा कैसे माना जा सकता है. फ़िर तो ऐसे हजारों सवर्ण नेताओं को खोजा जा सकता है जो बराबर दलितों के यहाँ ठहरते और भोजन करते हैं तो क्या ऐसा करनेवाले वे सभी जनप्रतिनिधि ऐसा करने मात्र से प्रधानमंत्री पद के योग्य हो गए! या फ़िर राहुल जी उस नेहरू-गाँधी परिवार में जन्म लेने के कारण इस पद के अधिकारी हो गए जिनकी गलतियों के कारण भारत को हजारों वर्गकिलोमीटर भूमि से हाथ धोना पड़ा और निकट भविष्य में उसकी वापसी की भी उम्मीद नहीं है.रामचरितमानस में तुलसी ने कहा है-सब सुभ काज भारत के हाथा. लोकतंत्र में जनता ही राम है और जनता ही भरत. करना बस इतना है कि मत डालते समय यह ख्याल रखें कि किसको जिताना देशहित में है. हो सकता है कि हमारे जातीय या सांप्रदायिक स्वार्थ अलग-अलग हों लेकिन देश तो हमारा एक ही है, सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान. इसलिए हमारा देशहित अलग नहीं हो सकता. बस यही हम नहीं कर पाते हैं और तात्कालिक लाभ के चक्कर में पड़ जाते हैं.लेकिन बाद में उससे कई गुना भ्रष्टाचार के माध्यम से हमारी जेबों से खींच लिए जाते हैं. भ्रष्ट लोगों को जिताने का भला और क्या परिणाम हो सकता है?
मंगलवार, 10 नवंबर 2009
क्या इसे कहते हैं कानून का राज!
भारत में भारतीय संविधान के अनुसार शासन चलता है, कानून का शासन.संविधान के भाग तीन के अनुच्छेद १४, १५ और १६ के अनुसार भारत का हर नागरिक कानून के समक्ष एकसमान है. भारत के नागरिकों में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी तरह का विभेद नहीं किया जायेगा. साथ ही संविधान ने अपने नागरिकों के लिए लोक नियोजन में अवसर के मामले में भी समानता प्रदान की है.लेकिन संविधान निर्माताओं ने इन अनुच्छेदों को तैयार करते समय एक गलती कर दी. उन्हें यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए था कि धन के और प्रास्थिति यानि स्टेटस के आधार कर भी संविधान विभेद नहीं करेगा.अब इसे आप न्यायपालिका पर आरोप कहिये या कुछ और मैं पूछता हूँ कि आम आदमी के मामले में सफलतापूर्वक काम करनेवाले न्यायतंत्र को तब क्यों लकवा मर जाता है जब कोई खास आदमी कानून का उल्लंघन करता पाया जाता है? मनु शर्मा को दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के आदेश से पिता के चुनाव से ऐन पहले पैरोल पर रिहा कर दिया गया. बाद में पाया गया कि जेसिकालाल की हत्या का यह आरोपी दिल्ली के क्लबों में गुलछर्रे उड़ा रहा था. क्या दिल्ली की मुख्यमंत्री किसी आम नागरिक को उसकी स्वस्थ मां की देखभाल के लिए या फ़िर डेढ़ साल पहले मर चुकी दादी के संस्कार में शामिल होने के लिए पैरोल पर रिहा करने की अनुमति देतीं? नहीं कदापि नहीं! क्या यही है कानून के समक्ष समानता? क्या इसी तरह कानून का पालन कराया जाता है? हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मनु शर्मा पर एक नाईट क्लब में हत्या का आरोप है.फ़िर वह नाईट क्लब में कैसे पहुँच गया? पैरोल के दौरान उस पर नज़र रखने की जिम्मेवारी किसकी थी और उसने क्यों और किन परिस्थितियों में अपने कर्तव्यपालन में कोताही बरती?अभी कुछ ही दिन पहले न्यायपालिका ने बोफोर्स मामले में कुँतरोची को बरी करने के खिलाफ की गई अपील पर सुनवाई को पांच महीने के लिया टाल दी.न्यायपालिका कैसे सरकार के आगे लाचार हो गयी और कुँतरोची बरी हो गया सबके सामने है. क्यों आज तक भ्रष्टाचार के किसी भी मामले में किसी भी राजनेता को सजा नहीं हुई? जो खादी कभी सच्चाई का प्रतीक थी वही खादी क्यों भ्रष्टाचारियों के लिए कवच बन गयी है? स्थितियां कब बदलेगी और कैसे? मेरे पास आज सिर्फ सवाल ही सवाल है. जवाब शायद आज किसी के भी पास नहीं हो.लेकिन कुछ तो किया ही जा सकता है.
शनिवार, 7 नवंबर 2009
जो बार-बार गलतियाँ दोहराए उसे कांग्रेस कहते हैं
जब मैं मध्य विद्यालय में पढता था तब मेरे गुरु परमपूज्य श्रीराम सिंह एक कहावत दोहराया करते थे-जो कभी गलती करे ही नहीं उसे भगवान कहते हैं, जो एक गलती को सिर्फ एक बार करे अर्थात उसे दोहराए नहीं उसे इन्सान कहते हैं और जो एक ही गलती को बार-बार करे उसे शैतान कहते हैं. लेकिन यहाँ शैतान से मेरा मतलब किसी आदमी से नहीं है बल्कि एक राजनीतिक पार्टी से है.वह पार्टी है कांग्रेस जो भारत की सबसे पुरानी पार्टी भी है.बहुत पहले १९१६ में इसने मुस्लिम लीग से लखनऊ समझौता किया था और उसे मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था मान लेने की गलती की थी जिसकी परिणति भारत के विभाजन के रूप में हुई. बाद में नेहरु की गलतियों के कारण हमें पहले पाकिस्तान और फ़िर चीन के सामने मुंह की खानी पड़ी और हजारों वर्ग किलोमीटर भूमि से हाथ भी धोना पड़ा. कश्मीर में आज भी अलगाववादी हिंसा जारी है.गलतियाँ करने में उनकी बेटी भी कहाँ पीछे रहनेवाली थी. इंदिराजी ने भी पंजाब में अकाली दल की बुद्धि ठिकाने लगाने के लिए कथित संत जरनैल सिंह भिंडरावाले की हर तरह से सहायता की. कालांतर में इस संत की महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ गई कि वह पंजाब को भारत से अलग करके स्वतंत्र देश खालिस्तान स्थापित करने के सपने देखने लगा. अंततः इंदिरा गाँधी को आपरेशन ब्लू स्टार का निर्णय लेना पड़ा और खुद अपनी जान देकर गलती का प्रायश्चित करना पड़ा. इन्हीं इंदिरा जी के अंहकार के कारण भारत में आतंरिक आपातकाल लगाना पड़ा और २ वर्षों तक लोकतंत्र जेल में कैद रहा. इंदिरा जी यहीं नहीं रूकीं श्रीलंका सातवे दशक के उत्तरार्द्ध में जातीय दंगों की आग में झुलस रहा था. सैकड़ों तमिल अल्पसंख्यकों की हत्या कर दी गई थी.तमिलनाडु के तटीय इलाकों में शिविर लगवाकर इंदिराजी ने तमिलों को सैनिक शिक्षा दी. फलस्वरूप जन्म हुआ खतरनाक आतंकवादी संगठन एलटीटीई का . श्रीलंका गृहयुद्ध की जिस आग में २५ सालों तक झुलसता रहा उसे चिंगारी दी थी कांग्रेस पार्टी की सरकार ने. इंदिराजी के बाद प्रधानमंत्री बने उनके पुत्र राजीव. उन्होंने भी माँ और नाना के नक्शे कदम पर चलते हुए श्रीलंका में भारतीय शांति सेना भेजने की गलती की.दूसरों के मामलों में बेवजह टांग अड़ाने का नतीजा हुआ कि सैकडों भारतीय सैनिकों को जान से हाथ धोना पड़ा.बाद में भारतीय सेना को बेआवरू होकर श्रीलंका से वापस लौटना पड़ा. बदला लेने के लिए एलटीटीई ने राजीव गाँधी की ही हत्या कर दी. वर्तमान मनमोहन सिंह की सरकार भी गलतियाँ करने में पीछे नहीं है. ऐसी गलतियाँ जिसका मूल्य भविष्य में भारत को अवश्य चुकाना पड़ेगा. कांटे से कांटा निकलता है की नीति में लगता है कि इस पार्टी को अटूट विश्वास है तभी तो इंदिराजी के भिंडरावाले प्रयोग की तरह ही महाराष्ट्र में वह बाल ठाकरे के खिलाफ उनसे भी कहीं बुरे राज ठाकरे को बढावा दे रही है.राज के कार्यकर्ता जब चाहे तब पूरे महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों को पीटना शुरू कर देते हैं. इस हिंसा में कई लोगों को तो जान से भी हाथ भी धोना पड़ा है.लेकिन राज के खिलाफ जान-बूझकर कमजोर धाराएँ लगाई जाती हैं और वे जमानत पर फ़िर से बाहर आ जाते हैं. इतना ही नहीं राज को बचाने में कानून की रक्षक पुलिस ही जी-जान से लगी हुई प्रतीत हो रही है. निश्चित रूप से राज के कारण कांग्रेस को लाभ और शिवसेना-भाजपा को हानि हुई है. अभी-अभी संपन्न हुए चुनाव इसकी पुष्टि भी करते हैं. लेकिन राज की भी शक्ति बढ़ी है और उनके एक दर्जन से अधिक विधायक विधानसभा में पहुँच गए हैं. राज अतिवादी और हिंसा में विश्वास करनेवाले नेता हैं और अगर वे कांग्रेस के नियंत्रण से बाहर हो गए तो देश को शायद एक और अलगाववादी हिंसक आन्दोलन से निबटना पड़ सकता है. इसलिए मैं कांग्रेस पार्टी से अनुरोध करता हूँ कि वह अभी से भी इतिहास से सबक ले. आखिर उसके दो नेता भूतकाल में इसी तरह की गलतियों के शिकार हो चुके हैं.
शुक्रवार, 6 नवंबर 2009
बिहार के प्रति ममता की निर्ममता
आजादी के समय से ही रेलवे के मानचित्र पर उपेक्षित रहे बिहार से जब लगातार तीन-तीन लोग रेल मंत्री बने तब पथराई आँखों में ना जाने कितने सपने तैरने लगे. लेकिन २००९ के लोकसभा चुनाव के बाद बिहार के हाथों से यह अहम् माना जानेवाला पद निकल गया और पश्चिम बंगाल की तेजतर्रार नेत्री ममता बनर्जी के हाथों में चला गया.ये वही ममता दीदी हैं जिन्होंने नंदीग्राम में गरीबों के लिए लड़ाई की और जीत पाई. फ़िर बिहार की गरीब जनता ने उनका क्या बिगाड़ा था जो उन्होंने बिहार में चल रही सभी रेल परियोजनाओं के लिए धनावंटन में भारी कटौती कर दी और इस गरीब प्रदेश की आखों में पल रहे सपनों पर गरम पानी डाल दिया.उत्तर बिहार की सात परियोजनाओं के लिए आवंटित धन पर अगर हम नज़र डालें तो आसानी से समझ सकते हैं कि ममता जी का रवैया बिहार के प्रति प्रतिशोधात्मक है ममता से परिपूरित नहीं.न्यू मुजफ्फरपुर जंक्शन के निर्माण के लिए ७० करोड़ की जगह मात्र १ करोड़, मुजफ्फरपुर-दरभंगा रेल निर्माण के लिए २८१ करोड़ की जगह सिर्फ १ लाख, मुजफ्फरपुर-जनकपुर रोड रेल निर्माण के लिए २२८ करोड़ की जगह मात्र १ लाख, सीतामढी-निर्मली रेलखंड के निर्माण के लिए ६७८ करोड़ की जगह मात्र १ लाख, मोतिहारी-सीतामढी रेल निर्माण के लिए २०६ करोड़ के स्थान पर सिर्फ १ करोड़, दरभंगा-कुशेश्वर स्थान रेलखंड के लिए २०२ करोड़ की जगह मात्र १ करोड़ और छपरा-मुजफ्फरपुर रेल दोहरीकरण के लिए ३१४ करोड़ की जगह सिर्फ २ करोड़ का आवंटन हमें यहीं सीख दे रहा है कि जब तक बिहार का कोई सपूत फ़िर से रेलमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठेगा रेलवे के मामले में बिहार पिछड़ा ही रहेगा.हाँ ममता जैसी नकचढ़ी नेता को अगर रास्ते पर लाना है तो उठ खड़ा होना होगा बिहार के सभी १० करोड़ लोगों को प्रतिकार में. वैसे भी कहा गया है कि अधिकार मांगने से नहीं छीनने से मिलता है.
तुम्हीं सो गए दास्ताँ कहते-कहते
मीडिया का एवरेस्ट कहे और माने जानेवाले जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी नहीं रहे. लेकिन वे इस तरह खामोशी से जा भी कैसे सकते हैं? अभी जो महफ़िल जवान हुई थी, अभी तो उन्हें बहुत कुछ सुनाना था और हमें बहुत कुछ सुनना. लेकिन यह सच है और सबसे कड़वा सच कि वे चुपके से महफ़िल को तनहा छोड़कर खिसक लिए हैं.अब कल का कोई नौसिखिया पत्रकार चाहे उन्हें जितनी भी गालियाँ दे या जो चाहे आरोप लगा ले वह अदम्य इच्छाशक्तिवाला नरमदिल पत्रकार अब कोई जवाब नहीं देगा, नहीं करेगा प्रतिवाद. इतिहास गवाह है कि भारत की इस पुण्यभूमि पर सीता को भी आरोपित होना पड़ा था. फ़िर प्रभाष जी तो हाड़-मांस के बने हमारी ही तरह एक इंसान मात्र थे.प्रभाषजी से पहले भी हिन्दी पत्रकारिता थी. पढने-लिखनेवाले लोग थे. लेकिन हमारे बिहार में एक कहावत खूब कही और सुनी जाती है-लीके-लीक गाड़ी चले, लीके चले कपूत; लीक छाड़ी के तीन चले सिंह, शायर, सपूत.और प्रभाषजी भी सपूत थे, मां-बाप के और भारत माता के भी. फ़िर उन्हें कहाँ पत्रकारिता के क्षेत्र में पहले से चली आ रही परंपरा का पालन भर करना मंजूर होता.१९८३ में उनके संपादन में इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप ने जनसत्ता अख़बार शुरू किया. अब तक सरकार या नेता/अधिकारी जो कहते अखबारवाले आंख मूंदकर उस पर विश्वास कर लेते और जनता भी वही पढने और उसे ही सत्य मानने को बाध्य थी. प्रभाषजी को यह मंजूर नहीं था. फलस्वरूप हिन्दी पत्रकारिता जगत में जन्म हुआ एक नयी प्रवृत्ति का जिसे हम खोजी पत्रकारिता कहते हैं. टीवी की दुनिया में बहुचर्चित स्टिंग ऑपरेशन इसी का विकसित रूप है. प्रभाषजी की पत्रकारिता जनसरोकार से जुड़ी पत्रकारिता थी. उन्होंने अपने पूरे कैरिएर में बाजार और बाजारवाद को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया. उनके जैसा कलमकार शायद ही निकट भविष्य में फ़िर से हिन्दी पत्रकारिता जगत में जन्म ले. जो भी उनके संपर्क में आया उसे उनका भरपूर स्नेह मिला, भले ही वह सुपात्र रहे हों या कुपात्र. प्रभाषजी क्रिकेट के अनन्य प्रशंसक थे.दुर्भाग्यवश क्रिकेट से उनका यह लगाव ही उनके लिए जानलेवा बन गया. होनी को भला कौन टाल सकता है? एक पत्रकार और उससे भी ज्यादा एक पाठक होने के नाते हम उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हुए भरी आखों और भरे दिल से बस यही कह सकते हैं-हम तो बेताव थे बहुत-कुछ सुनने के लिए, तुम्हीं सो गए दास्ताँ कहते-कहते.
गुरुवार, 5 नवंबर 2009
शाहे बेखबर का शासन
कभी परवर्ती मुग़ल बादशाह शाह आलम को शाहे बेखबर कहा जाता था.क्योंकि रियाया की हालत क्या है और राज्य में क्या हो रहा है उन्हें कुछ पता नहीं होता था. एक शेर भी काफी प्रसिद्द हुआ था-शहंशाहे शाह आलम, दिल्ली से पालम. जिस किसी ने भी कहा है कि इतिहास अपने को दोहराता है बिलकुल सही कहा है. हमारे प्रधानमत्री मनमोहन सिंह की सरकार किसी भी मायने में शाह आलम की सल्तनत से कम नहीं हैं.अभी परसों ही की तो बात है गृह मंत्री चिदंबरम देवबंद में दारुण उलूम के एक कार्यक्रम में भाग लेने गए थे. दारम उलूम द्वारा उसी कार्यक्रम में वन्दे मातरम, महिला आरक्षण और टेलिविज़न पर पारित प्रस्ताव पर जब विवाद उत्पन्न हो गया तो उनके सहायक कहते हैं कि मंत्रीजी को ऐसे किसी प्रस्ताव के बारे में जानकारी ही नहीं थी. क्या भोलापन है मौजूदगी में प्रस्ताव पारित हुआ और मंत्रीजी बेखबर हैं. अपने प्रधानमंत्रीजी तो और भी ज्यादा मासूम हैं उन्हें तो लगता है कभी-कभी यह भी खबर नहीं रहती कि भारतीय गणतंत्र का प्रधानमंत्री कौन है? किसी विपक्षी नेता की तरह खुद ही मांग करते रहते है कि ये होना चाहिए, वो होना चाहिए. होना चाहिए इससे भला कौन इंकार कर सकता है लेकिन करना तो आपको ही है, सत्ता पक्ष ही तो सब कुछ करता है. आप अपने मंत्री को आप जैसा करना चाहते हैं आदेश दें और मुझे माफ़ करें क्योंकि मुझे ऐसा कोई नुस्खा मालूम नहीं है जिससे आप जैसे वयोवृद्ध डबल रिटायर्ड की स्मरण शक्ति मजबूत हो सके.
बुधवार, 4 नवंबर 2009
कबीरा खड़ा बाज़ार में
मध्यकाल के प्रसिद्द निर्गुण भक्त दूरदर्शी संत कबीर शायद उसी समय बाज़ार का महत्व समझ गए थे. तभी तो वे बार-बार बाज़ार में खड़े नज़र आते हैं.उनका एक बाज़ार सम्बन्धी दोहा तो काफी प्रसिद्द है- कबीरा खड़ा बाज़ार में सबकी मांगे खैर, ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर. एक और भी दोहा है जिसमें कबीर लुकाठी लेकर बाज़ार में खड़े नज़र आते हैं, पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार है-कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ. इन दोहों से स्पष्ट है कि कबीर फक्कड़ थे इसलिए बार-बार बाज़ार में खड़े होकर किसी को भी चुनौती दे डालते थे.वह दौर ईश्वरीय आस्था का दौर था आज बाजारीकरण का दौर है. प्रेम से लेकर वात्सल्य तक सब कुछ बाज़ार में आकर खड़ा हो गया है और बाज़ार द्वारा, बाज़ार के लिए संचालित हो रहा है.आधुनिक संत/भक्त बाजार नाम परमेश्वरं महामंत्र की महिमा को काफी पहले समझ गए थे. रजनीश ने सबसे पहले इसे समझा लेकिन भारतीय जनता के मन-मिजाज को वे भांप नहीं सके फलस्वरूप अमेरिका भागना पड़ा. बाद में आशाराम बापू ने भी अपनी खूब ब्रांडिंग की लेकिन क्षेत्रीय क्षत्रप बनकर रह गए. अध्यात्म का राष्ट्रीय नायक कैसे बना जा सकता है इसे पहली बार वास्तविक रूप में समझा बाबा रामदेव ने.जैसा कि सभी जानते हैं कि भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति चिंताजनक है. रामदेव ने योग द्वारा कैसे मुफ्त में स्वस्थ रहा जा सकता है लोगों को बताना शुरू किया. देखते-देखते अहले सुबह वे लगभग सभी टीवी चैनलों के परदे पर नज़र आने लगे. जब मामला जमने लगा तब निकल पड़े देशाटन पर. जगह-जगह योग-शिविरों का आयोजन होने लगा.लाभार्थियों से ऊंचीं रकम वसूली जाने लगी.साथ-ही-साथ उनके गुरुभाई बालकृष्ण द्वारा निर्मित आयुर्वेदिक दवाओं का भी इन शिविरों में भरपूर प्रचार किया गया और दवाएं बेचीं भी गयीं. देखते-ही-देखते लगभग हरेक शहर में बाबा रामदेव के दिव्य फार्मेसी की दुकानें खुल गईं. इतना धनार्जन हुआ कि रामदेव ने आस्था नामक चैनल को ही खरीद लिया जिससे भक्ति और अध्यात्म के अन्य व्यापारियों को भी अपनी ब्रांडिंग का अवसर प्राप्त हो सके.संन्यासी बनकर उन्होंने जितना धनार्जन किया शायद गृहस्थ बनकर कभी नहीं कर पाते.कम्पनी फिल्म में एक गाना था-गन्दा है पर धंधा है.फ़िर यह धंधा तो सम्मान भी दिला रहा है. जब तक जनता का मोहभंग नहीं होता चलेगा तब तक तो पिछले दरवाजे से दिव्य योग मंदिर में दाखिल हो चुके रामदेव के भाई और बहनोई के वंशजों-उत्तराधिकारियों के कई पुश्तों के बैठकर खाने का इंतजाम हो जायेगा.
सोमवार, 2 नवंबर 2009
किरण बेदी को मुख्य सूचना आयुक्त बनाया जाये
भारत के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि यहाँ कानून तो है पर व्यवस्था नहीं है. सूचना का अधिकार कानून भी इसका अपवाद नहीं है. स्वयं मुख्य सूचना आयुक्त सचिवालय के अनुसार मात्र १७ प्रतिशत मामलों में ही आवेदक को सूचना मिल पा रही है. जाहिर है कि सरकारी तंत्र कानून बन जाने के बाद भी सूचना देने के बजाये छुपाने में ज्यादा विश्वास रखता है.कानून बनाना हमारे देश में जितना आसान रहा है लागू करवाना उतना ही कठिन और जब सरकार ही बाधक का काम करने लगे तब तो उस कानून का भगवान ही मालिक है. सरकार दो-दो बार इस कानून में संशोधन का प्रयास कर चुकी है जिससे उसकी नीयत पर शक होना स्वाभाविक भी है. मुख्य सूचना आयुक्त हबीबुल्ला के इस्तीफे के बाद पद रिक्त हो गया है. अभिनेता आमिर खान ने इस पद पर नियुक्ति के लिए किरण बेदी का नाम सुझाया है. अच्छी बात यह रही है कि श्रीमती बेदी ने जिम्मेवारी ग्रहण करने से इंकार भी नहीं किया है. धीरे-धीरे यह मुहीम जोर पकड़ने लगी है और विभिन्न क्षेत्रों के कई जाने-माने लोगों ने आगे बढ़कर किरण बेदी का समर्थन किया है. किरणजी निश्चित रूप से एक निर्भीक और ईमानदार अधिकारी रही हैं. उनके साहस से डरकर ही केंद्र सरकार ने उन्हें दिल्ली का पुलिस आयुक्त नहीं बनाया था. क्या अब वही सरकार उन्हें इस अतिमहत्त्वपूर्ण पद पर बिठाने का जोखिम उठाएगी? इतना तो निश्चित है कि इस पद के लिए उनसे ज्यादा उपयुक्त उम्मीदवार कोई नहीं हो सकता.
फ्लडलाइट मैच बिजली की बर्बादी
आज फ्लडलाइट में भारत और आस्ट्रेलिया के बीच एकदिवसीय चंडीगढ़ में हो रहा है, दिवा-रात्रि मैच. मोहाली स्टेडियम दुधिया रौशनी में नहाया हुआ है. हजारों वाट के बल्ब जल उठे हैं. दिन-रात के मैच आयोजित करने के पक्ष में क्या तर्क दिए जा सकते हैं मैं नहीं जानना चाहता. लेकिन इन मैचों में बेवजह हजारों वाट बिजली बर्बाद जरूर हो रही है. क्या ये मैच दिन में नहीं कराये जा सकते? पहले होते ही थे. भारत जैसे बिजली की कमी से जूझ रहे देश के लिए जहाँ उद्योगों को देने के लिए ही पर्याप्त बिजली नहीं है खेल-खेल में खेल के लिए बिजली बर्बाद करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता. आखिर दिन में खेलने और खेल देखने में क्या परेशानी है? क्या इसे विलासिता नहीं कहा जाये? मैं भारत सरकार से निवेदन करता हूँ कि संवेदनहीनता का परित्याग करते हुए बीसीसीआई को आदेश दे कि आगे से सभी क्रिकेट मैच दिन में ही आयोजित किये जाएँ. बिजली की बर्बादी कहीं-न-कहीं ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने में भी भूमिका निभाता है यह भी हमें नहीं भूलना चाहिए.
नौकरशाह और आम आदमी
भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है और किसी भी प्रजातंत्र में नैतिकता का महत्व सर्वाधिक होता है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस शासन व्यवस्था में सभी काफी हद तक स्वतंत्र होते हैं. कहने का अर्थ यह कि सब कुछ चेक एंड बैलेंस के सिद्धांत पर काम करता है. हर कोई किसी-न-किसी के प्रति जवाबदेह होता है. जब तक यह जवाबदेही का भाव लोगों के मन में होता है सबकुछ ठीक-ठाक चलता है. पर जैसे ही चेक करनेवाले भ्रष्ट और बिकाऊ होने लगते हैं बैलेंस भी बिगड़ जाता है. कुछ ऐसे ही दौर से गुजर रहा है सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा. अभी मैं अपने शहर के विश्वप्रसिद्ध कोनहरा घाट पड़ कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर गंगा स्नान करने गया था. लौटते समय एक लालबत्ती की गाड़ी ने भीड़-भाड़वाले उस इलाके में मुझे पीछे से धक्का मारा जो गाड़ियों के लिए प्रतिबंधित था. ऐतराज जताने पर पातेपुर के बीडीओ जिनकी वो गाड़ी थी का ड्राईवर ठसक के साथ बोला होर्न सुनाई नहीं पड़ता है क्या? मैंने कहा प्रतिबंधित क्षेत्र में आप गाड़ी ले कैसे आये? सुनते ही वह खाकीधारी तमककर गाड़ी से उतरने लगा. मेरे मन में उसके इरादों के प्रति कोई संदेह नहीं था. मैं कहा भाई साहब मैं पत्रकार हूँ और आप जो कुछ कर रहे हैं वह ठीक नहीं है. वह फुर्ती से गाड़ी में चढ़ गया. बीडीओ साहब ने मुझसे मामले को रफा-दफा करने का अनुरोध किया. लेकिन जहाँ तक मैं समझता हूँ अगर मैं पत्रकार नहीं होता तो इन्टरनेट पर बैठने के बजाये अस्पताल में होता. तो श्रीमान यह है भारत के एक छोटे नौकरशाह का आम आदमी के प्रति रवैया. मैं उनके मन में तो घुस नहीं सकता लेकिन उनके व्यवहार से यह पता तो चल ही जाता है कि वे अपने को आम-आदमी से अलग मानते है. जो भाव कभी मानवों के प्रति देवताओं के मन में हुआ करता था कुछ वैसा ही ये नौकरशाह आम-आदमी के बारे में सोंचते हैं. शायद हम उनकी नज़रों में इन्सान हैं ही नहीं पशु हैं, जिन्हें हलाल किया जा सकता है, अपने मनमाफिक प्रयुक्त किया जा सकता है. फ़िर इनसे मानवाधिकारों के पालन की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है? मानवाधिकार मानवों के लिए है पशुओं के लिए नहीं.
अब तेरा क्या होगा कोड़ा
मैंने अपने एक लेख में कुछ ही दिनों पहले यह आशंका व्यक्त की थी कि कांग्रेस झारखण्ड में हुए संस्थागत लूटपाट में खुद को पाकसाफ साबित करने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को बलि के बकरे की तरह इस्तेमाल करेगी. आशंका सत्य सिद्ध हुई और कोड़ा और उनके निर्दलीय मंत्रीमंडलीय सहयोगियों के खिलाफ लगातार छापे मारे जा रहे है और जो तथ्य सामने आ रहे है वे निश्चित रूप से चौंकानेवाले हैं. सिर्फ कोड़ा महोदय ने लगभग ५०० करोड़ का विदेशों में निवेश कर रखे हैं. उनकी कुल संपत्ति का आंकडा तो २००० करोड़ रूपये से भी ऊपर पहुँच चुका है. अगर यह धन हमारे देश में होता तो देश को कुछ तो लाभ होता लेकिन हमारे देश से लूटा गया धन दूसरे देश की अर्थव्यवस्था को फायदा पहुंचा रहा है. इसमें कोई संदेह नहीं की केंद्र सरकार का यह कदम सराहनीय है लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिय कि कोड़ा एक कमजोर राजनेता थे और हैं. इसलिय उन पर कार्रवाई करना कठिन काम नहीं था. केंद्र अगर इसी तरह की जाँच अपनी पार्टी के सुबोधकांत सहाय के विरुद्ध करती तो उसकी सदेच्छा पर कोई भी उंगली उठाने का साहस नहीं करता क्योंकि झारखण्ड का बच्चा-बच्चा जानता है श्री सहाय ही नहीं झामुमो के शिबू शोरेन भी इस लूट में हिस्सेदार रहे हैं और उन्होंने भी करोड़ो की संपत्ति बनाई है. मायावती, लालू प्रसाद यादव, जयललिता के खिलाफ पहले से ही भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं और केंद्र का उनके प्रति उदार रवैया रहा है. मोबाइल स्पेक्ट्रम वितरण मामले में बुरी तरह फंसे दूरसंचार मंत्री को तो सीधे तौर पर केंद्र सरकार बचाने में भी लगी दिखाई दे रही है. कहने का लब्बोलुआब यह ही कि भ्रष्टाचार के सभी मामलों में निष्पक्षतापूर्वक गुण-दोष के आधार पर कार्रवाई होनी चाहिए न कि अपनी सुविधा के आधार पर.
रविवार, 1 नवंबर 2009
रामभरोसे हिन्दू होटल
कई वर्ष पहले की बात है मैं उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा देने जौनपुर गया था. जौनपुर में दो स्टेशन हैं. मैं उत्तरवाले स्टेशन पर उतरा था. स्टेशन के पास एक होटल का बोर्ड लगा था. नाम था रामभरोसे हिन्दू होटल. तफ्तीश करने पर पता चला कि रामभरोसे होटल के मालिक का नाम है. खैर वह तो नाम का ही रामभरोसे था. वहां सारी व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त थी. लेकिन अगर आप कथित रूप से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत पर नज़र डालें तो पूरा-का-पूरा देश ही रामभरोसे चल रहा है. एक शायर ने कभी कहा था-बर्बादे गुलिस्तां के लिए बस एक ही उल्लू काफी है, हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा? एक नज़र केंद्रीय मंत्रिमंडल पर डाल कर देखिये और बताईये कि कितने मंत्री देशभक्त और ईमानदार हैं? आप पाएंगे कि इनमें से अधिकतर मंत्रियों की असली जगह मंत्रिमंडल की बैठकों में नहीं जेलखाने में है. विंस्टन चर्चिल ने भारत की आजादी के समय यह आशंका व्यक्त की थी कि भारत के लोग अपनी स्वतंत्रता की हिफाज़त शायद ही कर पाएंगे. मुझे खुद भी आश्चर्य हो रहा है कि देश अब तक गुलाम क्यों नहीं हुआ? जबकि इसके रग-रग में भ्रष्टाचार का दूषित खून प्रवाहित हो रहा है यह किस तरह एक-एक दिन और एक-एक साल गुजरता जा रहा है?
शनिवार, 31 अक्टूबर 2009
जाति न पूछो बुद्धिजीवियों की
जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ यानि कि होश संभाला बराबर एक शब्द से पाला पड़ने लगा. न तो आज तक मैं उसका अर्थ ही समझ पाया हूँ और न ही परिभाषा जान पाया हूँ. भाइयों एवं बहनों वो शब्द था और है-बुद्धिजीवी. जहाँ तक शब्दार्थ की बात है तो इसका मतलब होता है-बुद्धि पर जीनेवाला यानि यानि बुद्धि की कमाई खानेवाला. अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि दुनिया में बुद्धिजीवियों का दायरा काफी बड़ा है. इसके अन्तर्गत वे सभी आ जाते है जो मेहनत का काम नहीं करते फ़िर भी कमा लेते हैं. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि शारीरिक मेहनत में लगे लोग बुद्धि से काम नहीं लेते. हाँ उस पर पूरी तरह निर्भर नहीं होते. लेकिन पत्रकारिता जगत में बुद्धिजीवी वे हैं जिनके आलेख या फीचर लगातार अख़बारों में छपते हों या फ़िर रेडियो-टी.वी. पर राय देने के लिए बुलाये जाते हों. बुद्धिजीवियों की कोई जाति नहीं होती उनकी अपनी अलग ही जाति है. शायद यही कारण है कि उन्हें पाला बदलने में कोई कठिनाई नहीं होती. सरकार बदली नहीं कि वे समाजवादी से मध्यमार्गी या हिंदूवादी बन जाते है. ऐसे ही लोगों को कभी महाकवि मुक्तिबोध ने शोषकों के साथ गर्भनालबद्ध कहा था. जिस देश में ऐसे सुविधाभोगी सत्ता से चिपके हुए बुद्धिजीवी मौजूद हों वहां न तो कोई आन्दोलन ही खड़ा करना संभव हो सकता है और न ही परिवर्तन आना या लाना ही आसन है.दुर्भाग्य से भारत में अभी ऐसी ही स्थिति है.मैं युवाओं से निवेदन करता हूँ कि वे इन यथास्थितिवादी बुद्धिजीवियों से सावधान रहें ताकि कालांतर में उन्हें खुद को ठगा हुआ महसूस न करना पड़े.
शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009
परेशानी का पर्याय भारतीय रेल
अभी कुछ ही समय पहले की बात है जब १३ जनवरी, २००९ को भारत के तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने जापानी बुल्लेट ट्रेन पर सवारी की घोषणा की कि भारत में भी बुल्लेट ट्रेन चलायी जायेगी.एक उम्मीद बनी मन में. लेकिन इस मुंबई-पुणे-अहमदाबाद बुल्लेट ट्रेन परियोजना के लिए अनुमानित ३,५५,३०० करोड़ रूपयों का इंतजाम कहाँ से होगा अब तक एक यक्ष-प्रश्न बना हुआ है. मन इसीलिए यह संदेह भी उत्पन्न होता है कि यह घोषणा कहीं राजनीतिक लफ्फेबाजी भर तो नहीं थी. वैसे भी अब लालू रेल मंत्री नहीं हैं. अटलजी की सरकार ने अधोसंरचना में सुधार को जिस तरह प्राथमिकता के आधार पर लिया था और जोर-शोर से काम शुरू किया था. मनमोहन सरकार में न तो जोर दिखाई दे रहा है और न ही शोर ही सुनाई दे रहा है. वक़्त मानों ठहर गया है और ठहर गया है भारत का विकास (इंडिया का नहीं). मैं अक्सर प्रत्येक भारतवासी की ओर से एक सपना देखा करता हूँ की मैं तीन-चार घन्टे में पटना से दिल्ली पहुँच जाऊँगा और अपना काम निपटाकर शाम में घर लौट भी आऊंगा. किसी भी देश के विकास का पहला कदम अधोसंरचना का विकास ही होता है. बिजली, पानी और यातायात की सुचारू व्यवस्था किये बिना किसी भी देश का विकास संभव नहीं है. जहाँ तक भारत की बात है तो कण-कण में व्याप्त भ्रष्टाचार को मिटाए बिना ऐसा हो नहीं सकता. इलाज है भ्रष्टचार के लिए मृत्युदंड की व्यवस्था की जाये और न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में व्यापक पैमाने पर सुधार किया जाये.अंत में मैं आपसे पूछता हूँ कि सिर्फ बुल्लेट ट्रेन चला देने से क्या भारत विकसित देशों की श्रेणी में आ जायेगा? बिलकुल भी नहीं इसके लिए तो बदलना पड़ेगा भारतीयों को अपनी नीति और नीयत को और मिटाना पड़ेगा फर्क कथनी और करनी का.
शर्मनाक हादसा
भारतीय वायु सेना के लिए विमान और हेलीकॉप्टर दुर्घटनाएं कोई नई बात नहीं है. आज ३० अक्टूबर को भी के हेलीकॉप्टर दुर्घटना हुई है. निस्संदेह इस तरह की घटनाएँ सेना के मनोबल के साथ-साथ उन पर देश के भरोसे को भी काम करती है. आखिर क्यों यह सिलसिला रूक नहीं रहा है. जब देश में ऐसा हो तो इसे हम घरेलू मामला मान सकते हैं. लेकिन अभी एकुआडोर में जिस तरह ध्रुव हेलीकॉप्टर ऐन परेड के समय ही मुंह के बल जमीन पर आ गिरा उससे भारत की अंतर्राष्ट्रीय साख निश्चित रूप से प्रभावित होगी. सेना में साजो-सामान की खरीद में व्याप्त भ्रस्ताचार कोई नई बात नहीं है न ही नयी है कुँतरोची सरीखे घपलेबाजों का बाइज्जत रिहा हो जाना. ऐसे में स्थितियों में सुधार की उम्मीद करना ही बेमानी है. हाँ एक बात तो निश्चित है कि इस तरह के हथियारों के बल पर हम चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध नहीं छेड़ सकते. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अब युद्ध में जीत-हार में सैनिक-संख्या से अधिक तकनीकी कुशलता मायने रखती है.
अंतहीन प्रतीक्षा
ज़िन्दगी मेरे साथ क्रूर जमींदार की तरह व्यवहार करती रही है;
करवाती रही है मुझसे दिन-रात बेगार और जमा-हासिल कुछ भी नहीं.
मैं करता रहा हूँ कड़ी मेहनत,
मैंने कभी मौसमी परेशानियों
सर्दी,गर्मी और बरसात की नहीं की फ़िक्र.
ज़िन्दगी मुझे बार-बार पढाती
रही गीता का श्लोक,
कि कर्म करते रहो मत करो
फल की चिंता;
जो तुम्हारे हाथों में है वही
तुम देखो,
बांकी का हिसाब-किताब
छोड़ दो मुझ पर;
और करते रहो सही वक़्त का इंतजार.
इसी तरह ढलती रहीं शामें,
कटती रही रातें;
निकलता रहा सूरज रोज
गुलाबी चादर ओढे;
लेकिन नहीं हुआ मेरा हिसाब
खाली रहे हाथ भन्नाता रहा दिमाग,
कहते हैं कि प्रतीक्षा की घड़ी
लम्बी होती है;
पर मैंने तो उसे अंतहीन होते देखा है.
करवाती रही है मुझसे दिन-रात बेगार और जमा-हासिल कुछ भी नहीं.
मैं करता रहा हूँ कड़ी मेहनत,
मैंने कभी मौसमी परेशानियों
सर्दी,गर्मी और बरसात की नहीं की फ़िक्र.
ज़िन्दगी मुझे बार-बार पढाती
रही गीता का श्लोक,
कि कर्म करते रहो मत करो
फल की चिंता;
जो तुम्हारे हाथों में है वही
तुम देखो,
बांकी का हिसाब-किताब
छोड़ दो मुझ पर;
और करते रहो सही वक़्त का इंतजार.
इसी तरह ढलती रहीं शामें,
कटती रही रातें;
निकलता रहा सूरज रोज
गुलाबी चादर ओढे;
लेकिन नहीं हुआ मेरा हिसाब
खाली रहे हाथ भन्नाता रहा दिमाग,
कहते हैं कि प्रतीक्षा की घड़ी
लम्बी होती है;
पर मैंने तो उसे अंतहीन होते देखा है.
बुधवार, 28 अक्टूबर 2009
क्या फिर से पत्रिकाओं का जमाना वापस आ रहा है?
मैं एक मुकदमे के सिलसिले में अपने वकील से मिलने हाजीपुर कोर्ट की तरफ जा रहा था. आप सोंच रहे होंगे कि क्या मैं ऐसा-वैसा आदमी हूँ? अरे नहीं जमीन-जायदाद का मुकदमा है और दूसरा पक्ष चचेरा मामा है. खैर रास्ते में भेंट हो गई हिंदुस्तान अख़बार के हाजीपुर संवाददाता श्री सुरेन्द्र मानपुरी से. मानपुरीजी मेरे पिता की उम्र के हैं और पत्रकारिता विधा पर कई पुस्तकें लिख चुके हैं. एक चलता-फिरता पुस्तकालय. मुझे उनका स्नेह-पात्र होने का सौभाग्य प्राप्त है. आरम्भ में कुछ हल्की-फुल्की बातचीत शुरू हुई. धीरे-धीरे वार्तालाप ने गंभीर रूप अख्तियार कर लिया. मैंने उनका ध्यान बिहार के समाचार-पत्रों के गिरते स्तर की ओर दिलाया, जिसे उन्होंने खुले हृदय से स्वीकार भी किया. साथ-ही उनका मानना था कि समाचार-पत्रों का युग अब समाप्त समाप्ति की ओर है और एक बार फ़िर पत्रिकाओं का जमाना आनेवाला है. मैंने पूछा वो कैसे तो उन्होंने प्रथम प्रवक्ता को इसका श्रेय देते हुए कहा कि इस पत्रिका ने गंभीर पाठकों के बीच अपनी गहरी पैठ बना ली है और स्टालों पर आने के साथ ही गायब हो जाती है. उनकी बातों ने मुझे भी सोंचने पर मजबूर कर दिया कि क्या वास्तव में प्रथम प्रवक्ता में वह स्थान प्राप्त करने की योग्यता है जो कभी धर्मयुग ने अर्जित किया था? प्रथम प्रवक्ता के संपादक रामबहादुर राय जी हैं जो हिंदी के वरिष्ठतम पत्रकारों में से एक हैं. यही कारण है कि प्रभाष जोशी आदि नामी-गिरामी पत्रकारों का सहयोग उन्हें सहज ही प्राप्त हो जाता है. स्वयं रामबहादुर जी बहुत अच्छे स्तंभकार हैं. लेकिन पत्रिका का झुकाव हिन्दुवाद की ओर आसानी से देखा जा सकता है और इसे हम पत्रिका की कमजोरियों में शुमार कर सकते हैं. साथ ही न ही पत्रिका में वह विषयगत विविधता है जो धर्मयुग में पाई जाती थी न ही सामग्रियों का स्तर ही वैसा है. साथ ही जिस समय मानपुरीजी ने यह टिपण्णी की थी उस समय इसका दाम कम करके ५ रूपया कर दिया गया था. अब जबकि फ़िर से इसका मूल्य १० रूपया कर दिया गया है तो देखना है कि इसकी बिक्री पर क्या असर पड़ता है?
सोमवार, 26 अक्टूबर 2009
विपक्षहीनता की ओर अग्रसर भारतीय राजनीति
हाल में हुए लोकसभा और फिर विधानसभा चुनावों के परिणामों से ऐसा परिलक्षित हो रहा है कि भारत की मुख्या विपक्षी पार्टी भाजपा के पास कोई ऊर्जा बची ही नहीं है. उसके पास न तो कोई मुद्दा है और न ही मुद्दा बना सकने का मदद ही बचा है. जिससे भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में विपक्षहीनता की स्थिति एक बार फ़िर उत्पन्न होती जा रही है. दुनिया के किसी भी विकसित देश को लें तो उनका तेज गति से विकास तभी संभव हो सका है जब विपक्ष भी मजबूत रहा हो. स्वतंत्रता के बाद तीस सालों तक विपक्ष लगभग गायब रहा और भारत में एकदलीय लोकतंत्र जैसी स्थिति बनी रही जिसकी परिणति रही आतंरिक आपातकाल और ७४ का जनांदोलन. तो क्या देश फ़िर से उसी ओर बढ़ रहा है? अगर यह सच है तो निश्चित रूप से विकसित हो रही यह प्रवृत्ति देशहित में नहीं है. देश में भी उन्हीं राज्यों का तेज विकास हुआ है जहाँ राजनीति के दो ध्रुव मौजूद हैं और सत्ता उनके बीच लगातार बदलती रही है. तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है. इतिहास गवाह है कि एकदलीय लोकतंत्र जैसी स्थितियां न तो साठ-सत्तर के दशक में राष्ट्रहित में थीं न आगे हीं देश को इससे फायदा होगा. और फ़िर भीषण महंगाई, मंदी और बेरोजगारी के इस और में विपक्ष में सक्रियता की कमी और भी साल रही है. परिस्थितियां जनांदोलन के लिए पूरी तरह से अनुकूल है परन्तु भाजपा उसका नेतृत्व संभाल पाने की स्थिति में है ही नहीं. इससे देश और जनता को जो नुकसान उठाना पड़ रहा है उसके लिए कहीं-न-कहीं भाजपा का वर्तमान नेतृत्व दोषी है. हाल ही में नक्सल कार्रवाई ने जो गति पकड़ी है उसके पीछे भी कहीं-न-कहीं जनता के समक्ष मुंह बाये खड़ी विकल्पहीनता भी जिम्मेदार है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विकल्पहीनता भटकाव की ओर ले जाती है.
मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009
एकरूपता लाएं हिंदी अख़बार
हिंदी भारत की राजभाषा की अधिकारिणी होते हुए भी नहीं है जबकि हमें आजाद हुए ६ दशक बीत चुके हैं. हिंदी की इस दुर्गति में तथाकथित हिंदी सेवी अख़बारों का काम योगदान नहीं रहा है. सारे अख़बार स्टाइल शीट के नाम पर अपनी डफली अपना राग बजा रहे हैं. अभी दीपावली में कोई दिवाली लिख रहा था तो कोई दीवाली. इतना ही नहीं सारे अख़बारों के फांटों में भी एकरूपता का घोर आभाव है जिससे इन्टरनेट से सामग्री को सेव या कॉपी करना मुश्किल ही नहीं असंभव बन गया है. अंग्रेजी में इस तरह कि कोई समस्या नहीं है. आनेवाला युग इन्टरनेट का ही है और शब्दरूपों और फौंटों में विविधता से हिंदीभाषियों के लिए जहाँ भ्रम की या असमंजस की स्थिति पैदा होती है वहीँ अहिन्दीभाषी लोगों के लिए हिंदी सीख पाना दुरूह हो जाता है और इसलिए बेवजह हिंदी पर कठिन होने का आरोप लगाया जाता है. हालाँकि इन्टरनेट पर हिंदी में सामग्री उपलब्ध है लेकिन उन्हें भी एसएमएस की तरह रोमन में लिखना पड़ता है इस तरह हिंदी की-बोर्ड का प्रयोग ही हिंदी प्रेमी नहीं कर पाते अगर फौंटों में एकरूपता होती तो यह समस्या नहीं खड़ी होती. जहाँ तक बिहार के अख़बारों का सवाल है तो हम पत्रकार मात्रा डेढ़-दो सौ शब्दों से काम चलाते हैं और उनका भी सही प्रयोग नहीं कर पाते. अधिकांश अख़बारों में आगज़नी और अगलगी में कोई अंतर नहीं होता. शीर्षकों में ही गलतियों की भरमार होती है, वर्तनी सम्बन्धी भी और व्याकरणिक भी; फ़िर मुख्य भाग का तो भगवान ही मालिक है. ऐसा क्यों ही मैं इसका पोस्टमार्टम नहीं करना चाहता लेकिन इतना तो निश्चित है कि बिहार में अख़बार पढने से बच्चों की भाषा के बिगाड़ने का खतरा उत्पन्न हो गया है. अब आप ही बताईये क्या इसे हिंदी सेवा कहेंगे या हिंदी के विनाश का प्रयत्न. यह हिंदी के प्रति मित्रतापूर्ण नहीं बल्कि शत्रुतापूर्ण व्यवहार है.
आभिजात्यता के पोषक सिब्बल
केंद्र की यूपीए सरकार बात भले ही आम आदमी की करे उसके कई मंत्री आभिजात्यता के अंध समर्थक की तरह व्यवहार करते हैं. अभी विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर द्वारा इकोनोमी क्लास को मवेशियों का बाड़ा कहने का विवाद अभी थमा भी नहीं था कि उसके एक और मंत्री कानूनी दांव-पेंच में माहिर कपिल सिब्बल ने यह कहकर हंगामा खडा कर दिया है कि आईआईटी में फॉर्म भरने के लिए निर्धारित बारहवीं के प्राप्तांक को बढाकर ८०-८५ प्रतिशत किया जायेगा. निहितार्थ यह कि अब भारत के ग्रामीण क्षेत्रों से आनेवाले छात्र-छात्राएं इस परीक्षा से वंचित कर दी जाएँगी. राहुल गाँधी के शब्दों में अगर हम कहें तो अब केवल इंडिया से आनेवाले लोग ही इंजिनियर बनेंगे भारत में रहनेवाले लोगों के लिए इंजीनियरिंग में प्रवेश का यह राजपथ बंद हो जायेगा. अब यह तो कांग्रेस नेतृत्व को ही पता होगा कि आम आदमी की सरकार को आम आदमी के साथ होना चाहिए या आभिजात्य वर्ग के पक्ष में. अगर अब भी यह सरकार अपने को आम आदमी की सरकार कहती है तो इसे परले दर्जे की बेशर्मी ही कही जायेगी.
आलू, लालू और बालू
कभी बिहार के नीति-नियंता रहे लालू प्रसाद ने बिहार के बँटवारे के समय कहा था कि अब बिहार में सिर्फ तीन ही चीजें बचेंगी आलू, लालू और बालू. सत्ता सुख में डूबे लालू के दिमाग में शायद यह बात कहीं भी नहीं थी कि समय इतिहास रचने का अवसर किसी भी व्यक्ति को बार-बार नहीं देता. एक राज्य की तक़दीर बदलने के लिए १५ साल का वक़्त कोई कम नहीं होता.
अब जब भाग्य उनका साथ नहीं दे रहा है तो वे झूठ-सच का सहारा लेने को उतारू हैं. नीतिश जी को भी सत्ता में आये चार साल पूरे हो चुके हैं और चुनाव की आहट धीरे-धीरे निकट आती सुनाई दे रही है. बिहार ने इन चार सालों में बहुत-कुछ देखा है, बहुत कुछ बदला भी है लेकिन दुर्भाग्यवश आज भी बिहार हर मामले में भारत के राज्यों में नीचे से प्रथम है. ऐसा क्यों है? एक होशियार माने जानेवाले नेता के हाथों में नेतृत्व होने के बावजूद स्थितियां बदलने के बाद भी आकडे क्यों नहीं बदले? मेरा मानना है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि राज्य सरकार की नीयत के बारे में तो मैं कह नहीं सकता लेकिन निश्चित रूप से नीति ठीक नहीं रही. बात वह शिक्षा में सर्वांगीण सुधार की करती रही लेकिन बहाली में निर्धारित प्रक्रिया और मानदंडों का पालन सुनिश्चित नहीं करा पायी. इसी तरह नरेगा, आंगनबाडी आदि योजनायें बिहार में पूरी तरह विफल सिद्ध हुई. अब स्थिति सांप-छछूंदर वाली है. इन कर्मियों को न तो वह हटा ही सकती है और न ही रख ही सकती है. हटाने से भी जनता में नाराज़गी उत्पन्न होगी और न हटाने से भी. एक कालोनी में नालियां बनाने में ही चार साल ख़त्म हो गए और काम अभी भी ६० प्रतिशत के लगभग ही हुआ है. इन बातों से और बार-बार पुलिस द्वारा जुल्म ढाये जाने की खबरों से तो यही जाहिर होता है कि सरकार स्थानीय निकायों और प्रशासनिक अधिकारियों पर नियंत्रण नहीं रख पाई और जनादेश से मिले बहुमूल्य अवसर को गँवा बैठी. अब आनेवाले चुनाव में क्या होगा कोई भी इसका अनुमान नहीं लगा सकता.
अब जब भाग्य उनका साथ नहीं दे रहा है तो वे झूठ-सच का सहारा लेने को उतारू हैं. नीतिश जी को भी सत्ता में आये चार साल पूरे हो चुके हैं और चुनाव की आहट धीरे-धीरे निकट आती सुनाई दे रही है. बिहार ने इन चार सालों में बहुत-कुछ देखा है, बहुत कुछ बदला भी है लेकिन दुर्भाग्यवश आज भी बिहार हर मामले में भारत के राज्यों में नीचे से प्रथम है. ऐसा क्यों है? एक होशियार माने जानेवाले नेता के हाथों में नेतृत्व होने के बावजूद स्थितियां बदलने के बाद भी आकडे क्यों नहीं बदले? मेरा मानना है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि राज्य सरकार की नीयत के बारे में तो मैं कह नहीं सकता लेकिन निश्चित रूप से नीति ठीक नहीं रही. बात वह शिक्षा में सर्वांगीण सुधार की करती रही लेकिन बहाली में निर्धारित प्रक्रिया और मानदंडों का पालन सुनिश्चित नहीं करा पायी. इसी तरह नरेगा, आंगनबाडी आदि योजनायें बिहार में पूरी तरह विफल सिद्ध हुई. अब स्थिति सांप-छछूंदर वाली है. इन कर्मियों को न तो वह हटा ही सकती है और न ही रख ही सकती है. हटाने से भी जनता में नाराज़गी उत्पन्न होगी और न हटाने से भी. एक कालोनी में नालियां बनाने में ही चार साल ख़त्म हो गए और काम अभी भी ६० प्रतिशत के लगभग ही हुआ है. इन बातों से और बार-बार पुलिस द्वारा जुल्म ढाये जाने की खबरों से तो यही जाहिर होता है कि सरकार स्थानीय निकायों और प्रशासनिक अधिकारियों पर नियंत्रण नहीं रख पाई और जनादेश से मिले बहुमूल्य अवसर को गँवा बैठी. अब आनेवाले चुनाव में क्या होगा कोई भी इसका अनुमान नहीं लगा सकता.
रविवार, 18 अक्टूबर 2009
जब कदम ही साथ न दे
कभी फ्रेंच चिन्तक रूसो ने कहा था कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है लेकिन दुनिया में आते ही जंजीरों में जकड़ जाता है. उसने तो ऐसा तत्कालीन फ्रांस के शासकों के शोषण से परेशान नागरिकों के बारे में कहा था. क्या हम परिस्थितियों के गुलाम हैं. अगर हर कोई ऐसा ही सोंचने लगे तो दुनिया का क्या होगा? मन कि यह हमारे हाथों में नहीं होता कि हम अमीर घर में पैदा होंगे या गरीब घर में. लेकिन बाद की स्थितियों का महत्व होता तो है पर इतना ज्यादा भी नहीं कि सबकुछ वही हो जाये और हमारी भूमिका सिर्फ मूकदर्शक की रह जाये. अगर हमारे पूर्वजों ने परिस्थितियों को ही सब कुछ मान लिया होता तो हम आज भी गुलाम होते. या फ़िर मानव आज भी बैलगाड़ी चला रहा होता. फ़िर भी इतना तो निश्चित है कि परिस्थितियां हमारे हाथों में नहीं होती. हमारे तों में होता है उनका सामना करना. साधन हमारे हाथों में होते हैं. शायद इसलिए गाँधी जी (मेरा मतलब महात्मा गाँधी से है न कि गाँधी-नेहरु परिवार के किसी सदस्य से) ने साधन की पवित्रता पर इतना जोर दिया था. बोए पेड़ बाबुल का जैसे हिंदी कहावत भी इसी ओर इशारा करते हैं. शेरदिल इंसान को परिस्थिति रूपी पिंजरा अपने भीतर बंद नहीं कर सकता. कई बार हमारे जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब हमें लगता है कि जैसे हम बंद गली के आखिरी मकान को भी पार कर चुके हैं और जीवन का अंत आ गया है. लेकिन जिन्दगी रूकती नहीं है. परिस्थितियों के निर्माण में कहीं-न-कहीं हमारी सोंच का, हमारे कर्मों का भी हाथ होता है. भगत और गाँधी का बचपन अलग-अलग माहौल में बीता और इसका प्रभाव हम उनकी सोंच और उनके कार्यों में देख सकते हैं. इनमें किसी को भी हम गलत नहीं ठहरा सकते. हाँ इतना निश्चित है कि गाँधी को जिस तरह व्यापक जनसमर्थन प्राप्त हुआ वैसा भगत को नहीं मिला और उन्हें जनता ने काफी हद तक अपराधी ही माना क्योंकि उनका मार्ग हिंसा का था और इतिहास गवाह है कि भारत में अशोक, अकबर जैसे शासकों को महान कहा गया अलाउद्दीन या गोरी को नहीं. मतलब यह कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी बुरी क्यों न हो विवेक से काम लें. मानव विवेकी जीव है और उसके जीवन में कभी विकल्पों का अकाल नहीं पड़ता. उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ते कार्याणि न मनोरथै. भले ही गली बंद हो कहीं न कहीं से जाने का मार्ग मौजूद अवश्य होता है थोड़ा लम्बा भले ही हो.
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